खेती की ‘कुछ-मत-करो’ विधि की ओर

यही बात वैज्ञानिकों पर भी लागू होती है। वे दिन-रात पोथियां पढ़कर उनमें अपनी आंखें गढ़ाकर अपनी देखने की क्षमता खो देते हैं, और यदि आप उनसे पूछें कि आखिर वे इतने समय से क्या कर रहे हैं तो आपको बताएंगे कि कमजोर दृष्टि को ठीक करने के लिए चश्मे के आविष्कार में लगे हैं।

तीस बरस तक मैं अपनी खेती में ही लगा रहा, और मेरी अपनी बिरादरी के अलावा बाहर के लोगों के साथ मेरा कोई संपर्क नहीं रहा। उन बरसों के दौरान मैं सीधा खेती की ‘कुछ-मत-करो’ विधि की तरफ बढ़ता चला गया। कोई भी नई विधि विकसित करने का सामान्य तरीका यही है कि पूछो, ‘क्यों न इसे आजमायाजाए?’ या ‘क्यों न उसे परखा जाए?’ ऐसा करते हुए हम कई तकनीकों का उपयोग एक-के-ऊपर-एक करते हैं। आधुनिक कृषि सही है और वह किसानों को और भी अधिक व्यस्त बनाती जाती है।

मेरा तरीका बिल्कुल उल्टा था। मेरा लक्ष्य खेती का एक ऐसा सुखद प्राकृतिक तरीका इजाद करना था जो खेती के काम को कठिन की बजाए आसान बनाए। मेरे सोचने का तरीका थाः ‘यदि हम ऐसा न करें तो क्या होगा? यदि हम वैसा न करें तो कैसा?’ मैं अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जोतने, रासायनिकखाद देने या सोनखाद बनाने, तथा कीटनाशकों का उपयोग करने की कतई जरूरत नहीं है। यदि आप ऐसा करने पर वाकई उतर आते हैं तो आपको शायद ही फिर कोई अन्य कृषि-विधियों की जरूरत रह जाती है।

हमें जो मानव की सुधरी हुई तकनीकें नजर आती हैं, उन्हीं तकनीकों के कारण प्राकृतिक संतुलन इतना ज्यादा गड़बड़ा चुका है और जमीन अब उन्हीं पर बुरी तरह निर्भर हो गई है। यही तर्क-प्रक्रिया कृषि के अलावा मानव समाज के अन्य पहलुओं पर भी लागू होती है। डाक्टरों और दवाओं की जरूरत तभी पड़ती है, जब लोग ‘बीमार वातावरण’ पैदा करते हैं। औपचारिक शिक्षा की वैसे मानव को कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन जब मानव ऐसी स्थिति का निर्माण कर देता है, तो उसको खुद को जीने के लिए शिक्षित करना ही पड़ता है।

युद्ध समाप्त होने के पूर्व जब मैं नारंगी के बागानों में उस चीज को आजमाने पहुंचा, जिसे मैं तब प्राकृतिक खेती समझता था, तो मैंने कोई कटाई-छंटाई न करते हुए उसे उसके हाल पर छोड़ दिया था। शाखें आपस में उलझ गयीं, पेड़ों में कीड़े लग गए और लगभग दो एकड़ क्षेत्र के मेंडेरिन-संतरों के पेड़ मुरझा कर मर गए। तभी से मेरे दिमाग में यह सवाल मंडराता रहा कि, आखिर ‘स्वाभाविक तरीका (पैटर्न) क्या है?’ इस सवाल के जवाब की खोज में मैंने और 400 पेड़ उखाड़ फेंके। आखिरकार मुझे लगा कि अब मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं ‘यही है प्राकृतिक प्रतिरूप’।

कटाई-छंटाई और कीटनाशक उसी सीमा तक आवश्यक होता है, जिस सीमा तक वृक्ष अपने स्वाभाविक आकार-प्रकार से दूर होते हैं। इसी तरह स्कूली शिक्षा की भी तभी जरूरत होती है जब मानव समाज अपने आपको प्रकृति के घनिष्ट सान्निध्य से अलग कर लेता है। प्रकृति में औपचारिक शिक्षण की कोई भूमिका नहीं होती।

बच्चों की परवरिश करते समय भी माता-पिता वही गलती करते हैं जो पहले-पहल मैंने अपने नारंगी के बागानों में की थी। मसलन बच्चों को संगीत की शिक्षा देना उतना ही गैरजरूरी है जितना बागानों के वृक्षों की कटाई। बच्चे के कान संगीत को अपने आप पकड़ते हैं। झरने का कलकल बहना, नदी किनारे मेंढकों का टर्राना, जंगल में पत्तियों की सरसराहट आदि प्राकृतिक ध्वनियां ही संगीत, सच्चा संगीत है। लेकिन जब कई प्रकार की शोरनुमा ध्वनियां इसमें हस्तक्षेप करते हुए बच्चों के कानों को उलझाती हैं, बच्चों की संगीत में रस लेने की प्रत्यक्ष और शुद्ध क्षमता बिगड़ने लगती है। यदि उसे इसी राह पर आगे चलने दिया गया तो बच्चा परिंदे की पुकार और हवाओं की सरसराहट का संगीत कभी नहीं सुन पाएगा। और इसलिए बच्चे के विकास के लिए संगीत की शिक्षा फायदे की बात लगने लगेगी। जिस बच्चे की परवरिश स्पष्ट और शुद्ध श्रवण-शक्ति के साथ होती है, वह हो सकता है वायलिन या पियानो पर लोकप्रिय धुनें न बजा सके, लेकिन मैं नहीं समझता कि सच्चा संगीत सुनने या गाने की क्षमता के साथ इसका कोई संबंध है। बच्चे को संगीत की देन प्राप्त है यह तभी कहा जा सकता है, जब उस बच्चे का मन अपने आप संगीत से भर उठता है। लगभग हर व्यक्ति यह तो मानता है कि ‘कुदरत’ एक अच्छी चीज है। लेकिन ऐसे लोग कम ही हैं जो प्राकृतिक और अप्राकृतिक के बीच मौजूद फर्क को समझ सकें।

यदि एक मात्र नई कली को किसी फलदार वृक्ष में कैंची से काटकर अलग कर दिया जाए तो उससे एक ऐसी अव्यवस्था पैदा हो सकती है जिसे फिर दुबारा ठीक नहीं किया जा सकता। अपने स्वाभाविक आकार में बढ़ते हुए वृक्ष की शाखाएं तने से, जो बारी-बारी से निकलती (फूटती) है, उससे उन्हें सूर्य का प्रकाश एक-समान मात्रा में मिलता है। यदि इस क्रम को भंग कर दिया जाए तो शाखाओं में ‘टकराव’ पैदा हो जाता है। वे एक-दूसरे पर आकर आपस में उलझ जाती हैं, और जिस स्थान पर सूर्य की किरणें प्रवेश नहीं कर पातीं, वहां की पत्तियां मुरझा जाती हैं। यहीं से कीड़े लगना भी शुरू हो जाते हैं। यदि वृक्ष की कटाई-छंटाई नहीं की गई तो अगले वर्ष कुछ और शाखें मुरझा जाएंगी।

छेड़-छाड़ करने के अपने स्वभाव के कारण इंसान पहले तो कुछ गलत काम करता है, फिर उस नुकसान को बिना सुधरे वैसा ही छोड़ देता है, और जब नुकसान इकट्ठा होकर खूब बढ़ जाता है तो फिर उसे दुरुस्त करने के लिए जी-जान से भिड़ता है। जब सुधार की कार्यवाही में उसे कुछ सफलता मिल जाती है तो वह इन उपायों को अपनी शानदार उपलब्धि मानने लगता है। लोग बार-बार यही करते हैं। यह ठीक वैसी ही चीज है जैसे कोई बेवकूफ पहले तो अपने घर की छत के कबेलुओं को उन पर चल कर तोड़ डाले और जब बारिश होने लगे और छत सड़ने लगे तो वह तेजी से ऊपर चढ़कर उसकी मरम्मत करे, और अंत में इस बात से फूला न समाए कि आखिर उसने समस्या का एक चमत्कारी हल पा ही लिया। ठीक यही बात वैज्ञानिकों पर भी लागू होती है। वे दिन-रात पोथियां पढ़कर उनमें अपनी आंखें गढ़ाकर अपनी देखने की क्षमता खो देते हैं, और यदि आप उनसे पूछें कि आखिर वे इतने समय से क्या कर रहे हैं तो आपको बताएंगे कि कमजोर दृष्टि को ठीक करने के लिए चश्मे के आविष्कार में लगे हैं।

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