इधर प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और तीव्रता में बढ़ोतरी हुई है। मौसमी परिवर्तन का एक और बड़ा संकेतक, जिस पर हम पर्याप्त ध्यान नहीं दे रहे हैं, बहुत तेजी से उभार पर है। वह है रेगिस्तानी इलाकों का विस्तार। दुनिया के लगभग सारे रेगिस्तानी क्षेत्र में विस्तार हो रहा है, लेकिन थार रेगिस्तान का विस्तार कुछ अधिक तेज गति से हो रहा है। इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन यानी इसरो की हालिया रिसर्च बताती है कि थार अब केवल राजस्थान की पहचान नहीं है। इसने हरियाणा, पंजाब, गुजरात और मध्यप्रदेश तक अपने पांव फैला लिये हैं।
इसरो की यह रिसर्च पूरे भारत की भू संपदा को लेकर है। रिसर्च के जरिये चौंकाने वाला यह तथ्य सामने आया है कि देश के 32 फीसद भू-भाग की उर्वरता शक्ति क्षीण हो रही है। इनमें से सर्वाधिक 24 फीसद थार के इर्द-गिर्द के इलाके हैं। ऐसा नहीं कि सिर्फ इसरो ने इस तरह का आकलन किया है। सेंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीट्यूट के अध्ययन से भी यह तथ्य सामने आया है कि पिछले 50 सालों में प्रतिवर्ष औसतन आठ किलोमीटर तक थार रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है। साथ ही प्रतिवर्ष 50 वर्ग मील खेती योग्य भूमि अपनी उर्वरता थार के रेत कणों के कारण खो रही है।
दरअसल ग्लोबल वार्मिंग के बाद रेगिस्तान और उसके आसपास के इलाकों में तापमान बढ़ने की प्रक्रिया काफी तेज हो गई है। विज्ञान जर्नल नेचर की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक इन इलाकों के वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा काफी बढ़ी हुई है और इसे अगर कम नहीं किया जाता है तो उन इलाकों के तापमान में दो-चार सालों में काफी बढ़ोतरी हो जाएगी। नेचर की रिपोर्ट में दो रेगिस्तान-थार और कालाहारी को खासतौर से टारगेट किया गया है।
थार का इलाका भारत-पाकिस्तान और कालाहारी का इलाका अफ्रीका के दक्षिण स्थित देश हैं। थार के इलाके में औसत तापमान दो डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ा है। इसका असर पानी की घोर किल्लत और खेजड़ी जैसे पेड़, जो इन इलाकों में बहुतायत से मिलते हैं की विलुप्ति के तौर पर भी हो रहा है। यहां तक कि इन इलाकों में रह रहे लोग पलायन को मजबूर हो रहे हैं।
थार के इलाके कितनी जल्दी रेगिस्तानी होते रहे हैं, इसका अंदाजा इसी से लगता है कि राष्ट्रीय मृदा सर्वे और भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो ने 1996 में थार का इलाका एक लाख 96 हजार 150 वर्ग किलोमीटर माना था, जो अब बढ़कर दो लाख आठ हजार 110 किलोमीटर हो चुका है। इस बढ़ते हुए विस्तार के पीछे केवल प्रकृति नहीं है बल्कि हम भी समान रूप से दोषी हैं। अरावली पर्वत श्रृखंलाओं की प्राकृतिक संपदा को नुकसान पहुंचाना और थार के आसपास के इलाकों में खनन कार्यों का बढ़ना खतरनाक हुआ है।
एक और कारण जिस पर वैज्ञानिक खासतौर से फोकस कर रहे हैं, वह है थार के आसपास के इलाकों में हो रही खेती में रसायनों का बढ़ता इस्तेमाल। इससे दोहन की एक सीमा के बाद मृदा की लवणता बढ़ जाती है और फिर उन इलाकों में हरियाली का लोप होता जाता है। इस परिवर्तन चक्र में वर्षा की कमी के साथ ही रेगिस्तान के प्रसार की पूर्वपीठिका तैयार हो जाती है। पिछले कुछ सालों में देश की करीब 90 लाख 45 हजार हेक्टेयर जमीन बंजर हो चुकी है।
ऐसे में रेगिस्तान का प्रसार रोकने की व्यवस्था नहीं हुई तो देश के अनाज उत्पादन में काफी कमी आ सकती है। इतना ही नहीं, रेगिस्तान से उठने वाले बवंडर से हिमालय के ग्लेशियर पिघलने की गति भी तेज हो रही है। सेटेलाइट स्टडी से साफ हुआ है कि थार के प्रसार के बाद उससे उठ रही तेज हवाओं की इंटेंसिटी में काफी बढ़ोतरी हुई है और वह हिमालय से टकरा रही हैं। हाल में आईआईटी कानपुर ने एक रिसर्च में पाया कि हिमालय के जिन इलाकों में बर्फ पिघलने की गति तेज है वहां बर्फ में रेतीली मिट्टी के कण पाए गए हैं।
यकीनन थार के प्रसार को रोकने का हमें ईमानदारी से प्रयास करना चाहिए क्योंकि यह पूरे देश के आर्थिक चरित्र मंर बदलाव ला सकता है। सबसे पहले तो हमें जल प्रबंधन को प्रभावी बनाने का प्रयास करना चाहिए। इस बारे में अनुसंधान होने चाहिए कि किस तरह कम पानी खाने वाली फसलों से जमीन को बंजर होने से बचाया जाए। अरावली पर्वत श्रृखंलाओं की जैव विविधता कायम रखने पर हमें ध्यान देने की जरूरत है।
इसी तरह खेती में रसायनों के कम इस्तेमाल को भी बढ़ावा देना होगा। हमें सेज की अवधारणा पर भी विचार करना होगा क्योंकि ऐसी बंजर या फिर अद्र्धबंजर भूमि जिसे हरा-भरा बनाया जा सकता हो, रेगिस्तान का प्रसार रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। भारतीय वन सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट से यह सकारात्मक बात सामने आई है कि देश में वनों के क्षेत्रफल में सुधार हुआ है। प्रसार का यह दायरा थार के इर्द-गिर्द के इलाकों में पहुंच सके, इसके लिए हमें दीर्घकालिक नीति बनाने पर शीघ्र विचार करना चाहिए।
इसरो की यह रिसर्च पूरे भारत की भू संपदा को लेकर है। रिसर्च के जरिये चौंकाने वाला यह तथ्य सामने आया है कि देश के 32 फीसद भू-भाग की उर्वरता शक्ति क्षीण हो रही है। इनमें से सर्वाधिक 24 फीसद थार के इर्द-गिर्द के इलाके हैं। ऐसा नहीं कि सिर्फ इसरो ने इस तरह का आकलन किया है। सेंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीट्यूट के अध्ययन से भी यह तथ्य सामने आया है कि पिछले 50 सालों में प्रतिवर्ष औसतन आठ किलोमीटर तक थार रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है। साथ ही प्रतिवर्ष 50 वर्ग मील खेती योग्य भूमि अपनी उर्वरता थार के रेत कणों के कारण खो रही है।
दरअसल ग्लोबल वार्मिंग के बाद रेगिस्तान और उसके आसपास के इलाकों में तापमान बढ़ने की प्रक्रिया काफी तेज हो गई है। विज्ञान जर्नल नेचर की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक इन इलाकों के वातावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा काफी बढ़ी हुई है और इसे अगर कम नहीं किया जाता है तो उन इलाकों के तापमान में दो-चार सालों में काफी बढ़ोतरी हो जाएगी। नेचर की रिपोर्ट में दो रेगिस्तान-थार और कालाहारी को खासतौर से टारगेट किया गया है।
थार का इलाका भारत-पाकिस्तान और कालाहारी का इलाका अफ्रीका के दक्षिण स्थित देश हैं। थार के इलाके में औसत तापमान दो डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ा है। इसका असर पानी की घोर किल्लत और खेजड़ी जैसे पेड़, जो इन इलाकों में बहुतायत से मिलते हैं की विलुप्ति के तौर पर भी हो रहा है। यहां तक कि इन इलाकों में रह रहे लोग पलायन को मजबूर हो रहे हैं।
थार के इलाके कितनी जल्दी रेगिस्तानी होते रहे हैं, इसका अंदाजा इसी से लगता है कि राष्ट्रीय मृदा सर्वे और भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो ने 1996 में थार का इलाका एक लाख 96 हजार 150 वर्ग किलोमीटर माना था, जो अब बढ़कर दो लाख आठ हजार 110 किलोमीटर हो चुका है। इस बढ़ते हुए विस्तार के पीछे केवल प्रकृति नहीं है बल्कि हम भी समान रूप से दोषी हैं। अरावली पर्वत श्रृखंलाओं की प्राकृतिक संपदा को नुकसान पहुंचाना और थार के आसपास के इलाकों में खनन कार्यों का बढ़ना खतरनाक हुआ है।
एक और कारण जिस पर वैज्ञानिक खासतौर से फोकस कर रहे हैं, वह है थार के आसपास के इलाकों में हो रही खेती में रसायनों का बढ़ता इस्तेमाल। इससे दोहन की एक सीमा के बाद मृदा की लवणता बढ़ जाती है और फिर उन इलाकों में हरियाली का लोप होता जाता है। इस परिवर्तन चक्र में वर्षा की कमी के साथ ही रेगिस्तान के प्रसार की पूर्वपीठिका तैयार हो जाती है। पिछले कुछ सालों में देश की करीब 90 लाख 45 हजार हेक्टेयर जमीन बंजर हो चुकी है।
ऐसे में रेगिस्तान का प्रसार रोकने की व्यवस्था नहीं हुई तो देश के अनाज उत्पादन में काफी कमी आ सकती है। इतना ही नहीं, रेगिस्तान से उठने वाले बवंडर से हिमालय के ग्लेशियर पिघलने की गति भी तेज हो रही है। सेटेलाइट स्टडी से साफ हुआ है कि थार के प्रसार के बाद उससे उठ रही तेज हवाओं की इंटेंसिटी में काफी बढ़ोतरी हुई है और वह हिमालय से टकरा रही हैं। हाल में आईआईटी कानपुर ने एक रिसर्च में पाया कि हिमालय के जिन इलाकों में बर्फ पिघलने की गति तेज है वहां बर्फ में रेतीली मिट्टी के कण पाए गए हैं।
यकीनन थार के प्रसार को रोकने का हमें ईमानदारी से प्रयास करना चाहिए क्योंकि यह पूरे देश के आर्थिक चरित्र मंर बदलाव ला सकता है। सबसे पहले तो हमें जल प्रबंधन को प्रभावी बनाने का प्रयास करना चाहिए। इस बारे में अनुसंधान होने चाहिए कि किस तरह कम पानी खाने वाली फसलों से जमीन को बंजर होने से बचाया जाए। अरावली पर्वत श्रृखंलाओं की जैव विविधता कायम रखने पर हमें ध्यान देने की जरूरत है।
इसी तरह खेती में रसायनों के कम इस्तेमाल को भी बढ़ावा देना होगा। हमें सेज की अवधारणा पर भी विचार करना होगा क्योंकि ऐसी बंजर या फिर अद्र्धबंजर भूमि जिसे हरा-भरा बनाया जा सकता हो, रेगिस्तान का प्रसार रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। भारतीय वन सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट से यह सकारात्मक बात सामने आई है कि देश में वनों के क्षेत्रफल में सुधार हुआ है। प्रसार का यह दायरा थार के इर्द-गिर्द के इलाकों में पहुंच सके, इसके लिए हमें दीर्घकालिक नीति बनाने पर शीघ्र विचार करना चाहिए।
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