हमारी सुविधाएँ, विकास के प्रतिमान और आधुनिकता के आईने जल्दी ही हमारे लिये गले का फन्दा बनने वाला है। देश के सबसे बड़े व्यापारिक संगठन एसोचेम ने भी चेतानवी दी है कि आगामी सन 2018 तक भारत में हर साल 30 लाख मीट्रिक टन ई-कचरा उत्पादित होने लगेगा और यदि इसके सुरक्षित निबटारे के लिये अभी से काम नहीं किया गया तो देश की धरती, हवा और पानी में इतना जहर घुल जाएगा कि उसका निदान होना मुश्किल होगा। कहते हैं ना कि हर सुविधा या विकास की माकूल कीमत चुकानी ही होती है, लेकिन इस बात का नहीं पता था कि इतनी बड़ी कीमत चुकानी होगी।
सनद रहे आज देश में लगभग 18.5 लाख टन ई-कचरा हर साल निकल रहा है। इसमें मुम्बई से सबसे ज्यादा एक लाख बीस हजार मीट्रिक टन, दिल्ली से 98 हजार मीट्रिक टन और बंगलुरु से 92 मीट्रिक टन कचरा है। दुर्भाग्य है कि इसमें से महज ढाई फीसदी कचरे का ही सही तरीके से निबटारा हो रहा है। बाकि कचरा अवैध तरीके से निबटने के लिये छोड़ दिया जाता है। इस कचरे से बहुमूल्य धातु निकालने का काम दस से 15 साल की आयु के कोई पाँच लाख बच्चे जुड़े हुए हैं और ऐसे बच्चों की साँस व शरीर में हर दिन इतना विष जुड़ रहा है कि वे शायद ही अपनी जवानी देख पाएँ।
यह स्वीकारना होगा कि हादसों के मामले में हमारी याददाश्त कुछ ज्यादा ही कमजोर है। जब कुछ अनहोनी होती है तो चिन्ता, बचाव, सरोकार, राजनीति..... सब कुछ सक्रिय रहता है, लेकिन अगला कोई हादसा होने पर हम पहले को भूल जाते हैं व नए पर विमर्श करने लगते हैं। ऐसे में 15 साल पुरानी वह घटना किसे याद रहेगी, जब दिल्ली स्थित एशिया के सबसे बड़े कबाड़ी बाजार मायापुरी में कोबाल्ट का विकिरण फैल गया था, जिसमें एक मौत हुई व अन्य पाँच जीवन भर के लिये बीमार हो गए थे।
दिल्ली विश्वविद्यालय के रसायन विभाग ने एक बेकार पड़े उपकरण को कबाड़े में बेच दिया व कबाड़ी ने उससे धातु निकालने के लिये उसे जलाना चाहा था। उन दिनों वह हादसा उच्च न्यायालय तक गया था। आज तो देश के हर छोटे-बड़े शहर में हर दिन ऐसे हजारों उपकरण तोड़े-जलाए जा रहे हैं जिनसे निकलने वाले अपशिष्ट का मानव जीवन तथा प्रकृति पर दुष्प्रभाव विकिरण से कई गुणा ज्यादा है।
हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हमारे मुल्क में आज मोबाइल फोन, लैपटॅाप, कम्प्यूटर की संख्या कुल आबादी से कहीं ज्यादा हो गई हैं। यदि इसमें रंगीन टीवी, माईक्रोवेव ओवन, मेडिकल उपकरण, फैक्स मशीन, टेबलेट, सीडी, एयर कंडीशनर, आदि को भी जोड़ लें तो संख्या दो अरब से पार होगी। यह भी तथ्य है कि हर दिन ऐसे उपकरणों में से कई हजार खराब होते हैं या पुराने होने के कारण कबाड़े में डाल दिये जाते हैं।
ऐसे सभी इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों का मूल आधार ऐसे रसायन होते हैं जो जल, जमीन, वायु, इंसान और समूचे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान पहुँचाते हैं कि उससे उबरना लगभग नामुमकिन है। यही ई-कचरा कहलाता है और अब यह वैश्विक समस्या बन गया है। दिक्कत अकेले हमारे देश की नहीं है, विकसित देशों में तो यह कूड़ा बड़ी समस्या बन गया है और वे तीसरी दुनिया तथा दक्षिण एशिया के कुछ देशों में चोरी-चुपके ऐसे कूड़े को भेज रहे हैं।
इस कचरे से होने वाले नुकसान का अन्दाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसमें 38 अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल होते हैं जिनसे काफी नुकसान भी हो सकता है। जैसे टीवी व पुराने कम्प्यूटर मॉनिटर में लगी सीआरटी (केथोंड रे ट्यूब) को रिसाइकल करना मुश्किल होता है। इस कचरे में लेड, मरक्युरी, कैडमियम जैसे घातक तत्व भी होते हैं। दरअसल ई-कचरे का निपटान आसान काम नहीं है क्योंकि इसमें प्लास्टिक और कई तरह की धातुओं से लेकर अन्य पदार्थ रहते हैं।
सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कम्प्यूटरों और मोबाइल का है। इसमें पारा, कोबाल्ट, और ना जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। कैडमियम से फेफड़े प्रभावित होते हैं, जबकि कैडमियम के धुएँ और धूल के कारण फेफड़े व किडनी दोनों को गम्भीर नुकसान पहुँचता है। एक कम्प्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा सीसा और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है। जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। इनका अवशेष पर्यावरण के विनाश का कारण बनता है। शेष हिस्सा प्लास्टिक होता है।
इसमें से अधिकांश सामग्री गलती-सड़ती नहीं है और जमीन में जज्ब होकर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूजल को जहरीला बनाने का काम करती है। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाइलों से भी उपज रहा है। इनसे निकलने वाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी व पानी में मिलकर उन्हें बंजर और जहरीला बना देते हैं। फसलों और पानी के जरिए ये तत्व हमारे शरीर में पहुँचकर बीमारियों को जन्म देते हैं।
ई-कचरे के आधे-अधूरे तरीके से निस्तारण से मिट्टी में खतरनाक रासायनिक तत्त्व मिल जाते हैं जो पेड़-पौधों के अस्तित्व पर खतरा बन रहा है। इसके चलते पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया ठीक से नहीं हो पाती है और जिसका सीधा असर वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा पर होता है। इतना ही नहीं, कुछ खतरनाक रासायनिक तत्त्व जैसे पारा, क्रोमियम, कैडमियम, सीसा, सिलिकॉन, निकेल, जिंक, मैंगनीज, कॉपर, भूजल पर भी असर डालते हैं। जिन इलाकों में अवैध रूप से रीसाइक्लिंग का काम होता है उन इलाकों का पानी पीने लायक नहीं रह जाता।
सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरनमेंट (सीएसई) ने कुछ साल पहले जब सर्किट बोर्ड जलाने वाले इलाके के आसपास शोध कराया तो पूरे इलाके में बड़ी तादाद में जहरीले तत्व मिले थे, जिनसे वहाँ काम करने वाले लोगों को कैंसर होने की आशंका जताई गई, जबकि आसपास के लोग भी फसलों के जरिए इससे प्रभावित हो रहे थे।
भारत में यह समस्या लगभग 25 साल पुरानी है, लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी के चढ़ते सूरज के सामने इसे पहले गौण समझा गया, जब इस पर कानून आये तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी। आज देश के कुल ई-कचरे का लगभग 97 फीसदी कचरे को अवैज्ञानिक तरीके से जलाकर या तोड़कर कीमती धातु निकाली जाती है व शेष को यूँ ही फेंक दिया जाता है। इससे रिसने वाले रसायनों का एक अदृश्य लेकिन भयानक तथ्य यह है कि इस कचरे कि वजह से पूरी खाद्य शृंखला बिगड़ रही है।
ई-कचरे के आधे-अधूरे तरीके से निस्तारण से मिट्टी में खतरनाक रासायनिक तत्त्व मिल जाते हैं जो पेड़-पौधों के अस्तित्व पर खतरा बन रहा है। इसके चलते पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया ठीक से नहीं हो पाती है और जिसका सीधा असर वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा पर होता है। इतना ही नहीं, कुछ खतरनाक रासायनिक तत्त्व जैसे पारा, क्रोमियम, कैडमियम, सीसा, सिलिकॉन, निकेल, जिंक, मैंगनीज, कॉपर, भूजल पर भी असर डालते हैं। जिन इलाकों में अवैध रूप से रीसाइक्लिंग का काम होता है उन इलाकों का पानी पीने लायक नहीं रह जाता।
अकेले भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लिये इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का इस्तेमाल भले ही अब अनिवार्य बन गया हो, लेकिन यह भी सच है कि इससे उपज रहे कचरे को सही तरीके से नष्ट (डिस्पोज) करने की तकनीक का घनघोर अभाव है। घरों और यहाँ तक कि बड़ी कम्पनियों से निकलने वाला ई-वेस्ट ज्यादातर कबाड़ी उठाते हैं। वे इसे या तो किसी लैंडफिल में डाल देते हैं या फिर कीमती मेटल निकालने के लिये इसे जला देते हैं, जोकि और भी नुकसानदेह है।
कायदे में इसके लिये अलग से पूरा सिस्टम तैयार होना चाहिए, क्योंकि भारत में न सिर्फ अपने मुल्क का ई-वेस्ट जमा हो रहा है, विकसित देश भी अपना कचरा यहीं जमा कर रहे हैं। हमारे यहाँ ई-कचरा या कबाड़ा आमतौर पर सामान्य कूड़े-कचरे के साथ ही इसे जमा किया जाता है और अक्सर उसके साथ ही डम्प भी कर दिया जाता है। ऐसे में इनसे निकलने वाले रेडियोएक्टिव और दूसरे हानिकारक तत्त्व भूजल और जमीन को प्रदूषित कर रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि हम या कम्पनियाँ बेकार हो गए इलेक्ट्रानिक उपकरणों को स्थनीय कबाड़ी को बेचती हैं व कबाड़ी उन्हें मेटल या धातु निकालने वालों को बेच देता है। वे इसमें से तांबा या चाँदी जैसी महंगी धातुओं को निकालने के लिये इन्हें जलाते हैं या फिर तेजाब या ऐसिड में उबालते हैं। धातु निकालने के बाद बचा हुआ ऐसिड या तो जमीन में डाल दिया जाता है या फिर आम नालियों में बहा दिया जाता है।
वैसे तो केन्द्र सरकार ने सन 2012 में ई-कचरा (प्रबन्धन एवं संचालन नियम) 2011 लागू किया है, लेकिन इसमें दिये गए दिशा-निर्देश का पालन होता कहीं दिखता नहीं है। म.प्र. में भी खतरनाक अपशिष्ट (प्रबन्धन, हैंडलिंग एवं सीमापार संचलन) अधिनियम-2008 में ही इलेक्ट्रॉनिक व इलेक्ट्रिक वस्तुओं से निकलने वाले कचरे के प्रबन्धन की व्यवस्था कई साल पहले से ही लागू कर दी गई थी, लेकिन म.प्र. प्रदूषण बोर्ड द्वारा लगातार इसकी अनदेखी की जा रही है। नियमों को जानते हुए भी बोर्ड ने आज तक शहर में किसी भी कबाड़ी के खिलाफ कार्रवाई तो दूर उसे नोटिस तक जारी नहीं किया।
अभी मई-2015 में ही संसदीय समिति ने देश में ई-कचरे के चिन्ताजनक रफ्तार से बढ़ने की बात को रेखांकित करते हुए इस पर लगाम लगाने के लिये विधायी एवं प्रवर्तन तंत्र स्थापित करने की सिफारिश की है ताकि भारत को विकसित देशों के ई-कचरा निपटारा करने का स्थल बनने से रोका जा सके।
संसदीय समिति का कहना था कि ई-कचरा प्रबन्धन एक बड़ी समस्या बन गया है और कई रिपोर्टों में इस बात के संकेत प्राप्त हुए हैं कि ई-कचरा विकसित देशों से एशिया, अफ्रीका और लातीन अमेरिकी देशों में भेजे जा रहे हैं और यह उपयोग किये गए उत्पाद के नाम पर भेजे जा रहे हैं ताकि इसके पुनर्चक्रण करने के खर्च से बचा जा सके। पर्यावरण मंत्रालय के लिये 2015-16 की अनुदान की माँगों से सम्बन्धित समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि समिति देश को विकसित देशों के ई-कचरा निपटारा करने का स्थल बनने से रोकने के लिये इस पर लगाम लगाने के लिये विधायी एवं प्रवर्तन तंत्र स्थापित करने की सिफारिश की है।
ऐसा भी नहीं है कि ई-कचरा महज कचरा या आफत ही है। झारखण्ड के जमशेदपुर स्थित राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला के धातु निष्कर्ष्ण विभाग ने ई-कचरे में छुपे सोने को खोजने की सस्ती तकनीक खोज ली है। इसके माध्यम से एक टन ई-कचरे से 350 ग्राम सोना निकाला जा सकता है। जानकारी है कि मोबाइल फोन पीसीबी बोर्ड की दूसरी तरफ कीबोर्ड के पास सोना लगा होता है।
सायनाइड थियोयुरिया जैसे रासायनिक पदार्थ का इस्तेमाल कर यह सोना निकाला जाता है। जरूरत बस इस बात की है कि कूड़े को गम्भीरता से लिया जाये, उसके निस्तारण की जिम्मेदारी उसी कम्पनी को सौंपी जाये जिसने उसे बेचकर मुनाफा कमाया है और ऐसे कूड़े के लापरवाही से निस्तारण को गम्भीर अपराध की श्रेणी में रखा जाये।
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