सभी के लिए संकट
जो लोग बोतलों वाला पानी खरीद सकते हैं, वे सोचते हैं कि जल संकट उनकी समस्या नहीं है। वे गलती कर रहे हैं। महज दो अनियमित मानसून हमें पानी के लिए तरसा सकते हैं।
सुनामी हमारे जीवन में उथलपुथल मचा सकती है। भूकंप हमें झकझोर सकता है। हम बूंद-बूंद पानी को तरस सकते हैं लेकिन हमारा जो रवैया है, उसे हरिवंशराय बच्चन की ये अमर पंक्तियां बहुत अच्छी तरह व्यक्त करती हैं : दिन को होली, रात दिवाली, रोज मनाती मधुशाला।
इसमें संदेह नहीं कि हम समृद्धि की राह पर आगे बढ़ रहे हैं और यदि मानसून नियमित रहा और कोई प्राकृतिक आपदा नहीं आई तो हम जल्द ही 9 फीसदी की विकास दर भी हासिल कर लेंगे। शायद इसके बाद हम 10 फीसदी विकास दर के बारे में भी पूरे आत्मविश्वास के साथ विचार करने लगें। लेकिन एक तरफ जहां हम एक खुशहाल ‘कल’ की ओर देख रहे हैं और उसके लिए योजनाएं बना रहे हैं, वहीं सच्चाई यही है कि हमारा जीवन कल में नहीं, ‘आज’ में है। हम आज जीते हैं, आज सांस लेते हैं। सवाल यह है कि हमारा आज कैसा है?
आज जहां भी देखें, कुछ न कुछ निर्माण कार्य चलता नजर आता है। कहीं खुदाई हो रही है, कहीं कंस्ट्रक्शन चल रहा है। कहीं गगनचुंबी इमारतों के लिए, कहीं मेट्रो ट्रेन के लिए। आज हम ब्रह्म और शिव दोनों की भूमिकाओं में हैं। ब्रह्म सृजन करते हैं और शिव विनाश करते हैं। लेकिन विष्णु कहां हैं? विष्णु, जो शुभ की रक्षा करते हैं, संसार का पोषण करते हैं और सृष्टि को संपूर्णता प्रदान करते हैं। शायद वे कहीं निद्रा में लीन हैं। लगता नहीं कि हम हवा में जहर घोल रही फैक्टरियों और मोटरगाड़ियों के धुएं के बारे में जानते हैं, नदियों और जलस्रोतों में मिल रही गंदगी को देख रहे हैं, हमें समुद्र तटों और जंगलों के साथ हो रहे खिलवाड़ के बारे में पता है या हम बढ़ते ट्रैफिक की चिल्लपौं से वाकिफ हैं। लगता नहीं कि हमें सरकार की लाचारी के बारे में पता है या हम मूल्यों के पतन के बारे में जानते हैं। नैतिक निष्ठा और ईमानदारी चरम मूल्य हैं। उनका पतन नहीं हो सकता, लेकिन उन पर सवालिया निशान तो लगे ही हैं।
यही समय है कि हम खुद से कुछ जरूरी सवाल पूछें : क्या हम दस फीसदी विकास दर वाले सृजन के पक्षधर हैं या हम विकास की राह में बाधा बनने वाली चीजों का संहार करने वाले विनाश का रूप धरना चाहते हैं? या हम त्रिदेवों में से तीसरे देव विष्णु की तरह होना चाहते हैं, जो सुरक्षा, संरक्षण और पोषण के देवता हैं? मिसाल के तौर पर बिजली और पानी का जरूरत से ज्यादा उपभोग करने वाले लोग क्या अपने उपभोग में जरा कटौती नहीं कर सकते और इनकी शेष मात्रा नेशनल ग्रिड को नहीं लौटा सकते? हममें से सभी लोग बिजली पैदा नहीं कर सकते और पानी का सृजन तो कोई भी नहीं कर सकता। लेकिन हम उन्हें बचा जरूर सकते हैं। हम बिजली और पानी को उन लोगों के लिए बचा सकते हैं, जिनके पास ये चीजें पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं।
हमें विपदा से स्वयं को बचाने के लिए जल्द ही कुछ कदम उठाने होंगे। विपदा से मेरा आशय है, एक ऐसा वास्तविक भौतिक संकट, जिसके अस्तित्व को हम एक तरह से नकार ही रहे हैं। निजी और सार्वजनिक उपयोग के लिए जिस तेजी से भवनों का निर्माण हो रहा है, उसने भारत में कांक्रीट का एक विशाल जंगल खड़ा कर दिया है। इस विशाल जंगल के समक्ष आगजनी व भूकंप जैसी बड़ी चुनौतियां हैं। क्या हमारे शहरों और कस्बों में भवन निर्माण के दौरान इस बात का ध्यान रखा जा रहा है कि वे कितने मजबूत हैं या वे रिक्टर स्केल पर 6 या 7 से अधिक तीव्रता वाले भूकंप को झेलने के लिए सक्षम हैं? क्या हम अतिसंवेदनशील क्षेत्रों में भी गगनचुंबी इमारतें बना रहे हैं? हमें यह मानने की भूल नहीं करनी चाहिए कि जापान हमसे बहुत दूर है और हमारे यहां वैसी परिस्थितियां निर्मित नहीं हो सकतीं। महज तीन माह पहले ही पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में रिक्टर स्केल पर 7.2 तीव्रता का भूकंप आया था। भूकंप के लिए पांच सौ किलोमीटर का फासला कुछ नहीं होता। हमारे भव्य भवन, चमचमाते नए हवाई अड्डे, गगनचुंबी इमारतें, ये सभी भूकंप के जलजले के सामने उतने ही कमजोर हैं, जितने कि हमारे छोटे-छोटे घर।
एक और विपदा है जलवायु परिवर्तन, जिसकी तरफ इन दिनों पूरी दुनिया का ध्यान लगा हुआ है, लेकिन हमारा नहीं। चंद माह पूर्व पाकिस्तान ने भीषण बाढ़ की विपत्ति का सामना किया था। ऐसी बाढ़ पाकिस्तान के इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई थी। धरती का मौसम अब मनमानीपूर्ण होता जा रहा है। इसका मतलब है कि हमें बारिश, बाढ़, सूखा जैसी विपदाओं का अधिक सामना करना पड़ेगा, लेकिन हम इनका सामना किस तरह कर रहे हैं?
हम इनका सामना कर रहे हैं खामोशी के एक षड्यंत्र के जरिये। हमें इस स्थिति को स्वीकारना चाहिए। पूरी दुनिया जलसंकट का सामना कर रही है। हम भी इस संकट से अछूते नहीं हैं। लेकिन हममें से अधिकांश लोग इस संकट की भयावहता को समझ नहीं पा रहे हैं। हम पानी का दुरुपयोग नहीं कर सकते। हमारे जलस्रोत या तो सूख रहे हैं या प्रदूषित हो रहे हैं, लेकिन क्या ‘ग्रीन एक्टिविस्ट्स’ को छोड़कर हमारे प्रौद्योगिकी समुदाय में इस स्थिति को लेकर किसी तरह की चिंता या व्याकुलता है? हां, एक वाटर मिशन जरूर अभियान पर लगा हुआ है और यह बहुत अच्छी बात है, लेकिन क्या हमारे प्रौद्योगिकीविद भारत के लोगों को जल-सुरक्षा के तथ्यों के बारे में पर्याप्त जानकारी दे पा रहे हैं? क्या हमें एक राष्ट्र के रूप में जलसंकट की स्थिति का सामना करने के लिए बेहतर रूप से तैयार नहीं रहना चाहिए? क्या हमारे पास बेहतर सूचनाएं नहीं होनी चाहिए? जिन लोगों के पास एक्वागार्ड की सुविधा है और जो बोतलों वाला पानी खरीद सकते हैं, वे सोचते हैं कि यह उनकी समस्या नहीं है। वे गलती कर रहे हैं। महज दो अनियमित मानसून हम सभी को पानी के लिए तरसा देने के लिए काफी हैं। हम पैसे को नहीं पी सकते और न ही उनसे खरीदी जा सकने वाली खाली बोतलों को। क्या हम ऐसी किसी स्थिति के बारे में सोच रहे हैं या उसे लेकर चिंतित हैं?
एक सुनामी हमारे जीवन में उथलपुथल मचा सकती है। भूकंप हमें झकझोर सकता है। हम सूखे में बूंद-बूंद पानी को तरस सकते हैं या बाढ़ के पानी में डूब सकते हैं। लेकिन हमारा जो रवैया है, उसे हरिवंशराय बच्चन की ये अमर पंक्तियां बहुत अच्छी तरह व्यक्त करती हैं : दिन को होली, रात दिवाली, रोज मनाती मधुशाला।
लेखक पूर्व प्रशासक, राजनयिक व राज्यपाल हैं।
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