बरसात में पानी बढ़ते ही बांधों से पानी छोड़ने का सिलसिला तेज हो जाता है। गर्मी और जाड़े में अधिकारी मछली मारने के लिए इन जलाशयों के पानी बहा देते हैं जो आम आदमी के काम नहीं आ पाता और बरसात में जब बांधों पर दबाव बनता है तो उनके हाथ-पांव फूल जाते हैं। गर्मी और जाड़े में बांधों की मरम्मत हो सकती है, उसकी दरारें भरी जा सकती हैं, लेकिन इस अतिरिक्त जिम्मेदारी का निर्वहन कौन करे?
आंध्र प्रदेश के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के 24 छात्र व्यास नदी में बह गए। पांच छात्रों के शव तो मिल गए, लेकिन शेष 19 छात्रों का अभी तक पता नहीं चला है। यह दुखद घटना हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में हुई। ऐसा लारजी पनबिजली परियोजना से अचानक पानी छोड़ दिए जाने की वजह से हुआ। किसी भी डैम से पानी छोड़ने के अपने मानक होते हैं।कितना पानी छोड़ना है, कितने-कितने अंतराल पर छोड़ना है, यह तय करना होता है। यही नहीं, पानी छोड़ने की सूचना भी देनी होती है, लेकिन सरकारी अधिकारियों के लिए कायदे-कानून कोई खास मायने नहीं रखते। उनकी मनमानी की कीमत लोगों को किस हद तक चुकानी पड़ती है, इसका तो उन्हें भान भी नहीं होता।
परियोजना के एई के निलंबन या मामले की न्यायिक जांच कराने भर से जनता के दुखों का अंत नहीं हो जाता। निलंबन या जांच किसी समस्या का निदान नहीं है। आजादी के इतने साल बाद भी अगर हमें जन सांत्वना के वही पुराने टोटके अपनाने पड़ रहे हैं तो समझा जा सकता है कि हम अपने दायित्वों के प्रति कितने जवाबदेह हैं।
दरअसल, इस घटना के लिए समूचा तंत्र दोषी है। डैम में जलस्तर अचानक तो नहीं बढ़ गया होगा और अगर बांध या जलविद्युत परियोजना को बचाने के लिए पानी का छोड़ा जाना इतना ही आवश्यक था तो इसकी सूचना क्यों नहीं दी गई? नदी के उन स्थानों पर जहां पर्यटकों का आना-जाना होता है, वहां चेतावनी बोर्ड क्यों नहीं लगाए गए? यह घटना पहली और अंतिम नहीं है। इससे पहले भी इस तरह की अनेक घटनाएं हुई हैं और हर बार असावधानियां भी एक जैसी ही रही हैं।
हादसों से हमने कभी भी सबक लेने की जरूरत नहीं समझी। केवल हादसों के स्थान अलग रहे। हताहतों के चेहरे अलग थे। गलतियों को अंजाम देने वाले अधिकारी और कर्मचारी अलग थे। हम इंतजार करते हैं किसी बड़े हादसे के हो जाने का। हम सक्रिय भी होते हैं तो किसी बड़े हादसे के बाद ही। तभी हमें जागृति का मूल्य समझ में आता है।
सवाल यहां ये भी उठता है कि हैदराबाद के इंजीनियरिंग कॉलेज के 24 छात्र हिमाचल प्रदेश कैसे पहुंच गए? क्या उनके साथ कॉलेज के कर्मचारी और अधिकारी भी थे और अगर नहीं तो क्या कॉलेज प्रबंधन को अपने इतने छात्रों के मंडी जाने की सूचना थी और यदि नहीं तो इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं?
बहुधा देखने में आता है कि स्कूली छात्र कक्षा से बंक मारकर पिकनिक मनाने चले जाते हैं और इस तरह के हादसों का शिकार हो जाते हैं। इसके लिए कॉलेज प्रबंधन ही नहीं, अभिभावक भी बराबर के जिम्मेदार हैं। नदी में अतिरिक्त पानी छोड़ने वाला तंत्र तो उत्तरदायी है ही। सरकार भी केवल एक विभाग को जिम्मेदार ठहराकर खुद को पाक-साफ नहीं कह सकती।
जब उसे पता है कि यहां पर्यटक आते हैं तो वहां सुरक्षा के इंतजाम करने, गोताखोरों या नावों के प्रबंध भी तो होने चाहिए। प्यास लगने पर कुंआ खोदने की प्रवृत्ति तो किसी के लिए भी फायदेमंद नहीं।
जब बांधों का निर्माण हुआ था तब हमारे मनीषियों ने इसके कम खतरे नहीं गिनाए थे, लेकिन विकास का वास्ता देकर जगह-जगह नदियों के जल को रोका गया। गंगा पर जब अंग्रेज बांध बना रहे थे तो हरिद्वार में महामना मदनमोहन मालवीय आमरण अनशन पर बैठ गए थे। उनका कहना था कि बंधे हुए गंगाजल से आचमन नहीं हो सकता।
बांध निर्माण का दर्द डूब क्षेत्र के विस्थापितों से बेहतर कौन जान सकता है। बांधों के बनने से बिजली उत्पादन तो बढ़ा लेकिन नदियां सूख गईं। पानी के बंटवारे का राज्यों के बीच झगड़ा बढ़ा सो अलग। इस झगड़े में कई पड़ोसी देश भी शामिल हुए। चीन के ब्रह्मपुत्र नदी पर बनने वाले पारचू बांध भारत की चिंता का विषय तो है ही।
गर्मी के दिनों में चीन जगह-जगह बांध बनाकर ब्रह्मपुत्र के पानी को रोक लेता है। उससे बिजली बनाता है और अपने खेतों की सिंचाई करता है। भारत को जाड़े और गर्मी में इसका समुचित लाभ नहीं हो पाता, लेकिन जब बरसात में उसे अपने बांधों के टूटने का खतरा होता है तो वह जल भारत की ओर छोड़ देता है? यहां तबाही मचाने के लिए। नेपाल के साथ भी कमोवेश यही स्थिति है। घाघरा, काली और नेपाल के पहाड़ों से निकलने वाली कई नदियां हर साल बरसात में कहर ढाती है। उत्तर प्रदेश और बिहार के तमाम इलाके जलमग्न हो जाते हैं। इससे जान-माल का भी भारी नुकसान होता है।
बरसात में पानी बढ़ते ही बांधों से पानी छोड़ने का सिलसिला तेज हो जाता है। गर्मी और जाड़े में अधिकारी मछली मारने के लिए इन जलाशयों के पानी बहा देते हैं जो आम आदमी के काम नहीं आ पाता और बरसात में जब बांधों पर दबाव बनता है तो उनके हाथ-पांव फूल जाते हैं। गर्मी और जाड़े में बांधों की मरम्मत हो सकती है, उसकी दरारें भरी जा सकती हैं, लेकिन इस अतिरिक्त जिम्मेदारी का निर्वहन कौन करे?
जल विद्युत परियोजना जरूरी हैं। सिंचाई परियोजनाएं जरूरी हैं। विकास के लिए बांध जरूरी हैं, लेकिन आम आदमी के जान-माल की सुरक्षा भी उतनी ही जरूरी है। राहत और बचाव अंतिम उपाय है। ऐसे हालात बनें ही क्यों? इस पर ध्यान देने की जरूरत है।
जलाशयों से नदियों में पानी छोड़ने की न केवल मुकम्मल रणनीति बननी चाहिए बल्कि राज्यों के बीच पानी के बंटवारे का भी पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि ऐसा होता रहेगा तो ज्यादा जल छोड़ने की नौबत कदाचित न आए। दिल्ली, हरियाणा, कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा के बीच नदियों के जल के बंटवारे की समस्या अक्सर बनी रहती है और बरसात के दिनों में अतिरिक्त जल प्रवाह का खामियाजा भी इन राज्यों को भुगतना पड़ता है।
रही बात पिकनिक के दौरान छात्रों की मौत की तो इसके लिए भी ठोस रणनीति बनाए जाने की जरूरत है। सामाजिक जागरूकता की जरूरत है। शिक्षण संस्थानों को ही नहीं, अभिभावकों के स्तर पर भी सतत् चौकसी जरूरी है कि उनके बच्चे कर क्या रहे हैं? वे पढ़ने के अलावा अन्य किस दिशा में जा रहे हैं।
एक ओर तो देश को तकनीकी शिक्षा से लैस करने की बात हो रही है, वहीं दूसरी ओर दो दर्जन भावी इंजीनियर पनबिजली परियोजना की लापरवाही के चलते असमय काल के गाल में समा जाते हैं, इसे क्या कहा जाएगा? बेहतर होता कि हम सावधानी हटी, दुर्घटना घटी वाली चेतावनी को न केवल हृदयंगम करते बल्कि उसे अपने आचरण में भी उतारते। हादसों के बाद सक्रिय होने से कई गुना बेहतर है, उसके प्रति जागरूक रहना और अगर ऐसा हुआ तो यह देश, समाज ही नहीं, संसार की सबसे बड़ी सेवा होगी।
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