हमारे यहां खुदाई के कई कारण हैं, कुछ बिलकुल साफ हैं तो कुछ छिपे हुए भी। खदानें कई उद्योगों के कच्चे माल के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। देश के कुल निर्यात में कच्चा लोहा 6 प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक है और इस प्रकार खदानें विदेशी मुद्रा के महत्वपूर्ण साधन हैं। सरकारी तौर पर खदानों की हिमायत इसी बिना पर की जाती है। उनसे पिछड़े इलाकों में रोजगार मिलता है और क्षेत्रीय विकास में मदद। लेकिन खदानों के अलिखित प्रतिफल हैं। भ्रष्टाचार, मुनाफाखोरी, निजी संपत्ति का भारी संचय और काला धन, जो प्रायः चुनाव प्रचार के लिए दान दिया जाता है। वैध खदानों में जो अवैध खुदाई होती है और गैर-कानूनी कारोबार चलता है उसका नतीजा यह है कि खेती की जमीन और जंगल जैसी प्राकृतिक संपदा बरबाद होती है और राष्ट्रीय संपत्ति (लकड़ी की तस्करी और कीमती जमीन-जायदाद आदि के रूप में) की लूट होती है।
ऐसी सब जगहों पर सुरक्षा संबंधी कायदे-कानूनों का पालन कतई नहीं होता और खान मजदूरों का जीवन हर क्षण खतरे में झूलता रहता है। धनबाद जिले के चापापुर की अवैध कोयला खदान में 11 लोगों की मौत से अवैध खुदाई के तथ्यों का पर्दाफाश हुआ कि किस तरह अधिकारियों की नाक के नीचे, बल्कि उन्हीं के समर्थन और मिलीभगत से इतना बड़ा गैर-कानूनी काम चल रहा था। वह अवैध खदान चापापुर कोलियरी नं.2 के एजेंट और मैनेजर के दफ्तर से केवल 50 मीटर दूरी पर चल रही थी। उन अधिकारियों ने साफ कह दिया कि अवैध खदान के बारे में वे बिलकुल नहीं जानते। जब बात भी सामने आ गई कि दुर्घटना में मरे लोगों को दफनाते समय खदान का बुलडोजर काम में लाया गया था, तब भी वे उस बात की जानकारी से इनकार ही करते रहे।
लेकिन यह भी कहना मुश्किल है कि वैध खदानों में ऐसे दुष्कर्म नहीं होते होंगे। एक-से-एक नए और सुधरे यंत्र जैसे-जैसे आ रहे हैं, उन अकुशल स्थानीय लोगों के रोजगार की गुंजाइश घटती जा रही है जिनमें ज्यादातर वनवासी होते हैं। कुशल मजदूर तो शहरों से लाए जाते हैं। स्थानीय गरीब लोगों पर तो जैसे गाज गिर जाती है। उन्हें ऐसे वातावरण में जीने को मजबूर होना पड़ता है जहां दुर्घटना और बीमारियों का साम्राज्य है।
इस चित्र का सबसे बुरा पहलू यह है कि जिनके लाभ के लिए यब सब किया जाता है, उन्हें सचमुच लाभ नहीं पहुंचता। हजारों वनवासी आदमी, औरतों और बच्चों के झुंड-के-झुंड चिलचिलाती धूप में काले पत्थर से कोयले को छांटने और धातु के ढेलों को हथौड़ों और सब्बलों से तोड़ने में लगे रहते हैं। हर सूखे और अकाल के बाद, जंगलों के उजड़ने और खेती के बरबाद होने पर इन समूहों में अनेक नए लोग आकर जुड़ते जाते हैं।
हजारों लोग काम तो करते हैं पर स्थायी रोजगार का उन्हें कोई भरोसा नहीं है। जिनका काम पक्का है उनके सामने भी दिन-ब-दिन घुलते जाने का और इस खतरनाक काम में जान गंवा बैठने का भय बराबर बना रहता है। दरअसल हमारी आबादी के एक बहुत बड़े भाग के लिए ‘पिठड़े क्षेत्र के विकास’ का यही अर्थ है।
मध्य भारत में सबसे ज्यादा दुर्गति वनवासियों की हुई है, क्योंकि खदानों और उनसे जुड़े उद्योगों ने उनकी जमीन और उनके जंगलों को बड़ी मात्रा में उजाड़ा है। अकेले सिंगरौली कोयला खान के आसपास ही आठ-आठ ताप बिजली संयंत्रों का जमघट है। दूसरी जगहों का भी ऐसा ही हाल हम पिछले पन्नों में देख चुके हैं। तरह-तरह की खदानों, सीमेंट कारखानों, ताप बिजलीघरों, बड़े बांधो, फैक्टरियों और इन सबकी सेवा के लिए बिछे रेल और सड़क के जाल में कभी का समृद्ध और संतुष्ट वनवासी समाज जकड़ लिया गया है।
छत्तीसगढ़ जैसे समृद्ध क्षेत्र को पिछड़ा क्षेत्र बताना एक प्रकार की विडंबना ही है। एक जमाने में छत्तीसगढ़ की जमीन खूब उपजाऊ थी। वहां की नदियां सदानीरा थीं, सारा इलाका धान्य लक्ष्मी का भंडार था। आज चूंकि वहां खदानों की भरमार हो गई, सारे गरीब अकुशल मजदूर के रूप में दिल्ली जैसे बड़े शहरों को जा रहे हैं। वहां इमारतों में, या खदानों में, खून चूसनेवाले ठेकेदारों के हाथ के नीचे दो रोटी कमाने के लिए खटने को मजबूर हो रहे हैं।
व्यापक आंकड़ों को देखने से ऐसा नहीं लगता कि खदान उद्योग खेती से ज्यादा फायदेमंद है। 1981-82 में कोई 14 करोड़ 30 लाख हेक्टेयर खेतों में लगभग 46,800 करोड़ रुपये का अन्न-धान्य पैदा हुआ, यानी लगभग प्रति हेक्टेयर 3,270 रूपये का उत्पादन हुआ। 50 लाख से 150 लाख हेक्टेयरों तक फैली खदानों से कुल 3,400 करोड़ रुपयों का ही, यानी प्रति हेक्टेयर 6,800 और 2,266 रुपयों के बीच उत्पादन हुआ। इस उत्पादन में से पर्यावरण की जो हानि हुई और लोगों के पुनर्वास पर जो खर्च हुआ, वह घटा दें तो खदानों की आय ज्यादा तो क्या, खर्च के बराबर भी शायद बैठे। लेकिन, खुदाई में समाज के बलशाली लोगों को लाभ जरूर हो रहा है। लगता है आज उन्हीं का डंका बज रहा है। वे देश को खोदते जा रहे हैं। लेकिन कहीं-कहीं विरोध भी उठ खड़ा हो रहा है। सबसे ताजा उदाहरण है उड़ीसा का गंधमार्दन पर्वत।
ऐसी सब जगहों पर सुरक्षा संबंधी कायदे-कानूनों का पालन कतई नहीं होता और खान मजदूरों का जीवन हर क्षण खतरे में झूलता रहता है। धनबाद जिले के चापापुर की अवैध कोयला खदान में 11 लोगों की मौत से अवैध खुदाई के तथ्यों का पर्दाफाश हुआ कि किस तरह अधिकारियों की नाक के नीचे, बल्कि उन्हीं के समर्थन और मिलीभगत से इतना बड़ा गैर-कानूनी काम चल रहा था। वह अवैध खदान चापापुर कोलियरी नं.2 के एजेंट और मैनेजर के दफ्तर से केवल 50 मीटर दूरी पर चल रही थी। उन अधिकारियों ने साफ कह दिया कि अवैध खदान के बारे में वे बिलकुल नहीं जानते। जब बात भी सामने आ गई कि दुर्घटना में मरे लोगों को दफनाते समय खदान का बुलडोजर काम में लाया गया था, तब भी वे उस बात की जानकारी से इनकार ही करते रहे।
लेकिन यह भी कहना मुश्किल है कि वैध खदानों में ऐसे दुष्कर्म नहीं होते होंगे। एक-से-एक नए और सुधरे यंत्र जैसे-जैसे आ रहे हैं, उन अकुशल स्थानीय लोगों के रोजगार की गुंजाइश घटती जा रही है जिनमें ज्यादातर वनवासी होते हैं। कुशल मजदूर तो शहरों से लाए जाते हैं। स्थानीय गरीब लोगों पर तो जैसे गाज गिर जाती है। उन्हें ऐसे वातावरण में जीने को मजबूर होना पड़ता है जहां दुर्घटना और बीमारियों का साम्राज्य है।
इस चित्र का सबसे बुरा पहलू यह है कि जिनके लाभ के लिए यब सब किया जाता है, उन्हें सचमुच लाभ नहीं पहुंचता। हजारों वनवासी आदमी, औरतों और बच्चों के झुंड-के-झुंड चिलचिलाती धूप में काले पत्थर से कोयले को छांटने और धातु के ढेलों को हथौड़ों और सब्बलों से तोड़ने में लगे रहते हैं। हर सूखे और अकाल के बाद, जंगलों के उजड़ने और खेती के बरबाद होने पर इन समूहों में अनेक नए लोग आकर जुड़ते जाते हैं।
हजारों लोग काम तो करते हैं पर स्थायी रोजगार का उन्हें कोई भरोसा नहीं है। जिनका काम पक्का है उनके सामने भी दिन-ब-दिन घुलते जाने का और इस खतरनाक काम में जान गंवा बैठने का भय बराबर बना रहता है। दरअसल हमारी आबादी के एक बहुत बड़े भाग के लिए ‘पिठड़े क्षेत्र के विकास’ का यही अर्थ है।
मध्य भारत में सबसे ज्यादा दुर्गति वनवासियों की हुई है, क्योंकि खदानों और उनसे जुड़े उद्योगों ने उनकी जमीन और उनके जंगलों को बड़ी मात्रा में उजाड़ा है। अकेले सिंगरौली कोयला खान के आसपास ही आठ-आठ ताप बिजली संयंत्रों का जमघट है। दूसरी जगहों का भी ऐसा ही हाल हम पिछले पन्नों में देख चुके हैं। तरह-तरह की खदानों, सीमेंट कारखानों, ताप बिजलीघरों, बड़े बांधो, फैक्टरियों और इन सबकी सेवा के लिए बिछे रेल और सड़क के जाल में कभी का समृद्ध और संतुष्ट वनवासी समाज जकड़ लिया गया है।
छत्तीसगढ़ जैसे समृद्ध क्षेत्र को पिछड़ा क्षेत्र बताना एक प्रकार की विडंबना ही है। एक जमाने में छत्तीसगढ़ की जमीन खूब उपजाऊ थी। वहां की नदियां सदानीरा थीं, सारा इलाका धान्य लक्ष्मी का भंडार था। आज चूंकि वहां खदानों की भरमार हो गई, सारे गरीब अकुशल मजदूर के रूप में दिल्ली जैसे बड़े शहरों को जा रहे हैं। वहां इमारतों में, या खदानों में, खून चूसनेवाले ठेकेदारों के हाथ के नीचे दो रोटी कमाने के लिए खटने को मजबूर हो रहे हैं।
व्यापक आंकड़ों को देखने से ऐसा नहीं लगता कि खदान उद्योग खेती से ज्यादा फायदेमंद है। 1981-82 में कोई 14 करोड़ 30 लाख हेक्टेयर खेतों में लगभग 46,800 करोड़ रुपये का अन्न-धान्य पैदा हुआ, यानी लगभग प्रति हेक्टेयर 3,270 रूपये का उत्पादन हुआ। 50 लाख से 150 लाख हेक्टेयरों तक फैली खदानों से कुल 3,400 करोड़ रुपयों का ही, यानी प्रति हेक्टेयर 6,800 और 2,266 रुपयों के बीच उत्पादन हुआ। इस उत्पादन में से पर्यावरण की जो हानि हुई और लोगों के पुनर्वास पर जो खर्च हुआ, वह घटा दें तो खदानों की आय ज्यादा तो क्या, खर्च के बराबर भी शायद बैठे। लेकिन, खुदाई में समाज के बलशाली लोगों को लाभ जरूर हो रहा है। लगता है आज उन्हीं का डंका बज रहा है। वे देश को खोदते जा रहे हैं। लेकिन कहीं-कहीं विरोध भी उठ खड़ा हो रहा है। सबसे ताजा उदाहरण है उड़ीसा का गंधमार्दन पर्वत।
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