खत्म होने के कगार पर कांवर झील

कावर झील
कावर झील

उत्तर बिहार के बेगूसराय का कांवर झील प्राकृतिक सुंदरता और जैव विविधता के कारण प्रवासी एवं स्थानीय पक्षियों का आश्रय स्थल है। वह अब खत्म होने के कगार पर है। यह न सिर्फ अनुकूल जलवायु और वातावरण के कारण पक्षियों का पसंदीदा स्थान है। मौजूदा समय में यह प्रकृति और मानवीय संम्बधों की तलाश कर रहा है।

7400 हेक्टेयर के भूभाग में फैला यह झील दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा मीठे पानी का झील है। इसका निर्माण गंगा और उसकी सहायक नदियाँ कोशी, बागमती, गंडक के कारण हुआ। यह यहाँ जीवन को संरक्षित और पोषित करता है। यदि इसे वरदान कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस क्षेत्र के आस-पास के सटे क्षेत्रों की सिंचाई का साधन भी है। यह न सिर्फ कृषि, बल्कि मछली पालन का भी आधार है। रोजाना लगभग दो टन मछली उत्पादित होती है। यह यहाँ के लोगों के आय का एक प्रमुख साधन है।

वर्ष 1989 के जून में बिहार सरकार ने इस अभ्यारण को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया है। इसे स्थानीय पक्षियों तथा प्रवासी पक्षियों की बहुलता के करण सरकार ने यह फैसला लिया था। इस झील में जलीय जीवन के साथ-साथ शिशम, सागवान, रेशमकीट, जामुुुन और केले के पेड़ों की अधिकता है। पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था मंदार नेचर क्लब के अध्ययन से यह खुलासा हुआ कि य​ह झील अपनी सुंदरता और विविधता लगातार खोती जा रही है। इस कारण प्रवासी पक्षियों की संख्या में लगातार कमी हो रही है। साथ ही इसका क्षेत्रफल घटता जा रहा है। अब इसका क्षेत्रफल घटकर मात्र 6043 रह गया हैै।

सरकार ने इसे भले ही संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया है, लेकिन इसका अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है। इसके मूल में कृषि योग्य भूमि का लालच, अवशिष्टों का त्याग तथा अन्य संसाधनों का अंधाधुँध दोहन है। इसके कारण झील का पानी लगातार घटता जा रहा है। अरविंद मिश्रा बताते हैं कि पर्यावास में परिवर्तन (हैबिटेट चेंज), वनों की कटाई, शहरीकरण, जीवनशैली में परिवर्तन, जलाशयों की भराई के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन पक्षियों के प्रवसन को गम्भीर रूप से प्रभावित करते हैं। जलीय मोथा जैसे हाइड्रीला, फैग्मेटीस जैसे अन्य हानिकारक पौधे एवं जन्तुओं की अधिकता के कारण इसके जल में लगातार ऑक्सीजन की मात्रा में कमी होती जा रही है। पहले इसके जल में घुली आॅक्सीजन की मात्रा 7.6 एम.जी थी। वर्तमान में इसका जल प्रदूषित जल की श्रेणी में है। इस जल के उपयोग से स्थानीय निवासी अपच,चर्मरोग तथा कई प्रकार की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं।

इस झील में आनेवाली पक्षियों का शिकार, अत्यधिक मात्रा में मछलियों का यहाँ से निकाला जाना, खेती में कीटनाशकों तथा रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल, जल का दोहन आदि ने इसे विलुप्ति के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। जनसमुदाय में जानकारियों का अभाव, प्रवा​सी प्रक्षियों के प्रति अज्ञानता, व्याप्त गरीबी, राजनीतिक इच्छा शक्ति और अस्पष्ट सरकारी नीतियों ने इस अभ्यारण के अस्तित्व पर खड़ेे कर दिए हैं। पम्पिंग सेट और ट्रैक्टर के प्रयोग आहट से मेहमान पक्षियों की आवाजाही कम हो गई है। झील और पक्षियों की पीड़ा से अनभिज्ञ किसान शेष बचे पानी को भी सोख लेना चाहते हैं।

किसानों को यह मालूम नहीं है कि प्रकृति के लिये पक्षी व जीव-जन्तु महत्वपूर्ण हैं। साहित्यकार नरेन्द्र कुमार सिंह कहते हैं कि इस झील की रक्षा के लिए सभी वर्गों को आगे आने की आवश्यकता है। इसके व्यापक जनजागरूकता जरूरी है। लोगों को यह समझाना होगा कि मानव और प्रकृति के रिश्ते मजबूत हैं।
 

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