एक तथ्य का जिक्र यहाँ जरूरी है कि अलग राज्य के पहले जिस आदिवासी समाज की स्थिति बेहतर थी, आज बदतर हो चली है, जबकि जिन गैर-आदिवासियों की स्थिति दयनीय थी, वह आज करोड़ों रुपये में खेल रहे हैं। यही विडम्बना खनन क्षेत्र की है। दिलचस्प पहलू तो यह है कि यह स्थिति तब है जब अलग राज्य में मुख्यमंत्री आदिवासी ही रहे हैं। पश्चिमी सिंहभूम स्थित जगन्नाथपुर विधानसभा अंतर्गत नोवामुंडी, बड़ा जामदा और गुवा क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समाज की बदहाली की दास्तां शब्दों से बयाँ नहीं की जा सकती। यह वही क्षेत्र है, जहाँ लौह अयस्क का भंडार है और स्टील उत्पादन के क्षेत्र में दुनिया की तमाम छोटी-बड़ी कम्पनियों के जेहन में इस इलाके ने उथल-पुथल मचा रखी है। लेकिन, यहाँ के लोग नारकीय जीवन जी रहे हैं।
खनन क्षेत्र के आस-पास गाँवों के लोगों की स्थिति यह है कि पीने का साफ पानी नहीं है। गाँव का कुआँ सूख चुका है। खेत बंजर हो चले हैं। नदी-नाले का पानी लाल हो गया है। यहाँ के लोगों का मानना है कि तेज रफ्तार में हो रहे लौह अयस्क का खनन और खनन से निकलने वाले लाल डस्ट (फाइंस) के कारण वे नारकीय जीवन जीने को विवश हैं गुवा में फाइंस ने पहाड़ का रूप अख्तियार कर रखा है। यहाँ स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (सेल) द्वारा किया गया खनन से डस्ट जमा है। तेज हवा चलने पर फाइंस उड़कर लोगों के खेतों-घरों में जाता है। बारिश होने पर फाइंस बहकर खेतों को बर्बाद कर रहा है। बारिश में तो यहाँ पैदल चलना मुश्किल हो जाता है। कारो नदी का अस्तित्व इसी लौह अयस्क और फाइंस की वजह से मिटने की कगार पर है, जबकि सेल का यहाँ फिलवक्त खनन कार्य पूरी तरह से बंद है।
गुवा के स्थानीय युवक लक्ष्मी पात्रो और सुरेश टुटी का कहना है कि तेजी से हो रहे खनन कार्य के कारण गुवा व आस-पास के गाँव की स्थिति नारकीय बनी हुई है। कारो नदी भर गया है। पहले जहाँ इस नदी को पार करने के लिये लोगों को तैर कर जाना पड़ता था, वहीं अब इस नदी में घुटने भर पानी रह गया है। इनका कहना है कि जल्द ही अगर जमा फाइंस हटाया नहीं गया तो स्थिति भयावह हो जाएगी। नोवामुंडी प्रखंड, पंचायत गुवा पश्चिमी स्थित गाँव नुइयाँ, जहाँ हरा-भरा रहा करता था, अब यहाँ के खेतों में फसल नहीं होते हैं, बल्कि इस गाँव के खेतों में फाइंस की परत जम गई है। प्राइवेट माइंसों में तेज रफ्तार से हो रहे खनन और लौह अयस्क की दिन-रात ढुलाई से डस्ट उड़ने के कारण दिन में भी अंधेरा छा जाता है। नुंइया जैसे दर्जनों गाँव ऐसे हैं जहाँ अब खेती नहीं होती। नोवामुंडी स्थित झंडीबुरू, सोसोपी, टांगपुरा, अड़ीका, गांवघुटू, टटीबा ऐसे गाँव हैं, जो पूरी तरह से माइंस से घिरे हैं। यहाँ के लोग कांडे नाले के चुएँ का पानी पीते हैं।
कांडे नाले के आस-पास माइंस और क्रशर लगा हुआ है। इसके कारण कांडे नाले का पानी लाल हो चुका है। इन गाँवों में भी खेती बंद हैं। नोवामुंडी बड़ा जामदा और गुवा के आस-पास के गाँव प्रदूषित हैं। इन गाँवों में न तो मानवाधिकार कार्यकर्ता की पहुँच है, न ही आयोग का अदेश चलता है। नोवामुंडी का एक गाँव है मुडा साईं। टाटा कम्पनी के माइंस की दीवार से सटा हुआ है।
बगल में है मउदी गाँव, जहाँ नोवामुंडी रेलवे स्टेशन है और यहाँ भी लौह अयस्क की साइडिंग है। बगल में ही तोड़ोतोपा गाँव है। इन गाँवों की स्थिति भी बदहाल है। खेती नहीं। पीने का साफ पानी नहीं। गरीबी का आलम साप्ताहिक हाटों में देखा जा सकता है। दो-चार कटहल, लौकी, मुर्गा तथा दातून बेचने के लिये महिलाएँ अपनी पीठ पर बच्चे को लेकर कई किलोमीटर पैदल चलती है। सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिज्ञों की नजर यहाँ की बदहाली पर नहीं जाती है। जाती है तो उनकी नजर लौह अयस्क के जायज-नाजायज धंधे पर। बहरहाल राजनीतिज्ञों और माननीय को यहाँ की जनता में कम और लौह अयस्क कारोबारियों में अधिक रुचि दिखाई देती है। अलग राज्य में आदिवासी नस्ल की बर्बादी का आलम यह है कि खनन क्षेत्र नोवामुंडी, बड़ा जामदा, गुवा, बराईबुरु के करीब 50 से अधिक ऐसे गाँव हैं, जहाँ के आदिवासी परिवारों के लोग सरकारी नौकरियों में चपरासी के पद पर भी नहीं हैं। गजटेट अफसर की बात तो दूर है।
आखिर अलग राज्य में इन लोगों के भविष्य की कल्पना कैसे की जा सकती है। छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम और पाँचवी अनुसूची क्षेत्र के तहत बने कानूनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए यहाँ खदान मालिकों द्वारा आदिवासियों की जमीन पर अवैध कब्जा किया जा रहा है। बिचौलियों के सहयोग से लीज के नाम पर आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने वाली कम्पनियों को सरकार और प्रशासनिक अधिकारियों का भी संरक्षण प्राप्त है। जिस तेज रफ्तार से पश्चिम सिंहभूम में खनन कार्य चल रहा है और बड़े पैमाने पर लौह अयस्क का निर्यात हो रहा है, इस पर अंकुश नहीं लगाया गया तो निकट भविष्य में लौह अयस्क का भंडार समाप्त हो जाएगा। और ऐसी स्थिति में पश्चिमी सिंहभूम के नोवामुंडी, बड़ा जामदा, गुवा, मनोहरपुर और उसके आस-पास का इलाका खंडहर में तब्दील हो जाने वाला है।
ध्यान देने वाली बात तो यह है कि जब यहाँ लौह अयस्क का भंडार प्रचुर मात्रा में मौजूद है और तेजी से जिसका खनन किया जा रहा है, तब तो यहाँ के लोगों की हालत नारकीय बनी हुई है। इससे कल्पना की जा सकती है कि भंडार समाप्त होने पर यहाँ की स्थिति क्या होगी। गाँवों की स्थिति भयावह हो चली है। नाले-नदी का पानी प्रदूषित हो गया है। ग्रामीणों की सेहत के साथ खिलवाड़ हो रहा है। खनन पर सरकार का कोई अंकुश नहीं है और न ही वहाँ से रोजगार मुहैया हो रहा है। खनन क्षेत्र में रहने वाले लोगों के विकास के प्रति न ही कोई जवाबदेही तय की गई है।
जिस तरह से खनन क्षेत्र में रहने वाले लोगों का शोषण हो रहा है कि आदिवासी समाज का अस्तित्व दाँव पर लग गया है। राजनीति संरक्षण में लौह अयस्क व्यापारियों, पर्यावरण विभाग के अधिकारियों और खदान मालिकों की साँठ-गाँठ से यहाँ अवैध रूप से खनन कार्य बदस्तूर चल रहा है। एक तथ्य का जिक्र यहाँ जरूरी है कि अलग राज्य के पहले जिस आदिवासी समाज की स्थिति बेहतर थी, आज बदतर हो चली है, जबकि जिन गैर-आदिवासियों की स्थिति दयनीय थी, वह आज करोड़ों रुपये में खेल रहे हैं। यही विडम्बना खनन क्षेत्र की है। दिलचस्प पहलू तो यह है कि यह स्थिति तब है जब अलग राज्य में मुख्यमंत्री आदिवासी ही रहे हैं। आदिवासी मुख्यमंत्री के कार्यकाल में कई गैर-आदिवासी लौह अयस्क के वैध-अवैध कारोबार से खाकपति से करोड़पति बन चुके हैं।
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