उन्न्त बीज वाली फसलों.. खासकर सब्जियों में बीमारियों का प्रकोप इतना अधिक है कि न चाहते हुए भी किसान ‘कीटनाशकम् शरणम् गच्छामि’ को मजबूर हो रहा है। भारत की जलविद्युत, नहरी और शहरी जलापूर्ति परियोजनाओं में अन्तरराष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी जगजाहिर है। अपने पर्यावरण पार्टनरों द्वारा मचाए स्वच्छता, प्रदूषण मुक्ति और कुपोषण के हो-हल्ले के जरिए भी ये अन्तरराष्ट्रीय संगठन ‘आर ओ’, शौचालय, मलशोधन संयन्त्र, दवाइयाँ और टीके ही बेचते हैं। ये कहते हैं कि कुपोषण मुक्ति के सारे नुख्से इनके पास हैं। ये ‘हैंड वाश डे’ के जरिए ‘ब्रेन वाश’ का काम करते हैं। वैश्विक आर्थिकी के लिये भारत के दरवाज़े खोले हुए हमें 25 वर्ष तो हो ही गए। बड़े पैकेज, निवेश, आउटसोर्सिंग के मौके, सेवा क्षेत्र का विस्तार, वैश्विक स्तर पर प्रतिद्वन्दिता के कारण ग्राहक को फायदे जैसे गिनाए तात्कालिक लाभ से तो हम सभी परिचित हैं ही। जरूरी है कि दूरगामी लाभ-हानि के मोर्चे पर भी कुछ मन्थन कर लें। यूँ भी किसी भी प्रयोग के लाभ-हानि के मन्थन के लिये 25 वर्ष पर्याप्त होते हैं। मैं अर्थशास्त्री नहीं हूँ।
ज़मीन पर जो कुछ सहज रूप में देख-सुन पा रहा हूँ, उसी को आधार बनाकर कुछ चुनिन्दा पहलुओं पर आकलन पेश कर रहा हूँ। मकसद है कि हम सभी इन बिन्दुओं पर जरा और गहराई से समझें और फिर लगे कि सावधान होने की जरूरत है, तो खुद भी सावधान हों और दूसरों को भी सावधान करें।
विश्व व्यापार संगठन, विश्व इकोनॉमी फोरम, विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि ऐसे कई संगठन, जिनके नाम के साथ ‘विश्व’ अथवा ‘अन्तरराष्ट्रीय’ लगा है, खुली अर्थिकी के हिमायती भी हैं और संचालक भी। यह बात हम सभी जानते हैं। किन्तु बहुत सम्भव है कि खुली आर्थिकी के चाल चलन से हम सभी परिचित न हों। इनसे परिचित होना हितकर भी है और अपनी अर्थव्यवस्था और आदतों को बचाने के लिये जरूरी भी।
गौर कीजिए कि ये अन्तरराष्ट्रीय संगठन कुछ देशों की सरकारों, बहुद्देशीय कम्पनियों और न्यासियों के गठजोड़ हैं, जो दूसरे देशों की पानी-हवा-मिट्टी की परवाह किए बगैर परियोजनाओं को कर्ज और सलाह मुहैया कराते हैं; निवेश करते हैं। ऐसी परियोजनाओं के जरिए लाभ के उदाहरण हैं, तो पर्यावरण के सत्यानाश के उदाहरण भी कई हैं। उन्नत बीज, खरपतवार, कीटनाशक, उर्वरक और ‘पैक्ड फूड’ के जरिए भारत की खेती, खाना और पानी इनके नए शिकार हैं।
बीजों व उर्वरकों में मिलकर खरपतवार की ऐसी खेप आ रही है कि किसान उन्हें खोदते-खोदते परेशान हैं। उन्न्त बीज वाली फसलों.. खासकर सब्जियों में बीमारियों का प्रकोप इतना अधिक है कि न चाहते हुए भी किसान ‘कीटनाशकम् शरणम् गच्छामि’ को मजबूर हो रहा है। भारत की जलविद्युत, नहरी और शहरी जलापूर्ति परियोजनाओं में अन्तरराष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी जगजाहिर है।
अपने पर्यावरण पार्टनरों द्वारा मचाए स्वच्छता, प्रदूषण मुक्ति और कुपोषण के हो-हल्ले के जरिए भी ये अन्तरराष्ट्रीय संगठन ‘आर ओ’, शौचालय, मलशोधन संयन्त्र, दवाइयाँ और टीके ही बेचते हैं। ये कहते हैं कि कुपोषण मुक्ति के सारे नुख्से इनके पास हैं। ये ‘हैंड वाश डे’ के जरिए ‘ब्रेन वाश’ का काम करते हैं।
ये साधारण नमक को नकार कर, आयोडीन युक्त नमक को कुतर्क परोसते हैं। इस तरह तीन रुपए किलो नमक की जगह, 16 रुपए किलो में नमक का बाजार बनाते हैं। जबकि यह सिद्ध पाया गया कि तराई के इलाके छोड़ दें, तो भारत के अधिकतर इलाकों की परम्परागत खानपान सामग्रियों के जरिए जरूरत भर का आयोडीन शरीर में जाता ही है। आयोडाइज्ड नमक खाने से इसकी अतिरिक्त मात्रा से लाभ के स्थान पर नुकसान की बात ज्यादा कही जा रही है।
इसी तर्ज पर याद कीजिए कि करीब दो दशक पहले भारत में साधारण तेल की तुलना में रिफाइंड तेल से सेहत के अनगिनत फायदे गिनाए गए। डॉक्टर और कम्पनियों से लेकर ग्राहकों तक ने इसके अनगिनत गुण गाए। हमारे कोल्हु पर ताला लगाने की कुचक्र इतना सफल हुआ कि हमारी गृहणियों ने भी शान से कहा - “कित्ता ही महंगा हो; हमारे इनको को रिफाइंड ही पसन्द है।’’ इस पसन्द ने हमारे कोल्हुओं को कम-से-कम शहरों में तो ताला लगवा ही दिया।
रिफाइंड को लेकर विज्ञान पर्यावरण केन्द्र की रिपोर्ट को लेकर कुछ वर्ष पूर्व खुली आँखों से हम सब परिचित हैं ही। रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के बाजार में बिक रहे रिफाइंड तेलों में मानकों की पालना नहीं हो रही। लिये गए नमूनों में तेल को साफ करने में इस्तेमाल किए जाने वाले रसायन, तय मानक से अधिक स्तर तक मौजूद पाए गए। ऐसे रसायनों को शारीरिक रसायन सन्तुलन को बिगाड़कर, शरीर को खतरनाक बीमारी का शिकार बनाने वाला शिकारी माना गया। दवा करते गए, मर्ज बढ़ता गया। यही हाल है।
पिछले वर्षों एक अमेरिकी शोध आया - ‘कोल्ड ब्रिज ऑयल से अच्छा कोई नहीं।’ ‘कोल्ड ब्रिज ऑयल’ यानी ठंडी पद्धति से निकाला गया तेल। कोल्हु यही तो करता है। कोल्हु में तेल निकालते वक्त आपने पानी के छींटे मारते देखा होगा। यही वह तरीका है, जिसे अब अमेरिका के शोध भी सर्वश्रेष्ठ बता रहे हैं और हमारे डॉक्टर भी।
इतना ही नहीं, हमारे कुरता-धोती और सलवार-साड़ी कोे पोंगा-पिछड़ा बताकर, दुनिया के देश, पुराने कपड़ों की बड़ी खेप हमारे जैसे मुल्क में खपा रहे हैं। यह हमारी संस्कृति पर भी हमला है और अर्थिकी पर भी। पुर्नोपयोग के नाम पर बड़ी मात्रा में इलेक्ट्रॉनिक, प्लास्टिक और दूसरा कचरा विदेशों से आज भारत आ रहा है। गौर कीजिए कि ये कचरा खासकर, एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के देशों में भेजा जा रहा है। विश्व भूगोल के ये तीनों क्षेत्र, सशक्त होते नए आर्थिक केन्द्र हैं।
दुनिया के परम्परागत आर्थिक शक्ति केन्द्रों को इनसे चुनौती मिलने की सम्भावना सबसे ज्यादा है। पहले किसी देश को कचराघर में तब्दील करना और फिर कचरा निष्पादन के लिये अपनी कम्पनियों को रोज़गार दिलाने का यह खेल कई स्तर पर साफ देखा जा सकता है। इसके जरिए वे अपने कचरे के पुनर्चक्रीकरण का खर्च बचा रहे हैं, सो अलग।
केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्रालय की वर्ष 2015-16 की समिति ने विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को अपने कचरे का डम्प एरिया बनाए जाने पर आपत्ति जताई है और विधायी तथा प्रवर्तन तन्त्र विकसित करने की भी सिफारिश की है। ई-कचरा, इकट्ठा करने के अधिकृत केन्द्रों को पंजीकृत करने को कहा गया है। सिफारिश में ई-कचरे को तोड़कर पुनर्चक्रीकरण प्रक्रिया के जरिये, कचरे के वैज्ञानिक निपटान पर जोर दिया गया है।
जरूरी है कि खुली आर्थिकी के संचालकों की नीयत व हकीक़त का विश्लेषण करते वक्त ‘विश्व इकोनॉमी फोरम रिपोर्ट-जनवरी 2013’ को अवश्य पढ़ें। फोरम रिपोर्ट साफ कहती है कि आर्थिक और भौगोलिक शक्ति के उत्तरी अमेरिका और यूरोप जैसे परम्परागत केन्द्र अब बदल गए हैं। लैटिन अमेरिका, एशिया और दक्षिण अफ्रीका उभरती हुई आर्थिकी के नए केन्द्र हैं। तकनीक के कारण संचार, व्यापार और वित्तीय प्रबन्धन के तौर-तरीके बदले हैं। अब हमें भी बदलना होगा।
फोरम रिपोर्ट सरकारों, कारपोरेट समूहों और अन्तरराष्ट्रीय न्यासियों के करीब 200 विशेषज्ञों ने तैयार की है। सरकार, कारपोरेट और अन्तरराष्ट्रीय न्यासियों के इस त्रिगुट में गैर सरकारी संगठनों को शामिल करने का इरादा जाहिर करते हुए रिपोर्ट ‘एड’ के जरिए ‘ट्रेड’ के मन्त्र सुझाती है।
छह मई को राज्यसभा में सांसद राजीव शुक्ला ने बताया कि कोलकाता की एक गारमेंट कम्पनी के उत्पाद के नाम, स्टीकर आदि का हुबहू नकली उत्पाद चीन में तैयार हो रहा है। इसमें चिन्ता की बात यह है कि असली कम्पनी करीब 400 करोड़ रुपए का निर्यात कर रही है और चीन, उसी के नाम का नकली उत्पाद तैयार कर लगभग 900 करोड़ का निर्यात कर रहा है। कम्पनी ने तमाम दूतावासों से लेकर भारत सरकार के वाणिज्य मन्त्रालय तक में शिकायत की। नतीजा अब तक सिफर ही है।
कुल मिलाकर कहना यह है कि खुली हुई आर्थिकी के यदि कुछ लाभ हैं तो खतरे भी कम नहीं। ये खतरे अलग-अलग रूप धरकर आ रहे हैं; आगे भी आते रहेंगे। अब सतत् सावधान रहने का वक्त है; सावधान हों। जरूरत, बाजार आधारित गतिविधियों को पूरी सतर्कता व समग्रता के साथ पढ़ने और गुनने की है।
इस समग्रता और सतर्कता के बगैर भ्रम भी होंगे और ग़लतियाँ भी। अतः अपनी जीडीपी का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक समरसता और ‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ जैसेे समग्र विकास के संकेतकों को कभी नहीं भूलना चाहिए। पूछना चाहिए कि पहले खेती पर संकट को आमन्त्रित कर, फिर सब्सिडी देना और खाद्यान्न आयात करना ठीक है या खेती और खाद्यान्न को संजोने की पूर्व व्यवस्था व सावधानी पर काम करना?
स्वयंसेवी संगठनों कोे भी चाहिए कि सामाजिक/प्राकृतिक महत्व की परियोजनाओं को समाज तक ले जाने से पहले उनकी नीति और नीयत को अच्छी तरह जाँच लें, तो बेहतर। ‘गाँधी जी का जन्तर’ याद रख सकें, तो सर्वश्रेष्ठ।
ज़मीन पर जो कुछ सहज रूप में देख-सुन पा रहा हूँ, उसी को आधार बनाकर कुछ चुनिन्दा पहलुओं पर आकलन पेश कर रहा हूँ। मकसद है कि हम सभी इन बिन्दुओं पर जरा और गहराई से समझें और फिर लगे कि सावधान होने की जरूरत है, तो खुद भी सावधान हों और दूसरों को भी सावधान करें।
खुली आर्थिकी के चाल चलन
विश्व व्यापार संगठन, विश्व इकोनॉमी फोरम, विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि ऐसे कई संगठन, जिनके नाम के साथ ‘विश्व’ अथवा ‘अन्तरराष्ट्रीय’ लगा है, खुली अर्थिकी के हिमायती भी हैं और संचालक भी। यह बात हम सभी जानते हैं। किन्तु बहुत सम्भव है कि खुली आर्थिकी के चाल चलन से हम सभी परिचित न हों। इनसे परिचित होना हितकर भी है और अपनी अर्थव्यवस्था और आदतों को बचाने के लिये जरूरी भी।
गौर कीजिए कि ये अन्तरराष्ट्रीय संगठन कुछ देशों की सरकारों, बहुद्देशीय कम्पनियों और न्यासियों के गठजोड़ हैं, जो दूसरे देशों की पानी-हवा-मिट्टी की परवाह किए बगैर परियोजनाओं को कर्ज और सलाह मुहैया कराते हैं; निवेश करते हैं। ऐसी परियोजनाओं के जरिए लाभ के उदाहरण हैं, तो पर्यावरण के सत्यानाश के उदाहरण भी कई हैं। उन्नत बीज, खरपतवार, कीटनाशक, उर्वरक और ‘पैक्ड फूड’ के जरिए भारत की खेती, खाना और पानी इनके नए शिकार हैं।
बीजों व उर्वरकों में मिलकर खरपतवार की ऐसी खेप आ रही है कि किसान उन्हें खोदते-खोदते परेशान हैं। उन्न्त बीज वाली फसलों.. खासकर सब्जियों में बीमारियों का प्रकोप इतना अधिक है कि न चाहते हुए भी किसान ‘कीटनाशकम् शरणम् गच्छामि’ को मजबूर हो रहा है। भारत की जलविद्युत, नहरी और शहरी जलापूर्ति परियोजनाओं में अन्तरराष्ट्रीय संगठनों की दिलचस्पी जगजाहिर है।
अपने पर्यावरण पार्टनरों द्वारा मचाए स्वच्छता, प्रदूषण मुक्ति और कुपोषण के हो-हल्ले के जरिए भी ये अन्तरराष्ट्रीय संगठन ‘आर ओ’, शौचालय, मलशोधन संयन्त्र, दवाइयाँ और टीके ही बेचते हैं। ये कहते हैं कि कुपोषण मुक्ति के सारे नुख्से इनके पास हैं। ये ‘हैंड वाश डे’ के जरिए ‘ब्रेन वाश’ का काम करते हैं।
ये साधारण नमक को नकार कर, आयोडीन युक्त नमक को कुतर्क परोसते हैं। इस तरह तीन रुपए किलो नमक की जगह, 16 रुपए किलो में नमक का बाजार बनाते हैं। जबकि यह सिद्ध पाया गया कि तराई के इलाके छोड़ दें, तो भारत के अधिकतर इलाकों की परम्परागत खानपान सामग्रियों के जरिए जरूरत भर का आयोडीन शरीर में जाता ही है। आयोडाइज्ड नमक खाने से इसकी अतिरिक्त मात्रा से लाभ के स्थान पर नुकसान की बात ज्यादा कही जा रही है।
कितना फाइन, रिफाइंड?
इसी तर्ज पर याद कीजिए कि करीब दो दशक पहले भारत में साधारण तेल की तुलना में रिफाइंड तेल से सेहत के अनगिनत फायदे गिनाए गए। डॉक्टर और कम्पनियों से लेकर ग्राहकों तक ने इसके अनगिनत गुण गाए। हमारे कोल्हु पर ताला लगाने की कुचक्र इतना सफल हुआ कि हमारी गृहणियों ने भी शान से कहा - “कित्ता ही महंगा हो; हमारे इनको को रिफाइंड ही पसन्द है।’’ इस पसन्द ने हमारे कोल्हुओं को कम-से-कम शहरों में तो ताला लगवा ही दिया।
रिफाइंड को लेकर विज्ञान पर्यावरण केन्द्र की रिपोर्ट को लेकर कुछ वर्ष पूर्व खुली आँखों से हम सब परिचित हैं ही। रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के बाजार में बिक रहे रिफाइंड तेलों में मानकों की पालना नहीं हो रही। लिये गए नमूनों में तेल को साफ करने में इस्तेमाल किए जाने वाले रसायन, तय मानक से अधिक स्तर तक मौजूद पाए गए। ऐसे रसायनों को शारीरिक रसायन सन्तुलन को बिगाड़कर, शरीर को खतरनाक बीमारी का शिकार बनाने वाला शिकारी माना गया। दवा करते गए, मर्ज बढ़ता गया। यही हाल है।
पिछले वर्षों एक अमेरिकी शोध आया - ‘कोल्ड ब्रिज ऑयल से अच्छा कोई नहीं।’ ‘कोल्ड ब्रिज ऑयल’ यानी ठंडी पद्धति से निकाला गया तेल। कोल्हु यही तो करता है। कोल्हु में तेल निकालते वक्त आपने पानी के छींटे मारते देखा होगा। यही वह तरीका है, जिसे अब अमेरिका के शोध भी सर्वश्रेष्ठ बता रहे हैं और हमारे डॉक्टर भी।
नए आर्थिक केन्द्रों को डम्प एरिया बनाने की साजिश
इतना ही नहीं, हमारे कुरता-धोती और सलवार-साड़ी कोे पोंगा-पिछड़ा बताकर, दुनिया के देश, पुराने कपड़ों की बड़ी खेप हमारे जैसे मुल्क में खपा रहे हैं। यह हमारी संस्कृति पर भी हमला है और अर्थिकी पर भी। पुर्नोपयोग के नाम पर बड़ी मात्रा में इलेक्ट्रॉनिक, प्लास्टिक और दूसरा कचरा विदेशों से आज भारत आ रहा है। गौर कीजिए कि ये कचरा खासकर, एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के देशों में भेजा जा रहा है। विश्व भूगोल के ये तीनों क्षेत्र, सशक्त होते नए आर्थिक केन्द्र हैं।
दुनिया के परम्परागत आर्थिक शक्ति केन्द्रों को इनसे चुनौती मिलने की सम्भावना सबसे ज्यादा है। पहले किसी देश को कचराघर में तब्दील करना और फिर कचरा निष्पादन के लिये अपनी कम्पनियों को रोज़गार दिलाने का यह खेल कई स्तर पर साफ देखा जा सकता है। इसके जरिए वे अपने कचरे के पुनर्चक्रीकरण का खर्च बचा रहे हैं, सो अलग।
केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्रालय की वर्ष 2015-16 की समिति ने विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को अपने कचरे का डम्प एरिया बनाए जाने पर आपत्ति जताई है और विधायी तथा प्रवर्तन तन्त्र विकसित करने की भी सिफारिश की है। ई-कचरा, इकट्ठा करने के अधिकृत केन्द्रों को पंजीकृत करने को कहा गया है। सिफारिश में ई-कचरे को तोड़कर पुनर्चक्रीकरण प्रक्रिया के जरिये, कचरे के वैज्ञानिक निपटान पर जोर दिया गया है।
खेल खोलती एक रिपोर्ट
जरूरी है कि खुली आर्थिकी के संचालकों की नीयत व हकीक़त का विश्लेषण करते वक्त ‘विश्व इकोनॉमी फोरम रिपोर्ट-जनवरी 2013’ को अवश्य पढ़ें। फोरम रिपोर्ट साफ कहती है कि आर्थिक और भौगोलिक शक्ति के उत्तरी अमेरिका और यूरोप जैसे परम्परागत केन्द्र अब बदल गए हैं। लैटिन अमेरिका, एशिया और दक्षिण अफ्रीका उभरती हुई आर्थिकी के नए केन्द्र हैं। तकनीक के कारण संचार, व्यापार और वित्तीय प्रबन्धन के तौर-तरीके बदले हैं। अब हमें भी बदलना होगा।
फोरम रिपोर्ट सरकारों, कारपोरेट समूहों और अन्तरराष्ट्रीय न्यासियों के करीब 200 विशेषज्ञों ने तैयार की है। सरकार, कारपोरेट और अन्तरराष्ट्रीय न्यासियों के इस त्रिगुट में गैर सरकारी संगठनों को शामिल करने का इरादा जाहिर करते हुए रिपोर्ट ‘एड’ के जरिए ‘ट्रेड’ के मन्त्र सुझाती है।
खुली आर्थिकी में सावधानियाँ जरूरी
छह मई को राज्यसभा में सांसद राजीव शुक्ला ने बताया कि कोलकाता की एक गारमेंट कम्पनी के उत्पाद के नाम, स्टीकर आदि का हुबहू नकली उत्पाद चीन में तैयार हो रहा है। इसमें चिन्ता की बात यह है कि असली कम्पनी करीब 400 करोड़ रुपए का निर्यात कर रही है और चीन, उसी के नाम का नकली उत्पाद तैयार कर लगभग 900 करोड़ का निर्यात कर रहा है। कम्पनी ने तमाम दूतावासों से लेकर भारत सरकार के वाणिज्य मन्त्रालय तक में शिकायत की। नतीजा अब तक सिफर ही है।
कुल मिलाकर कहना यह है कि खुली हुई आर्थिकी के यदि कुछ लाभ हैं तो खतरे भी कम नहीं। ये खतरे अलग-अलग रूप धरकर आ रहे हैं; आगे भी आते रहेंगे। अब सतत् सावधान रहने का वक्त है; सावधान हों। जरूरत, बाजार आधारित गतिविधियों को पूरी सतर्कता व समग्रता के साथ पढ़ने और गुनने की है।
इस समग्रता और सतर्कता के बगैर भ्रम भी होंगे और ग़लतियाँ भी। अतः अपनी जीडीपी का आकलन करते वक्त प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक समरसता और ‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ जैसेे समग्र विकास के संकेतकों को कभी नहीं भूलना चाहिए। पूछना चाहिए कि पहले खेती पर संकट को आमन्त्रित कर, फिर सब्सिडी देना और खाद्यान्न आयात करना ठीक है या खेती और खाद्यान्न को संजोने की पूर्व व्यवस्था व सावधानी पर काम करना?
स्वयंसेवी संगठनों कोे भी चाहिए कि सामाजिक/प्राकृतिक महत्व की परियोजनाओं को समाज तक ले जाने से पहले उनकी नीति और नीयत को अच्छी तरह जाँच लें, तो बेहतर। ‘गाँधी जी का जन्तर’ याद रख सकें, तो सर्वश्रेष्ठ।
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