दुनिया भर में हो रहे तथाकथित विकास की प्रक्रिया ने प्रकृति व पर्यावरण का सामंजस्य बिगाड़ दिया है। इस असंतुलन से लद्दाख जैसा प्राकृतिक क्षेत्र भी अछूता नहीं है। 20-25 साल पहले यहां ऋतु चक्र बहुत संतुलित था मगर अब इसमें अनिश्चतता आ गयी है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमनद तेज गति से पिघल रहे हैं। इस कारण पानी की कमी हो जाती है। पहाड़ों पर लंबे समय तक बर्फ न टिक पाने के कारण वहां घास नहीं उग पा रही है। इससे अनेक वन्य जीव इंसानी आबादी के निकट आ जाते हैं, जो सबके लिए खतरा है। यदि मौसम में ऐसी अनियमितताएं अगले 10 वर्षों तक जारी रहीं तो अनेक वन्य जंतुओं के लुप्त होने की आशंका है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण वह भेड़ें हैं जिनसे पशमीना की ऊन मिलती है। प्रकृति ने इन्हें ठंडे क्षेत्र का प्राणी बनाया है ताकि अधिक ऊन मिल सके, परन्तु यदि इन क्षेत्रों में गर्मी ऐसे ही बढ़ती रही तो कुछ समय में यह विशेष क्वालिटी की ऊन दुर्लभ हो जाएगी।
लद्दाख के अधिकतर गांव हिमनद के पानी पर निर्भर हैं जो कम हिमपात के कारण घटते जा रहे हैं और बढ़ती गर्मी के कारण शीघ्र पिघल भी रहे हैं। ऐसे में ग्रामवासियों को शायद अन्य स्थानों की ओर प्रवास करना पड़े क्योंकि अगले 20-30 सालों में उनके गांवों में पानी उपलब्ध नहीं होगा। पहले लेह में प्रदूषण मुख्यत: श्रीनगर जैसे विकसित पड़ोसी क्षेत्रों के कारण होता था। मगर अब तो लद्दाखी स्वयं इसको बढ़ा रहे हैं। आज लेह में मोटर गाड़ियों की संख्या खतरनाक स्तर तक बढ़ रही है क्योंकि हर कोई व्यक्तिगत वाहन रखना चाहता है। निर्माण गतिविधियों के दबाब के कारण भारी गाड़ियों की संख्या बढ़ी है। परोक्ष रूप से सेना भी इसके लिए जिम्मेदार है। उसके पास बड़ी संख्या में गाड़ियां हैं और डीजल जेनेरेटरों का लगातार उपयोग भी कई कारणों से हो रहा है। बाहर से आये लोग भी प्रदूषण बढ़ाने में योगदान देते हैं, एक तरफ जहां श्रमिक गर्मी पाने व खाना पकाने के लिए रबड़ के टायर, प्लास्टिक, पुराने कपड़े आदि जलाते हैं वहीं गर्मी में जब यहां पर्यटन चरम सीमा पर होता है, पर्यटक पानी व अन्य पेय पदार्थों की बोतलें और पाउच आदि जगह-जगह फेंकते रहते हैं।
बढ़ते पर्यटन के कारण गेस्ट हाउस और होटलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इससे पानी की खपत बढ़ी है। स्थानीय नागरिक पानी बचाने के लिए शुष्क शौचालयों का प्रयोग करते थे जो अब कम होते जा रहे हैं। घरों व होटलों आदि के कूड़े-करकट को खुले स्थानों पर फेंका जा रहा है जिससे पर्यावरण और भी दूषित हो रहा है। यहां सफाई व कचरा प्रबंधन की पारंपरिक व्यवस्था चरमरा रही है आशंका है कि अनियंत्रित कचरा व मल पानी के मुख्य स्रोतों को भी प्रदूषित न कर दे। ध्वनि प्रदूषण भी यहां के वातावरण को प्रभावित कर रहा है। कुछ समय पहले तक सामाजिक अवसरों पर तथा त्योहारों में पारंपरिक ढोल (दमन) व बासुंरी (सुरना) के मीठे स्वर झंकृत होते थे पर यह संगीत अब खो गया है। इनका स्थान अब आधुनिक तकनीकी साधनों ले रहे हैं। बहरहाल, लद्दाख अपनी सुदंरता खो रहा है और स्थानीय लोग सोच रहे है कि आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या कोई इन्हें संजो पाएगा?
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