बेंगलुरु के एक ऐसी नदी वृषभावती की एक सहायक नदी में बने चैक डैम का है, जिसमें वर्षों से पानी ही नहीं आ रहा है। नई पीढ़ी को तो शायद यह भी पता नहीं कि यह कोई नदी है। स्थानीय लोगों से पूछें तो आमतौर पर कहा जाता है कि बारिश में साल-दर साल लगातार हो रही कमी के कारण इस नदी में पानी नहीं आता है। लेकिन विशेषज्ञों और अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, यह कोई सटीक और एकलौता कारण नहीं है। इस निर्जलीकरण का वह कई दूसरे कारण भी बताते हैं। उनका कहना है कि असल में पानी को औद्योगिक इकाइयों द्वारा पंप लगाकर खींच लेने या नदी के शुरुआती क्षेत्रों में ही नहर आदि के माध्यम से रोक लेने के कारण यह निर्जलीकरण की समस्या आई है। जब नदी के उद्गम से ही पानी नहीं बहेगा तो यहां तक आएगा कैसे? स्थिति भयावह बन गई है। दूसरा कारण यह भी है कि भू-जल स्तर काफी गिर जाने के कारण भी पानी के स्रोत नष्ट हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा क्षेत्र में परिवर्तन भी इसका एक बड़ा कारण हो सकता है।
जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरण का ही मुद्दा नहीं है, बल्कि इससे आनेवाली पीढ़ी के लिए गंभीर समस्या उत्पन्न होनेवाली है। एक आकलन के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन से हो रहे नुकसान का 75 से 80 प्रतिशत मूल्य विकासशील देशों को चुकाना पड़ेगा। इसके लिए विकासशील देशों को हर साल 80 अरब डॉलर की जरूरत होगी।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्थापन का अध्ययन करनेवाली संस्था द इंटरनल डिसप्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर (आईडीएमसी) के मुताबिक, 2010 में बाढ़ एवं सूखे की वजह से दुनिया भर में करीब 4 करोड़ महिलाओं और बच्चों को पलायन करना पड़ा है। 1979 में गुजरात के आनंद के निकट स्थापित की गई आईडीएमसी के अनुसार, अगले 30 सालों में 16 देशों में जलवायु संकट बुरी तरह से प्रभाव डालेगा। इनमें से 10 देश केवल एशिया के हैं। खेतिहर किसान, मजदूर, पशुपालक और मछुआरे इसके प्रभाव में आनेवाले निशाने पर हैं। विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक असर ग्रामीण और कृषि आधारित समुदायों पर पड़नेवाला है। फसलों के चक्र में परिवर्तन, उनका नाश और लोगों का विस्थापन इस समस्या के अभिन्न अंग होंगे। इसका असर दिखने भी लगा है।
भारत जैसे विविधता वाले देशों को लें तो यहां के इलाकों में वर्षा का चरित्र बदलता जा रहा है। जो पहले घनी वर्षा के क्षेत्र हुआ करते थे, वहां बारिश में भारी कमी आ रही है। यह बरसात अन्य इलाकों में स्थानांतरित हो रही है। हैदराबाद स्थित सेंटर रिसर्च फॉर ड्राईलैंड एग्रीकल्चर (क्रीडा) के निदेशक बी. वेंकटेश्वरलू कहते हैं कि देश में सालाना कुल वर्षा में कोई खास अंतर नहीं आया है, लेकिन इसके क्षेत्र बदल गए है और दिन कम हो गए हैं। यानी पूर्वी घाट और पूर्वी भारत में जो भारी वर्षा हुआ करती थी वह अब पश्चिम भारत की ओर खिसक रही है। दूसरे कम दिनों की अवधि में ही औसत सालाना बारिश हो रही है। इससे कुछ दिन में ही भारी वर्षा हो रही है और ज्यादा दिन वर्षा से महरूम रह रहे हैं। इसका असर साफ तौर पर धान जैसी खेती पर पड़ रहा है, जिसमें बिचड़ा लगाने और पौधा रोपण में दो बार करीब एक महीने के अंतराल पर बारिश की जरूरत पड़ती है।
दुनिया की आबादी में करीब 1.7 अरब लोग आज भी कृषि पर निर्भर हैं। इसलिए जलवायु परिवर्तन की कोई भी सार्थक बातचीत कृषि की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हालांकि, जलवायु परिवर्तन से होनेवाले नुकसान पर नियंत्रण के बड़े-बड़े दावे भी किए जा रहे हैं। लेकिन इन सबके बावजूद प्रकृति में बदलाव को रोका नहीं जा सका है। प्रभाव साफ है कि मानसून का चक्र बिगड़ रहा है। मौसम का मिजाज बदल रहा है। इसका असर दूरदराज तक के गांवों, खेत-खलिहानों तक में हो रहा है। फसलें बदल रहीं हैं और परंपरागत फसलों के खत्म हो जाने से उनके गुणकारी तत्व भी मनुष्य तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।
सबसे अधिक प्रभाव तो कृषि पर पड़ रहा है, जहां परंपरागत रूप से उत्पादित होती आ रहीं बड़ी संख्या में फसलों का नामो-निशान तक मिट गया है। इन फसलों की जगह शुद्ध रूप से बड़ी कंपनियों द्वारा निर्देशित-नियंत्रित बीजों और उनके द्वारा बताए बीजों ने ले लिया है, जिनके पैदावार और पुनरुत्पादन पर उनका ही पूरा नियंत्रण हो रहा है। कम पानी और बिना रासायनिक खादों के पैदा होने वाली कई फसलें समाप्त हो चुकी हैं और उसकी जगह नई फसलों ने ले लिया है। इनमें बड़ी मात्रा में रासायनिक खादों, कीटनाशकों, परिमार्जित बीजों और सिंचाई की जरूरत पड़ती है। जाहिर है कि इस तरह की खेती में काफी लागत की जरूरत पड़ती है जो छोटे किसानों के जेब से बाहर होते जा रहे हैं। ऐसे में किसान अब मजदूरी की तरफ पलायन कर रहे हैं। दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में अकुशल और श्रमिकों की बढ़ती भारी भीड़ में इस संकट को देखा जा सकता है।
इसके कारण ग्राम्य जीवन में भी बदलाव आया है। तत्काल कृषि की जरूरतों के मुताबिक हल-बैलों की जगह ट्रैक्टरों ने ले लिया है और परंपरागत अनुभवोंं और ज्ञान के आधार पर पली आ रही खेती की जगह अब विशेषज्ञों द्वारा निर्देशित खेती लेती जा रही है।
जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरण का ही मुद्दा नहीं है, बल्कि इससे आनेवाली पीढ़ी के लिए गंभीर समस्या उत्पन्न होनेवाली है। एक आकलन के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन से हो रहे नुकसान का 75 से 80 प्रतिशत मूल्य विकासशील देशों को चुकाना पड़ेगा। इसके लिए विकासशील देशों को हर साल 80 अरब डॉलर की जरूरत होगी।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्थापन का अध्ययन करनेवाली संस्था द इंटरनल डिसप्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर (आईडीएमसी) के मुताबिक, 2010 में बाढ़ एवं सूखे की वजह से दुनिया भर में करीब 4 करोड़ महिलाओं और बच्चों को पलायन करना पड़ा है। 1979 में गुजरात के आनंद के निकट स्थापित की गई आईडीएमसी के अनुसार, अगले 30 सालों में 16 देशों में जलवायु संकट बुरी तरह से प्रभाव डालेगा। इनमें से 10 देश केवल एशिया के हैं। खेतिहर किसान, मजदूर, पशुपालक और मछुआरे इसके प्रभाव में आनेवाले निशाने पर हैं। विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक असर ग्रामीण और कृषि आधारित समुदायों पर पड़नेवाला है। फसलों के चक्र में परिवर्तन, उनका नाश और लोगों का विस्थापन इस समस्या के अभिन्न अंग होंगे। इसका असर दिखने भी लगा है।
भारत जैसे विविधता वाले देशों को लें तो यहां के इलाकों में वर्षा का चरित्र बदलता जा रहा है। जो पहले घनी वर्षा के क्षेत्र हुआ करते थे, वहां बारिश में भारी कमी आ रही है। यह बरसात अन्य इलाकों में स्थानांतरित हो रही है। हैदराबाद स्थित सेंटर रिसर्च फॉर ड्राईलैंड एग्रीकल्चर (क्रीडा) के निदेशक बी. वेंकटेश्वरलू कहते हैं कि देश में सालाना कुल वर्षा में कोई खास अंतर नहीं आया है, लेकिन इसके क्षेत्र बदल गए है और दिन कम हो गए हैं। यानी पूर्वी घाट और पूर्वी भारत में जो भारी वर्षा हुआ करती थी वह अब पश्चिम भारत की ओर खिसक रही है। दूसरे कम दिनों की अवधि में ही औसत सालाना बारिश हो रही है। इससे कुछ दिन में ही भारी वर्षा हो रही है और ज्यादा दिन वर्षा से महरूम रह रहे हैं। इसका असर साफ तौर पर धान जैसी खेती पर पड़ रहा है, जिसमें बिचड़ा लगाने और पौधा रोपण में दो बार करीब एक महीने के अंतराल पर बारिश की जरूरत पड़ती है।
दुनिया की आबादी में करीब 1.7 अरब लोग आज भी कृषि पर निर्भर हैं। इसलिए जलवायु परिवर्तन की कोई भी सार्थक बातचीत कृषि की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हालांकि, जलवायु परिवर्तन से होनेवाले नुकसान पर नियंत्रण के बड़े-बड़े दावे भी किए जा रहे हैं। लेकिन इन सबके बावजूद प्रकृति में बदलाव को रोका नहीं जा सका है। प्रभाव साफ है कि मानसून का चक्र बिगड़ रहा है। मौसम का मिजाज बदल रहा है। इसका असर दूरदराज तक के गांवों, खेत-खलिहानों तक में हो रहा है। फसलें बदल रहीं हैं और परंपरागत फसलों के खत्म हो जाने से उनके गुणकारी तत्व भी मनुष्य तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।
सबसे अधिक प्रभाव तो कृषि पर पड़ रहा है, जहां परंपरागत रूप से उत्पादित होती आ रहीं बड़ी संख्या में फसलों का नामो-निशान तक मिट गया है। इन फसलों की जगह शुद्ध रूप से बड़ी कंपनियों द्वारा निर्देशित-नियंत्रित बीजों और उनके द्वारा बताए बीजों ने ले लिया है, जिनके पैदावार और पुनरुत्पादन पर उनका ही पूरा नियंत्रण हो रहा है। कम पानी और बिना रासायनिक खादों के पैदा होने वाली कई फसलें समाप्त हो चुकी हैं और उसकी जगह नई फसलों ने ले लिया है। इनमें बड़ी मात्रा में रासायनिक खादों, कीटनाशकों, परिमार्जित बीजों और सिंचाई की जरूरत पड़ती है। जाहिर है कि इस तरह की खेती में काफी लागत की जरूरत पड़ती है जो छोटे किसानों के जेब से बाहर होते जा रहे हैं। ऐसे में किसान अब मजदूरी की तरफ पलायन कर रहे हैं। दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में अकुशल और श्रमिकों की बढ़ती भारी भीड़ में इस संकट को देखा जा सकता है।
इसके कारण ग्राम्य जीवन में भी बदलाव आया है। तत्काल कृषि की जरूरतों के मुताबिक हल-बैलों की जगह ट्रैक्टरों ने ले लिया है और परंपरागत अनुभवोंं और ज्ञान के आधार पर पली आ रही खेती की जगह अब विशेषज्ञों द्वारा निर्देशित खेती लेती जा रही है।
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