केदारनाथ से नहीं लिया सबक

केदारनाथ की भयावह आपदा
केदारनाथ की भयावह आपदा

जून , 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में भयावह आपदा आई थी। घटना में हजारों लोग मारे गए। इस हिमालयी सुनामी ने इलाके का भूगोल भी बदल कर रख दिया था। तब जलवायु परिवर्तन के कारण केदारनाथ के हिमालयी क्षेत्र में हुई अप्रत्याशित बारिश, नदियों पर मानकों की अवहेलना कर बांध बना लेने, ऑलवेदर रोड का मलबा नदियों में डाल देने, नदियों के किनारे अनधिकृत निर्माण, नदियों में अवैध खनन आदि को आपदा की विभीषिका और नुकसान बढ़ाने के लिए जिम्मेदार माना गया था। सरकारों ने भी पर्यावरण और विकास में संतुलन का जुमला दोहराया। मगर लगभग एक दशक का समय बीतते-बीतते सारे सबक भुला दिए गए। पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक उत्तराखंड में बादल फटने, भूस्खलन, अचानक बाढ़, भूकंप, जंगल की आग जैसी चरम मौसमी घटनाएं असामान्य नहीं हैं। 2015 के बाद से उत्तराखंड में 7,750 अतिवृष्टि और बादल फटने की घटनाएं दर्ज की गई हैं।

सभी जानते हैं कि हिमालय दुनिया के सबसे नये बनता हुआ पहाड़ है। उत्तराखंड भूकंप के प्रति भी बहुत संवेदनशील है। मेन बाउंड्री थ्रस्ट और सेंट्रल बाउंड्री थ्रस्ट जैसे भ्रंश (टेक्टोनिक प्लेटों की दरारें) यहीं से गुजरती हैं। शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जब उत्तराखंड में भूकंप के कारण यहां की धरती हिलती न हो।

यह बात और है कि वह बहुत बार अपनी कम तीव्रता के कारण इंसानों को महसूस न होते हों। ऐसी संवेदनशील परिस्थितियों वाले राज्य में अवैज्ञानिक और अनियंत्रित विकास जारी है। राज्य में बाढ़ की वजह से बढ़ती तबाही के लिए नदियों के किनारे अनधिकृत निर्माण को दोषी माना जाता है। लेकिन विकास के नाम पर नदियों का गला लगातार घोंटा जा रहा है।

राज्य वन विभाग के हालिया सर्वेक्षण में राज्य के गढ़वाल और कुमाऊं मंडल में 23 नदियों के किनारे पर भारी मात्रा में अतिक्रमण चिह्नित
किया गया है। अतिक्रमण प्रमुख नदियों के किनारे ही नहीं हुआ है, बल्कि उनकी सहायक नदियों के किनारे भी हुआ है। हैरत की बात है कि उत्तराखंड की देहरादून स्थित विधानसभा की इमारत, प्रसार भारती की इमारत और अन्य कई निजी तथा सरकारी इमारतें खुद बरसाती रिस्पना नदी के किनारे बनाई गई हैं। बीती 14 अगस्त को देहरादून के पास टिहरी जिले में बिंदाल नदी के किनारे बने एक शिक्षा संस्थान की बहुमंजिला इमारत बाढ़ की चपेट में आ गई।

नदियों किनारे निर्माण 

नदियों किनारे निर्माण के संदर्भ में दिसम्बर, 2017 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पहाड़ी इलाकों में नदियों के किनारे 50 मीटर तक कोई निर्माण न करने के निर्देश दिए थे और 100 मीटर तक विनियमित क्षेत्र
घोषित करने को कहा था। जबकि मैदानी इलाकों में 100 मीटर तक प्रतिबंधित क्षेत्र और 300 मीटर तक विनियमित क्षेत्र घोषित करने को कहा जाता है।

सितम्बर, 2022 में नैनीताल हाईकोर्ट की नदियों के दोनों ओर जोन के 200 मीटर के भीतर निर्माण गतिविधियों पर पाबंदी लगाई मगर इसके बावजूद नदियों के किनारे अतिक्रमण करके निर्माण जारी है। इन वजहों से बरसात में बाढ़ आना लाजमी है, और नदियां जब पहाड़ से मैदानी इलाके में प्रवेश करती हैं, तो वहां भी भारी तबाही लाती हैं।

दिलचस्प बात यह है कि उत्तराखंड में इस बार एक जून से अभी तक की बारिश को भारतीय मौसम विभाग सामान्य से 13 फीसद अधिक बता रहा है। उसका कहना है कि सामान्य से 19 फीसद से अधिक होने ही बारिश को असामान्य माना जा सकता है, लेकिन इस बार बाढ़ ने ऐसी तबाही मचाई कि लोगों की खेती बर्बाद हो गई। कई लोग और पशु मारे गए। घरों तथा दुकानों के अंदर पानी घुस गया। बाढ़ का ऐसा प्रकोप हुआ कि सरकार को पानी में डूबे हरिद्वार के क्षेत्रों को आपदाग्रस्त क्षेत्र घोषित करना पड़ा।

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पारिस्थितिकीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में विकास के नाम पर कटते जंगल, सड़कों और बांधों के लिए पहाड़ों का सीना चीर देना, नदियों, जंगलों में बढ़ता अतिक्रमण, बढ़ती आबादी के चलते अपनी क्षमता से ज्यादा आबादी के बोझ तले दबते शहर-कस्बे संकट को बढ़ा रहे हैं। तीर्थाटन और पर्यटन के नाम पर अर्थव्यवस्था मजबूत करने के लिए तीर्थों और पर्यटन स्थलों में यात्रियों और पर्यटकों की भीड़ बढ़ाने के प्रयास यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर बड़ा दबाव डाल रहे हैं। हैरत की बात यह है कि प्रकृति लगातार चेतावनी दे रही है।

सुरंगे बनाने से नुकसान 

उत्तराखंड प्रदेश में विकास के नाम पर पहाड़ों में गुफाएं खोदकर मल्टीलेयर वाहन कैविटी पार्किंग और पहाड़ी के सीने में छेद कर सुरंगें बनाने की बात चल रही है। यह सब तब हो रहा है जब विशेषज्ञ ही नहीं, बल्कि प्रकृति भी आपदा के जरिए चेता रही है। जोशीमठ के धंसने और मसूरी और नैनीताल में भूस्खलन इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। सरकार ने अब प्रमुख नदियों के अध्ययन की योजना बनाई है। 

मसूरी, नैनीताल जैसे पर्यटन वाले कुछ पहाड़ी शहरों की धारण क्षमता का भी अध्ययन करवा रही है, लेकिन जिस तरह पहले विशेषज्ञों की सिफारिशें ताक पर रख दी जाती रही हैं, सवाल है कि क्या ऐसा फिर नहीं होगा। आज ये हालात हैं कि पहाड़ के कंधे छीलकर ऑलवेदर रोड के नाम से जिस चार धाम राजमार्ग को बनाया गया था, उसका बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग भूस्खलन के कारण हर किमी. पर बंद हो जा रहा है। 12,000 करोड़ रुपये की चारधाम सड़क परियोजना में ऋषिकेश- बद्रीनाथ राजमार्ग के 100 मीटर का हिस्सा ढह गया। चमोली जिले के मैठाणा के पास भूस्खलन की घटना हुई, जिससे राजमार्ग की चार लेन में से केवल एक ही आवाजाही के लिए बच सकी। पर्यावरणविद ने इसी बात की आशंका जाहिर करते हुए सड़क को कम चौड़ा करने की बात कही थी लेकिन केंद्र सरकार ने पहले तो पूरी परियोजना को कई हिस्सों में बांटकर पर्यावरण कानूनों को बायपास कर दिया और अंततः चार धाम परियोजना को भारत-चीन सीमा पर सामरिक और रणनीतिक महत्व का बताते तमाम छूटें ले लीं। 

सरकार का दावा था कि इस परियोजना से पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा और दूरदराज के क्षेत्रों में आवागमन की सुविधा होगी और स्थानीय लोगों की विकास की आकांक्षाएं पूरी होंगी लेकिन आज यही सड़क ध्वस्त पड़ी है। 

हिमालयी राज्यों में बार-बार आने वाली आपदाओं का सीधा सबक है-हिमालय के नाजुक पारिस्थितिकीय तंत्र के साथ ज्यादा छेड़छाड़ उचित नहीं। क्या यह सबक हमारे नीति-नियंता याद रखेंगे या कुछ समय बाद इन्हें फिर बिसरा दिया जाएगा?

स्रोतः हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा, शनिवार, 26 अगस्त 2023

 

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