खराश की अभिव्यक्ति

भारत सरकार ने 1980 में महाकाली नदी पर 1928 में बनी पुरानी पड़ रही शारदा बराज के विकल्प में पूरे-पूरे भारतीय क्षेत्र में टनकपुर बराज का निर्माण किया था जिससे 16.10 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि पर सिंचाई की व्यवस्था की जा सके। यहाँ पर भारत ने अपने क्षेत्र की सिंचाई के लिए तथा नेपाल को पानी देने के लिए दो अलग-अलग नहरों का निर्माण किया लेकिन भारतीय नहर का बेड लेवेल नेपाल वाली नहर के बेड लेवेल से 3.5 मीटर (लगभग 11.5 फीट) नीचे रखा।

वर्ष 1991 में जहाँ दोनों देशों के बीच एक ओर ज्वाइन्ट कमेटी ऑफ एक्सपटर्स और ज्वाइन्ट कमेटी फॉर एम्बैन्कमेन्ट कन्सट्रक्शन का गठन हुआ वहीं नेपाल के प्रबुद्ध वर्ग में भारत-नेपाल की साझा जल-संसाधन की योजनाओं में खराश पैदा होना शुरू हुई। दीपक ज्ञेवाली लिखते हैं, ‘‘...1990 के पहले जल-संसाधन विकास की परियोजनाएं वही हुआ करती थीं जिनके बारे में जल-संसाधन और विद्युत विभाग के विशेषज्ञ तय कर दिया करते थे और जिनके लिए नेपाल के दो विराट पड़ोसियों भारत और चीन की सरकारों समेत किसी दाता संस्था का समर्थन मिल जाय। इस पर पहला राजनैतिक विरोध 1991 में शुरू हुआ जबकि पश्चिम में भारत ने एकतरफा तरीके से भारत-नेपाल सीमा पर महाकाली नदी पर टनकपुर जल-विद्युत प्रकल्प हाथ में लिया।

नेपाल के प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला जब भारत की राजकीय यात्रा पर गए थे तब उन्होंने इस परियोजना में बायें तटबन्ध को नेपाल की सीमा में बनाये जाने पर ‘सहमति’ प्रदान कर दी थी और उस समय भारत ने इस मुद्दे पर नेपाल की संवेदनशीलता का संज्ञान नहीं लिया। बाद में यह विषय 1996 में हुई महाकाली संधि की भेंट चढ़ गया जो कि उसी समय से इससे भी ज्यादा विवादास्पद विषय बन गयी है। इस संधि पर बहस जल-संसाधन संबंधी सभी विषयों, जैसे पानी पर किसका अधिकार हो, परियोजना से होने वाले लाभ का बटवारा किस तरह से हो और पानी को समग्रता में किस तरह से देखा जाए, आदि को आम जनता के बीच ले आयी।’’

टनकपुर में हुआ यह था कि भारत सरकार ने 1980 में महाकाली नदी पर 1928 में बनी पुरानी पड़ रही शारदा बराज के विकल्प में पूरे-पूरे भारतीय क्षेत्र में टनकपुर बराज का निर्माण किया था जिससे 16.10 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि पर सिंचाई की व्यवस्था की जा सके। यहाँ पर भारत ने अपने क्षेत्र की सिंचाई के लिए तथा नेपाल को पानी देने के लिए दो अलग-अलग नहरों का निर्माण किया लेकिन भारतीय नहर का बेड लेवेल नेपाल वाली नहर के बेड लेवेल से 3.5 मीटर (लगभग 11.5 फीट) नीचे रखा। इसका मतलब यह होता है कि पानी पहले भारत वाली नहर में जायेगा और वह नेपाल वाली नहर में तभी जायेगा जब भारत वाली नहर में उसकी गहराई 3.5 मीटर (11.5 फीट) से ज्यादा हो।

भारत का कहना है कि बराज के पीछे जो जलाशय बनेगा उसका लेवल इस तरह से सुनिश्चित होगा कि नेपाल वाली नहर में कम से कम 1.7 मीटर गहराई का पानी हर समय जा सके। नेपाल एलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी के भूतपूर्व प्रबन्ध निदेशक शान्ता बहादुर पुन का मानना है, ‘‘...भारत ने इसी तरह का वायदा गंडक बराज के साथ भी किया था, जिसकी पश्चिमी नहर में एक जल-विद्युत प्लांट भी स्थापित है मगर वहाँ जलाशय में पानी का लेवेल स्थिर नहीं रखा गया जिसके फलस्वरूप नेपाल को कभी भी पानी की निर्धारित मात्र नहीं मिली।

पिछले 13 वर्षों से भारत को कहा जा रहा है कि वह नेपाल वाली नहर का बेड लेवेल नीचे कर दे मगर उसके कान पर जूं नहीं रेंगती। इसके बावजूद भारत यह तर्क देता है कि टनकपुर में नेपाल के लिए बनाया गया रेगुलेटर संधि पर हस्ताक्षर करने के पहले 1992 में ही बन चुका था... भारत का हमेशा से काम करने का तरीका ही यही है कि पहले निर्माण कर लो और बाद में कुछ वर्षों में इसे नियमित कर लो।’’ यह पूरा मसला जल-संसाधन विषयक संयुक्त समिति की अब तक की हर मीटिंग में उठाया जाता है, विकल्प भी सुझाये जाते हैं, काम भी होता है मगर औपचारिक संयुक्त समितियों के बाहर नेपाल के प्रबुद्ध वर्ग को यह विश्वास हो गया है कि ‘भारत ने न सिर्फ एकतरफा तौर पर टनकपुर बराज का निर्माण किया वरन् उसके पास वह ‘‘दूरदृष्टि और विनम्रता’’ भी थी कि उसने नेपाल के लिए 1992 में ही 28 घनमेक क्षमता वाली नहर के इनलेट का निर्माण कर दिया था।’

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Post By: tridmin
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