मध्यप्रदेश के अधिकांश इलाकों में खेतों की मिट्टी अपनी ताक़त खोती जा रही है। यह पर्यावरण के साथ हमारी खेती के लिये भी बड़े खतरे की घंटी है। लंबे समय से लगातार खेतों में बड़ी तादाद में रासायनिक खादों के इस्तेमाल से अब मिट्टी की उर्वरा शक्ति कमजोर पड़ती जा रही है।
यहाँ तक कि डिंडौरी जैसे ठेठ आदिवासी और जगंल के इलाके में भी मिट्टी में घटते पोषक तत्वों की वजह से उनमें होने वाले अनाज और सब्जियों में भी पोषक तत्वों की भारी कमी हो रही है। यही वजह है कि यहाँ के लोगों के शरीर को इनसे मिलने वाला पोषण नहीं मिलने से मौजूदा और भावी पीढ़ी दोनों ही कुपोषण के जाल में फँसती जा रही हैं। हैरानी की बात ये है कि अरबों-खरबों रुपये लगाकर सरकार मृदा स्वास्थ्य कार्ड तैयार करवा कर मिट्टी की सेहत जाँच तो करवा रही है, लेकिन जाँच में मिट्टी के कमजोर मिलने पर सम्बन्धित किसानों को मिट्टी की सेहत सुधारने के लिये फिर से रासायनिक खाद की सलाह दी जा रही है जो बेहद खतरनाक साबित हो सकती है।
यहाँ के ठेठ आदिवासी इलाके में अगरिया जनजाति बाहुल्य गाँव बरगा कुरैली गाँव की सक्को बाई कहती हैं कि अब की माटी में वह ताकत नहीं रही। अनाज भी भूसा की तरह हो गया है। सक्को बाई के इस बात ने इशारा कर दिया कि यहाँ कि मिट्टी की उपजाऊ क्षमता और उसमें ज़रूरी पोषक तत्वों की कमी हो सकती है।
बरगा कुरैली गाँव से सटे हुए ही जाता डोंगरी गाँव के ओमप्रकाश पिता मूलचंद की पाँच एकड़ जमीन है। ओमप्रकाश धान, मटर और गेहूँ की फसल उगाते हैं। ओमप्रकाश बताते हैं कि उन्होंने अपने खेत की मिट्टी का परीक्षण कराया है। मृदा परीक्षण कार्ड के मुताबिक मिट्टी में गड़बड़ी है। ओमप्रकाश के कार्ड के मुताबिक जैविक खाद के साथ ही धान और गेहूँ की फसल में रासायनिक खाद डालने की सलाह लिखी गई है। ओमप्रकाश ऐसे अकेले किसान नहीं हैं, अधिकांश किसानों के यही हाल हैं।
डिडौंरी स्थित मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला प्रभारी जगदीश बिसेन और दीपक कुमार ने बताया कि अब तक जिले के एक लाख 43 हजार खसरों (ज़मीन खाते) के 28 हजार मृदा स्वास्थ्य कार्ड तैयार किये जा चुके हैं। भारत सरकार का कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय देशभर में मिट्टी की जाँच कर किसानों को बता रहे हैं कि उनके खेतों की मिट्टी की सेहत कैसी है। मिट्टी की सेहत खराब होने से फसलें तो प्रभावित होती ही हैं, उनमें पर्याप्त पोषक तत्वों का संतुलन भी बिगड़ जाता है। डिंडौरी जिले के अधिकांश खेतों की मिट्टी में पोषक तत्वों का भारी असंतुलन देखने को मिला। मिट्टी में बारह तत्वों में से ज्यादातर तत्व या तो बहुत कम हैं या फिर बहुत ज़्यादा हैं। मिट्टी में पोषक तत्वों के असंतुलन का सबसे बड़ा कारण रासायनिक खाद और कीटनाशक के बेतरतीब इस्तेमाल होना और फसल चक्र को पूरा नहीं करना है।
इन बारह तत्वों में से छह तत्व पूरी तरह असंतुलित है। ऐसी मिट्टी में उपजे अनाज को खाने से आदिवासियों में कुपोषण और कई तरह की बीमारियाँ घर कर रही हैं। मिट्टी के अंसतुलित पोषक तत्वों में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, सल्फर और जिंक शामिल हैं। जाहिर है कि इन ज़रूरी पोषक तत्वों की कमी के कारण ही कुपोषण और खतरनाक बीमारियाँ तेजी से पैर पसार रही हैं। शरीर में जिस तरह विटामिन्स, प्रोटिन्स, कार्बोहाइड्रेट्स और फायबर की ज़रूरत होती है ठीक उसी प्रकार से एक पौधे और फसल के लिये भी मिट्टी में तमाम तरह के तत्वों की ज़रूरत होती है। इन दिनों शरीर के लिये ज़रूरी अनाज, सब्जियों में पोषक तत्वों की कमी मिट्टी में आई पोषक तत्वों की कमी का नतीजा है।
मिट्टी में जिंक की कमी से अनाज में भी इसकी कमी पाई जाती है। शरीर में जिंक की कमी के कारण रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता घटती है। जिससे निमोनिया, जुखाम, सांस सम्बंधी समस्याएँ हो जाती है। सल्फर की कमी के कारण शरीर में नाखून और बालों की समस्याएँ होने लगती है। आयरन की कमी से खून की कमी होती है। शरीर में 20 प्रतिशत आयरन की मात्रा ज़रूरी है। खून का प्रमुख घटक लाल रक्त कणिकाएँ तैयार करने में आयरन की अहम भूमिका होती है। आयरन की कमी के चलते एनिमिया हो जाता है। गर्भवती महिलाओं में एनिमिया होने से कुपोषित बच्चे जन्म लेते हैं और जन्म के बाद भी उनके दूध में पर्याप्त पोषकता नहीं रहती है।
नाइट्रोजन की कमी या अधिकता यानी प्रोटीन की कमी या अधिकता होती है। प्रोटीन से शरीर की कोशिकाएं तैयार होती है। प्रोटीन शुगर को नियंत्रित करने का भी काम करता है। डिंडौरी के खेतों की मिट्टी में नाइट्रोजन की उच्चता है। जिससे ज़्यादा प्रोटीन भी खतरनाक होता है।
अधिकांश खेतों में फास्फोरस की कमी पाई गई है। फास्फोरस की कमी के चलते हड्डियों की बीमारियाँ होने लगती है। इससे घुटने, कमर और हड्डियों से सम्बन्धित बीमारियाँ होती हैं। कई जगह पोटैशियम की मात्रा में भी असंतुलन पाया गया है। इसके असंतुलन से दिमागी रोग होते हैं।
उल्लेखनीय है कि डिंडौरी जिले में गौंड, सहरिया, बेगा और अगरिया सहित महत्त्वपूर्ण और दुर्लभ जनजातियों के लोग बड़ी संख्या में रह रहे हैं। इन जनजातियों में कुपोषण तेजी से फैल रहा है। यहाँ के ठेठ आदिवासी इलाके में अगरिया जनजाति बाहुल्य गाँव बरगा कुरैली में लोगों के पास दो वक्त के खाने का बंदोबस्त तो है। स्कूल और आंगनवाड़ियों में सरकारी खाना भी मिल रहा है। कुछ लोग आज भी उनके खेतों का अनाज ही खा रहे हैं। यहाँ ज्यादातर अगरिया औरतों में एनिमिया यानी खून की कमी है। उनसे होने वाली संतानों को भी ये महिलाएँ ठीक से स्तनपान नहीं करवा पा रही हैं। गाँव के ही कुछ नौजवानों को शुगर और ब्लडप्रेशर जैसी बीमारियाँ हैं।
मृदा परीक्षण प्रयोगशाला प्रभारी जगदीश बिसेन भी स्वीकार करते हैं कि हमारा काम सिर्फ़ मिट्टी के सैम्पल की जाँच करना है। डिंडौरी के खेतों की मिट्टी में ज़रूरी तत्वों का बेहद असंतुलन है। इन्हें संतुलित करने के लिये रासायनिक खाद डालने की सलाह दी जाती है। इसके साथ जैविक खाद को मिलाने की सलाह भी देते हैं। जो लोग पूरी तरह से जैविक खाद के इच्छुक होते हैं उन्हें वैसी सलाह देते हैं लेकिन ऐसे लोग कम ही मिलते हैं। सभी प्रयोगशाला वाले रासायनिक खाद की सलाह ही देते हैं।
रसायनशास्त्री प्रद्युम्नसिंह राठौर बताते हैं– 'मिट्टी में सभी ज़रूरी तत्वों का अपना-अपना काम होता है। बीजों को जर्मीनेशन से लगाकर उनकी ग्रोथ और अनाज के दाने का पोषक होना इन्हीं तत्वों पर निर्भर करता है। मिट्टी के पर्याप्त तत्वों वाले अनाज को खाने से ही हमारे शरीर में भी पर्याप्त पोषण मिलता है। ज्यादातर बीमारियाँ इसलिये हो रही है क्योंकि रासायनिक खाद, कीटनाशक और फसल चक्र बिगड़ने से जमीन की उर्वरकता यानी मिट्टी में मौजूद पोषक तत्व खत्म हो रहे हैं। यही कारण है कि बीमारियाँ बढती जा रही है।'
इस सबमें बुरी बात यह है कि हर किसान रासायनिक खाद के दुष्परिणामों को जानने–समझने के बाद भी इन उर्वरकों का लगातार उपयोग अपने खेतों में कर रहा है। इससे मिट्टी कमजोर होती जा रही है और उत्पादन भी कम होता जा रहा है। किसानों के पास उर्वरकों के विकल्प नहीं हैं। जैविक खाद और जैविक खेती के लिये लगातार किए जा रहे प्रयासों के बावजूद अब तक अधिकांश किसान अब भी इससे गुरेज करते नजर आते हैं। न तो किसानों को इस बारे में यथोचित जानकारी है और न ही अब तक सरकार ने भी इसके लिये कोई ठोस क़दम उठाए हैं।
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