किसानों को अभी तो हरित क्रांति ने मारा है कल उसे बीज क्रांति मार देगी। बीजों का पेटेन्ट उसे मार देगा व ऐसे बीजों का प्रचलन भी उसे मार देगा जिन्हें वह एक फसल के बाद अगले फसल के लिए नहीं रख पाएगा। उसे बिजली, पानी, भंडारण का किराया भी मार देगा। कुल मिलाकर खेतों को खेती के लिए उपयोग करने के बजाए, उसे उन्हें बेचना ज्यादा लाभदायक लगेगा। इससे खेती की जमीन में आई कमी देर सबेर बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्य सुरक्षा देना एक मुश्किल काम बना देगी। तब ऐसे लोगों की बन आयेगी, जो कहते हैं कि भविष्य की खाद्यान्न सुरक्षा ऐसे बीजों से ही लाई जा सकेगी, जिन्हें जीन टेक्नोलॉजी का उपयोग कर मनचाहे गुणों वाला गैर प्राकृतिक तरीके से प्रयोगशालाओं में बनाये जायेंगे।
खाद्य सुरक्षा का मुद्दा अब एक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है। जब हम खाद्य सुरक्षा के मसले को स्वच्छ पेयजल से या ईंधन से जो खाना पकाने के लिए काम में आता है अथवा उचित साफ सफाई से जोड़ते हैं तो लगता है कि इस दिशा में अभी बहुत काम करना बाकी है। दुनिया में करीब एक अरब ऐसे लोग हैं, जिनको साफ पेयजल उपलब्ध नहीं है व 2 अरब लोगों को उचित शौचालय जल निकासी आदि की व्यवस्था एवं साफ ईंधन उपलब्ध नहीं हैं। जिन्हें सब सुविधाएं उपलब्ध भी हैं, उन्हें इसकी अधिक कीमत देना पड़ता है। आज जब पूरे विश्व में स्थाई रोजगार की जगह अनुबंधों पर मिलने वाले रोजगार ने ले ली है तो कई नए लोग उन करोड़ों लोगों के संख्या में जुड़ जाते हैं जो छुपी भूख अर्थात कुपोषण से ग्रसित रहते हैं। पानी तो कई जगह दूध से ज्यादा महंगा हो रहा है और दूध की बात करें तो मौत के सौदागर उसे घातक रसायनों से बना रहे हैं। सन् 1998 में ही पश्चिमी उत्तरप्रदेश में सोलह जिलों में करीब एक करोड़ लीटर कृत्रिम विषैला दूध तैयार होता था। इसी से जुड़ा सवाल खाद्यान्नों, मसालों आदि में घातक मिलावट का भी है। कहने का अर्थ है कि हम जो खा रहे हैं उससे हमारा जीवन सुरक्षित भी है कि नहीं? इस बात से भी यह तय होगा कि हम खाद्य सुरक्षा के दायरे में हैं कि नहीं।बढ़ते भ्रष्टाचार व घटते उपभोक्ता संरक्षण की वजह से भी हम मात्रात्मक खाद्य सुरक्षा की परिभाषा में होते हुए भी वास्तव में खाद्य असुरक्षा की ओर जा रहे हैं। निःसंदेह उत्पादित कुल खाद्यान्न भी खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए जरुरी है परंतु इसे एकमात्र व पर्याप्त कारक नहीं माना जा सकता है। मान लीजिए खेतों में खूब उगा भी लिया है परंतु यदि उनके भंडारण की व्यवस्था पारिवारिक स्तर पर, सामुदायिक स्तर पर या राज्य या राष्ट्र स्तर पर भी न हो तो भी खाद्य असुरक्षा का दंश सभी को झेलना पड़ सकता है। उड़ीसा में जहां अकाल से मौतें होती हैं, वहीं का समाचार है कि यहां विषाक्त आम की गुठलियों के खाने से भी लोगों की मौतें हुई हैं। जब किसानों ने 2001 में भारी मात्रा में धान उगाया, तो उन्हें सन् 2002 के मध्य तक न तो धान का कोई खरीददार मिला ना ही भंडारण की कोई व्यवस्था मिली। यहां तक कि किसानों को उपज में लगाये गये धन की कीमत तक नहीं मिली। स्थानीय किसानों ने यहां तक मांग कर डाली कि उन्हें पानी, बिजली के बिल, बच्चों की फीस धान के रूप में दिये जाने की अनुमति दी जाए।
इससे खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में दो बातें और भी साफ हो जाती है कि जैसे किसान जब धान के द्वारा बिजली का बिल, बच्चों की फीस आदि के भुगतान की बात कर रहे थे तो सरकार इसे मानने में दिक्कत का अनुभव कर रही है क्योंकि उसके अनुसार पैसों का काम तो पैसों से ही चलेगा। उसी तरह से जब वह भी काम के बदले अनाज देती है तो उससे भी गरीबों की जरूरतें पूरी नहीं होती हैं। इसी क्रम में गांवों में ही अनाज बैंक बनाकर खाद्य सुरक्षा की रणनीति को लागू करना एक तरफ जहां आवश्यक लग रहा है, वहीं ढांचागत व्यवस्थाओं की कमी होने से इस योजना को लागू करना आसान नहीं होगा। आज स्थिति यह हो गई है कि किसान कर्जे लेकर महंगे बीजों और उर्वरकों का उपयोग कर जो फसल उगा रहा है, उसकी बिक्री न होने से या कर्जों को न चुका पाने के कारण जगह-जगह आत्महत्याएं कर रहा है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात में मूंगफली, कपास व अन्य नगदी फसल उगाने वाले किसानों को अच्छी फसलों को उगाने के बाद भी अपने कर्जे को लौटाने के लिए परिवार की जमीनें, गहने आदि बेचने पड़े। यह स्थिति तब है जब खुले विश्व व्यापार व्यवस्था के अंतर्गत भारत में अभी विदेशी अनाज नहीं बिक रहा है। यदि यह क्रम भी शुरू हो जाएगा तब तो अनाज उगाने वाले के घर में ही चूल्हा जलाना मुश्किल हो जायेगा।
अतः यदि किसी देश में खाद्य सुरक्षा लाना है तो केवल ज्यादा अनाज उगाना ही पर्याप्त नहीं होगा, परंतु कभी-कभी अमेरिका जैसे देशों की तरह ऐसे भी निर्णय लेने पड़ेंगे कि किसानों को खेतों में कुछ न उगाने के लिए भी धन देना होगा। परंतु शायद यह अमेरिका जैसा शक्तिशाली और धनी देश ही कर सकता है जो भारत में किसानों को दस डॉलर तक की सब्सिडी देने तक का विरोध करता है और स्वयं अपने किसानों को विभिन्न मदों में लगभग एक हजार डॉलर तक की सब्सिडी दे रहा है। जो भी हो तथ्य यही है कि भारत का अन्नदाता किसान आज राशन की दुकान में खड़े होने की स्थिति में आ गया है। अभी तो हरित क्रांति ने उसे मारा है कल उसे बीज क्रांति मार देगी। बीजों का पेटेन्ट उसे मार देगा व ऐसे बीजों का प्रचलन भी उसे मार देगा जिन्हें वह एक फसल के बाद अगले फसल के लिए नहीं रख पाएगा। उसे बिजली, पानी, भंडारण का किराया भी मार देगा। कुल मिलाकर खेतों को खेती के लिए उपयोग करने के बजाए, उसे उन्हें बेचना ज्यादा लाभदायक लगेगा। इससे खेती की जमीन में आई कमी देर सबेर बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्य सुरक्षा देना एक मुश्किल काम बना देगी। तब ऐसे लोगों की बन आयेगी, जो कहते हैं कि भविष्य की खाद्यान्न सुरक्षा ऐसे बीजों से ही लाई जा सकेगी, जिन्हें जीन टेक्नोलॉजी का उपयोग कर मनचाहे गुणों वाला गैर प्राकृतिक तरीके से प्रयोगशालाओं में बनाये जायेंगे। ऐसी खाद्य सुरक्षा क्या सुरक्षित होगी, यह भी बड़ा सवाल है?
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