खुशहाली का अग्रदूत : मानसून

मानसून मानव जीवन का अभिन्न अंग है। हालांकि अब क्लाउड सीडिंग का भी जमाना आ गया है। भारत सहित तमाम देश क्लाउड सीडिंग का फंडा अपना रहे हैं। लेकिन प्राकृतिक बारिश का मजा ही कुछ और होता है। जहां तक भारत का सवाल है तो यहां के किसानों और आम जनता को मानसून की सक्रियता के संबंध में काफी पहले जानकारी दे दी जाती है।

जैसे-जैसे गर्मी का असर बढ़ता है वैसे ही मानसून को लेकर बेचैनी बढ़ने लगती है। मानसून ही एक ऐसा शब्द है, जो सिर्फ भारत ही नहीं पूरी दुनिया के लिए खुशहाली लेकर आता है। यही वजह है कि भारत सरकार की ओर से किसानों और आमजन को मानसून की स्थिति के बारे में समय-समय पर जानकारी दी जाती है। इसके कई फायदे होते हैं – एक तो खेती के लिए किसान अपनी तैयारी कर लेते हैं दूसरा, मानसून की सक्रियता के संबंध में मिले पूर्वानुमान के आधार पर किसान खेती की रणनीती तैयार करते हैं। विभिन्न इलाकों में तराई वाले स्थान को खाली करने के संबंध में भी योजना बना ली जाती है। इससे जहां हमारा उत्पादन बढ़ता है वहीं जलभराव से होने वाले नुकसान से भी बचा जा सकता है। मौसम विभाग से मिले पूर्वानुमान के तहत ही सरकार व्यापक स्तर पर जलभराव की स्थिति अथवा सूखे की स्थिति से निबटने की रणनीति तैयार करती है।

जहां तक भारत की बात है तो यहां मानसून शब्द खुशहाली का पर्यायवाची है। मानसून शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द मौसिन से हुई है जिसका अर्थ होता है- मौसम। भारत की करीब 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। रबी की फसल कटने के बाद कुछ दिन तक लोगों के काम धंधे ठप पड़ जाते हैं, लेकिन मानसून के सक्रिय होते ही खेती-किसानी का काम शुरू हो जाता है तो दूसरी तरफ मानसून के आधार पर ही भविष्य की रणनीति तय होती है। मानसून की उपयोगिता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चार-छह दिन की देरी से ही लोग तड़प उठते हैं।

भारत में मानसून हिंद महासागर एवं अरब सागर की ओर से भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर आने वाली हवाओं को कहते हैं। ये हवाएं दक्षिणी एशिया में जून से सितंबर तक सक्रिय रहती हैं। हालांकि इन हवाओं की सक्रियता कई बार संबंधित देश के जलवायु पर निर्भर करता है। जलवायु के हिसाब से यहां कई बार चरणबद्ध तरीके से इन हवाओं का असर देखने को मिलता है। यही वजह है कि कई बार बारिश होने के बाद बीच में काफी वक्त तक सूखे की स्थिति भी बन जाती है। वास्तव में ये हवाएं अपने साथ बादलों को लेकर आती हैं और इन हवाओं से प्रभावित होकर ये बादल बरसते हैं। हिमालय की ओर से आने वाली ये हवाएं पश्चिमी एवं पूर्वी तट पर टकराती है। टकराहट के बाद ये हवाएं भारत में तो बादलों को बरसने के लिए विवश करती हैं साथ ही पड़ोसी देश पर भी इनकी मेहरबानी रहती है।

भारत के पड़ोसी देश पश्चिम में पाकिस्तान तो पूरब में बांग्लादेश में भी इन्हीं हवाओं की वजह से बारिश होती है। अगर हम जलवायु के हिसाब से भारत के मानसून का विवेचन करें तो यह तथ्य सामाने आता है कि भारत में उष्ण कटिबंधीय जलवायु की वजह से यहां दो तरह के मानसून सक्रिय होते हैं। पहला उत्तर पूर्व तो दूसरा दक्षिणी पश्चिमी मानसून। उत्तर पूर्वी मानसून का भी नाम दिया जाता है क्योंकि इस मानसून की हवाएं मैदान से सागर की ओर चलती है, जो हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी को पार करके आती है। यदि हम भारत में बारिश के आंकड़ों पर गौर करें तो यहां सबसे अधिक बारिश दक्षिण पश्चिम मानसून से ही होती है।

मानसून मानव जीवन का अभिन्न अंग है। हालांकि अब क्लाउड सीडिंग का भी जमाना आ गया है। भारत सहित तमाम देश क्लाउड सीडिंग का फंडा अपना रहे हैं। लेकिन प्राकृतिक बारिश का मजा ही कुछ और होता है। जहां तक भारत का सवाल है तो यहां के किसानों और आम जनता को मानसून की सक्रियता के संबंध में काफी पहले जानकारी दे दी जाती है। इसके लिए भारत सरकार की ओर से बाकायदा मौसम विभाग का गठन किया गया है। इस विभाग का नेटवर्क पूरे देश में है जिला स्तर पर मौसम विभाग तो सक्रिय भूमिका में रहता ही है, इसके अलावा विभिन्न कृषि विश्वविद्यालय में भी मौसम विभाग खोले गए हैं। इस विभाग की ओर से मौसम की स्थितियों का आकलन कराया जाता है और मौसम के संबंध में शोध भी किए जाते हैं। मौसम के पूर्वानुमान को लेकर इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कृषि मौसम वैज्ञानिक डॉ. ए.एस.आर शास्त्री ने एक अध्ययन किया है। यह अध्ययन वर्ष 1971 से 2008 के बीच मानसून की सक्रियता को लेकर है। इस अध्यन रिपोर्ट को देखें तो स्पष्ट होता है कि इन 37 सालों में वर्ष 1971 में तीन जून को ही मानसून सक्रिय हो गया था। इसी तरह इस अध्ययन रिपोर्ट से यह भी जानकारी मिलती है कि 1987 में सबसे देर से मानसून सक्रिय हुआ। यानी इस वर्ष पांच जुलाई को मानसून पहुंचा। मानसून की सक्रियता का औसत समय 18 जून है। हालांकि इस तिथि से पांच दिन आगे या पीछे मानसून का आना सामान्य प्रक्रिया है। आंकड़ों को देखें तो वर्ष 1971, 1977, 1984, 1993, 2001 में मानसून 18 जून के पहले सक्रिय हुआ। इसी तरह वर्ष 1987, 2006, 2008 में 20 जून के बाद मानसून सक्रियता दिखी। अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक इन 37 सालों के आंकड़ों को आधार बनाया जाए तो जून माह में बारिश का औसत 194 मिमी रहा।

कैसे लगाते हैं पूर्वानुमान


आमतौर पर भारत में मानसून के सक्रिय होने का औसत समय एक जून से 30 सितंबर माना गया है। कई बार इससे पहले भी मानसून सक्रिय हुआ है, लेकिन ऐसी स्थिति में बीच में ही मानसून निष्क्रिय होने का भी खतरा देखा गया है। भारत का मानसून विभाग पूर्वानुमान के आधार पर मानसून की सक्रियता के सबंध में भविष्यवाणी करता है। इसमें यह बताया जाता है कि इस वर्ष मानसून कब तक सक्रिय होगा और पूरे चार माह तक इसकी स्थिति कैसी रहेगी, यानी औसत बारिश क्या होगी। मानसून का आकलन करने के लिए छह बिंदुओं का अध्ययन करना पड़ता है। मानसून विभाग का यह अध्ययन मूल रूप से चार खंडों में विभक्त होता है। हर खंड में चार-चार बिंदु समाहित किए जाते हैं। इसमें आकलन करते समय निम्न बिंदुओं का अध्ययन किया जाता है।

तापमान की स्थिति


मौसम विभाग अपने नेटवर्क के जरिये समूचे भारत के तापमान की स्थिति का आकलन करता है। इसके तहत देश के अलग-अलग हिस्सों में तापमान की स्थिति देखी जाती है। मौसम वैज्ञानिक उस तापमान का अध्ययन करते हैं। इस अध्ययन में खास बात यह होती है कि अलग-अलग इलाके के लिए तापमान अध्ययन का समय भी अलग-अलग निर्धारित किया जाता है। मसलन मार्च में उत्तर भारत के न्यूनतम तापमान की स्थिति का आकलन किया जाता है। इसके बाद पूर्वी समुद्री तट के न्यूनतम तापमान का अध्ययन किया जाता है। फिर मई माह में यही प्रक्रिया मध्य भारत के लिए अपनाई जाती है। जनवरी से अप्रैल तक उत्तरी गोलार्द्ध की सतह के तापमान पर नजर रखी जाती है।

हवा की स्थिति


तापमान की तरह ही मौसम विभाग हवा की स्थिति का भी आकलन करता है। अलग-अलग समय में अलग-अलग इलाकों की हवा की स्थिति के बारे में मौसम विभाग अपने नेटवर्क के जरिये रिपोर्ट तलब करता है। फिर मौसम विज्ञानी उस रिपोर्ट का आकलन करते हैं। इस दौरान 6 से 20 किलोमीटर की गति की हवा का विशेष अध्ययन किया जाता है। मौसमविज्ञानी इस बात को परखते हैं कि कब हवा की गति कैसी थी और फिर उस गति के आधार पर तापमान की स्थिति के आधार पर सैद्धांतिक रूप से भविष्यवाणी की जाती है।

हवा का दबाव


मौसम की सक्रियता में हवा के दबाव का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। यही वजह है कि मौसम के पूर्वानुमान का आकलन करते समय हवा के दबाव की स्थिति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मौसम विज्ञानी तापमान और हवा की गति के हिसाब से ही अध्ययन करते हैं। वायुमंडलीय दबाव भी मानसून की भविष्यवाणी में अहम भूमिका निभाता है। मौसम विभाग अपने आकलन में वसंत ऋतु में भारत के दक्षिणी भाग में हवा के दबाव की स्थिति का आकलन करता है तो जनवरी से मई तक हिंद महासागर पर नजरें रखता है।

बर्फबारी का आकलन


मानसून की सक्रियता से बर्फबारी का गहरा नाता है। यही वजह है कि मौसम विभाग बर्फबारी पर पूरी तरह से नजरे गड़ाए रखता है। बर्फबारी के आधार पर ही मानसून की सक्रियता का आकलन किया जाता है। मौसम विज्ञानी इस बात का ध्यान रखते हैं कि कब किस इलाके में कितनी बर्फबारी हुई। मसलन जनवरी से मीर्च तक हिमालय पर होने वाली बर्फबारी का आकलन किया जाता है। इस दौरान इस बात का ध्यान रखा जाता है हिमालयी इलाके में कितनी बर्फबारी हुई और यह बर्फबारी किस वक्त हुई। इसी तरह दिसंबर माह में यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों होने वाली बर्फबारी का आकलन किया जाता है।

अब मिलेगी सटीक जानकारी


किसानों और आम जनता को मौसम के बारे मे सटीक जानकारी देने के दिशा में सरकार की ओर से निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटरोलॉजी (आइआइटीएम) के वैज्ञानिक दक्षिण एशिया मानसून क्षेत्र के लिए मौसम पूर्वानुमान को लेकर अध्ययन कर रहे हैं। इससे भारत में अनाज का उत्पादन बढ़ाने और जल प्रबंधन में मदद मिलेगी। यह अध्ययन विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) का हिस्सा है। अगले 20 से 25 वर्ष तक के लिए योजना के आयाम बनाए जा रहे हैं। इससे देश में फसल और जल संसाधन को लेकर बेहतर योजना बनाई जा सकेगी। इसके माध्यम से मानसून की अधिक सटीक भविष्यवाणी की जा सकेगी। आइआइटीएम को भारत सरकार के पृथ्वी-विज्ञान मंत्रालय की ओर से धनराशि प्रदान की जाती है। दक्षिण एशियाई कृषि योजना के लिए क्षेत्रीय स्तर पर मानसून की जानकारी की अधिक जरूरत होती है लेकिन छोटे क्षेत्रों मंश वर्षा के बारे में पूर्वानुमान लगाना कठिन काम है। अध्ययन से सूखे, बाढ़ और तूफान के बारे में भी जानकारी प्राप्त की जा सकेगी जो देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं।

भारत में क्लाउड सीडिंग


जुलाई के अंत में थोड़ी-सी बारिश के बाद मुंबई नगर निगम ने अपनी उन छह झीलों को भरने के लिए, जिनसे शहर भर को पीने का पानी मिलता है, ‘क्लाउड सीडिंग’ का प्रयोग करने की सोची। दावा किया गया है कि मोदक सागर बांध पर मौसम की पहली क्लाउड सीडिंग के चलते 7 अगस्त, 09 को 16 मिमी वर्षा हुई थी। इस प्रयोग में वर्षा विशेषज्ञ शांतिलाल मेकोनी ने 250 ग्राम सिल्वर आयोडाइड का इस्तेमाल किया जिसे एक चूल्हा किस्म के जेनरेटर पर वाष्पित किया गया था। आयोडाइड की वाष्प ऊपर उठी और 6 मिनट में बादलों की सतह पर पहुंच गई। इससे बादलों का घनत्व बढ़ गया और पानी की बूंदे टपकने लगी। अनियमित वर्षा से परेशान होकर आंध्र प्रदेश सरकार को भी लगातार छठवें साल क्लाउड सीडिंग के लिए विवश होना पड़ा।

क्लाउड सीडिंग का इतिहास


क्लाउड सीडिंग का इतिहास काफी पुराना है। पहली बार क्लाउड सीडिंग में ऑस्ट्रेलिया के बाथुर्स्ट में किया गया। फरवरी 1947 में ऑस्ट्रेलिया ने इस प्रयोग के जरिये पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसके बाद चीन ने कई प्रयोग किए और क्लाउड सीडिंग में बड़ी कामयाबी हासिल की। अब स्थिति यह है कि करीब 50 देश क्लाउड सीडिंग प्रणाली अपना रहे हैं। अगर हम क्लाउड सीडिंग के तथ्यों पर ध्यान दें तो यह एक तरह से पानी की बूंदों को कृत्रिम तरीके से आसमान से नीचे गिराने जैसा है। प्राकृतिक रूप से भी पानी वाष्प बनकर बादल बनता है और फिर हवा के प्रभाव से इसी बादल से बारिश होती है। मौसम वैज्ञानिकों ने भी इसी फंडे को अपनाया। क्लाउड सीडिंग के लिए सिल्वर आयोडाइड या शुष्क बर्फ (ठोस कार्बन डाईऑक्साइड) को हवाई जहाज के जरिये वातावरण में फैलाया जाता है। विमान से सिल्वर आयोडाइड को बादलों के बहाव के साथ फैला दिया जाता है। फिर लक्षित क्षेत्र में विमान हवा की उल्टी दिशा में चलाया जाता है। सही बादल से सामना होते ही बर्नर चालू कर दिए जाते हैं। उड़ान का फैसला क्लाउड सीडिंग अधिकारी मौसम के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। शुष्क बर्फ पानी को 0 डिग्री सेल्सियस से ठंडा कर देती है जिससे हवा में उपस्थित पानी के कण जम जाते हैं।

(लेखक पत्रकार हैं। ई-मेल : chandrabhan0502@gmail.com)

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