लापोड़िया: जब बाजार काम करता है

लापोड़िया में मुझे पता लगा कि नौ साल के सूखे के दौरान जब वहां 300 मिमी बारिश हुई, तब 300 परिवारों वाले इस गांव ने 17.5 लाख रुपए का दूध बेचा। यह बहुत मूल्यवान सबक है कुछ नई पद्धतियां जीवन बदल देती हैं। मेरी पसंदीदा पद्धति है गांवों में दूध जमा करने की प्रणाली यानी सहकारिता मॉडल। इसके तहत गांवों में एक डेयरी होती है, जहां लोग दूध लेकर आते हैं। डेयरी प्रभारी एक यंत्र पर दूध का नमूना रखता है, उसमें फैट कंटेंट चेक करता है और फैट कंटेंट व दूध की कीमत लिखा हुआ एक पर्चा विक्रेता को दे देता है। सप्ताह में एक बार दूध विक्रेता पर्ची जमा कर उसका भुगतान प्राप्त कर लेते हैं। इन गांवों में हर सुबह सहकारिता की वैन आती है और दूध लेकर जाती है, जिसे नज़दीकी शहरों में बेचा जाता है।

पिछले दिनों राजस्थान के सुदूरवर्ती गाँवों में मैंने इस सिस्टम को काम करते देखा। शाम में मैंने देखा लड़कियाँ, महिलाएं और पुरुष लाइन लगा कर दूध लेकर खड़े थे। उनका दूध चेक किया गया और उन्हें पर्ची मिल गई। मैंने उनसे पूछा कि क्या वे पर्ची पर अंग्रेजी में लिखे नंबर को पढ़ पाते हैं। हालांकि वे भाषा नहीं जानते, लेकिन पर्ची पढ़ना उन्हें आता है। उन लोगों का हिसाब बहुत सरल है। एक भैंस पांच लीटर दूध देती है। इसके फैट कंटेंट के आधार पर एक भैंस का मालिक प्रतिदिन 15 से 25 रुपए प्रति लीटर कमा लेता है। यह रकम सीधे उनके हाथ में आती है और उनके गांव में पहुँचती हैं।

यह गांव लापोड़िया, पिछले नौ साल से लगातार सूखे का शिकार बना है। मौसम विभाग के आंकड़े बताते हैं कि पिछला अच्छा मानसून इस गांव ने 1997 में देखा था। उस समय यहां 700 मिमी पानी गिरा था। उसके बाद से औसतन हर साल 300 से 400 मिमी बारिश होती है। ऐसी स्थिति में पशुपालन ही अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार हो जाता है। इसका कारण यह है कि कृषि के बजाय पशुओं की देखभाल कम जोखिम वाला काम है। इन विपरीत स्थितियों में डेयरी बाजार के साथ इन लोगों का महत्वपूर्ण संपर्क सूत्र है। इससे उन्हें अपनी समस्याओं से निपटने में आसानी होती है।

बाजार और खुदरा बिक्री के पैरोकार निश्चित रूप से यह समझते हैं कि यह प्रणाली बहुत सरल है, लेकिन यह बहुत सरलीकृत नहीं है। उन्होंने आम चारागाहों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए निवेश किया है ताकि सबसे गरीब और हाशिए पर के लोगों को इसका लाभ मिले एक गंभीर जरूरत है क्योंकि सूखे के दिनों में पशुओं के लिए चारे की भारी कमी हो जाती है। कम चारे का मतलब है कम दूध। इसलिए यह हार्डकोर बुनियादी ढांचे में निवेश है, बाजार को चलाए रखने के लिए जरूरी है।

इन गावों में एक अनोखी प्रणाली अपनाई गई, जिसस चौका सिस्टम कहते हैं इसके तहत गांव के लोग मामूली बारिश के पानी को भी रोकते हैं और उससे चारागाह की उत्पादकता बढ़ाते हैं। इसके लिए गांव के लोग एक चौकोर गड्ढ़ा खोदते हैं, जो एक फीट से भी कम गहरा होता है। इसमें अस्थाई रूप से पानी रोका जाता है, जो अंततः तालाब में जाता है। इस तरह से गांव की सार्वजनिक जमीन पानी इकट्ठा करने का बड़ा क्षेत्र बन जाता है। लेकिन आज पूरे भारत में चारा गंभीर रूप से कम हो गया। जहां ज़मीन है, वहां सिंचाई के लिए पानी नहीं है, किसान खेती नहीं कर पाते ताकि वे उसमें उपजने वाले खर-पतवार का इस्तेमाल चारे के रूप में कर सकें। जो सार्वजनिक ज़मीन है, चाहे वह गांव का चारागाह हो या जंगल की जमीन, उसकी जरूरत से ज्यादा दोहन हो गया है और उसकी उत्पादकता घट गई है। ज्यादातर इलाकों में ग्रामीणों ने मुझे बताया कि वे अपनी मामूली आय में से हर साल 12 से 20 हजार रुपए चारे की खरीद पर खर्च करते हैं। लेकिन इसकी अर्थव्यवस्था अंडर-ग्राउंड है। भारत में चारे की कोई नीति नहीं है और न चारागाहों और जंगल की जमीन को बचाने का कोई प्रयास हो रहा है ताकि पशुओं के लिए पर्याप्त चारा उपलब्ध हो सके। यह एक दूसरे किस्म का खाद्यान्न संकट है। हमें निश्चित रूप से समझना चाहिए कि पशु बेकार या अक्षम नहीं है। ये गांवों में कृषि व वहां की अर्थव्यवस्था में – जमीन की उत्पादकता बढ़ाने व उसके पोषण के लिहाज से काफी योगदान करते हैं। लेकिन उनका भोजन किसी की प्राथमिकता में नहीं है। ग्रामीण चारागाहों की सीमा सालों से सिमटती जा रही है और सार्वजनिक ज़मीन में अब सिर्फ जंगल बचे हुए हैं।

लापोड़िया का उदाहरण लिया जा सकता है, जहां नौ साल के सूखे के बावजूद डेयरी काम करती रही। इसका कारण यह है कि यह एक सार्वजनिक चारागाह से जुड़ा हुआ है। इस गांव और आसपास के इलाके में गैर सरकारी संगठन ‘ग्राम विकास नवयुवक मंडल’ ने सार्वजनिक चारागाह से अतिक्रमण हटवाने के लिए काफी मशक्कत की। ये जमीन प्रशासकीय रूप से ग्राम पंचायत के अधीन है, लेकिन सालों से शक्तिशाली लोगों ने इस पर कब्जा कर रखा था। इसे हासिल करने की प्रक्रिया में गांव में काफी तनाव भी हुआ। इन जमीनों को बचाने वाले कानून कमजोर हैं और प्रशासन असहाय है। इन जमीनों को हासिल करने के बाद आम लोगों ने पहला काम यह किया कि उन्होंने इसे पुनर्जीवित किया।

इन गावों में एक अनोखी प्रणाली अपनाई गई, जिसस चौका सिस्टम कहते हैं इसके तहत गांव के लोग मामूली बारिश के पानी को भी रोकते हैं और उससे चारागाह की उत्पादकता बढ़ाते हैं। इसके लिए गांव के लोग एक चौकोर गड्ढ़ा खोदते हैं, जो एक फीट से भी कम गहरा होता है। इसमें अस्थाई रूप से पानी रोका जाता है, जो अंततः तालाब में जाता है। इस तरह से गांव की सार्वजनिक जमीन पानी इकट्ठा करने का बड़ा क्षेत्र बन जाता है। इसका मकसद सारे गांव को जल संग्रहण क्षेत्र में तब्दील कर देना है ताकि भूमिगत जल को रीचार्ज किया जा सके और सूखे का मुकाबला किया जा सके। पड़ोसी गांव सिहालसागर में गांव की जमीन के हर हिस्से को जल संग्रहण के हिसाब से बनाया गया है। गांव के लोगों ने तीन बड़े और 25 छोटे तालाब बनाएं हैं और चारागाह को चौका बना दिया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि इस गांव में हमेशा पानी रहता है, जबकि पड़ोसी गांव में पानी का संकट बना रहता है। जब गांव में जल संग्रहण की योजना शुरू हुई, तब से कभी भारी बारिश नहीं हुई है, लेकिन आज भी गांव में कुछ पानी बचा हुआ है।

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मामूली बारिश के पानी को भी बचाया जाए तो उसका काफी लाभ हो सकता है। ऐसे में मुद्दा बारिश की हर बूंद की उत्पादकता बढ़ाने का है। अगर इसका इस्तेमाल कृषि के लिए किया जाएगा तो इसका लाभ थोड़े से लोगों को होगा, सभी को नहीं; ऊपर से इसकी वजह से भूमिगत जल का स्तर भी नीचे जाएगा, जिसकी वजह से खेती का पानी हासिल करने के लिए किसान ज्यादा गहरी खुदाई करेंगे। इससे अर्थव्यवस्था टिकाऊ नहीं बनेगी। इसके उलट अगर उस पानी का इस्तेमाल दूध उत्पादन में किया जाए, तो इसका लाभ कम होते संसाधन को बचाने में भी हो सकता है। अगर उस दूध को स्थानीय स्तर पर प्रसंस्करित किया जाए तो उसका ज्यादा लाभ हासिल हो सकता है और अर्थव्यवस्था ज्यादा समृद्ध होगी। बाजार निश्चित रूप से काम करेगा, लेकिन तभी जब अभाव की राजनीति को बेहतर ढंग से समझा जाएगा। लापोड़िया में मुझे पता लगा कि नौ साल के सूखे के दौरान जब वहां 300 मिमी बारिश हुई, तब 300 परिवारों वाले इस गांव ने 17.5 लाख रुपए का दूध बेचा। यह बहुत मूल्यवान सबक है, जिसे मैं आसानी से नहीं भूलूंगी।

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