स्वतंत्रता के बाद से आज तक सभी के लिए खाद्य सुरक्षा एक राष्ट्रीय उद्देश्य बन चुकी है। जहां पहले खाद्य सुरक्षा से तात्पर्य पेट भर रोटी उपलब्ध होने से था वहीं आज खाद्य सुरक्षा से आशय भौतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों की पहुंच के अलावा संतुलित आहार, साफ पीने का पानी, स्वच्छ वातावरण एवं प्राथमिक स्वास्थ्य रखरखाव तक जा पहुंचा है।
वर्ष 2012 तक देश में खाद्यान्न की मांग में 2.50 करोड़ टन की वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए गेहूं के उत्पादन में 8 मिलियन टन, चावल के उत्पादन में 10 मिलियन टन तथा दालों के उत्पादन मे 2 मिलियन टन वृद्धि करने का लक्ष्य रखा गया है। सरकार की ओर से इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 25 हजार करोड़ रुपए के विशेष पैकेज की भी घोषणा की गई है। यदि इस लक्ष्य की पूर्ति हो जाए तो निश्चित रूप से गरीबी दूर करने में यह एक सार्थक प्रयास होगा। भारत में हमेशा खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर गंभीरता दिखाई गई और यही वजह है कि वर्ष 1960 में श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में हरितक्रांति की शुरुआत हुई। जिस अनुपात से जनसंख्या बढ़ी उसके हिसाब से हमने अन्न भी उपजाया लेकिन भुखमरी खत्म नहीं हुई। हरित क्रांति के बाद सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली, अन्त्योदय अन्न योजना, अन्नपूर्णा योजना, डीजल सब्सिडी योजना आदि योजनाएं लागू की। इसके अलावा ‘काम के बदले अनाज’ योजना के माध्यम से गरीबों को राहत देने का प्रयास किया गया फिर भी उम्मीदों के अनुरूप सुधार नहीं हुआ क्योंकि इसका मुख्य कारण यह था कि इन योजनाओं में कुछ कमियां विद्यमान थी जिससे सरकार अवगत नहीं थी। परिणामस्वरूप खाद्यान्न घोटाले की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए सरकार को खाद्य सुरक्षा कानून बनाने की जरूरत महसूस हुई।
भारतीय संविधान की धारा 47 में यह प्रावधान है कि सरकार लोगों का जीवन-स्तर उठाने, आहारों की पौष्टिकता में वृद्धि करने तथा प्राथमिक स्वास्थ्य में सुधार लाने जैसे कार्यों को प्राथमिकता के आधार पर करेगी एवं खाद्य सुरक्षा में पौष्टिक व कैलोरीयुक्त खाद्यान्नों की आपूर्ति स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कराएगी। परिणामस्वरूप केन्द्र सरकार ने खाद्य सुरक्षा हेतु अनेक योजनाएं भी लागू की हैं जिससे कि देश की आर्थिक स्थिति में सुधार हो और खाद्य सुरक्षा संबंधी समस्या भी हल हो सके।
सर्वे में यह बात भी सामने आई है कि फसल बीमा का लाभ सिर्फ 4 प्रतिशत किसानों तक ही पहुंच पाता है, 57 प्रतिशत किसानों को तो फसल बीमा के बारे में जानकारी ही नहीं है कि फसल बीमा कराया जाता है। भारत सरकार द्वारा देश में खाद्यान्न के वितरण एवं रखरखाव की जिम्मेदारी वर्ष 1965 से ही भारतीय खाद्य निगम को सौपी गई है। यह निगम सामग्री को क्रय करने, भंडारण, वितरण एवं बिक्री की व्यवस्था देखता है। इस निगम के माध्यम से अप्रैल 2011 से पिछड़े जिलों और ब्लॉक में रहने वाले गरीबों, अनुसूचित जाति/जनजाति के परिवारों को हर महीने 3 रुपए प्रति किलोग्राम दर से चावल और 2 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से गेहूं उपलब्ध कराया जा रहा है।
भारत आज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें से खाद्य सुरक्षा की चुनौती सबसे प्रमुख चुनौतियों में से एक है। स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था ‘‘जो व्यक्ति अपना पेट भरने के लिए जूझ रहा हो उसे दर्शनवाद नहीं समझाया जा सकता है”पहले चरण में देश के 46 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों एवं 28 प्रतिशत शहरी परिवारों को खाद्यान्न उपलब्ध कराने की तैयारी है। प्रति परिवार हर माह 35 किलोग्राम अनाज मुहैया कराए जाने के बाद उसकी मॉनीटरिंग की जाएगी और ग्रामीण के साथ शहरी झोपड़ियों में रहने वालों को भी हर माह तीन रुपए प्रति किलोग्राम की दर से 35 किलोग्राम अनाज दिया जाएगा। वर्तमान में सरकार द्वारा सिर्फ अनाज की व्यवस्था की जा रही है किन्तु बाद में दूसरी वस्तुओं को भी शामिल किया जा सकता है, क्योंकि सिर्फ अनाज की व्यवस्था से ही लोगों की जरूरते पूरी नहीं हो पाएंगी। अतः अनाज के अलावा, दाल, तेल आदि की जरूरत पड़ेगी।
भारत सरकार खाद्य सुरक्षा के प्रति हमेशा प्रयासरत रही है। खाद्यान्न एवं इससे संबंधित क्षेत्रों के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को शुरू किया गया ताकि कृषक और कृषि दोनों पर सकारात्मक प्रभाव पड़े और अर्थव्यवस्था को खाद्य सुरक्षा जैसी महत्वपूर्ण समस्या का प्रभावी निदान मिल सके।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन- भारत में तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या और उसके अनुरूप खाद्यान्न उत्पादन की धीमी गति को देखते हुए राष्ट्रीय विकास परिषद् ने मई 2007 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन को इसकी जिम्मेदारी सौंपी है। इस मिशन की प्रारंभिक रिपोर्ट के अनुसार गेहूं बीज वितरण में राजस्थान में 43 प्रतिशत की वृद्धि हुई है वहीं बिहार में 10 गुना वृद्धि हुई है। दलहन में भी राजस्थान से संबंधित बीज के प्रयोग में 29 प्रतिशत की वृद्धि हुई वहीं छत्तीसगढ़ में 400 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन का कुल परिव्यय 4882.5 करोड़ रुपए का है जो 16 राज्यों के 305 जिलों में संचालित किया जा रहा है। इनमें से 12 राज्यों के 133 जिले चावल उत्पादन बढ़ाने, 9 राज्यों के 138 जिले गेहूं उत्पादन बढ़ाने और 14 राज्यों के 168 जिले दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए चयनित हुए हैं। अभियान में सहभागिता करने वाले राज्य हैं- असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड और राजस्थान। भारत में फिलहाल वैश्विक उत्पादन की दृष्टि से लगभग 12 प्रतिशत गेहूं, 21 प्रतिशत चावल, 25 प्रतिशत दलहन, 10 प्रतिशत फल, 22 प्रतिशत गन्ना और 16 प्रतिशत दूध उत्पादित हो रहा है। यह सब मात्र 2.3 प्रतिशत भूमि, 4.2 प्रतिशत पानी और 11 प्रतिशत से थोड़ा अधिक कृषि भूमि से प्राप्त किया जा रहा है। इस कृषि भूमि में मात्र 50 प्रतिशत में सिंचाई सुविधा है। इन संसाधनों से विश्व की 18 प्रतिशत जनसंख्या का भरण-पोषण हो रहा है।
खाद्य सुरक्षा विधेयक- खाद्यान्न सुरक्षा को दृष्टिगत् रखते हुए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने 2010 में खाद्य सुरक्षा विधेयक प्रस्ताव पेश किया। इस प्रस्ताव के अंतर्गत पहले साल देश के सबसे वंचित एक चौथाई जिलों के सार्वजनीकरण की सिफारिश की गई है। इस विधेयक के प्रावधान निम्नलिखित हैं-
1. निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले प्रत्येक परिवार प्रतिमाह 25 किलोग्राम चावल (3 रुपए प्रति किग्रा), 35 किग्रा गेहूं
(2 रुपए प्रति किग्रा) की दर से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत प्राप्त करने के हकदार हैं।
2. प्रत्येक एकल परिवार एक पृथक परिवार माना जाएगा।
3. खाद्य सुरक्षा संबंधी योजनाएं जैसे मध्याह्न भोजन योजना, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, अन्त्योदय अन्न योजना, राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना/जननी सुरक्षा योजना, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना, राजीव गांधी राष्ट्रीय पालन गृह योजना आदि अन्य योजनाएं वर्तमान में चलती रहेंगी।
4. उचित मूल्य दुकानों का प्रबंधन सरकारी या अर्ध-सरकारी संगठनों या ग्राम परिषदों द्वारा किया जाए तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत वितरित की जाने वाली वस्तुएं बीपीएल परिवारों के दरवाजों तक पहुंचाई जाएं।
5. विधवाओं, वरिष्ठ नागरिकों और विकलांग व्यक्तियों को दी जाने वाली पेंशन की धनराशि 400 रुपए प्रतिमाह हो तथा 6 माह की गर्भवती महिला को गर्भ के सातवें महीने से प्रसव होने तक 1000 रुपए प्रतिमाह की दर से मातृत्व भत्ता दिया जाए।
इसके अलावा वर्ष 2011 के विधेयक में गरीबों को सस्ता अनाज देने के लिए कानूनी अधिकार का रास्ता तैयार करने वाले खाद्य सुरक्षा विधेयक के प्रारूप को मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह ने 11 जुलाई, 2011 को स्वीकृति दे दी है। इसमें 75 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या को सस्ता अनाज देने का प्रावधान है।
इसके अतिरिक्त 50 प्रतिशत शहरी जनसंख्या को सस्ती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध होगा अर्थात कुल मिलाकर देश की 68 प्रतिशत जनसंख्या को यह लाभ मिलेगा।
राष्ट्रीय कृषक नीति- खाद्य सुरक्षा के स्तर को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय कृषक नीति को लागू किया गया। इस नीति के अंतर्गत न्यूनतम समर्थन मूल्य कार्यप्रणाली को प्रभावी रूप से क्रियान्वित करना, कृषि उत्पादों को लाभकारी मूल्य प्रदान करना, किसानों को वित्तीय सहायता उचित ब्याज दर पर उपलब्ध कराना, आईसीटी की सहायता के साथ ग्राम-स्तर पर ज्ञान, चौपाल और फर्म, स्कूल स्थापित करना, यह सुनिश्चित करना कि किसानों के पास उत्पादन के लिए साधन उपलब्ध है कि नहीं, अच्छी गुणवत्ता के बीज का प्रयोग बढ़ाना आदि क्रियाएं भी क्रियान्वित करना इस नीति में शामिल हैं।
खाद्य सब्सिडी योजना- खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार समय-समय पर खाद्य सब्सिडी जारी करती है ताकि खाद्य संकट पैदा न हो। खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग दिसम्बर 2009 के आंकड़ों के अनुसार सरकार द्वारा वर्ष 2001-02 में 17,494 करोड़ रुपए खाद्य सब्सिडी प्रदान की गई। ठीक इसी प्रकार 2004-05, 2005-06, 2006-07, 2008-09 और 2009-10 में क्रमशः 25746.45, 23071.00, 23827.59, 31259.68, 43668.08 और 26906.68 करोड़ रुपए की सरकार द्वारा खाद्य सब्सिडी प्रदान की गई है। इस प्रकार शासन द्वारा प्रतिवर्ष खाद्य सब्सिडी प्रदान की जाती है।
राष्ट्रीय वर्षापोषित क्षेत्र प्राधिकरण की स्थापना- खाद्य सुरक्षा की कल्पना को साकार करने के लिए राष्ट्रीय वर्षा पोषित क्षेत्र प्राधिकरण की स्थापना की गई। इस प्राधिकरण का उद्देश्य खाद्य सुरक्षा की स्थिति बरकरार रखने के लिए वर्षापोषित क्षेत्रों की समस्या पर पूरा ध्यान देना तथा भूमिहीन और छोटे किसानों से संबंधित समस्याओं पर भी ध्यान केन्द्रित करना है जिससे खाद्यान्न उत्पादन में कमी न हो।
वृहद् कृषि प्रबंधन योजना- देश में खाद्यान्न उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि करने एवं किसानों के जीवन में समृद्धि लाने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा यह योजना वर्ष 2000-01 से सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में लागू की जा चुकी है ताकि खाद्य सुरक्षा के बुनियादी उद्देश्यों तथा ग्रामीण जनता के जीवन-स्तर को कृषि परिदृश्य में अधिक प्रासंगिक बनाया जा सके।
अंतरराष्ट्रीय अनाज परिषद- यह परिषद अनाज मामलों में सहयोग के लिए है। इसका सचिवालय 1949 से ही लंदन में है। यह परिषद फूड एण्ड कन्वेंशन के तहत स्थापित फूड एण्ड कमेटी को भी सेवाएं प्रदान करती है। भारत गेहूं और अन्य मोटे अनाजों के मामलों में सहयोग के लिए निर्यात एवं आयात हेतु अंतरराष्ट्रीय अनाज परिषद का सदस्य है। इसलिए भारत को जुलाई 2003 में निर्यातक सदस्य के रूप में शामिल किया गया। अंतरराष्ट्रीय अनाज परिषद के सदस्य के रूप में भारत ने वित्तवर्ष 2009-10 में परिषद को 17997.49 पौंड का भुगतान किया।
विश्व खाद्य कार्यक्रम- गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की भागीदारी है। वित्तवर्ष 2009-10 में विश्व खाद्य कार्यक्रम के लिए गरीबी रेखा से नीचे 48.512 टन खाद्यान्न का आवंटन किया गया और विश्व खाद्य सुरक्षा के कंट्री प्रोग्राम के जरिए भारत सरकार खाद्य सुरक्षा संबंधी विकास कार्य कर रही है। विश्व खाद्य कार्यक्रम संबंधी परियोजनाएं इस समय उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मप्र, झारखण्ड, और राजस्थान में चलाई जा रही हैं। वहीं गुजरात, उत्तराखण्ड, उप्र, बिहार और तमिलनाडु में कंट्री प्रोग्राम योजनाएं चल रही हैं।
सार्क फूड बैंक- 14वें सार्क शिखर सम्मेलन वर्ष 2007 में दिल्ली में विभिन्न सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने खाद्य बैंक के स्थापना संबंधी करार पर हस्ताक्षर किए, जोकि खाद्य सुरक्षा की दिशा में किए जा रहे प्रयासों में मददगार होगा। इस करार के अनुसार सार्क फूड बैंक के लिए खाद्यान्नों में भारत का अनुमानित अंश 242 हजार टन के आरक्षित में 1,53,200 टन है।
खाद्य एवं कृषि संगठन- वर्ष 1945 में स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ प्रणाली में खाद्य एवं कृषि संगठन विशिष्ट एजेंसियों में से एक है। इसका मुख्य कार्य पोषण, कृषि उत्पादकता में सुधार करना, जीवन-स्तर में वृद्धि करना और विशेषकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाना है। संयुक्त राष्ट्र संघ प्रणाली में विश्व खाद्य सुरक्षा पर बनी समिति एक फोरम के रूप में कार्य करती है। भारत खाद्य एवं कृषि संगठन और विश्व खाद्य समिति का भी सदस्य है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दोषों को दूर करने हेतु निम्न वैकल्पिक उपाय अपनाए जा सकते हैं-
खाद्यान्न कूपन प्रणाली- सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाने के लिए निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले प्रत्येक परिवार को खाद्यान्न कूपन देकर उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों पर मुद्रा के स्थान पर स्वीकार किया जाना चाहिए। ऐसी दुकानों पर गेहूं-चावल की बिक्री प्रचलित बाजार मूल्य पर होनी चाहिए, परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार की सम्भावनाएं कम होंगी। इस कूपन प्रणाली में सही सफलता तभी प्राप्त होगी जबकि निर्धनों की पहचान के लिए विशिष्ट पहचान संख्या लागू की जाए।
बहु-उपयोगी स्मार्ट कार्ड- प्रौद्योगिकीय विकास के साथ-साथ बहु-उपयोगी स्मार्ट कार्ड व्यवस्था अस्तित्व में आई है। इन कार्डों के माध्यम से विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन को सरल बनाया जा सकता है। इस प्रकार यदि सभी अर्ह परिवारों की पहचान, अधिकृत लेन-देन की जानकारी तथा प्राप्त खाद्यान्न की मात्रा आदि का विवरण ऑन-लाईन उपलब्ध हो तो खाद्यान्न के निर्गम के समय इसकी पुष्टि की जा सकती है। विवरण की जानकारी भी ऑन-लाइन हो जाने से कार्यक्रम की प्रगति भी आसान हो जाएगी।
वेब आधारित प्रणाली- सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत एक ऐसी वेबसाइट विकसित की जा सकती है जिस पर प्रत्येक लाभार्थी परिवार जो भोजन पाने का अधिकार कानून के तहत खाद्यान्न की एक निर्धारित मात्रा रियायती मूल्य पर पाने का हकदार है, का विवरण उपलब्ध हो। इनके अलावा इसकी जांच वितरण केन्द्र पर अधिकारियों एवं लाभार्थी परिवार के मुखिया द्वारा कभी भी की जा सकती है।
बफर स्टॉक बढ़ाना अत्यावश्यक- देश में जब से कृषि जिंसों के कमोडिटी एक्सचेंज द्वारा वायदा कारोबार शुरू किया गया, तभी से खाद्यान्नों की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है। परिणामस्वरूप जमाखोरी को बढ़ावा मिला है। अतः इसकी रोक के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में खाद्यान्नों, दालों, चीनी इत्यादि वस्तुओं के भंडारण व आयात का पूर्वानुमान लगाकर बफर स्टॉक बनाए जाने की रणनीति तैयार की जानी चाहिए जिससे कि भ्रष्टाचार और जमाखोरी को रोका जा सके।
जलवायु परिवर्तन भी खाद्य सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है, जिसका सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। यदि औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस भी बढ़ता है तो इससे हमारे यहां पैदा होने वाली फसलों की अवधि और अनाज के दानों के वजन में कमी आ जाएगी। इसके कारण हरित क्रांति से लाभान्वित हमारे प्रदेश सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। समुद्र का जलस्तर बढ़ने से मछुआरे और तटीय क्षेत्रों के निवासी शरणार्थी हो जाएंगे। परिणामस्वरूप केरल, गोवा जैसे राज्य और मुबंई जैसे नगरों में यह स्थिति काफी गंभीर हो सकती है। अतः चुनौतियों का सामना करने की जरूरत है। इसके लिए संभावित प्रभावों के बारे में अनुसंधान किए जाने चाहिए। हमें जलवायु परिवर्तन के निम्नलिखित कारकों का सामना करना होगा-
तापमान परिवर्तन- तापमान में एक से दो डिग्री सेल्सियस (कोपेनहेगन समझौता) की औसत वृद्धि के निम्नलिखित परिणाम हो सकते हैं-
1. गेहूं की पैदावार तापमान के बढ़ने से अनिश्चित हो जाएगी और औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाने से उत्पादकता वृद्धि की अवधि घट जाएगी एवं आलू जैसी फसलों में बीमारियों का डर बढ़ जाएगा। अतः गेहूं की प्रति फसल उत्पादकता बढ़ाने के लिए जनन नीति बदलनी होगी और आलू के लिए वास्तविक आलू बीज टू पोटेटो सीड विधि प्रचारित करनी होगी।
2. चावल की फसल में कम अवधि वाली संकर किस्मों को बढ़ावा देना होगा। इसके लिए संकर किस्में और मूल (जड़) प्रणाली विकसित करनी चाहिए।
3. तापमान परिवर्तन से फसलों में कीड़े लगने और बीमारियों की समस्या बढ़ जाएगी। अतः इसके बचाव के तरीके अपनाने होंगे एवं फसलों पर आधारित मवेशियों का बचाव भी करना होगा।
घनत्व परिवर्तन- जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे एवं बाढ़ दोनों की स्थितियां गंभीर हो जाएंगी। ऐसी स्थिति में जल सुरक्षा व्यवस्था बनानी होगी और पानी की हर बूंद पर ज्यादा फसल उगाने की तकनीकों को प्राथमिकता देनी होगी। अतः ऐसी फसलें विकसित करनी पड़ेंगी जो सूखे और गर्मी की स्थितियां बर्दाश्त कर सकें। इसके लिए आनुवंशिक इंजीनियरी और मार्कर असिस्टेड सेलेक्शन का सहारा लेना होगा। इस तरह के काम का सबसे अच्छा उदाहरण एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन, चेन्नई है जहां सूखे और खारेपन को बर्दाश्त कर सकने वाली फसलें विकसित की गई हैं।
1. फसलों को बाढ़ के बाद बचाने के उपाय करने होंगे और चावल की ऐसी किस्में विकसित करनी होगी जो पानी में डूबने पर जीवित रहें। बाढ़ का पानी घट जाने पर विशेष किस्मों के आलू और जल्दी पकने वाली मक्के की फसल और सूरजमुखी तथा चारे के काम आने वाली फसलें उगानी होंगी।
2. वैकल्पिक फसलों की कार्यनीति लागू करने के लिए बीज गोदाम बनाने होंगे। बीज गोदाम भी फसलों की सुरक्षा के लिए बहुत जरूरी हैं।
समुद्री जल स्तर बढ़ने से उत्पन्न चुनौती- इस नीति में निम्न बातें शामिल हैं-
1. कक्षीय और गैर-कक्षीय वनस्पति वन विकसित करना ताकि तटीय क्षेत्रों में तूफान आने और समुद्री पानी फैलने से होने वाले नुकसान को कम किया जा सके।
2. समुद्री स्तर से नीचे वाले क्षेत्रों में कृषि को बढ़ावा देना होगा। इस तरह की खेती केरल के कट्टनाड़ इलाके में हो रही है।
3. ऐसी फसलों को विकसित करना चाहिए जो तटीय क्षेत्रों में खारेपन को बर्दाश्त कर सकें।
4. जलवायु परिवर्तन के चलते शरणार्थी हुए लोगों के पुनर्वास की भी व्यवस्था करनी चाहिए।
स्पष्ट रूप से यह मान लेना चाहिए कि दुनिया में मौजूद 97 प्रतिशत पानी समुद्री पानी है। अतः हमें खेती में समुद्र के पानी के इस्तेमाल का कार्यक्रम शुरू कर देना चाहिए।
जलवायु जोखिम के लिए अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केन्द्र- इस प्रबंधन के तहत हर पंचायत क्षेत्र में एक स्त्री और एक पुरुष सदस्य को जलवायु जोखिम प्रबंधक के रूप में प्रशिक्षित करना चाहिए। इन्हें जलवायु जोखिम प्रबंधन की कला और विज्ञान में पूरी तरह निपुण करना चाहिए। तभी इसका सही तरीके से प्रचार-प्रसार हो सकेगा।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भारत आज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें से खाद्य सुरक्षा की चुनौती सबसे प्रमुख चुनौतियों में से एक है। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या, बढ़ते खाद्य मूल्य और जलवायु परिवर्तन का खतरा ऐसी चुनौतियां है जिनसे युद्ध स्तर पर निपटे जाने की आवश्यकता है। स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था ‘‘जो व्यक्ति अपना पेट भरने के लिए जूझ रहा हो उसे दर्शनवाद नहीं समझाया जा सकता है।” यदि भारत को विकसित राष्ट्रों की सूची में शामिल होना है, तो उसे अपनी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी। विभिन्न समस्याओं से निपटने में भारत ने पिछले कुछ वर्षों में जो जोश एवं उत्साह दिखाया है उसे देखते हुए निश्चित रूप से एक बेहतर भविष्य की आशा की जा सकती है।
(लेखक शा. महाविद्यालय, पथरिया, जिला दमोह, मप्र में कार्यरत हैं।)
ई-मेलः dr.gajendrarwat@gmail.com
वर्ष 2012 तक देश में खाद्यान्न की मांग में 2.50 करोड़ टन की वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए गेहूं के उत्पादन में 8 मिलियन टन, चावल के उत्पादन में 10 मिलियन टन तथा दालों के उत्पादन मे 2 मिलियन टन वृद्धि करने का लक्ष्य रखा गया है। सरकार की ओर से इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 25 हजार करोड़ रुपए के विशेष पैकेज की भी घोषणा की गई है। यदि इस लक्ष्य की पूर्ति हो जाए तो निश्चित रूप से गरीबी दूर करने में यह एक सार्थक प्रयास होगा। भारत में हमेशा खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर गंभीरता दिखाई गई और यही वजह है कि वर्ष 1960 में श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में हरितक्रांति की शुरुआत हुई। जिस अनुपात से जनसंख्या बढ़ी उसके हिसाब से हमने अन्न भी उपजाया लेकिन भुखमरी खत्म नहीं हुई। हरित क्रांति के बाद सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली, अन्त्योदय अन्न योजना, अन्नपूर्णा योजना, डीजल सब्सिडी योजना आदि योजनाएं लागू की। इसके अलावा ‘काम के बदले अनाज’ योजना के माध्यम से गरीबों को राहत देने का प्रयास किया गया फिर भी उम्मीदों के अनुरूप सुधार नहीं हुआ क्योंकि इसका मुख्य कारण यह था कि इन योजनाओं में कुछ कमियां विद्यमान थी जिससे सरकार अवगत नहीं थी। परिणामस्वरूप खाद्यान्न घोटाले की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए सरकार को खाद्य सुरक्षा कानून बनाने की जरूरत महसूस हुई।
भारतीय संविधान की धारा 47 में यह प्रावधान है कि सरकार लोगों का जीवन-स्तर उठाने, आहारों की पौष्टिकता में वृद्धि करने तथा प्राथमिक स्वास्थ्य में सुधार लाने जैसे कार्यों को प्राथमिकता के आधार पर करेगी एवं खाद्य सुरक्षा में पौष्टिक व कैलोरीयुक्त खाद्यान्नों की आपूर्ति स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कराएगी। परिणामस्वरूप केन्द्र सरकार ने खाद्य सुरक्षा हेतु अनेक योजनाएं भी लागू की हैं जिससे कि देश की आर्थिक स्थिति में सुधार हो और खाद्य सुरक्षा संबंधी समस्या भी हल हो सके।
सर्वे में यह बात भी सामने आई है कि फसल बीमा का लाभ सिर्फ 4 प्रतिशत किसानों तक ही पहुंच पाता है, 57 प्रतिशत किसानों को तो फसल बीमा के बारे में जानकारी ही नहीं है कि फसल बीमा कराया जाता है। भारत सरकार द्वारा देश में खाद्यान्न के वितरण एवं रखरखाव की जिम्मेदारी वर्ष 1965 से ही भारतीय खाद्य निगम को सौपी गई है। यह निगम सामग्री को क्रय करने, भंडारण, वितरण एवं बिक्री की व्यवस्था देखता है। इस निगम के माध्यम से अप्रैल 2011 से पिछड़े जिलों और ब्लॉक में रहने वाले गरीबों, अनुसूचित जाति/जनजाति के परिवारों को हर महीने 3 रुपए प्रति किलोग्राम दर से चावल और 2 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से गेहूं उपलब्ध कराया जा रहा है।
भारत आज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें से खाद्य सुरक्षा की चुनौती सबसे प्रमुख चुनौतियों में से एक है। स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था ‘‘जो व्यक्ति अपना पेट भरने के लिए जूझ रहा हो उसे दर्शनवाद नहीं समझाया जा सकता है”पहले चरण में देश के 46 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों एवं 28 प्रतिशत शहरी परिवारों को खाद्यान्न उपलब्ध कराने की तैयारी है। प्रति परिवार हर माह 35 किलोग्राम अनाज मुहैया कराए जाने के बाद उसकी मॉनीटरिंग की जाएगी और ग्रामीण के साथ शहरी झोपड़ियों में रहने वालों को भी हर माह तीन रुपए प्रति किलोग्राम की दर से 35 किलोग्राम अनाज दिया जाएगा। वर्तमान में सरकार द्वारा सिर्फ अनाज की व्यवस्था की जा रही है किन्तु बाद में दूसरी वस्तुओं को भी शामिल किया जा सकता है, क्योंकि सिर्फ अनाज की व्यवस्था से ही लोगों की जरूरते पूरी नहीं हो पाएंगी। अतः अनाज के अलावा, दाल, तेल आदि की जरूरत पड़ेगी।
भारत सरकार खाद्य सुरक्षा के प्रति हमेशा प्रयासरत रही है। खाद्यान्न एवं इससे संबंधित क्षेत्रों के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को शुरू किया गया ताकि कृषक और कृषि दोनों पर सकारात्मक प्रभाव पड़े और अर्थव्यवस्था को खाद्य सुरक्षा जैसी महत्वपूर्ण समस्या का प्रभावी निदान मिल सके।
भारत सरकार द्वारा जारी खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन- भारत में तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या और उसके अनुरूप खाद्यान्न उत्पादन की धीमी गति को देखते हुए राष्ट्रीय विकास परिषद् ने मई 2007 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन को इसकी जिम्मेदारी सौंपी है। इस मिशन की प्रारंभिक रिपोर्ट के अनुसार गेहूं बीज वितरण में राजस्थान में 43 प्रतिशत की वृद्धि हुई है वहीं बिहार में 10 गुना वृद्धि हुई है। दलहन में भी राजस्थान से संबंधित बीज के प्रयोग में 29 प्रतिशत की वृद्धि हुई वहीं छत्तीसगढ़ में 400 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन का कुल परिव्यय 4882.5 करोड़ रुपए का है जो 16 राज्यों के 305 जिलों में संचालित किया जा रहा है। इनमें से 12 राज्यों के 133 जिले चावल उत्पादन बढ़ाने, 9 राज्यों के 138 जिले गेहूं उत्पादन बढ़ाने और 14 राज्यों के 168 जिले दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए चयनित हुए हैं। अभियान में सहभागिता करने वाले राज्य हैं- असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड और राजस्थान। भारत में फिलहाल वैश्विक उत्पादन की दृष्टि से लगभग 12 प्रतिशत गेहूं, 21 प्रतिशत चावल, 25 प्रतिशत दलहन, 10 प्रतिशत फल, 22 प्रतिशत गन्ना और 16 प्रतिशत दूध उत्पादित हो रहा है। यह सब मात्र 2.3 प्रतिशत भूमि, 4.2 प्रतिशत पानी और 11 प्रतिशत से थोड़ा अधिक कृषि भूमि से प्राप्त किया जा रहा है। इस कृषि भूमि में मात्र 50 प्रतिशत में सिंचाई सुविधा है। इन संसाधनों से विश्व की 18 प्रतिशत जनसंख्या का भरण-पोषण हो रहा है।
खाद्य सुरक्षा विधेयक- खाद्यान्न सुरक्षा को दृष्टिगत् रखते हुए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने 2010 में खाद्य सुरक्षा विधेयक प्रस्ताव पेश किया। इस प्रस्ताव के अंतर्गत पहले साल देश के सबसे वंचित एक चौथाई जिलों के सार्वजनीकरण की सिफारिश की गई है। इस विधेयक के प्रावधान निम्नलिखित हैं-
1. निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले प्रत्येक परिवार प्रतिमाह 25 किलोग्राम चावल (3 रुपए प्रति किग्रा), 35 किग्रा गेहूं
(2 रुपए प्रति किग्रा) की दर से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत प्राप्त करने के हकदार हैं।
2. प्रत्येक एकल परिवार एक पृथक परिवार माना जाएगा।
3. खाद्य सुरक्षा संबंधी योजनाएं जैसे मध्याह्न भोजन योजना, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, अन्त्योदय अन्न योजना, राष्ट्रीय मातृत्व लाभ योजना/जननी सुरक्षा योजना, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना, राजीव गांधी राष्ट्रीय पालन गृह योजना आदि अन्य योजनाएं वर्तमान में चलती रहेंगी।
4. उचित मूल्य दुकानों का प्रबंधन सरकारी या अर्ध-सरकारी संगठनों या ग्राम परिषदों द्वारा किया जाए तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत वितरित की जाने वाली वस्तुएं बीपीएल परिवारों के दरवाजों तक पहुंचाई जाएं।
5. विधवाओं, वरिष्ठ नागरिकों और विकलांग व्यक्तियों को दी जाने वाली पेंशन की धनराशि 400 रुपए प्रतिमाह हो तथा 6 माह की गर्भवती महिला को गर्भ के सातवें महीने से प्रसव होने तक 1000 रुपए प्रतिमाह की दर से मातृत्व भत्ता दिया जाए।
इसके अलावा वर्ष 2011 के विधेयक में गरीबों को सस्ता अनाज देने के लिए कानूनी अधिकार का रास्ता तैयार करने वाले खाद्य सुरक्षा विधेयक के प्रारूप को मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह ने 11 जुलाई, 2011 को स्वीकृति दे दी है। इसमें 75 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या को सस्ता अनाज देने का प्रावधान है।
इसके अतिरिक्त 50 प्रतिशत शहरी जनसंख्या को सस्ती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध होगा अर्थात कुल मिलाकर देश की 68 प्रतिशत जनसंख्या को यह लाभ मिलेगा।
राष्ट्रीय कृषक नीति- खाद्य सुरक्षा के स्तर को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय कृषक नीति को लागू किया गया। इस नीति के अंतर्गत न्यूनतम समर्थन मूल्य कार्यप्रणाली को प्रभावी रूप से क्रियान्वित करना, कृषि उत्पादों को लाभकारी मूल्य प्रदान करना, किसानों को वित्तीय सहायता उचित ब्याज दर पर उपलब्ध कराना, आईसीटी की सहायता के साथ ग्राम-स्तर पर ज्ञान, चौपाल और फर्म, स्कूल स्थापित करना, यह सुनिश्चित करना कि किसानों के पास उत्पादन के लिए साधन उपलब्ध है कि नहीं, अच्छी गुणवत्ता के बीज का प्रयोग बढ़ाना आदि क्रियाएं भी क्रियान्वित करना इस नीति में शामिल हैं।
खाद्य सब्सिडी योजना- खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार समय-समय पर खाद्य सब्सिडी जारी करती है ताकि खाद्य संकट पैदा न हो। खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग दिसम्बर 2009 के आंकड़ों के अनुसार सरकार द्वारा वर्ष 2001-02 में 17,494 करोड़ रुपए खाद्य सब्सिडी प्रदान की गई। ठीक इसी प्रकार 2004-05, 2005-06, 2006-07, 2008-09 और 2009-10 में क्रमशः 25746.45, 23071.00, 23827.59, 31259.68, 43668.08 और 26906.68 करोड़ रुपए की सरकार द्वारा खाद्य सब्सिडी प्रदान की गई है। इस प्रकार शासन द्वारा प्रतिवर्ष खाद्य सब्सिडी प्रदान की जाती है।
राष्ट्रीय वर्षापोषित क्षेत्र प्राधिकरण की स्थापना- खाद्य सुरक्षा की कल्पना को साकार करने के लिए राष्ट्रीय वर्षा पोषित क्षेत्र प्राधिकरण की स्थापना की गई। इस प्राधिकरण का उद्देश्य खाद्य सुरक्षा की स्थिति बरकरार रखने के लिए वर्षापोषित क्षेत्रों की समस्या पर पूरा ध्यान देना तथा भूमिहीन और छोटे किसानों से संबंधित समस्याओं पर भी ध्यान केन्द्रित करना है जिससे खाद्यान्न उत्पादन में कमी न हो।
वृहद् कृषि प्रबंधन योजना- देश में खाद्यान्न उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि करने एवं किसानों के जीवन में समृद्धि लाने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा यह योजना वर्ष 2000-01 से सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में लागू की जा चुकी है ताकि खाद्य सुरक्षा के बुनियादी उद्देश्यों तथा ग्रामीण जनता के जीवन-स्तर को कृषि परिदृश्य में अधिक प्रासंगिक बनाया जा सके।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा में भारत की भागीदारी
अंतरराष्ट्रीय अनाज परिषद- यह परिषद अनाज मामलों में सहयोग के लिए है। इसका सचिवालय 1949 से ही लंदन में है। यह परिषद फूड एण्ड कन्वेंशन के तहत स्थापित फूड एण्ड कमेटी को भी सेवाएं प्रदान करती है। भारत गेहूं और अन्य मोटे अनाजों के मामलों में सहयोग के लिए निर्यात एवं आयात हेतु अंतरराष्ट्रीय अनाज परिषद का सदस्य है। इसलिए भारत को जुलाई 2003 में निर्यातक सदस्य के रूप में शामिल किया गया। अंतरराष्ट्रीय अनाज परिषद के सदस्य के रूप में भारत ने वित्तवर्ष 2009-10 में परिषद को 17997.49 पौंड का भुगतान किया।
विश्व खाद्य कार्यक्रम- गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की भागीदारी है। वित्तवर्ष 2009-10 में विश्व खाद्य कार्यक्रम के लिए गरीबी रेखा से नीचे 48.512 टन खाद्यान्न का आवंटन किया गया और विश्व खाद्य सुरक्षा के कंट्री प्रोग्राम के जरिए भारत सरकार खाद्य सुरक्षा संबंधी विकास कार्य कर रही है। विश्व खाद्य कार्यक्रम संबंधी परियोजनाएं इस समय उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मप्र, झारखण्ड, और राजस्थान में चलाई जा रही हैं। वहीं गुजरात, उत्तराखण्ड, उप्र, बिहार और तमिलनाडु में कंट्री प्रोग्राम योजनाएं चल रही हैं।
सार्क फूड बैंक- 14वें सार्क शिखर सम्मेलन वर्ष 2007 में दिल्ली में विभिन्न सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने खाद्य बैंक के स्थापना संबंधी करार पर हस्ताक्षर किए, जोकि खाद्य सुरक्षा की दिशा में किए जा रहे प्रयासों में मददगार होगा। इस करार के अनुसार सार्क फूड बैंक के लिए खाद्यान्नों में भारत का अनुमानित अंश 242 हजार टन के आरक्षित में 1,53,200 टन है।
खाद्य एवं कृषि संगठन- वर्ष 1945 में स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ प्रणाली में खाद्य एवं कृषि संगठन विशिष्ट एजेंसियों में से एक है। इसका मुख्य कार्य पोषण, कृषि उत्पादकता में सुधार करना, जीवन-स्तर में वृद्धि करना और विशेषकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाना है। संयुक्त राष्ट्र संघ प्रणाली में विश्व खाद्य सुरक्षा पर बनी समिति एक फोरम के रूप में कार्य करती है। भारत खाद्य एवं कृषि संगठन और विश्व खाद्य समिति का भी सदस्य है।
खाद्य सुरक्षा की वैकल्पिक विधियां
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दोषों को दूर करने हेतु निम्न वैकल्पिक उपाय अपनाए जा सकते हैं-
खाद्यान्न कूपन प्रणाली- सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाने के लिए निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले प्रत्येक परिवार को खाद्यान्न कूपन देकर उसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों पर मुद्रा के स्थान पर स्वीकार किया जाना चाहिए। ऐसी दुकानों पर गेहूं-चावल की बिक्री प्रचलित बाजार मूल्य पर होनी चाहिए, परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार की सम्भावनाएं कम होंगी। इस कूपन प्रणाली में सही सफलता तभी प्राप्त होगी जबकि निर्धनों की पहचान के लिए विशिष्ट पहचान संख्या लागू की जाए।
बहु-उपयोगी स्मार्ट कार्ड- प्रौद्योगिकीय विकास के साथ-साथ बहु-उपयोगी स्मार्ट कार्ड व्यवस्था अस्तित्व में आई है। इन कार्डों के माध्यम से विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन को सरल बनाया जा सकता है। इस प्रकार यदि सभी अर्ह परिवारों की पहचान, अधिकृत लेन-देन की जानकारी तथा प्राप्त खाद्यान्न की मात्रा आदि का विवरण ऑन-लाईन उपलब्ध हो तो खाद्यान्न के निर्गम के समय इसकी पुष्टि की जा सकती है। विवरण की जानकारी भी ऑन-लाइन हो जाने से कार्यक्रम की प्रगति भी आसान हो जाएगी।
वेब आधारित प्रणाली- सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत एक ऐसी वेबसाइट विकसित की जा सकती है जिस पर प्रत्येक लाभार्थी परिवार जो भोजन पाने का अधिकार कानून के तहत खाद्यान्न की एक निर्धारित मात्रा रियायती मूल्य पर पाने का हकदार है, का विवरण उपलब्ध हो। इनके अलावा इसकी जांच वितरण केन्द्र पर अधिकारियों एवं लाभार्थी परिवार के मुखिया द्वारा कभी भी की जा सकती है।
बफर स्टॉक बढ़ाना अत्यावश्यक- देश में जब से कृषि जिंसों के कमोडिटी एक्सचेंज द्वारा वायदा कारोबार शुरू किया गया, तभी से खाद्यान्नों की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है। परिणामस्वरूप जमाखोरी को बढ़ावा मिला है। अतः इसकी रोक के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में खाद्यान्नों, दालों, चीनी इत्यादि वस्तुओं के भंडारण व आयात का पूर्वानुमान लगाकर बफर स्टॉक बनाए जाने की रणनीति तैयार की जानी चाहिए जिससे कि भ्रष्टाचार और जमाखोरी को रोका जा सके।
जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा के उपाय
जलवायु परिवर्तन भी खाद्य सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है, जिसका सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। यदि औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस भी बढ़ता है तो इससे हमारे यहां पैदा होने वाली फसलों की अवधि और अनाज के दानों के वजन में कमी आ जाएगी। इसके कारण हरित क्रांति से लाभान्वित हमारे प्रदेश सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। समुद्र का जलस्तर बढ़ने से मछुआरे और तटीय क्षेत्रों के निवासी शरणार्थी हो जाएंगे। परिणामस्वरूप केरल, गोवा जैसे राज्य और मुबंई जैसे नगरों में यह स्थिति काफी गंभीर हो सकती है। अतः चुनौतियों का सामना करने की जरूरत है। इसके लिए संभावित प्रभावों के बारे में अनुसंधान किए जाने चाहिए। हमें जलवायु परिवर्तन के निम्नलिखित कारकों का सामना करना होगा-
तापमान परिवर्तन- तापमान में एक से दो डिग्री सेल्सियस (कोपेनहेगन समझौता) की औसत वृद्धि के निम्नलिखित परिणाम हो सकते हैं-
1. गेहूं की पैदावार तापमान के बढ़ने से अनिश्चित हो जाएगी और औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाने से उत्पादकता वृद्धि की अवधि घट जाएगी एवं आलू जैसी फसलों में बीमारियों का डर बढ़ जाएगा। अतः गेहूं की प्रति फसल उत्पादकता बढ़ाने के लिए जनन नीति बदलनी होगी और आलू के लिए वास्तविक आलू बीज टू पोटेटो सीड विधि प्रचारित करनी होगी।
2. चावल की फसल में कम अवधि वाली संकर किस्मों को बढ़ावा देना होगा। इसके लिए संकर किस्में और मूल (जड़) प्रणाली विकसित करनी चाहिए।
3. तापमान परिवर्तन से फसलों में कीड़े लगने और बीमारियों की समस्या बढ़ जाएगी। अतः इसके बचाव के तरीके अपनाने होंगे एवं फसलों पर आधारित मवेशियों का बचाव भी करना होगा।
तालिका-1 : राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अंतर्गत प्रस्तावित आवंटन (करोड़ रु. में) | ||||
वर्ष | चावल | गेहूं | दालें | जोड़ |
2007-08 | 70.8 | 234.6 | 96.9 | 402.3 |
2008-09 | 348.1 | 682.7 | 285.9 | 1316.8 |
2009-10 | 366.3 | 290.8 | 287.4 | 944.2 |
2010-11 | 428.3 | 341.5 | 286.4 | 1056.3 |
2011-12 | 508.8 | 370.8 | 283.4 | 1163.0 |
योग | 1722.4 | 1920.3 | 1239.9 | 4882.5 |
स्रोत : सामग्री समीक्षा 2009-10 |
घनत्व परिवर्तन- जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे एवं बाढ़ दोनों की स्थितियां गंभीर हो जाएंगी। ऐसी स्थिति में जल सुरक्षा व्यवस्था बनानी होगी और पानी की हर बूंद पर ज्यादा फसल उगाने की तकनीकों को प्राथमिकता देनी होगी। अतः ऐसी फसलें विकसित करनी पड़ेंगी जो सूखे और गर्मी की स्थितियां बर्दाश्त कर सकें। इसके लिए आनुवंशिक इंजीनियरी और मार्कर असिस्टेड सेलेक्शन का सहारा लेना होगा। इस तरह के काम का सबसे अच्छा उदाहरण एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन, चेन्नई है जहां सूखे और खारेपन को बर्दाश्त कर सकने वाली फसलें विकसित की गई हैं।
1. फसलों को बाढ़ के बाद बचाने के उपाय करने होंगे और चावल की ऐसी किस्में विकसित करनी होगी जो पानी में डूबने पर जीवित रहें। बाढ़ का पानी घट जाने पर विशेष किस्मों के आलू और जल्दी पकने वाली मक्के की फसल और सूरजमुखी तथा चारे के काम आने वाली फसलें उगानी होंगी।
2. वैकल्पिक फसलों की कार्यनीति लागू करने के लिए बीज गोदाम बनाने होंगे। बीज गोदाम भी फसलों की सुरक्षा के लिए बहुत जरूरी हैं।
समुद्री जल स्तर बढ़ने से उत्पन्न चुनौती- इस नीति में निम्न बातें शामिल हैं-
1. कक्षीय और गैर-कक्षीय वनस्पति वन विकसित करना ताकि तटीय क्षेत्रों में तूफान आने और समुद्री पानी फैलने से होने वाले नुकसान को कम किया जा सके।
2. समुद्री स्तर से नीचे वाले क्षेत्रों में कृषि को बढ़ावा देना होगा। इस तरह की खेती केरल के कट्टनाड़ इलाके में हो रही है।
3. ऐसी फसलों को विकसित करना चाहिए जो तटीय क्षेत्रों में खारेपन को बर्दाश्त कर सकें।
4. जलवायु परिवर्तन के चलते शरणार्थी हुए लोगों के पुनर्वास की भी व्यवस्था करनी चाहिए।
स्पष्ट रूप से यह मान लेना चाहिए कि दुनिया में मौजूद 97 प्रतिशत पानी समुद्री पानी है। अतः हमें खेती में समुद्र के पानी के इस्तेमाल का कार्यक्रम शुरू कर देना चाहिए।
जलवायु जोखिम के लिए अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केन्द्र- इस प्रबंधन के तहत हर पंचायत क्षेत्र में एक स्त्री और एक पुरुष सदस्य को जलवायु जोखिम प्रबंधक के रूप में प्रशिक्षित करना चाहिए। इन्हें जलवायु जोखिम प्रबंधन की कला और विज्ञान में पूरी तरह निपुण करना चाहिए। तभी इसका सही तरीके से प्रचार-प्रसार हो सकेगा।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भारत आज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें से खाद्य सुरक्षा की चुनौती सबसे प्रमुख चुनौतियों में से एक है। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या, बढ़ते खाद्य मूल्य और जलवायु परिवर्तन का खतरा ऐसी चुनौतियां है जिनसे युद्ध स्तर पर निपटे जाने की आवश्यकता है। स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था ‘‘जो व्यक्ति अपना पेट भरने के लिए जूझ रहा हो उसे दर्शनवाद नहीं समझाया जा सकता है।” यदि भारत को विकसित राष्ट्रों की सूची में शामिल होना है, तो उसे अपनी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी। विभिन्न समस्याओं से निपटने में भारत ने पिछले कुछ वर्षों में जो जोश एवं उत्साह दिखाया है उसे देखते हुए निश्चित रूप से एक बेहतर भविष्य की आशा की जा सकती है।
(लेखक शा. महाविद्यालय, पथरिया, जिला दमोह, मप्र में कार्यरत हैं।)
ई-मेलः dr.gajendrarwat@gmail.com
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Post By: pankajbagwan