बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। कम हो जाती...फिर तेज हो जाती।...दरवाजे पर ताला पड़ा था। मतलब कोई आया नहीं। न गौतम आया...न कोपर...न कोई और।...किसी तरह ताला खोला।...दरवाजा खोलकर अंधेरे में स्विच टटोला। ऑन किया तो कोई असर नहीं हुआ। स्विच को कई बार ऊपर नीचे किया। कुछ नहीं हुआ। अचानक समझ में आ गया... बिजली गायब है। दरवाजे से झांक कर बाहर देखा। पूरी बस्ती अंधेरे में डूबी हुई थी… बरसते पानी में खौफनाक लग रही थी। रंगल बीच से लहरों के हरहराने की आवाजें बार-बार गूंज रही थीं। हवाएं भी चीख रही थीं। रह-रह कर बादल गरज उठते थे। टिन की छत पर बरसते हुए पानी की तड़-तड़ का शोर भी होड़ में शामिल था।… मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूं।… किसी पड़ोसी को जगाया नहीं जा सकता था। किसी से कोई खास पहचान भी नहीं थी अब तक।… सवाल था कि क्या कोई मोमबत्ती...दीया...लालटेन...कुछ भी है। जवाब साफ था। कुछ भी नहीं है।… कोने में एक स्टोव था। उसके पास ही कहीं दियासलाई रखी थी।...पता नहीं किस कपड़े से रगड़कर मैंने हाथों को पोछा। टटोलकर दियासलाई जलाने की कोशिश की।
लेकिन कच्ची जमीन पर चारों तरफ सीलन फैली हुई थी। एक के बाद एक...कई सलाइयां रगड़कर फेंकनी पड़ीं। दिया-सलाई नहीं जली। तब मुझे लगा...जल भी जाएगी तो क्या होगा? बुझ जाएगी। जलाकर रखने के लिए मेरे पास कोई चीज नहीं है।... पतले से गद्दे पर दरी डालकर मैंने अपना बिस्तर तैयार कर लिया था। कई-कई दिनों से उसी तरह बिछा था। दरी को थोड़ा झड़क कर उसी पर सो जाता था। एक रस्सी बांध ली थी जो अलगनी का काम देती थी। अंदाज से तौलिया और लुंगी हाथ लग गए थे।...अपने जिस्म से सारे गीलेपन को पोंछकर और लुंगी लपेटकर जब बिस्तर पर पहुंचा...तो लगा कि कई जगह से गीला है। टिन शायद टपक रही थी।...दो तीन बार बिस्तर को इधर-उधर खींचकर मैंने सो जाने की कोशिश की। बहुत जल्द हल्की-हल्की नींद ने आ घेरा।...मरे हुए लोग जिंदा हो गए। पीछे छोड़ी हुई जगहें फिर मेरे पास पहुंच गयीं।...ये गांव...ये कस्बे...ये शहर...ये मां...ये बाप...ये साथी...ये झंडे...ये नारे...ये आवाजें...?
अचानक मुझे लगा कि बाहर कोई आवाज दे रहा है।...या शायद कोई सपना है।...लेकिन सचमुच कोई आवाज दे रहा था और दरवाजा खटखटा रहा था। मैं उठ कर बैठ गया।
...झम झम पानी के अंधेरे में गौतम पाल खड़ा हुआ था। उसके सिर पर एक छतरी थी और हाथ में लालटेन। दरवाजा खुलते ही किसी तरह छतरी बंद की और अंदर आ गया।
लालटेन की हल्की रोशनी खोली में फैल गयी। मैंने कहां “क्या बात है?...इस समय कहां से आ रहा है?”
खोली में चारों तरफ निगाह डालने लगा...जैसे मुआइना कर रहा हो। बोला “तेरी खोली तो ठीक ठाक है।...पर उधर चाली में पानी अंदर आ गया है।”
मैं कुछ समझ नहीं पाया। आंखें मिचमिचाता हुआ बोला, “...पानी अंदर आ गया है?...मतलब?”
बोला, “...माधव कोपर की चाली में।...लो लाइंग एरिया है न!...खाड़ी और नाला का सारा पानी चाली में फैल रहा है।...हाई टाइड का भी टाइम है!”
मैं सोच में पड़ गया। बोला, “...लेकिन तू वहां कैसे पहुंच गया?”
मगर मेरी तरफ गौतम का ध्यान नहीं था। बोला, “चाली के लोग चर्च में जा रहे हैं।...मैं बोला...देखता हूं...तू...आया है या नहीं। आया था पहले भी पर चाभी भूल गया...तो बोला...चलो कोपर के रूम पर सोएगा।...मगर उधर पानी भरने लगा...। सबेरे जरूरत हुआ तो...एकाध फेमिली को ये खोली में शिफ्ट करना पड़ेगा...।”
मैंने कहा, “...उसमें कोई प्रॉब्लम नहीं है। लेकिन अभी-थोड़ा टाइम सोना चाहिए...।”
मगर गौतम ने फिर मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया। बोला, “...कुछ चा चीनी दूध वगैरह है कि नहीं...? हम थोड़ा गीला हो गया हूं।...थोड़ा ठण्डी भी है।...थोड़ा चा जरूरी है...।”
मैंने कहा, “दूध नहीं है। चाय की पत्ती और शक्कर उधर है।...तू बना ले और पी ले। मुझे नींद आ रही है...।”
दरवाजा खोलकर हम लोग बाहर देखने लगे।...रास्ते का पानी घुटनों तक पहुंच रहा था। धार बहुत तेज थी।...दो औरतें...एक मर्द...तीन बच्चे...प्लास्टिक के कपड़े ओढ़ें धार में से गुजरने की कोशिश कर रहे थे। मर्दों और औरतों के सिरों पर पेटियां और बिस्तर थे।...आवाज देकर गौतम मराठी में बोला, “...काय गांववाले।...इकडे कुठे?” (“क्या गांववाले।...इधर कहां?”
एक मर्द ने चलते-चलते ही चीख कर कहा, “घरांत पाणी शिरलय। चर्च कड़े निघालो...। (“...घर में पानी घुस गया है।...चर्च में जा रहे हैं?”)
झम झम बरसते पानी में उसकी आवाज खो गयी। गौतम भाषाएं सीखने में बहुत तेज है...मगर चुपचाप उसी तरह खड़ा रहा। फिर बोला, “...ये मामला गड़बड़ है।...मैं देखता हूं...उधर का क्या पोजीशन है।...तू एक काम कर! थोड़े टैम रास्ता देख। बरसात नहीं रूकता है...तो जरूरी चीज वस्त्र लेकर चर्च में आ जा।...इधर रहने में कोई मतलब नहीं...।”
पानी गौतम के घुटनों के कुछ ही नीचे था। पतलून ऊपर मोड़ ली थी...फिर भी आधी पानी में थी। बुझी हुई लालटेन और छतरी संभालता पानी में से किसी तरह गुजर रहा था।...जहां तक दिखाई दिया...मैं उसे देखता रहा।...मैंने उससे कुछ पूछा नहीं। यह भी नहीं पूछ कि मैं चर्च तक कैसे पहुंच जाऊंगा। मेरे पास तो छतरी भी नहीं थी।...अचानक मुझे आयशा की याद हो आयी। उसकी छतरी उसके लिए बेकार हो गयी थी। तेज हवाएं उसे चलने भी नहीं दे रही थीं।...कहां होगी वह? क्या उसके कॉटेज में भी पानी चला गया होगा?...फौरन समझ में आ गया...ऐसा नहीं हो सकता। ये सभी सिर्फ कहने के कॉटेज हैं। हर तरह के आराम का ख्याल रखकर इन्हें बनाया जाता है।...
रास्ते पर कुछ और भी लोग थे...तेज पानी में से गुजरने की कोशिश कर रहे थे। औरत...मर्द...और बच्चे? सिरों पर उसी तरह सामान लादे हुए थे। प्लास्टिक के कपड़ों,...छतरियों और रेनकोटों का सहारा लेकर अपना बचाव करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन सब बेकार था।...लोगों का इस तरह चर्च की तरफ रवाना होना...शायद देर रात से ही शुरू हो गया था।
मैं दोपहर तक सोता रहा।...कि एड़ियों और पिंडलियों को अचानक ठण्डे-ठण्डे पानी ने छूना शुरू कर दिया। मैं उठकर बैठ गया। बाहर का पानी अंदर आने लगा था। मेरी नींद पूरी तरह भाग गयी।...बारिश में कोई कमी नहीं थी। बाहर का पानी तेजी से अंदर आने लगा था। झटपट बिस्तर समेटना पड़ा। कुछ किताबें थीं...लिखे अधलिखे कागज थे। रोजाना पहने जानेवाले दो चार कपड़े। मैंने सबको एक तरफ कर लिया। लेकिन वक्त नहीं था। बाहर का पानी अंदर फैल रहा था। देखते देखते सारी खोली में फैल गया।...किसी तरह दरवाजा खोल दिया। अब और पानी अंदर आने लगां बस्ती के चारों तरफ पानी था। छोटा मोटा तालाब बन गया था। आने-जाने वाला कोई दिखाई नहीं पड़ रहा था। चारों तरफ एक तरह की खामोशी थी। सिर्फ बारिश...आंधी और समन्दर की आवाज थी। छोटे-छोटे घर काफी कुछ डूब गए थे। दूसरे छोर के दो मंजिले मकान के ऊपरी मंजिल पर भरे हुए लोग बिल्कुल चुप थे...बढ़ते हुए पानी को निहार रहे थे।...पतला-सा बिछौना मैंने बगल में दबा रखा था। किताबें...कागज...कपड़े पेटी में थे। एक बार मन हुआ...इसी तरह पानी भरे रास्ते पर निकल चलूं। लेकिन जल्द समझ में आ गया पानी काफी ऊंचा है...आगे गली में पहुंचते कंधे तक आ जाएगा...तेज बहाव में चलना मुश्किल हो जाएगा।...उसी तरह चुपचाप बढ़ते हुए पानी को देखता रहा।...चाय की पतीली पानी में तैरने लगी। प्लास्टिक का मग और अल्युमिनियम के डिब्बे भी बहने लगे।...मुझे लगा...मैं पूरी तरह फंस गया हूं। कहीं और जाने का कोई रास्ता नहीं है। खड़े रहना है...या एक कोने से दूसरे कोने में खिसकते जाना है।...
एक डोंगी नजदीक आती जा रही थी। डोंगी के अंदर दो तीन लोग छतरियों को जिस्म से सटाए, तेज हवाओं और तिरछी बौछारों से बचने की कोशिश कर रहे थे।...एक अधनंगा लड़का पानी में भीगता लग्गी को दाएं बाएं कर रहा था।...मैंने देखा...एक हाथ बार बार मेरी तरफ हिल रहा है। मैं पहचान गया। यह गौतम पाल का हाथ था। एक हाथ से छतरी सटाए हुए दूसरे से इशारा कर रहा था। ...डोंगी मुझ तक पहुंच नहीं सकती थी। पानी में चलकर मुझे थोड़ा आगे तक जाना होगा। वहां से ये लोग ले लेंगे मुझे।...मैंने हिम्मत कर डाली। पानी में चलना शुरू कर दिया। लेकिन पानी ठण्डा था...धार तेज थी...बौछारें और हवाएं भी तेज थीं। लगा कि पांव कांप रहे हैं...किसी भी अगले कदम पर उखड़ जाएंगे।...लेकिन मैं देखता रह गया। गौतम अचानक पानी में उतर गया। छतरी को अपने आप से चिपकाए...पैरों से टटोल टटोलकर कदम रखता...धीरे-धीरे मेरी तरफ बढ़ने लगा।...पता नहीं किस जगह आकर अपना हाथ मैंने उसकी तरफ बढ़ा दिया। काफी आगे झुककर मेरा हाथ उसने थाम लिया।...मुझे लगा...यह पहले भी हो चुका है...आगे भी होता रहेगा।...तेज हवाओं और उलटी धाराओं के बीच वह इसी तरह मेरा हाथ थामता रहा है...आगे भी थामता रहेगा।
...मैं किसी तरह डोंगी पर पहुंच गया। एक बार लगा कि चढ़ते चढ़ते डोंगी पलट जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पानी में तर-ब-तर हम लोग वहां से गुजरने लगे जहां चर्च के अंदर से झांकते हुए लोग दूर से हमें देख रहे थे।...गांव देवी का मंदिर डोंगी की बायीं तरफ था...पानी में आधा डूब गया था।...डोंगी में पानी भरता जा रहा था। एक छतरीवाला बाल्टी से बाहर उलीचता जा रहा था।...समझ नहीं आ रहा था कि कहां किनारा खत्म होता है...कहां सागर शुरू हो जाता है।...दूर पर एक टेकड़ी थी। बहुत से लोग भाग कर वहां जमा हो गए थे। टेकड़ी पर कोई साया नहीं था...भीगते जाने के अलावा कोई चारा नहीं था।...गौतम ने छतरी मुझे थमा दी थी...खुद बरसते पानी में खड़ा हो गया था। यह जरूरी था। यह भी जरूरी था कि छतरी को मैं पूरी तरह जिस्म से सटा लूं।...कंपकंपी फिर भी जारी थी। लेकिन गौतम पर कोई असर नहीं था।...डोंगी अब कुछ और घरों के बगल से गुजर रही थी। सब बैठी चालें थी। दरवाजों की तीन चौथाई ऊंचाई पानी में डूब गयी थी। किसी आदमी के अंदर होने का सवाल ही नहीं था। लग्गीवाला फिर भी चीख रहा था…“कुणी हाय का आतंमधे? ...बाहेर या।...बाहेर या।...कौन अंदर है...तर बाहेर आओ!...बाहेर आओ...।”
गौतम चीखकर मराठी में बोला, ...“अरे तू बेडा झालाय।...द्या पाडसा च्या आवाजांत तुझा आवाज कोण ऐकणार...आणि इतन या पाण्या मधें कोण राहणार आतमधे...!” (“...अरे तू पागल हो गया है। इस बारिश के शोर में तेरी आवाज कौन सुनेगा!...और इतने पानी में अंदर होगा भी कौन!”)
लेकिन इस समय पास की दूसरी डोंगी से चिल्लाकर कोई कुछ कह रहा था। आवाज समझ में नहीं आ रही थी...एक तरफ को इशारा करता हुआ हाथ ही दिखाई दे रहा था। इशारा साफ था। दूर किसी चाल की खपरैलों पर लोग बैठे हुए थे। इस डोंगी में भरे हुए पानी को उलीचने वाले ने पहले हाथ से इशारा किया...फिर चिल्लाकर कहा, “...तुम्हीं जा तिकड़े!...वाड्या कडे जाऊन परत ये तो आम्हीं...!” (“...तुम लोग उधर जाओ।...हम लोग वाड़े की तरफ जाकर वापस आते हैं।”)
लगा कि दूसरी डोंगी वालों ने बात समझ ली...रास्ते अलग हो गए। दूसरी डोंगी तेजी से उधर बढ़ने लगी जहां खपरैलों पर बैठे लोग खड़े होकर हाथ हिला रहे थे।...गौतम ने मेरी तरफ मुड़कर कहा, “बहुत ठण्डी लग रहा है तुझे?”
मैंने मुस्कुराने की कोशिश की...लेकिन कंपकंपी की वजह से मुस्करा नहीं पा रहा था।...आड़ी तिरछी होती हुई डोंगी चली जा रही थी। मुझे नहीं मालूम था कि कहां जा रही है।...जैसे मेरी जिंदगी है! नहीं मालूम कि कहां जा रही है! मालूम भी नहीं करना चाहता था। किसी चीज से भागने की कोशिश कर रहा था।...नाव अब वहां से गुजर रही थी जहां नारियल के पेड़ों की एक वाड़ी थी। पेड़ों के तने पानी में काफी कुछ डूब गए थे। ऊंचे-ऊंचे पेड़ लगातार एक ही तरफ झुकते चले जा रहे थे। तेज हवाएं उन्हें उठने ही नहीं दे रही थीं। लगता था कि सभी पेड़ टूट कर गिर जाएंगे और समन्दर का पानी उन्हें बहा ले जाएगा। लेकिन मछेरों के लड़के इस माहौल में भी बहुत खुश थे। छोटी-छोटी डोंगियां लेकर बाढ़ के पानी पर फैल गए थे। जाल फेंक रहे थे...या बड़ी बड़ी टोकरियां पानी में डुबा रहे थे। बहकर आयी हुई मछलियां जालों और टोकरियों में फंस जाती थीं...फुदकती रहती थीं...तब तक जब तक की मर नहीं जाती थी। डोंगियों में मछलियों के ढेर लगते जाते थे।
मैं कंपकंपी पर काबू पाने की कोशिश कर रहा था। किसी तरह बोला, “अच्छा हो गया यार...कि तू आ गया।...नहीं तो...क्या होता...मालूम नहीं...?”
गौतम कुछ नहीं बोला। जैसे कुछ कहना चाह रहा है लेकिन कह नहीं पा रहा है।...अपनी आवाज मुझे अजीब लग रही थी। जैसे घिग्घी बंध रही हो।...या आवाज भर्रा गयी हो।...कंपकंपी को रोककर किसी तरह मैंने कहा, ...“हम लोग जा कहां रहे हैं यार?”
गौतम चारों तरफ नजरें डाल रहा था। बोला, “...तेरे के बाड़े में! तेरे...माने...उनका नाम है तेरे...पुराने लोग है यहां के।...उनका बाड़ा...काफी बड़ा है...थोड़ी हाइट पर है...!”
शायद शाम होने लगी थी। घने बादलों में कुछ पता नहीं चल रहा था। डोंगी ने हमें कुछ दूर छोड़ दिया। घुटनों तक पानी में चलकर हम तेरे के बाड़े में पहुंचे थे। डोंगी वालों को वहीं छोड़कर गौतम भी आ गया था। मैंने कहा, “हम लोग भी वहीं...चर्च में चले जाते।...इतनी दूर आने की...जरूरत नहीं थी।”
बाड़े में सामने लम्बा चौड़ा बरंडा था। गौतम बोला, “चर्च में बहुत भीड़ हो गयी है।...पांव फैलाने का जगह भी नहीं है उधर...।”
लेकिन जगह यहां भी नहीं थी। पूरा बरंडा भरा हुआ था। चारों तरफ लोग फैले हुए थे। मैली चादरों और फटे कम्बलों में लिपटे हुए...ठिठुरते हुए।...लोग यानी मर्द...औरतें...बच्चे...बूढ़े। कच्ची दीवारों से सटकर कुछ लोग अधलेटे हो गए थे।...कुछ बीमार थे।...पास की दो झोपड़-पट्टियां पूरी तरह डूब गयी थीं। भागते हुए लोग किसी तरह यहां पहुंच गए थे। कुछ बाद में पहुंचाए गए। कुछ मर गए। बिजली के कानूनी गैर कानूनी तार और कुछ मीटर पानी में डूब गए थे। दो लड़के बिजली का शॉक लगने से मर गए। उनकी लाशें वहीं छूट गयी। कुछ कच्ची दीवारें ढह गयीं। एक बूढ़े की मौत भी वहीं हो गयी। बरांडे में चारों तरफ सन्नाटा था। कुछ बच्चों के रोने की आवाज बीच-बीच में सुनाई दे जाती थी। एक किनारे एक बड़े ड्रम में पीने का पानी और अल्युमिनियम के कुछ ग्लास और प्लास्टिक के मग रखे हुए थे शायद तेरे परिवार की ओर से रखवाए गए थे। थोड़ी-थोड़ी चाय लोगों में बांटी गयी थी। लेकिन चीजें पहुंच नहीं रही थीं। रास्ते बंद थे। आगे क्या होगा...मालूम नहीं था। तेरे फेमिली के किसी नौकर से गौतम की पहचान हो गयी थी। दो तीन पाव ले आया था। थोड़ी-सी चटनी भी थी। ...पिछले बीस बाईस घंटों में पहली बार मेरे पेट में कुछ पड़ा। अचानक बहुत प्यास लग आयी। मैं काफी पानी पी गया। कपड़े सब गीले हो गए थे।
मेरी कमीज तो कुछ ठीक थी...लेकिन पतलून पूरी तरह भीग गयी थी। गौतम लौटा...तो खुद लुंगी पहने थे...हाथ में एक फटी पुरानी चादर थी। बोला, “ले!...इसको लुंगी बना ले...और पतलून फैला दे सूखने के लिए...।”
किसी के पास ट्रांजिस्टर था। मराठी में खबरें आ रही थीं। बारिश और बाढ़ के नुकसान का ब्यौरा दिया जा रहा था।...हर चेहरा उदास था। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। सब लोग चुपचाप बरसते पानी को ताक रहे थे...या बीच बीच में कुछ काम की बातें बोल लेते थे।...हम लोग इधर उधर देखते हैं। शायद कहीं कोई बीड़ी सिगरेट पी रहा हो। लेकिन कहीं कोई नहीं है।...मैं कहता हूं…“किधर से आया तुम लोग?...कांदिवली...?” वह मना करता है।...” “नहीं नहीं। हम लोग मलोनी की झोपड़-पट्टी से आया है।...उधर सब पानी भर गया है।”...मैं समझ नहीं पाता हूं। यह मलोनी किधर है? आदमी बोलता जाता है।”...अभी नवीन झोपड़-पट्टी बांधेला है।...दो अढ़ाई महीना हुआ।...पहला हम लोग सायन का झोपड़-पट्टी में रहता था।...पर उधर लफड़ा हो गया।...वो भोत बड़ा बिल्डर है ना...पटेल बिल्डर्स...। उनको वो जगा मांगता था।
हम लोग बोला...हमको इधर ही जगह दो रहने का। हम खाली कर देगा।...तो वो लोग बोला कि जगा देना।...पन पंचीबिस माइल दूर...बोरीवली के वो बाजू में।...हम लोग बोला...हम पागल है क्या जो सायन छोड़कर उतना दूर नहीं जाएगा।...तो वो लोग हमको धमकी दिया...और चला गया।...पीछे में के महीना में...तभी खूब गर्मी होता था...रात के टाइम...झोपड़-पट्टी में आग लग गया।...आग बोले तो...इतना जोर का आग कि भागने को भी टाइम नहीं मिलता था।...आग कैसा लगा...आज तलक मालूम नहीं पड़ा। फायर ब्रिगेड भी भौत टाइम लगाया आने में।... सारा रात झोपड़-पट्टी जलता था। सुबू तभी आग बुझा...सब झोपड़ा खलास हो गया था। सब तरफ धुंआ उठता था। किधर थोड़ा-थोड़ा आग सुबू भी जलता था। फायर बिग्रेड का लोग इधर उधर पानी मारा था। सब तरफ चिखल भी हो गया था।...पोलिस वाला बोला...अभी तुम लोग इधर से जाओ...किधर भी। इधर झोपड़ा नहीं बना सकता।...हम लोग दो दिवस उधरिच पड़ा रहा...चिखल...धुआं...और आग का बीच में। पीछू कोई लोग हमकू मालोनी का जगा बताया।...तो हम लोग इधर आ के झोपड़ा बांधा।...पन बरसात इतना पड़ा कि ये झोपड़ा भी खलास हो गया...।
...चारों तरफ लोग बिखरे हुए हैं।...भाजीवाले...पाटी वाले...दिहाड़वाले...हाथ गाड़ीवाले...खोंकचेवाले...दूधवाले... चायवाले...बिजली मेकेनिक...मोटर मेकेनिक...प्लम्बर...वॉचमैन...मिल मजदूर...बिल्डिंग वर्कर...आंध्रावाले...मद्रासवाले... केरला वाले...यूपी वाले...सारे हिन्दुस्तान से भाग-भाग कर जमा होने वाले।...
वैसे पूरे बरांडे में एक अजीब-सी खामोशी थी...एक अजीब-सा अंधेरा था। बरसते हुए पानी की आवाज भी एक तरह की खामोशी थी। खांसते हुए...रोते हुए...चीखते हुए...धीरे-धीरे बोलते हुए...तमाम लोग खामोशी और अंधेरे को बढ़ा रहे थे। बीच-बीच में बच्चे रो उठते थे। खामोशी और बाढ़ जाती थी।...मैं गौतम को आवाज देना चाहता था। लेकिन दीवार से टिककर वह शायद सो गया था।...बीड़ी वाले से मैंने कहा, “तुम लोग किधर से आये हो?...मतलब कि बम्बई में कहां से आये हो?”
दूर-दूर से बम्बई आनेवालों की भीड़ इधर काफी बढ़ती जा रही थी। नयी नयी झोपड़-पट्टीयां बसती जाती थीं। ऊंची-ऊंची इमारतें भी उठाती जाती थीं। बीड़ी वाला बोला…“हम उधर परभणी नंदुरबार से और आगे...मलकापुर शेगांव के बाजू से आया है।...उधर दुष्काल है...मतलब कि सूखा पड़ा है। चार बरस हो गया...बरसात पड़ता नहीं। पड़ता...तो थोड़ा-थोड़ा पड़ता...खानदेश...विदर्भ...मराठवाड़ा...सब तरफ दुर्भिक्ष है।...अनाज नई...काम नई...पइसा नई। क्या करेंगा। बोला चलो...मुंबई में लक ट्राई करेंगा। भोत-सा लोक भाग के इधर आया।...पन इधर दुसरा मुसीबत आ के पड़ा। शेगांव के गनपती को नमस्कार करके निकला था। बड़ा जागृत देव है। पन अभी तलक कुछ फायदा नहीं हुआ।”
धीरे-धीरे हलचल शुरू हो जाती है। कुछ लोगों की पोटलियों में थोड़ा-थोड़ा अनाज है। किसी-किसी के पास अल्युमिनियम का एकाध बर्तन भी है।...टिनशेड कहां है?...बरांडे के ठीक पीछे आंगन के बीचों-बीच तुलसी का चौरा। एक तरफ कुआं है। दूसरी तरफ है टिन का शेड। इन सबसे पीछे है दो मजले का पुराना घर। तेरे परिवार शायद यहीं रहता है।...टिनशेड में एक तरफ गाय बंधी है। दूसरी तरफ कुप्पी जल रही है। ईटें रखकर चूल्हा बना दिया गया है।...बारिश थोड़ी कम हो रही है। लोग टिनशेड में आ गए हैं। एक दो औरतें हैं।...चूल्हे के पास लकड़ियां पड़ी हैं।...जलाया, कैसे जाए? तुलसी चौरे के पास आंगन में पानी भरता जा रहा है। कहां गया नौकर? किसी ने अंदर से आवाज दी थी...‘पांडुरंग’। दौड़कर अंदर चला गया था। लकड़ियां इतनी आसानी से नहीं जलेंगी।...बीड़ी वाला भैया कहता है…“ठहर जाओ! हम जलाएंगा इसको...।” जलती हुई कुप्पी का गरम गरम ढक्कन उठाता है किसी तरह। थोड़ा-थोड़ा केरोसीन उड़ेलता है कुछ लकड़ियों पर। फिर जलती बत्ती के पास ले जाता है। लकड़ियां भक से जल जाती हैं। चूल्हा धीरे-धीरे जलने लगा है। पुरानी दीवारों पर साये पड़ने लगे हैं...कांपने लगे हैं...क्या पकाया जाए? कैसे पकाया जाए? कितने लोग पकाएंगे? कितनी बार पकाएंगे?...अन्ना कुछ कह रहा है। बिल्डिंग वर्कर की बात सब लोग ध्यान से सुन रहे हैं। “...मेरा बात सुनो!” सब लोग का खाना नहीं पकेंगा। भांडा नहीं है इधर। अउर टैम भी भोत लगेंगा।। हम एक काम करेंगा। ये बड़ा टोप चूल्हा पर रखेंगा। इसमें पानी रखेंगा। तुम लोग के पास जो कुछ अनाज है...इसमें डालने का। दाल-चावल अउर आटा भी डालने का। सब एक साथ मिलको पकाएंगा। अउर कुछ है तो वो भी डालने का। अउर कुछ बोले तो...कांदा...बटाटा...लहसन। कुछ भी। एक साथ पक जाएंगा। पीछू सब लोग थोड़ा-थोड़ा खाएंगा। दूसरा रास्ता नई है इधर।
बारिश फिर तेज हो गयी है। ठंड और बढ़ गयी है। गौतम को एक बीड़ी चाहिए। सिर्फ एक बीड़ी। उसकी सारी बीड़ियां भीग गयी हैं।...पांडुरंग चला आ रहा है...कैरोसीन की मैली-सी बोतल लिए। गौतम बेधड़क कहता है। “एक बीड़ी होंगा भिडू?...बहुत ठंडी लगती है।”...पांडुरंग जेब में हाथ डालकर बंडल निकालता है। बोलता है “एक मेरे वास्ते भी जलाने का...“। ढिबरी में केरोसीन डालता है। गौतम ढिबरी से ही दो तीन बीड़ियां एक साथ जला लेता है।...बीड़ी भी क्या चीज है। लोगों को लोगों से फौरन जोड़ देती है। लगातार दम मारते रहो...नहीं तो बुझ जाती है।...पांडुरंग से दोस्ती हो गयी है।...कई साल से राव के यहां नौकरी कर रहा है। नारली पूर्णिमा के बाद जहाज (मछेरों की बड़ी नाव) जब दरिया (समुद्र) में जाते हैं...तो वह भी कई दिन मच्छी पकड़ता रहता है। लेकिन मानसून में इधर ही रहना पड़ता है और घर का काम करना पड़ता है।...सदाशिव राव तेरे इधर के पुराने कोली (मछेरों की जाति) हैं पीढ़ियों से यहीं रहते हैं। बाल बच्चे औरत मर्द सब लोग मच्छीमारी का धंधा करते हैं। पन... वह बोलते-बोलते रूक जाता है। “...ये बाजू हिन्दू मच्छीमार लोग रहते है।...वो बाजू क्रिश्चियन मच्छीमार हैं। उधर चर्च है...ये बाजू गांवदेवी का मंदिर। हम क्रिश्चियन लोग का पास भी काम किया है। पन उनका पास उतना पइसा नई है...जितना हिन्दू लोग का पास है। क्यूं? बोले तो इस वास्ते कि...।”
वह अचानक चुप हो जाता है। जैसे राज की कोई बात उसकी जबान पर आते आते रुक गयी। गौतम हंसने लगता है। कहता है “अरे हमको मालूम है...क्यों इतना पइसा है...क्यों ...सोना है। तुम नई बताएंगा तो हमको मालूम नई पड़ेगा क्या।...अरे ये सब लोग उधर समन्दर में जहाज लेंके जाता...मच्छीमारी के वास्ते! उधर स्मगलर लोग का बोट आता है। ये लोग उधर ही उनके माल को अनलोड करता है। सब गोल्ड का बिस्किट होता है उधर।...क्यों? झूठ बोलता हूं मैं?”
पांडुरंग थोड़ा डर जाता है। कहता है ...नई नई! अइसा तो नई बोला मैं।...हमारा राव तो भौत अच्छा आदमी है।...सब बड़ा बड़ा लोक उनका मित्र है।...
परभणी नन्दुरबार वाला भी पास आकर बैठ जाता है। सदाशिव राव तेरे से उसे कोई मतलब नहीं है। एक बीड़ी मांगता है और गालियां देता है। समझ में नहीं आता कि किसको गालियां दे रहा है।... ये साला अजब दुनिया है। उधर हमारा गांव गिरता। पीक पाणी (फसल) कुछ नहीं होता।...और साला इधर...इतना पानी गिरता कि...रहना को जगा भी नहीं।...उधर फैक्टरी का लॉक आउट कर दिया है। अभी गरीब आदमी को प्रश्न पड़ता। खाना को क्या खाना और जाना तो किधर जाना।
पांडुरंग उसको भी बीड़ी देता है...उसका नाम पूछता है।...गोविन्द वाकोडे...। गोविन्द वाकोडे नाम है उसका। इधर आकर साकी नाका की टायर फैक्टरी में लग गया था। मालिक लोग बोनस नहीं दिया तो नहीं दिया...तीन महीना का पगार भी नहीं दिया। छटंनी किया वो अलग-वर्कर लोग संप (हड़ताल) किया...तो मालिक लोग ले ऑफ कर दिया। अभी केस ट्राइब्यूनल के पास जाके लटक गया।... “बार बार येइच प्रश्न पड़ता है।...खाना तो क्या खाना और जाना तो किधर जाना...ऊपर से साला...ये बरसात। जो चालू हुआ तो रुकताइच नई...”।
बिल्डिंग वर्कर अन्ना चमचे को बड़े पतीले में डालता है...निकालकर चखता है। “हो...पक गया। भोत टेस्टी बना है।”
...क्या पका है...कोई नहीं जानता। आटा दाल चावल आलू प्याज सब एक साथ पक गया है। बहुत टेस्टी बना है।...जलती हुई लकड़ियों को चूल्हे से थोड़ा बाहर खींच लेता है अन्ना।…“अभी लोक खाएंगा कइसा...?”
थालियां...प्लेटें...कटोरे...सबमें थोड़ा-थोड़ा दे दिया जाएगा। उनको धोकर उन्हीं में दूसरों को दिया जाएगा। सब लोग अपना बर्तन धोएंगे। इसी तरह रात कट जाएगी। सुबह फिर देखा जाएगा...क्या करना है। पहले बच्चे खाएंगे...फिर औरतें खाएंगी।...
सचमुच बहुत टेस्टी है। मैं एक कटोरे में खाता हूं। थोड़ा पतला है। पी भी सकते हैं। टेस्टी है...इसलिए कि हम सब बहुत भूखे हैं।
मुझे लगा कि सब लोग सो गए हैं। सिर्फ लालटेन टिमटिमा रही है...और हम दो लोग जाग रहे हैं। बारिश और हवाएं पहले की ही तरह अपना काम कर रही है।...गहरे अंधेरे में गौतम का चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। सिर्फ आवाजें सुनाई दे रही थीं। बारिश की आवाज थी...और उसके बीच गौतम की आवाज।...ठहर ठहर कर आती हुई...कहीं दूर से। जैसे खो गयी है...और रास्ता ढूंढ रही है।
दो दिन इसी तरह गुजर गए। दो रातें इसी तरह बीत गयीं। एक के बाद एक...लोग वहां से निकलने लगे। कुछ लोग होड़ी (डोंगी) में बैठकर कोलतार की सड़क तक गए। इसके बाद आगे कहीं चले गए। बारिश के थमने के आसार दिखाई देने लगे थे। बीच बीच में बंद हो जाती थी...फिर शुरू हो जाती थी। लेकिन बादल अब थके हुए लग हरे थे। धरती का पानी उतर गया था। दरिया का पानी नीचे चला गया था।
मैं उसी रास्ते से लौटने लगा जिससे होकर गुजरा था।
लेकिन कच्ची जमीन पर चारों तरफ सीलन फैली हुई थी। एक के बाद एक...कई सलाइयां रगड़कर फेंकनी पड़ीं। दिया-सलाई नहीं जली। तब मुझे लगा...जल भी जाएगी तो क्या होगा? बुझ जाएगी। जलाकर रखने के लिए मेरे पास कोई चीज नहीं है।... पतले से गद्दे पर दरी डालकर मैंने अपना बिस्तर तैयार कर लिया था। कई-कई दिनों से उसी तरह बिछा था। दरी को थोड़ा झड़क कर उसी पर सो जाता था। एक रस्सी बांध ली थी जो अलगनी का काम देती थी। अंदाज से तौलिया और लुंगी हाथ लग गए थे।...अपने जिस्म से सारे गीलेपन को पोंछकर और लुंगी लपेटकर जब बिस्तर पर पहुंचा...तो लगा कि कई जगह से गीला है। टिन शायद टपक रही थी।...दो तीन बार बिस्तर को इधर-उधर खींचकर मैंने सो जाने की कोशिश की। बहुत जल्द हल्की-हल्की नींद ने आ घेरा।...मरे हुए लोग जिंदा हो गए। पीछे छोड़ी हुई जगहें फिर मेरे पास पहुंच गयीं।...ये गांव...ये कस्बे...ये शहर...ये मां...ये बाप...ये साथी...ये झंडे...ये नारे...ये आवाजें...?
अचानक मुझे लगा कि बाहर कोई आवाज दे रहा है।...या शायद कोई सपना है।...लेकिन सचमुच कोई आवाज दे रहा था और दरवाजा खटखटा रहा था। मैं उठ कर बैठ गया।
...झम झम पानी के अंधेरे में गौतम पाल खड़ा हुआ था। उसके सिर पर एक छतरी थी और हाथ में लालटेन। दरवाजा खुलते ही किसी तरह छतरी बंद की और अंदर आ गया।
लालटेन की हल्की रोशनी खोली में फैल गयी। मैंने कहां “क्या बात है?...इस समय कहां से आ रहा है?”
खोली में चारों तरफ निगाह डालने लगा...जैसे मुआइना कर रहा हो। बोला “तेरी खोली तो ठीक ठाक है।...पर उधर चाली में पानी अंदर आ गया है।”
मैं कुछ समझ नहीं पाया। आंखें मिचमिचाता हुआ बोला, “...पानी अंदर आ गया है?...मतलब?”
बोला, “...माधव कोपर की चाली में।...लो लाइंग एरिया है न!...खाड़ी और नाला का सारा पानी चाली में फैल रहा है।...हाई टाइड का भी टाइम है!”
मैं सोच में पड़ गया। बोला, “...लेकिन तू वहां कैसे पहुंच गया?”
मगर मेरी तरफ गौतम का ध्यान नहीं था। बोला, “चाली के लोग चर्च में जा रहे हैं।...मैं बोला...देखता हूं...तू...आया है या नहीं। आया था पहले भी पर चाभी भूल गया...तो बोला...चलो कोपर के रूम पर सोएगा।...मगर उधर पानी भरने लगा...। सबेरे जरूरत हुआ तो...एकाध फेमिली को ये खोली में शिफ्ट करना पड़ेगा...।”
मैंने कहा, “...उसमें कोई प्रॉब्लम नहीं है। लेकिन अभी-थोड़ा टाइम सोना चाहिए...।”
मगर गौतम ने फिर मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया। बोला, “...कुछ चा चीनी दूध वगैरह है कि नहीं...? हम थोड़ा गीला हो गया हूं।...थोड़ा ठण्डी भी है।...थोड़ा चा जरूरी है...।”
मैंने कहा, “दूध नहीं है। चाय की पत्ती और शक्कर उधर है।...तू बना ले और पी ले। मुझे नींद आ रही है...।”
दरवाजा खोलकर हम लोग बाहर देखने लगे।...रास्ते का पानी घुटनों तक पहुंच रहा था। धार बहुत तेज थी।...दो औरतें...एक मर्द...तीन बच्चे...प्लास्टिक के कपड़े ओढ़ें धार में से गुजरने की कोशिश कर रहे थे। मर्दों और औरतों के सिरों पर पेटियां और बिस्तर थे।...आवाज देकर गौतम मराठी में बोला, “...काय गांववाले।...इकडे कुठे?” (“क्या गांववाले।...इधर कहां?”
एक मर्द ने चलते-चलते ही चीख कर कहा, “घरांत पाणी शिरलय। चर्च कड़े निघालो...। (“...घर में पानी घुस गया है।...चर्च में जा रहे हैं?”)
झम झम बरसते पानी में उसकी आवाज खो गयी। गौतम भाषाएं सीखने में बहुत तेज है...मगर चुपचाप उसी तरह खड़ा रहा। फिर बोला, “...ये मामला गड़बड़ है।...मैं देखता हूं...उधर का क्या पोजीशन है।...तू एक काम कर! थोड़े टैम रास्ता देख। बरसात नहीं रूकता है...तो जरूरी चीज वस्त्र लेकर चर्च में आ जा।...इधर रहने में कोई मतलब नहीं...।”
पानी गौतम के घुटनों के कुछ ही नीचे था। पतलून ऊपर मोड़ ली थी...फिर भी आधी पानी में थी। बुझी हुई लालटेन और छतरी संभालता पानी में से किसी तरह गुजर रहा था।...जहां तक दिखाई दिया...मैं उसे देखता रहा।...मैंने उससे कुछ पूछा नहीं। यह भी नहीं पूछ कि मैं चर्च तक कैसे पहुंच जाऊंगा। मेरे पास तो छतरी भी नहीं थी।...अचानक मुझे आयशा की याद हो आयी। उसकी छतरी उसके लिए बेकार हो गयी थी। तेज हवाएं उसे चलने भी नहीं दे रही थीं।...कहां होगी वह? क्या उसके कॉटेज में भी पानी चला गया होगा?...फौरन समझ में आ गया...ऐसा नहीं हो सकता। ये सभी सिर्फ कहने के कॉटेज हैं। हर तरह के आराम का ख्याल रखकर इन्हें बनाया जाता है।...
रास्ते पर कुछ और भी लोग थे...तेज पानी में से गुजरने की कोशिश कर रहे थे। औरत...मर्द...और बच्चे? सिरों पर उसी तरह सामान लादे हुए थे। प्लास्टिक के कपड़ों,...छतरियों और रेनकोटों का सहारा लेकर अपना बचाव करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन सब बेकार था।...लोगों का इस तरह चर्च की तरफ रवाना होना...शायद देर रात से ही शुरू हो गया था।
मैं दोपहर तक सोता रहा।...कि एड़ियों और पिंडलियों को अचानक ठण्डे-ठण्डे पानी ने छूना शुरू कर दिया। मैं उठकर बैठ गया। बाहर का पानी अंदर आने लगा था। मेरी नींद पूरी तरह भाग गयी।...बारिश में कोई कमी नहीं थी। बाहर का पानी तेजी से अंदर आने लगा था। झटपट बिस्तर समेटना पड़ा। कुछ किताबें थीं...लिखे अधलिखे कागज थे। रोजाना पहने जानेवाले दो चार कपड़े। मैंने सबको एक तरफ कर लिया। लेकिन वक्त नहीं था। बाहर का पानी अंदर फैल रहा था। देखते देखते सारी खोली में फैल गया।...किसी तरह दरवाजा खोल दिया। अब और पानी अंदर आने लगां बस्ती के चारों तरफ पानी था। छोटा मोटा तालाब बन गया था। आने-जाने वाला कोई दिखाई नहीं पड़ रहा था। चारों तरफ एक तरह की खामोशी थी। सिर्फ बारिश...आंधी और समन्दर की आवाज थी। छोटे-छोटे घर काफी कुछ डूब गए थे। दूसरे छोर के दो मंजिले मकान के ऊपरी मंजिल पर भरे हुए लोग बिल्कुल चुप थे...बढ़ते हुए पानी को निहार रहे थे।...पतला-सा बिछौना मैंने बगल में दबा रखा था। किताबें...कागज...कपड़े पेटी में थे। एक बार मन हुआ...इसी तरह पानी भरे रास्ते पर निकल चलूं। लेकिन जल्द समझ में आ गया पानी काफी ऊंचा है...आगे गली में पहुंचते कंधे तक आ जाएगा...तेज बहाव में चलना मुश्किल हो जाएगा।...उसी तरह चुपचाप बढ़ते हुए पानी को देखता रहा।...चाय की पतीली पानी में तैरने लगी। प्लास्टिक का मग और अल्युमिनियम के डिब्बे भी बहने लगे।...मुझे लगा...मैं पूरी तरह फंस गया हूं। कहीं और जाने का कोई रास्ता नहीं है। खड़े रहना है...या एक कोने से दूसरे कोने में खिसकते जाना है।...
एक डोंगी नजदीक आती जा रही थी। डोंगी के अंदर दो तीन लोग छतरियों को जिस्म से सटाए, तेज हवाओं और तिरछी बौछारों से बचने की कोशिश कर रहे थे।...एक अधनंगा लड़का पानी में भीगता लग्गी को दाएं बाएं कर रहा था।...मैंने देखा...एक हाथ बार बार मेरी तरफ हिल रहा है। मैं पहचान गया। यह गौतम पाल का हाथ था। एक हाथ से छतरी सटाए हुए दूसरे से इशारा कर रहा था। ...डोंगी मुझ तक पहुंच नहीं सकती थी। पानी में चलकर मुझे थोड़ा आगे तक जाना होगा। वहां से ये लोग ले लेंगे मुझे।...मैंने हिम्मत कर डाली। पानी में चलना शुरू कर दिया। लेकिन पानी ठण्डा था...धार तेज थी...बौछारें और हवाएं भी तेज थीं। लगा कि पांव कांप रहे हैं...किसी भी अगले कदम पर उखड़ जाएंगे।...लेकिन मैं देखता रह गया। गौतम अचानक पानी में उतर गया। छतरी को अपने आप से चिपकाए...पैरों से टटोल टटोलकर कदम रखता...धीरे-धीरे मेरी तरफ बढ़ने लगा।...पता नहीं किस जगह आकर अपना हाथ मैंने उसकी तरफ बढ़ा दिया। काफी आगे झुककर मेरा हाथ उसने थाम लिया।...मुझे लगा...यह पहले भी हो चुका है...आगे भी होता रहेगा।...तेज हवाओं और उलटी धाराओं के बीच वह इसी तरह मेरा हाथ थामता रहा है...आगे भी थामता रहेगा।
...मैं किसी तरह डोंगी पर पहुंच गया। एक बार लगा कि चढ़ते चढ़ते डोंगी पलट जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पानी में तर-ब-तर हम लोग वहां से गुजरने लगे जहां चर्च के अंदर से झांकते हुए लोग दूर से हमें देख रहे थे।...गांव देवी का मंदिर डोंगी की बायीं तरफ था...पानी में आधा डूब गया था।...डोंगी में पानी भरता जा रहा था। एक छतरीवाला बाल्टी से बाहर उलीचता जा रहा था।...समझ नहीं आ रहा था कि कहां किनारा खत्म होता है...कहां सागर शुरू हो जाता है।...दूर पर एक टेकड़ी थी। बहुत से लोग भाग कर वहां जमा हो गए थे। टेकड़ी पर कोई साया नहीं था...भीगते जाने के अलावा कोई चारा नहीं था।...गौतम ने छतरी मुझे थमा दी थी...खुद बरसते पानी में खड़ा हो गया था। यह जरूरी था। यह भी जरूरी था कि छतरी को मैं पूरी तरह जिस्म से सटा लूं।...कंपकंपी फिर भी जारी थी। लेकिन गौतम पर कोई असर नहीं था।...डोंगी अब कुछ और घरों के बगल से गुजर रही थी। सब बैठी चालें थी। दरवाजों की तीन चौथाई ऊंचाई पानी में डूब गयी थी। किसी आदमी के अंदर होने का सवाल ही नहीं था। लग्गीवाला फिर भी चीख रहा था…“कुणी हाय का आतंमधे? ...बाहेर या।...बाहेर या।...कौन अंदर है...तर बाहेर आओ!...बाहेर आओ...।”
गौतम चीखकर मराठी में बोला, ...“अरे तू बेडा झालाय।...द्या पाडसा च्या आवाजांत तुझा आवाज कोण ऐकणार...आणि इतन या पाण्या मधें कोण राहणार आतमधे...!” (“...अरे तू पागल हो गया है। इस बारिश के शोर में तेरी आवाज कौन सुनेगा!...और इतने पानी में अंदर होगा भी कौन!”)
लेकिन इस समय पास की दूसरी डोंगी से चिल्लाकर कोई कुछ कह रहा था। आवाज समझ में नहीं आ रही थी...एक तरफ को इशारा करता हुआ हाथ ही दिखाई दे रहा था। इशारा साफ था। दूर किसी चाल की खपरैलों पर लोग बैठे हुए थे। इस डोंगी में भरे हुए पानी को उलीचने वाले ने पहले हाथ से इशारा किया...फिर चिल्लाकर कहा, “...तुम्हीं जा तिकड़े!...वाड्या कडे जाऊन परत ये तो आम्हीं...!” (“...तुम लोग उधर जाओ।...हम लोग वाड़े की तरफ जाकर वापस आते हैं।”)
लगा कि दूसरी डोंगी वालों ने बात समझ ली...रास्ते अलग हो गए। दूसरी डोंगी तेजी से उधर बढ़ने लगी जहां खपरैलों पर बैठे लोग खड़े होकर हाथ हिला रहे थे।...गौतम ने मेरी तरफ मुड़कर कहा, “बहुत ठण्डी लग रहा है तुझे?”
मैंने मुस्कुराने की कोशिश की...लेकिन कंपकंपी की वजह से मुस्करा नहीं पा रहा था।...आड़ी तिरछी होती हुई डोंगी चली जा रही थी। मुझे नहीं मालूम था कि कहां जा रही है।...जैसे मेरी जिंदगी है! नहीं मालूम कि कहां जा रही है! मालूम भी नहीं करना चाहता था। किसी चीज से भागने की कोशिश कर रहा था।...नाव अब वहां से गुजर रही थी जहां नारियल के पेड़ों की एक वाड़ी थी। पेड़ों के तने पानी में काफी कुछ डूब गए थे। ऊंचे-ऊंचे पेड़ लगातार एक ही तरफ झुकते चले जा रहे थे। तेज हवाएं उन्हें उठने ही नहीं दे रही थीं। लगता था कि सभी पेड़ टूट कर गिर जाएंगे और समन्दर का पानी उन्हें बहा ले जाएगा। लेकिन मछेरों के लड़के इस माहौल में भी बहुत खुश थे। छोटी-छोटी डोंगियां लेकर बाढ़ के पानी पर फैल गए थे। जाल फेंक रहे थे...या बड़ी बड़ी टोकरियां पानी में डुबा रहे थे। बहकर आयी हुई मछलियां जालों और टोकरियों में फंस जाती थीं...फुदकती रहती थीं...तब तक जब तक की मर नहीं जाती थी। डोंगियों में मछलियों के ढेर लगते जाते थे।
मैं कंपकंपी पर काबू पाने की कोशिश कर रहा था। किसी तरह बोला, “अच्छा हो गया यार...कि तू आ गया।...नहीं तो...क्या होता...मालूम नहीं...?”
गौतम कुछ नहीं बोला। जैसे कुछ कहना चाह रहा है लेकिन कह नहीं पा रहा है।...अपनी आवाज मुझे अजीब लग रही थी। जैसे घिग्घी बंध रही हो।...या आवाज भर्रा गयी हो।...कंपकंपी को रोककर किसी तरह मैंने कहा, ...“हम लोग जा कहां रहे हैं यार?”
गौतम चारों तरफ नजरें डाल रहा था। बोला, “...तेरे के बाड़े में! तेरे...माने...उनका नाम है तेरे...पुराने लोग है यहां के।...उनका बाड़ा...काफी बड़ा है...थोड़ी हाइट पर है...!”
शायद शाम होने लगी थी। घने बादलों में कुछ पता नहीं चल रहा था। डोंगी ने हमें कुछ दूर छोड़ दिया। घुटनों तक पानी में चलकर हम तेरे के बाड़े में पहुंचे थे। डोंगी वालों को वहीं छोड़कर गौतम भी आ गया था। मैंने कहा, “हम लोग भी वहीं...चर्च में चले जाते।...इतनी दूर आने की...जरूरत नहीं थी।”
बाड़े में सामने लम्बा चौड़ा बरंडा था। गौतम बोला, “चर्च में बहुत भीड़ हो गयी है।...पांव फैलाने का जगह भी नहीं है उधर...।”
लेकिन जगह यहां भी नहीं थी। पूरा बरंडा भरा हुआ था। चारों तरफ लोग फैले हुए थे। मैली चादरों और फटे कम्बलों में लिपटे हुए...ठिठुरते हुए।...लोग यानी मर्द...औरतें...बच्चे...बूढ़े। कच्ची दीवारों से सटकर कुछ लोग अधलेटे हो गए थे।...कुछ बीमार थे।...पास की दो झोपड़-पट्टियां पूरी तरह डूब गयी थीं। भागते हुए लोग किसी तरह यहां पहुंच गए थे। कुछ बाद में पहुंचाए गए। कुछ मर गए। बिजली के कानूनी गैर कानूनी तार और कुछ मीटर पानी में डूब गए थे। दो लड़के बिजली का शॉक लगने से मर गए। उनकी लाशें वहीं छूट गयी। कुछ कच्ची दीवारें ढह गयीं। एक बूढ़े की मौत भी वहीं हो गयी। बरांडे में चारों तरफ सन्नाटा था। कुछ बच्चों के रोने की आवाज बीच-बीच में सुनाई दे जाती थी। एक किनारे एक बड़े ड्रम में पीने का पानी और अल्युमिनियम के कुछ ग्लास और प्लास्टिक के मग रखे हुए थे शायद तेरे परिवार की ओर से रखवाए गए थे। थोड़ी-थोड़ी चाय लोगों में बांटी गयी थी। लेकिन चीजें पहुंच नहीं रही थीं। रास्ते बंद थे। आगे क्या होगा...मालूम नहीं था। तेरे फेमिली के किसी नौकर से गौतम की पहचान हो गयी थी। दो तीन पाव ले आया था। थोड़ी-सी चटनी भी थी। ...पिछले बीस बाईस घंटों में पहली बार मेरे पेट में कुछ पड़ा। अचानक बहुत प्यास लग आयी। मैं काफी पानी पी गया। कपड़े सब गीले हो गए थे।
मेरी कमीज तो कुछ ठीक थी...लेकिन पतलून पूरी तरह भीग गयी थी। गौतम लौटा...तो खुद लुंगी पहने थे...हाथ में एक फटी पुरानी चादर थी। बोला, “ले!...इसको लुंगी बना ले...और पतलून फैला दे सूखने के लिए...।”
किसी के पास ट्रांजिस्टर था। मराठी में खबरें आ रही थीं। बारिश और बाढ़ के नुकसान का ब्यौरा दिया जा रहा था।...हर चेहरा उदास था। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। सब लोग चुपचाप बरसते पानी को ताक रहे थे...या बीच बीच में कुछ काम की बातें बोल लेते थे।...हम लोग इधर उधर देखते हैं। शायद कहीं कोई बीड़ी सिगरेट पी रहा हो। लेकिन कहीं कोई नहीं है।...मैं कहता हूं…“किधर से आया तुम लोग?...कांदिवली...?” वह मना करता है।...” “नहीं नहीं। हम लोग मलोनी की झोपड़-पट्टी से आया है।...उधर सब पानी भर गया है।”...मैं समझ नहीं पाता हूं। यह मलोनी किधर है? आदमी बोलता जाता है।”...अभी नवीन झोपड़-पट्टी बांधेला है।...दो अढ़ाई महीना हुआ।...पहला हम लोग सायन का झोपड़-पट्टी में रहता था।...पर उधर लफड़ा हो गया।...वो भोत बड़ा बिल्डर है ना...पटेल बिल्डर्स...। उनको वो जगा मांगता था।
हम लोग बोला...हमको इधर ही जगह दो रहने का। हम खाली कर देगा।...तो वो लोग बोला कि जगा देना।...पन पंचीबिस माइल दूर...बोरीवली के वो बाजू में।...हम लोग बोला...हम पागल है क्या जो सायन छोड़कर उतना दूर नहीं जाएगा।...तो वो लोग हमको धमकी दिया...और चला गया।...पीछे में के महीना में...तभी खूब गर्मी होता था...रात के टाइम...झोपड़-पट्टी में आग लग गया।...आग बोले तो...इतना जोर का आग कि भागने को भी टाइम नहीं मिलता था।...आग कैसा लगा...आज तलक मालूम नहीं पड़ा। फायर ब्रिगेड भी भौत टाइम लगाया आने में।... सारा रात झोपड़-पट्टी जलता था। सुबू तभी आग बुझा...सब झोपड़ा खलास हो गया था। सब तरफ धुंआ उठता था। किधर थोड़ा-थोड़ा आग सुबू भी जलता था। फायर बिग्रेड का लोग इधर उधर पानी मारा था। सब तरफ चिखल भी हो गया था।...पोलिस वाला बोला...अभी तुम लोग इधर से जाओ...किधर भी। इधर झोपड़ा नहीं बना सकता।...हम लोग दो दिवस उधरिच पड़ा रहा...चिखल...धुआं...और आग का बीच में। पीछू कोई लोग हमकू मालोनी का जगा बताया।...तो हम लोग इधर आ के झोपड़ा बांधा।...पन बरसात इतना पड़ा कि ये झोपड़ा भी खलास हो गया...।
...चारों तरफ लोग बिखरे हुए हैं।...भाजीवाले...पाटी वाले...दिहाड़वाले...हाथ गाड़ीवाले...खोंकचेवाले...दूधवाले... चायवाले...बिजली मेकेनिक...मोटर मेकेनिक...प्लम्बर...वॉचमैन...मिल मजदूर...बिल्डिंग वर्कर...आंध्रावाले...मद्रासवाले... केरला वाले...यूपी वाले...सारे हिन्दुस्तान से भाग-भाग कर जमा होने वाले।...
वैसे पूरे बरांडे में एक अजीब-सी खामोशी थी...एक अजीब-सा अंधेरा था। बरसते हुए पानी की आवाज भी एक तरह की खामोशी थी। खांसते हुए...रोते हुए...चीखते हुए...धीरे-धीरे बोलते हुए...तमाम लोग खामोशी और अंधेरे को बढ़ा रहे थे। बीच-बीच में बच्चे रो उठते थे। खामोशी और बाढ़ जाती थी।...मैं गौतम को आवाज देना चाहता था। लेकिन दीवार से टिककर वह शायद सो गया था।...बीड़ी वाले से मैंने कहा, “तुम लोग किधर से आये हो?...मतलब कि बम्बई में कहां से आये हो?”
दूर-दूर से बम्बई आनेवालों की भीड़ इधर काफी बढ़ती जा रही थी। नयी नयी झोपड़-पट्टीयां बसती जाती थीं। ऊंची-ऊंची इमारतें भी उठाती जाती थीं। बीड़ी वाला बोला…“हम उधर परभणी नंदुरबार से और आगे...मलकापुर शेगांव के बाजू से आया है।...उधर दुष्काल है...मतलब कि सूखा पड़ा है। चार बरस हो गया...बरसात पड़ता नहीं। पड़ता...तो थोड़ा-थोड़ा पड़ता...खानदेश...विदर्भ...मराठवाड़ा...सब तरफ दुर्भिक्ष है।...अनाज नई...काम नई...पइसा नई। क्या करेंगा। बोला चलो...मुंबई में लक ट्राई करेंगा। भोत-सा लोक भाग के इधर आया।...पन इधर दुसरा मुसीबत आ के पड़ा। शेगांव के गनपती को नमस्कार करके निकला था। बड़ा जागृत देव है। पन अभी तलक कुछ फायदा नहीं हुआ।”
धीरे-धीरे हलचल शुरू हो जाती है। कुछ लोगों की पोटलियों में थोड़ा-थोड़ा अनाज है। किसी-किसी के पास अल्युमिनियम का एकाध बर्तन भी है।...टिनशेड कहां है?...बरांडे के ठीक पीछे आंगन के बीचों-बीच तुलसी का चौरा। एक तरफ कुआं है। दूसरी तरफ है टिन का शेड। इन सबसे पीछे है दो मजले का पुराना घर। तेरे परिवार शायद यहीं रहता है।...टिनशेड में एक तरफ गाय बंधी है। दूसरी तरफ कुप्पी जल रही है। ईटें रखकर चूल्हा बना दिया गया है।...बारिश थोड़ी कम हो रही है। लोग टिनशेड में आ गए हैं। एक दो औरतें हैं।...चूल्हे के पास लकड़ियां पड़ी हैं।...जलाया, कैसे जाए? तुलसी चौरे के पास आंगन में पानी भरता जा रहा है। कहां गया नौकर? किसी ने अंदर से आवाज दी थी...‘पांडुरंग’। दौड़कर अंदर चला गया था। लकड़ियां इतनी आसानी से नहीं जलेंगी।...बीड़ी वाला भैया कहता है…“ठहर जाओ! हम जलाएंगा इसको...।” जलती हुई कुप्पी का गरम गरम ढक्कन उठाता है किसी तरह। थोड़ा-थोड़ा केरोसीन उड़ेलता है कुछ लकड़ियों पर। फिर जलती बत्ती के पास ले जाता है। लकड़ियां भक से जल जाती हैं। चूल्हा धीरे-धीरे जलने लगा है। पुरानी दीवारों पर साये पड़ने लगे हैं...कांपने लगे हैं...क्या पकाया जाए? कैसे पकाया जाए? कितने लोग पकाएंगे? कितनी बार पकाएंगे?...अन्ना कुछ कह रहा है। बिल्डिंग वर्कर की बात सब लोग ध्यान से सुन रहे हैं। “...मेरा बात सुनो!” सब लोग का खाना नहीं पकेंगा। भांडा नहीं है इधर। अउर टैम भी भोत लगेंगा।। हम एक काम करेंगा। ये बड़ा टोप चूल्हा पर रखेंगा। इसमें पानी रखेंगा। तुम लोग के पास जो कुछ अनाज है...इसमें डालने का। दाल-चावल अउर आटा भी डालने का। सब एक साथ मिलको पकाएंगा। अउर कुछ है तो वो भी डालने का। अउर कुछ बोले तो...कांदा...बटाटा...लहसन। कुछ भी। एक साथ पक जाएंगा। पीछू सब लोग थोड़ा-थोड़ा खाएंगा। दूसरा रास्ता नई है इधर।
बारिश फिर तेज हो गयी है। ठंड और बढ़ गयी है। गौतम को एक बीड़ी चाहिए। सिर्फ एक बीड़ी। उसकी सारी बीड़ियां भीग गयी हैं।...पांडुरंग चला आ रहा है...कैरोसीन की मैली-सी बोतल लिए। गौतम बेधड़क कहता है। “एक बीड़ी होंगा भिडू?...बहुत ठंडी लगती है।”...पांडुरंग जेब में हाथ डालकर बंडल निकालता है। बोलता है “एक मेरे वास्ते भी जलाने का...“। ढिबरी में केरोसीन डालता है। गौतम ढिबरी से ही दो तीन बीड़ियां एक साथ जला लेता है।...बीड़ी भी क्या चीज है। लोगों को लोगों से फौरन जोड़ देती है। लगातार दम मारते रहो...नहीं तो बुझ जाती है।...पांडुरंग से दोस्ती हो गयी है।...कई साल से राव के यहां नौकरी कर रहा है। नारली पूर्णिमा के बाद जहाज (मछेरों की बड़ी नाव) जब दरिया (समुद्र) में जाते हैं...तो वह भी कई दिन मच्छी पकड़ता रहता है। लेकिन मानसून में इधर ही रहना पड़ता है और घर का काम करना पड़ता है।...सदाशिव राव तेरे इधर के पुराने कोली (मछेरों की जाति) हैं पीढ़ियों से यहीं रहते हैं। बाल बच्चे औरत मर्द सब लोग मच्छीमारी का धंधा करते हैं। पन... वह बोलते-बोलते रूक जाता है। “...ये बाजू हिन्दू मच्छीमार लोग रहते है।...वो बाजू क्रिश्चियन मच्छीमार हैं। उधर चर्च है...ये बाजू गांवदेवी का मंदिर। हम क्रिश्चियन लोग का पास भी काम किया है। पन उनका पास उतना पइसा नई है...जितना हिन्दू लोग का पास है। क्यूं? बोले तो इस वास्ते कि...।”
वह अचानक चुप हो जाता है। जैसे राज की कोई बात उसकी जबान पर आते आते रुक गयी। गौतम हंसने लगता है। कहता है “अरे हमको मालूम है...क्यों इतना पइसा है...क्यों ...सोना है। तुम नई बताएंगा तो हमको मालूम नई पड़ेगा क्या।...अरे ये सब लोग उधर समन्दर में जहाज लेंके जाता...मच्छीमारी के वास्ते! उधर स्मगलर लोग का बोट आता है। ये लोग उधर ही उनके माल को अनलोड करता है। सब गोल्ड का बिस्किट होता है उधर।...क्यों? झूठ बोलता हूं मैं?”
पांडुरंग थोड़ा डर जाता है। कहता है ...नई नई! अइसा तो नई बोला मैं।...हमारा राव तो भौत अच्छा आदमी है।...सब बड़ा बड़ा लोक उनका मित्र है।...
परभणी नन्दुरबार वाला भी पास आकर बैठ जाता है। सदाशिव राव तेरे से उसे कोई मतलब नहीं है। एक बीड़ी मांगता है और गालियां देता है। समझ में नहीं आता कि किसको गालियां दे रहा है।... ये साला अजब दुनिया है। उधर हमारा गांव गिरता। पीक पाणी (फसल) कुछ नहीं होता।...और साला इधर...इतना पानी गिरता कि...रहना को जगा भी नहीं।...उधर फैक्टरी का लॉक आउट कर दिया है। अभी गरीब आदमी को प्रश्न पड़ता। खाना को क्या खाना और जाना तो किधर जाना।
पांडुरंग उसको भी बीड़ी देता है...उसका नाम पूछता है।...गोविन्द वाकोडे...। गोविन्द वाकोडे नाम है उसका। इधर आकर साकी नाका की टायर फैक्टरी में लग गया था। मालिक लोग बोनस नहीं दिया तो नहीं दिया...तीन महीना का पगार भी नहीं दिया। छटंनी किया वो अलग-वर्कर लोग संप (हड़ताल) किया...तो मालिक लोग ले ऑफ कर दिया। अभी केस ट्राइब्यूनल के पास जाके लटक गया।... “बार बार येइच प्रश्न पड़ता है।...खाना तो क्या खाना और जाना तो किधर जाना...ऊपर से साला...ये बरसात। जो चालू हुआ तो रुकताइच नई...”।
बिल्डिंग वर्कर अन्ना चमचे को बड़े पतीले में डालता है...निकालकर चखता है। “हो...पक गया। भोत टेस्टी बना है।”
...क्या पका है...कोई नहीं जानता। आटा दाल चावल आलू प्याज सब एक साथ पक गया है। बहुत टेस्टी बना है।...जलती हुई लकड़ियों को चूल्हे से थोड़ा बाहर खींच लेता है अन्ना।…“अभी लोक खाएंगा कइसा...?”
थालियां...प्लेटें...कटोरे...सबमें थोड़ा-थोड़ा दे दिया जाएगा। उनको धोकर उन्हीं में दूसरों को दिया जाएगा। सब लोग अपना बर्तन धोएंगे। इसी तरह रात कट जाएगी। सुबह फिर देखा जाएगा...क्या करना है। पहले बच्चे खाएंगे...फिर औरतें खाएंगी।...
सचमुच बहुत टेस्टी है। मैं एक कटोरे में खाता हूं। थोड़ा पतला है। पी भी सकते हैं। टेस्टी है...इसलिए कि हम सब बहुत भूखे हैं।
मुझे लगा कि सब लोग सो गए हैं। सिर्फ लालटेन टिमटिमा रही है...और हम दो लोग जाग रहे हैं। बारिश और हवाएं पहले की ही तरह अपना काम कर रही है।...गहरे अंधेरे में गौतम का चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। सिर्फ आवाजें सुनाई दे रही थीं। बारिश की आवाज थी...और उसके बीच गौतम की आवाज।...ठहर ठहर कर आती हुई...कहीं दूर से। जैसे खो गयी है...और रास्ता ढूंढ रही है।
दो दिन इसी तरह गुजर गए। दो रातें इसी तरह बीत गयीं। एक के बाद एक...लोग वहां से निकलने लगे। कुछ लोग होड़ी (डोंगी) में बैठकर कोलतार की सड़क तक गए। इसके बाद आगे कहीं चले गए। बारिश के थमने के आसार दिखाई देने लगे थे। बीच बीच में बंद हो जाती थी...फिर शुरू हो जाती थी। लेकिन बादल अब थके हुए लग हरे थे। धरती का पानी उतर गया था। दरिया का पानी नीचे चला गया था।
मैं उसी रास्ते से लौटने लगा जिससे होकर गुजरा था।
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