खेजड़ी रेगिस्तान की शान


- खेजड़ी और ऊंट अगर रेगिस्तान में नहीं होते तो न यहां जानवर रहते, न ही आदमी बसते। दूर-दूर तक सिर्फ बियाबान होता। सूंसाट करती हवाएं चलती।
- आदमी की आंखे दरख्त देखने को तरस जातीं। रेगिस्तान की सरजमी पर खड़े खेजड़ी के पेड़ सचमुच वरदान हैं।
- कभी रेगिस्तान में जाइए तो वहां के खुले मैदानों में तपती लू और प्रचंड ताप में खेजड़ी सीना ताने खड़ी नजर आती है।


खेजड़ी बहुत पुराना वृक्ष है। इसका उल्लेख वेद-पुराणों में मिलता है। संस्कृत में इसका प्राचीन नाम ‘समी’ या ‘शमी’ है और वनस्पतिशास्त्री इसे ‘प्रोसोपिस सिनेदेरिया’ कहते हैं। यह पेंड़ कितना पुराना है, इसका एहसास इस तथ्य से हो जाता है कि जब पांडवों को एक वर्ष का अज्ञातवास बिताने के लिए अपनी पहचान छिपानी थी, तब उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्र, धनुष, तरकश एक खेजड़ी के वृक्ष में ही छिपाये थे।

रेगिस्तान में कई-कई कोस तक राहगीर को आश्रय नहीं मिलता। ऐसे में उसे छांव देती है खेजड़ी। पुराने समय में जब ऊंटों पर बनजारे दिसावर को जाते या किसी सेठ की बारात बैलगाड़ियों में निकलती तो रास्ते में खेजड़ी के पेड़ के नीचे ही विश्राम करती थी। बिज्जी की प्रसिद्ध कहानी ‘दुनिया’ (जिस पर पहले मणि कौल ने ‘दुविधा’ और फिर शाहरूख खान ने ‘पहेली’ फिल्म बनायी है) में खूबसूरत दुल्हन खेजड़ी के पेड़ के नीचे ही आराम करती हैः दुल्हन के साथ पांच दासियां थीं, वे सभी खेजड़ी की छाया में दरी बिछाकर बैठ गयीं। दूल्हन मुंह फिराये घूंघट हटाकर बैठी थी। ऊपर देखा पतली-पतली अनगिनत हरी सांगरियां (खेजड़ी की फली) देखते ही आंखों में शीतलता दौड़ गयी। संयोग की बात, उस खेजड़ी में एक भूत का निवास था। उसने दुल्हन के उधड़े चेहरे को देखा तो उसकी आंखे चौंधिया गयीं। दूल्हन का रूप देख खेजड़ी की छाया तक चमकने लगी।

कहानी लंबी है, पर जरा ठिठोली में कहें तो खेजड़ी आदमी को ही नहीं, भूतों को भी आश्रय देती है। कभी रेगिस्तान में जाइए तो वहां के खुले मैदानों में तपती लू और प्रचंड ताप में खेजड़ी सीना ताने खड़ी नजर आती है।

खेजड़ी को सिर्फ राजस्थान का वृक्ष कहना इसके साथ ज्यादती होगी। यह पूरे देश में मिलता है। हर भाषा में इसका अलग नाम है। राजस्थानी में इसे कल्पतरु झाटी और बोझी भी कहते हैं, तो दूसरी भाषाओं में क्या कहा जाता है? इन दोहों में सुनिएः

तमिली ‘पारंबी’ तवै, ‘झंड’ पंजाबी जांण,
‘सिमरू’ गुजराती सबद, तेलुगू ‘जंबी’ जांण,
कन्नड़ मां ‘बन्नी’ कहै, तकड़ो दरख्त प्रेम,
मिलत ‘सुन्दर’ मराठियां, आदर सेजड़ येम।


राजस्थान के अलावा खेजड़ी का पेड़ अफगानिस्तान, ईरान, पाकिस्तान के बलूच और सिंध इलाकों में भी मिलता है। खेजड़ी की जान हैं इसकी जड़ें। रेतभरी ज़मीन में इसकी जड़े चौसठ फुट तक पहुंच जाती हैं। सन् 1876 में खेजड़ी की जड़े 86 फीट और सन 1921 में 117 फीट तक पायी गयी हैं। जाहिर है, अपनी गहरी जड़ों के कारण ही मरु धरती की गर्भनाल से जुड़ा है और गर्मी के महीनों में जब सारी वनस्पति धूप में जल जाती है तब खेजड़ी में मार्च से जुलाई तक फल लगते है। इसकी फली सांगरी स्वादिष्ट और पौष्टिक होती है। किसी जमाने में यह गरीबों का मेवा थी। आजकल सांगरी को सुखाकर बेचने वाले व्यापारी बढ़ गये हैं सो अब सूखी सांगरी सैंकड़ों रुपये किलो बिकती है और काजू-किशमिश के साथ बनी इसकी सब्जी रईसों के भोजन में शुमार होती है।

खेजड़ी ने हजारों साल तक रेगिस्तानी चूल्हों को ताप दी है। इसकी लकड़ी सख्त होती है इसलिए इमारती कामों से ज्यादा ईंधन के रूप में प्रयोग में लायी जाती है। इसकी पत्तियों को लोग कहते हैं और यह रेगिस्तानी पशु जैसे भेड़, बकरी और गधों का पसंदीदा भोजन है। ऊंट इसे बड़े चाव से खाते हैं। इसकी पत्तियों से मिलने वाला सेल्यूलोज और लिग्निन नाइट्रोजन संतुलन बनाता है। वन्य पशु जैसे हिरण, नीलगाय, खरगोश भी खेजड़ी की फली और पत्तियों को खूब खाते हैं। खेजड़ी का पेड़ दस साल के बाद पत्ती और फलों का उत्पादन करने लगता है और दो-ढाई सौ बरस तक खूब देता है। किसानों के लिए तो खेजड़ी एक अनमोल वृक्ष है।

त्रिकाल अर्थात जब तृण का अकाल, जल का अकाल और अन्न का अकाल पड़ता है। तब खेजड़ी की महिमा समझ आती है।त्रिकाल अर्थात जब तृण का अकाल, जल का अकाल और अन्न का अकाल पड़ता है तब खेजड़ी की महिमा समझ आती है। खेजड़ी के वृक्ष से एक अमरगाथा भी जुड़ी है, खेजड़ली ग्राम के 363 विश्नोई जनों के वरदान की। भादों बदी अष्टमी यानी जन्माष्टमी के दिन संवत 1508 में नागौर के पीपासार ग्राम में जन्मे थे जांभोजी। उनके उनतीस नियमों को मानने वाले विश्नोई कहलाते हैं। जांभोजी ने अपने जीवनकाल में अकाल देखा था, भूख और प्यास से बिलखते बच्चे देखे थे। तब उन्होंने कहा था, ‘जीव दया पालणी रूंख लोलो नहीं छावै’ अर्थात वन्य जीवों को मत मारो और हरा वृक्ष मत काटो। जांभोजी के नियमों से संस्कारित मारवाड़ अंचल के खेजड़ली ग्राम और आसपास के ग्रामीण स्त्री-पुरूषों ने संवत 1787 में खेजड़ी को कटने से बचाने के लिए बलिदान किया था। वे खुद कट मरे थे, लेकिन उन्होंने पेड़ों को नहीं कटने दिया। यह घटना उस समय की थी, जब दिल्ली का मुगल साम्राज्य अस्थिर था। मराठे लगातार आक्रमण कर रहे थे। तब मारवाड़ नरेश के मंत्री गिरधरदास भंडारी ने खेजड़ी काटने का हुक्म दिया। खेजड़ी को जी जान से ज्यादा प्रेम करने वाले ग्रामीणजन पेड़ों से लिपट गये और कुल्हाड़ियों के वार उन्होंने अपने शरीर पर झेले। सारे विश्व में पेड़ों को बचाने का यह अनुपम उदाहरण है।

लेकिन आज खेजड़ी सिमट रही है। सैकड़ों साल उम्र में बुजुर्ग दरख्त नष्ट हो रहे हैं। नये पेड़ लग नहीं रहे। जिस वृक्ष ने हजारों साल से इंसान के हर दुख-सुख में साथ दिया, वह अब धीरे-धीरे बर्बाद हो रहा है। खेजड़ी बचाने की जरूरत है खेजड़ी बचेगा तो रेगिस्तान में जीवन बचेगा, यह एक बड़ा सच है।

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