खरपतवारों के बीच खेती

यदि चावल शरद ऋतु में बोया गया हो और बीजों को ढंका न गया हो तो बीजों को अक्सर चूहे या परिंदे खा जाते हैं, या वे जमीन में ही सड़ जाते हैं। इससे बचने के लिए चावल के बीजों को बोने से पहले मिट्टी की गोलियों में लपेट देता हूं। बीजों को एक टोकरी या चपटे बरतन में गोल-गोल और आगे-पीछे हिलाया जाता है।

इन खेतों में अनाज और मेथी के साथ कई विभिन्न प्रकार के खरपतवार भी उग रहे हैं। खेतों में जो धान का पुआल पिछली पतझड़ के मौसम में बिछाया गया था, वह सड़कर अब बढ़िया खाद मिट्टी में बदल गया है। पैदावार प्रति चैथाई एकड़ कोई 22 बुशेल होगी। चरागाहों की घास के अग्रणी विशेषज्ञ प्रोफेसर कावासे तथा प्राचीन पौधों पर शोध कर रहे प्रोफेसर हीरो ने कल जब मेरे खेतों में जौ और हरे खाद की महीन चादर बिछी देखी तो उसे उन्होंने कलाकारी का एक खूबसूरत नमूना कहा। एक स्थानीय किसान, जिसने मेरे खेतों में खूब सारी खरपतवार देखने की उम्मीद की थी, उसे यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि कई अन्य तरह के पौधों के बीच जौ (बार्ली) खूब तेजी के साथ बढ़ रही थी। तकनीकी विशेषज्ञ भी यहां आए हैं और उन्होंने भी खरपतवार देखी, चारों ओर उगती मेथी और जलकुंभी देखे और अचरज से अपने सिर हिलाते हुए यहां से चल दिए।

बीस साल पहले जब मैं अपने फल-बागों में स्थाई भूमि आवरण उगाने में लगा था, तब देश के किसी भी खेत या फल-बाग में घास का एक तिनका भी नजर नहीं आता था। मेरे जैसे बागानों को देखने के बाद ही लोगों की समझ में आया कि फलों के पेड़, घास और खरपतवार के बीच भी बढ़ सकते हैं। आज, नीचे घास उगे हुए फलबाग आपको जापान में हर कहीं नजर आ जाएंगे तथा बिना घास-आवरण के बागान अब दुर्लभ हो गए हैं। यही बात अनाज के खेतों पर भी लागू होती है। चावल, जौ तथा राई को, सारे साल भर, मेथी और खरपतवार से ढंके खेतों में भी मजे से उगाया जा सकता है।

इन खेतों में बोनी और कटनी की कार्यक्रम सूची की मैं जरा विस्तार से समीक्षा करना चाहूंगा। अक्टूबर के प्रारम्भ में, कटनी से पहले सफेद मेथी और तेजी से बढ़ने वाली जाड़े की फसल के बीज धान की पक रही फसल के बीच ही बिखेर दिए जाते हैं। जौ या राई और मेथी के पौधे एक-दो इंच ऊपर तक आ जाने तक चावल भी पक कर कटने योग्य हो जाता है। चावल की फसल काटते समय मेथी और जौ के अंकुर किसानों के पैरों तले कुचले जाते हैं, लेकिन उन्हें फिर से पनपने में ज्यादा समय नहीं लगता। धान की गहाई पूरी हो जाने के बाद उसकी कुट्टी और पुआल को खेत पर फैला दिया जाता है।

यदि चावल शरद ऋतु में बोया गया हो और बीजों को ढंका न गया हो तो बीजों को अक्सर चूहे या परिंदे खा जाते हैं, या वे जमीन में ही सड़ जाते हैं। इससे बचने के लिए चावल के बीजों को बोने से पहले मिट्टी की गोलियों में लपेट देता हूं। बीजों को एक टोकरी या चपटे बरतन में गोल-गोल और आगे-पीछे हिलाया जाता है। इसके बाद उन पर महीन मिट्टी छिड़क दी जाती है, और बीच-बीच में उन पर पानी का ‘हल्का’ सा छिड़काव भी किया जाता है। इस के करीब आध इंच व्यास की गोलियां बन जाती हैं।

गोलियां बनाने का एक और तरीका भी है। पहले बिना छिले चावल (धान) को कुछ घंटों तक पानी में डुबो दिया जाता है। फिर धान का छिलका उतार कर चावल को गीली मिट्टी में हाथों या पैरों से गूंध् लिया जाता है। इसके बाद तार की जाली में से इस मिट्टी के लौंदों को दबाकर छोटे-छोटे ढेलों को एक-दो दिनों तक थोड़ा सूखने दिया जाता है ताकि हथेलियों से उनकी गोलियां बनाई जा सकें। सबसे अच्छा तो यह होगा कि हर गोली में एक ही बीज हो। एक दिन में इतनी गोलियां बन जाएंगी, जिनसे कई एकड़ में बुआई की जा सके।

परिस्थितियों के मुताबिक कभी-कभी मैं इन गोलियों को बोने के पहले उनमें अन्य अनाजों या सब्जियों के बीज भी रख देता हूं। मध्य नवम्बर से मध्य दिसंबर के बीच की अवधि में मैं चावल की बीजों वाली इन गोलियों को जौ या राई की नई फसल के बीच बिखेर देता हूं। ये बीज वसंत ऋतु में भी बोए जा सकते हैं।फसल को सड़ाने के लिए खेत पर कुक्कट खाद की एक पतली परत भी फैला दी जाती है। इस तरह पूरे साल की बोनी पूरी होती है। मई में जाड़े के अनाज की फसल काट ली जाती है। उसकी गहाई के बाद उसका पुआल भी खेत में बिखेर दिया जाता है।

इसके बाद खेत में एक हफ्ते या दस दिन तक पानी बना रहने दिया जाता है। इससे मेथी और खरपतवार कमजोर पड़ जाती है, और चावल को पुआल में से फूट कर बाहर आने का मौका मिल जाता है। जून और जुलाई में बारिश का पानी ही पौधों के लिए पर्याप्त होता है। अगस्त महीने में खेतों में से ताजा पानी सिर्फ बहाया जाता है, उसे वहां रुकने नहीं दिया जाता है। ऐसा हफ्ते में एक बार किया जाता है। इस समय तक शरत-ऋतु की कटनी की घड़ी भी आ जाती है। प्राकृतिक विधि से चावल और जाड़े के अनाज की खेती का वार्षिक चक्र ऐसे चलता है। बोनी और कटनी का यह पैटर्न इतने करीब से प्राकृतिक क्रम की नकल करता है कि उसे कोई कृषि तकनीक कहने की बजाए प्राकृतिक कहना ही उचित होगा।

चौथाई एकड़ के खेत में बीज बोने या पुआल फैलाने में किसान को एक या दो घंटे से ज्यादा का समय नहीं लगता। कटनी के काम को छोड़कर, जाड़े की फसल को अकेला किसान भी मजे से उगा सकता है। एक खेत में चावल की खेती का जरूरी काम भी दो या तीन लोग ही परम्परागत जापानी औजारों की मदद से निपटा लेते हैं। अनाज उगाने की इससे सरल विधि शायद और कोई नहीं हो सकती है। इस विधि में बीज बोने तथा पुआल फैलाने के अलावा खास कुछ भी नहीं करना पड़ता, लेकिन इस सीधी-सादी विधि तक पहुंचने में मुझे तीस बरस का समय लगा।

खेती का यह तरीका जापान की प्राकृतिक स्थितियों के अनुसार विकसित हुआ है, लेकिन मैं सोचता हूं कि प्राकृतिक खेती को अन्य क्षेत्रों में अन्य देसी फसलें उगाने के लिए भी अपनाया जा सकता है। मसलन जिन इलाकों में पानी इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं होता, वहां पहाड़ी चावल, ज्वार, बाजरा या कुटकी को उगाया जा सकता है। वहां सफेद मेथी की जगह मेथी की अन्य किस्म अल्फा-अल्फा, मोठ या दलहन खेतों को ढंकने के लिए ज्यादा अच्छे उपयोगी साबित हो सकते हैं। प्राकृतिक कृषि उस इलाके की विशिष्ट परिस्थितियों के मुताबिक अपना अलग रूप धारण कर लेती है, जहां उसका उपयोग किया जा रहा हो।

इस प्रकार की खेती की शुरुआत करने से पूर्व कुछ थोड़ी निंदाई, छंटाई या खाद बनाने की जरूरत पड़ सकती है, लेकिन बाद में हर साल इसमें क्रमशः कमी लाई जा सकती है। आखिर में जाकर सबसे महत्वपूर्ण चीज कृषि तकनीक के बजाए किसान की मनस्थिति ही ठहरती हैं।

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