हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि भूमि में पाये जाने वाले केंचुए मनुष्य के लिए बहुउपयोगी होते हैं। मनुष्य के लिए इनका महत्व सर्वप्रथम सन् 1881 में विश्व विख्यात जीव वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने अपने 40 वर्षों के अध्ययन के बाद बताया। इसके बाद हुए अध्ययनों से केंचुओं की उपयोगिता उससे भी अधिक साबित हो चुकी है जितनी कि डार्विन ने कभी कल्पना की थी। भूमि में पाये जाने वाले केंचुए खेत में पड़े हुए पेड़ पौधों के अवशेष एवं कार्बनिक पदार्थों को खा कर छोटी छोटी गोलियों के रूप में परिवर्तित कर देते हैं जो पौधों के लिए देसी खाद का काम करती हैं। इसके अलावा केंचुए खेत में ट्रेक्टर से भी अच्छी जुताई कर देते हैं जो पौधों को बिना नुकसान पहुँचाए अन्य विधियों से सम्भव नहीं हो पाती। केंचुओं द्वारा भूमि की उर्वरता (Fertility), उत्पादकता (Productivity) और भूमि के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों को लम्बे समय तक अनुकूल बनाये रखने में मदद मिलती है।
केंचुओं की कुछ प्रजातियां भोजन के रूप में प्रायः अपघटनशील व्यर्थ कार्बनिक पदार्थो (Bio-degradable organic wastes) का ही उपयोग करती हैं। भोजन के रूप में ग्रहण की गई इन कार्बनिक पदार्थों की कुल मात्रा का 5 से 10 प्रतिशत भाग शरीर की कोशिकाओं द्वारा अवशोषित (absorb) कर लिया जाता है और शेष मल (excreta) के रूप में विसर्जित हो जाता है जिसे वर्गीकास्ट (Vermi-cast) कहते हैं। नियन्त्रित परिस्थिति में केंचुओं को व्यर्थ कार्बनिक पदार्थ खिला कर पैदा किये गये वर्मीकास्ट और केंचुओं के मृत अवशेष, अण्डे, कोकून, सूक्ष्मजीव (Micro-organisms) आदि के मिश्रण को केंचुआ खाद (Vermi- compost) कहते हैं। नियन्त्रित दशा में केंचुओं द्वारा केंचुआ खाद उत्पादन की विधि को वर्मीकम्पोस्टिंग (Vermi-composting) और केंचुआ पालन की विधि को वर्गीकल्चर (Vermiculture) कहते हैं।
वर्मीकम्पोस्ट की रासायनिक संरचना
वर्मीकम्पोस्ट का रासायनिक संगठन मुख्य रूप से उपयोग में लाये गये अपशिष्ट पदार्थों के प्रकार, उनके स्रोत व निर्माण के तरीकों पर निर्भर करता है। सामान्यतौर पर इसमें पौधों के लिए आवश्यक लगभग सभी पोषक तत्व सन्तुलित मात्रा तथा सुलभ अवस्था में मौजूद होते हैं। वर्मीकम्पोस्ट में गोबर के खाद (FYM) की अपेक्षा 5 गुना नाइट्रोजन, 8 गुना फास्फोरस, 11 गुना पोटाश और 3 गुना मैग्नीशियम तथा अनेक सूक्ष्मतत्व (Micro- nutrients) सन्तुलित मात्रा में पाये जाते हैं।
कृषि के टिकाऊपन में केंचुओं का योगदान
यद्यपि केंचुआ लंबे समय से किसान का अभिन्न मित्र हलवाहा (Ploughman) के रूप में जाना जाता रहा है। सामान्यतः केंचुए की महत्ता भूमि को खाकर उलट-पुलट कर देने के रूप में जानी जाती है जिससे कृषि भूमि की उर्वरता बनी रहती है। यह छोटे एवं मझोले किसानों तथा भारतीय कृषि के योगदान में अहम् भूमिका अदा करता है। केचुआ कृषि योग्य भूमि में प्रतिवर्ष 1 से 5 मि.मी. मोटी सतह का निर्माण करते हैं। इसके अतिरिक्त केंचुआ भूमि में निम्न ढंग से उपयोगी एवं लाभकारी है।
1. भूमि की भौतिक गुणवत्ता में सुधार
केंचुए भूमि में उपलब्ध फसल अवशेषों को भूमि के अंदर तक ले जाते हैं ओर सुरंग में इन अवशेषों को खाकर खाद के रूप में परिवर्तित कर देते हैं तथा अपनी विष्ठा रात के समय में भू सतह पर छोड़ देते हैं। जिससे मिट्टी की वायु संचार क्षमता बढ़ जाती है। एक विशेषज्ञ के अनुसार केंचुए 2 से 250 टन मिट्टी प्रतिवर्ष उलट-पलट कर देते हैं जिसके फलस्वरूप भूमि की 1 से 5 मि.मी. सतह प्रतिवर्ष बढ़ जाती है।
- केंचुओं द्वारा निरंतर जुताई व उलट पलट के कारण स्थायी मिट्टी कणों का निर्माण होता है जिससे मृदा संरचना में सुधार एवं वायु संचार बेहतर होता है जो भूमि में जैविक क्रियाशीलता, ह्यूमस निर्माण तथा नत्रजन स्थिरीकरण के लिए आवश्यक है।
- संरचना सुधार के फलस्वरूप भूमि की जलधारण क्षमता में वृद्धि होती है तथा रिसाव एवं आपूर्ति क्षमता बढ़ने के कारण भूमि जल स्तर में सुधार एवं खेत का स्वतः जल निकास होता रहता है।
- मृदा ताप संचरण व सूक्ष्म पर्यावरण के बने रहने के कारण फसल के लिए मृदा जलवायु अनुकूल बनी रहती है।
2. भूमि की रासायनिक गुणवत्ता एवं उर्वरता में सुधार
पौधों को अपनी बढ़वार के लिए पोषक तत्व भूमि से प्राप्त होते हैं तथा पोषक तत्व उपलब्ध कराने की भूमि की क्षमता को भूमि उर्वरता कहते हैं। इन पोषक तत्वों का मूल स्त्रोत मृदा पैतृक पदार्थ फसल अवशेष एवं सूक्ष्म जीव आदि होते हैं जिनकी सम्मिलित प्रकिया के फलस्वरूप पोषक तत्व पौधों को प्राप्त होते हैं। सभी जैविक अवशेष पहले सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटित किये जाते हैं। अर्द्धअपघटित अवशेष केंचुओं द्वारा वर्मीकास्ट में परिवर्तित होते हैं। सूक्ष्म जीवों तथा केंचुओं सम्मिलित अपघटन से जैविक पदार्थ उत्तम खाद में बदल जाते हैं और भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं।
3. भूमि की जैविक गुणवत्ता में सुधार
भूमि में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ, भूमि में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीव तथा केंचुओं की संख्या एवं मात्रा भूमि की उर्वरता के सूचक हैं। इनकी संख्या, विविधता एवं सकियता के आधार पर भूमि के जैविक गुण को मापा जा सकता है। भूमि में मौजूद सूक्ष्म जीवों की जटिल श्रृंखला एवं फसल अवशेषों के विच्छेदन के साथ केंचुआ की क्रियाशीलता भूमि उर्वरता का प्रमुख अंग है। भूमि में उपलब्ध फसल अवशेष इन दोनो की सहायता से विच्छेदित होकर कार्बन को उर्जा स्त्रोत के रूप में प्रदान कर निरंतर पोषक तत्वों की आपूर्ति बनाये रखने के साथ-साथ भूमि में एन्जाइम, विटामिन्स, एमीनो एसिड एवं हयूमस का निर्माण कर भूमि की उर्वरा क्षमता को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
केंचुओं का जीवन चक्र व जीवन से सम्बन्धित जानकारियाँ
1. केंचुए द्विलिंगी (Bi-sexual or hermaphodite) होते हैं अर्थात एक ही शरीर में नर (Male) तथा मादा (Female) जननांग (Reproductive Organs) पाये जाते हैं।
2. द्विलिंगी होने के बावजूद केंचुओं में निषेचन (Fertilization) दो केंचुओं के मिलन से ही सम्भव हो पाता है क्योंकि इनके शरीर में नर तथा मादा जननांग दूर-दूर स्थित होते हैं, और नर शुक्राणु (Sperms) व मादा शुक्राणुओं (Ovums) के परिपक्व होने का समय भी अलग अलग होता है। सम्भोग प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद केंचुए कोकून बनाते हैं। कोकून का निर्माण लगभग 6 घण्टों में पूर्ण हो जाता है।
3. केंचुए लगभग 30 से 45 दिन में वयस्क (Adult) हो जाते हैं और प्रजनन करने लगते हैं।
4. एक केंचुआ 17 से 25 कोकून बनाता है और एक कोकून से औसतन 3 केंचुओं का जन्म होता है। 5. केंचुओं में कोकून बनाने की क्षमता अधिकांशतः 6 माह तक ही होती है। इसके बाद इनमें कोकून बनाने की क्षमता घट जाती है।
6. केंचुओं में देखने तथा सुनने के लिए कोई भी अंग नहीं होते किन्तु ये ध्वनि एवं प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं और इनका शीघ्रता से एहसास कर लेते हैं।
7. शरीर पर श्लेष्मा की अत्यन्त पतली व लचीली परत मौजूद होती है जो इनके शरीर के लिए सुरक्षा कवच का कार्य करती है।
8. शरीर के दोनों सिरे नुकीले होते हैं जो भूमि में सुरंग बनाने में सहायक होते हैं।
9. केंचुओं में शरीर के दोनों सिरों (आगे तथा पीछे) की ओर चलने (Locomotion) की क्षमता होती है।
10. मिट्टी या कचरे में रहकर दिन में औसतन 20 बार ऊपर से नीचे एवं नीचे से ऊपर आते हैं।
11. केंचुओं में मैथुन प्रक्रिया लगभग एक घण्टे तक चलती हैं।
12. केंचुआ प्रतिदिन अपने वजन का लगभग 5 गुना कचरा खाता है। लगभग एक किलो केंचुरे (1000 संख्या) 4 से 5 किग्रा0 कचरा प्रतिदिन खा जाते हैं।
13. रहन-सहन के समय संख्या अधिक हो जाने एवं जगह की कमी होने पर इनमें प्रजनन दर घट जाती है। इस विशेषता के कारण केंचुआ खाद निर्माण (Vermi-composting) के दौरान अतिरिक्त केंचुओं को दूसरी जगह स्थानान्तरित (Shift) कर देना अत्यन्त आवश्यक है।
14. केंचुए सूखी मिट्टी या सूखे व ताजे कचरे को खाना पसन्द नहीं करते अत केंचुआ खाद निर्माण के दौरान कचरे में नमीं की मात्रा 30 से 40 प्रतिशत और कचरे का अर्द्ध-सड़ा (Semi-decomposed) होना अत्यन्त आवश्यक है।
15. केंचुए के शरीर में 85 प्रतिशत पानी होता है तथा यह शरीर के द्वारा ही श्वसन एवं उत्सर्जन का पूरा कार्य करता है।
16. कार्बनिक पदार्थ खाने वाले केंचुओं का रंग मांसल होता है जबकि मिट्टी खाने ताले केंचुए रंगहीन होते हैं।
17. केंचुओं में वायवीय श्वसन (Aerobic Respiration) होता है जिसके लिए इनके शरीर में कोई विशेष अंग नहीं होते। श्वसन क्रिया (गैसों का आदान प्रदान) देह भित्ति की पतली त्वचा से होती है।
18. एक केंचुए से एक वर्ष में अनुकूल परिस्थितियों में 5000 से 7000 तक केंचुए प्रजनित होते हैं।
19. केंचुए का भूरा रंग एक विशेष पिगमेंट पोरफाइरिन के कारण होता है।
20. शरीर की त्वचा सूखने पर केंचुआ घुटन महसूस करता है और श्वसन (गैसों का आदान प्रदान) न होने से मर जाता है। 21. शरीर की ऊतकों में 50 से 75 प्रतिशत प्रोटीन, 6 से 10 प्रतिशत वसा, कैल्सियम, फास्फोरस व अन्य खनिज लवण पाये जाते हैं अतः इन्हें प्रोटीन एवं ऊर्जा का अच्छा स्रोत माना गया है।
22. केंचुओं को सुखा कर बनाये गये प्रतिग्राम चूर्ण (Powder) से 4100 कैलोरी ऊर्जा मिलती है।
केंचुओं का वर्गीकरण (Classification of Earth-worms)
भोजन की प्रकृति के आधार पर केंचुए दो प्रकार के होते हैं:
1. कार्बनिक पदार्थ खाने वाले (Phytophagous):
इस वर्ग के केंचुए केवल सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों को खाना पसन्द करते हैं। इन्हें खाद बनाने वाले केंचुए (Humus or Manure Farmer) कहते हैं। इसी वर्ग के केंचुए वर्मीकम्पोस्ट बनाने के काम में लाये जाते हैं। इस वर्ग में मुख्यरूप से आइसीनिया फोटिडा (Eisenia foetida) एवं यूड्रिलस यूजैनी (Eudrilus eugeniae) प्रजातियां मुख्य हैं।
. मिट्टी खाने वाले (Geophagous): इस वर्ग के केंचुए मुख्यतः मिट्टी खाते हैं। इन्हें (Humus Feeder) एवं हलवाहे (Ploughman) कहते हैं। इस वर्ग के केंचुए अधिकांशतः मिट्टी में गहरी सुरंग बनाकर रहते हैं। ये वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए उपयुक्त नहीं होते किन्तु खेत की जुताई करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
परिस्थितिकीय व्यूहरचना (मिट्टी में रहने की प्रवृति) के अनुसार केंचुए निमा तीन वर्गो में बांटे जा सकते हैं:
1. एपीजेइक (Epigeic):
इस वर्ग में आने वाले केंचुए प्राय भूमि की ऊपरी सतह पर रहते हैं। ये भूमि सतह पर पड़े कूड़े करकट आदि के सड़ते हुए ढेर में रहकर कार्बनिक पदार्थ खाते हैं। इन्हें वर्मीकम्पोस्ट वनाने के लिए उपयुक्त माना गया है। इस वर्ग के केंचुओं को सतही केंचुए (Surface Feeder) भी कहा जाता है। इस वर्ग में मुख्यतः आइसीनिया फोटिडा (Eisenia foetida) एवं यूड्रिलस यूजैनी (Eudrilus eugeniae) प्रजातियां आती हैं।
2. एण्डोजैइक (Endogeic):
इस वर्ग के केंचुए भूमि की निचली परतों में रहना और भोजन के रूप में मिट्टी खाना पसन्द करते हैं। ये प्रकाश के सम्पर्क में नहीं आते। इस वर्ग के केंचुए आकार में मोटे एवं रंगहीन होते हैं। ये वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए उपयुक्त नहीं होते किन्तु भूमि में वायुसंचार, कार्बनिक पदार्थों के वितरण एवं जुताई का कार्य करने में सक्षम होते हैं। इन्हें खेती का केंचुआ, कृषक मित्र एवं हलवाहे (Ploughman) के रूप में जाना जाता है। इस वर्ग के केंचुओं का जीवनकाल एवं प्रजनन दर बहुत कम होती है। इस वर्ग में मेटाफायर पोस्थूमा (Metaphire-posthuma) व ऑक्टोकीटोना थर्सटोनी (Octocheatona thrustonae) प्रजातियां मुख्य हैं।
3 . ऐनेसिक (Anecic):
इस वर्ग के केंचुए भूमि में ऊपर से नीचे की ओर सुरंग बनाकर रहते हैं। इन्हें Deep Burrower एवं किसान मित्र कहा जाता है। भोजन के लिए ये भूमि सतह पर आते हैं और भोजन को अपने साथ सुरंग में लेजाकर भक्षण करते हैं। ये सुरंग में अपशिष्ट पदार्थ का उत्सर्जन करते हैं। इस वर्ग में लेम्पीटो मारूति (Lampito mauritii) नामक प्रजाति मुख्य है।
केंचुए की कुछ महत्वपूर्ण प्रजातियों की विशेषताएँ
भारतीय उपमहाद्वीप में केंचुआ खाद बनाने हेतु केचुए की कुछ महत्वपूर्ण प्रजातियाँ निम्नवत् हैं:
1. आइसीनिया फोटिडा (Eisenia foetida)
- आइसीनिया फोटिडा प्रजाति के केंचुओं का केंचुआ खाद बनाने में वृहद रुप से प्रयोग हो रहा है। इन्हें इनके रुप रंग के आधार पर लाल केंचुआ, गुलाबी बैंगनी केंचुआ, टाइगर वर्म तथा बैंडिग वर्म के नाम से भी जाना जाता है।
- जीवित केंचुए लाल, भूरे या बैंगनी रंग के होते हैं। ध्यानपूर्वक देखने पर इनके पृष्ठ भाग पर रंगीन धारियाँ दिखायी देती हैं प्रतिपृष्ठ भाग पर इस केंचुए का शरीर पीले रंग का होता है।
- यह केंचुए 3.5 से 13.0 से0मी0 लम्बे तथा इनका व्यास लगभग 3.0 से 5.0 मि०मी० तक का होता है।
- यह केंचुए सतह पर रहने वाले (एपीजेइक) स्वभाव के होते हैं तथा अत्यल्प मिट्टी खाते हैं।
- यह जुझारु प्रवृत्ति के हैं तथा तापमान एवं आर्द्रता की सुग्राहयता, नये वातावरण के अनुकूल जल्दी ढल जाने की क्षमता के कारण इनका उत्पादन व रखरखाव आसान होता है।
- यह शीघ्र वृद्धि करने की क्षमता रखते हैं तथा एक परिपक्व केंचुआ के शरीर का वजन 1.5 ग्राम तक हो जाता है तथा यह कोकून से निकलने के लगभग 50-55 दिन बाद प्रजनन क्षमता हासिल कर लेता है।
- एक वयस्क केंचुआ औसतन तीसरे दिन एक कोकून बनाता है। तथा प्रत्येक कोकून से हैचिंग के बाद (23 दिन में) 1-3 केंचुए उत्पन्न होते हैं।
2. आइसीनिया एन्ड्रेई (Eisenia andrie)
यह केंचुआ समान रुप से लाल रंग का होता है जो इसे आइसीनिया फोटिडा से अलग पहचान करने में मददगार है। शेष गुण आइसीनिया फोटिडा की तरह ही होते हैं।
3. पेरियोनिक्स एक्सकैवेटस (Parionyx excavatus)
- विश्व के अनेक भागों में इसका उपयोग केंचुआ खाद बनाने के लिए किया जाता है।
- इसके शरीर का पृष्ठतल (ऊपरी भाग) गहरे बैंगनी से लालिमायुक्त भूरा तथा प्रतिपृष्ठतल (निचला भाग) पीले रंग का होता है।
- इस केंचुए की लम्बाई 2.3-12.0 सेमी तक तथा व्यास 2.5 मि०मी० होता है।
- इसका जीवन चक्र लगभग 46 दिन तथा वृद्धि दर 3.5 मि०ग्रा०/दिन होता है। इसके शरीर का अधिकतम वजन 600 मि0ग्रा0 होता है।
- केंचुआ 21-22 दिनों में वयस्क होकर 24वें दिन से कोकून बनाना आरम्भ कर देता है।
4. यूड्रिलस यूजिनी (Eudrilus eugeniae)
इसे रात्रि में रंगने वाले केंचुए के नाम से भी जाना जाता है। यह केंचुआ खाद बनाने के लिए प्रयोग किये जाने वाले केंचुओं में सबसे शीघ्र वृद्धि करने वाला है तथा केंचुआ खाद बनाने में आइसीनिया फोटिडा के बाद सबसे अधिक प्रयोग में लाया जाता है। इसका प्रयोग मुख्यतः दक्षिण भारत के इलाकों में केंचुआ खाद बनाने के लिए सर्वाधिक किया जा रहा है।
- इसका रंग भूरा तथा लालिमायुक्त गहरे बैंगनी, पशु के मांस की तरह का होता है।
- इसकी लम्बाई लगभग 3.2-14.0 सेमी तथा व्यास 5.0-8.0 मि०मी० तक होता है।
- यह अन्य प्रजातियों की तुलना में शीघ्र वृद्धि करता है तथा पाचन एवं कार्बनिक पदार्थों के अपघटन की तीव्र क्षमता रखता हैं। इसकी औसत वृद्धि दर 4.3 से 120 मि०ग्रा०/ दिन तक संभव है।
- यह 40 दिनों में वयस्क हो जाते हैं तथा इसके एक सप्ताह बाद कोकून बनाना प्रारम्भ कर देते है। अनुकूल परिस्थितियों में एक केंचुआ 46 दिनों तक 1 से 4 कोकून प्रति 3 दिन के औसत से कोकून बनाता है।
- इस केंचुए का जीवनकाल 1-3 वर्ष तक का होता है तथा प्रति कोकून 1-5 केंचुए निकलते हैं।
- यह केंचुए निम्न तापमान सहने की क्षमता रखते हैं। तथा छायादार स्थिति में उच्च तापकम को भी सहन करने में सक्षम् हैं।
5. लैम्पिटो मोरिटि (Lampito mauritii)
इस. केंचुए का शरीर गहरे पीले रंग का तथा शरीर का अग्रभाग बैंगनी रंग युक्त होता है। इसकी लम्बाई 8.0-21.0 सेमी तथा व्यास 3.5-5.0 मि०मी० तक होता है।
6 लुम्बिकस रुबेल्लस (Lumbricus rubellus)
- यह अत्यधिक नमी तथा कार्बनिक पदार्थों वाले स्थानों में पाया जाता है इसीलिए इसे "रेड मार्स वर्म' भी कहते हैं।
- इसके शरीर का पृष्ठभाग लालिमायुक्त बैंगनी तथा प्रतिपृष्ठ भाग पीले रंग का होता है।
- यह मध्यम आकार का केंचुआ है जिसकी लम्बाई 6.0-15 सेमी तथा व्यास 4.0-6.0 मि०मी० तक होता है।
- यह केंचुआ सतह पर रहने वाले (एपीजेइक) केंचुओं जैसा है तथा युग्मन तथा उत्सर्जन कियायें गहराई में करता है।
- इसका जीवन काल 1-2 वर्ष होता है तथा एक वयस्क केंचुआ 79-106 कोकून प्रतिवर्ष बनाता है।
केंचुआ खाद बनाने हेतु आवश्यक कच्चा माल एवं मशीनरी
केंचुआ खाद बनाने में कच्चे माल के रुप में जैविक रुप से अपघटित हो सकने काले तथा अपघटनशील कार्बनिक कचरे का ही प्रयोग किया जाता है। केंचुआ खाद बनाने में सामान्यतः निम्न पदार्थों का प्रयोग कच्चे माल के रुप में किया जाता है।
अ. जानवरों का गोबर (Cow Dung)
1. गाय का गोंबर
2. भैंस का गोबर
3. भेड़ की मेंगनी
4. बकरी की मेंगनी
5. घोडे की लीद
ब. कृषि अवशिष्ट (Agricultural Waste)
1. फसलों के तने, पत्तियों तथा भूसे के अवशेष
2. खरपतवारों की पत्तियों तथा तने
3. सड़ी गली सब्जियों एवं अन्य अपशिष्ट पदार्थ
4. बगीचे की पत्तियों का कूड़ा करकट
5. गन्ने की पत्तियों एवं खोयी
स. पादप उत्पाद (Plant Residues)
1. लकड़ी की छाल एवं छिलके
2. लकड़ी का बुरादा एवं गूदा
3. विभिन्न प्रकार की पत्तियों का कचरा
4. घासें
5. सड़क तथा रिहायशी इलाकों के आसपास के पौधों की पत्तियों का कूड़ा
द. शहरी अवशिष्ट एवं कचरा (Urban Waste)
1. सूती कपड़ो का अवशिष्ट
2. कागज इत्यादि का अवशिष्ट
3. मण्डियों में सड़े गले फल तथा सब्जियों का कचरा
4. फलों, सब्जियों इत्यादि की पैकिंग का अवशिष्ट जैसे केले की पत्तियों इत्यादि
5. रसोईघर का कूड़ा जैसे फल एवं सब्जियों के छिलके इत्यादि।
घ. बायोगैस की स्लरी (Biogas Slurry) बायोगैस संयंत्र से निकलने वाली स्लरी को सुखाकर प्रयोग किया जाता है।
न. औद्योगिक अवशिष्ट (Industrial Waste)
1. खाद्य प्रसंस्करण ईकाईओं का अवशिष्ट
2. आसवन ईकाई का अवशिष्ट
3. प्राकृतिक खाद्य पदार्थों का अवशिष्ट
4. गन्ने का बगास तथा परिष्करण अवशिष्ट
मशीनरी (Machinery)
1. कार्बनिक अवशिष्ट को छोटे-छोटे टुकडों में काटने हेतु यांत्रिक
मशीन / कटर।
2. कार्बनिक अवशिष्ट का मिश्रण बनाने हेतु मिश्रण मशीन।
3. खुर्पी, फावड़ा, काँटा इत्यादि।
4. याँत्रिक छलनी।
5. तौलने की मशीन।
6. पैकिंग सीलिंग मशीन।
7. पानी छिड़काव हेतु हजारा।
केंचुआ खाद बनाने हेतु आवश्यकतायें
औद्योगिक स्तर पर केंचुआ खाद बनाने की इकाई स्थापित करने के लिए निम्नलिखित की आवश्यकता होती है।
अ) इकाई हेतु स्थान (Site for unit)
औसतन 150 टन प्रति वर्ष क्षमता की केंचुआ खाद इकाई की स्थापना हेतु लगभग 5000 वर्ग फीट जगह की आवश्यकता होती है।
ब) कार्बनिक अवशिष्ट (Organic Waste):
आर्थिक रुप से सक्षम एक केंचुआ खाद इकाई हेतु लगभग 4 टन/दिन या 30 टन प्रति सप्ताह की दर से कार्बनिक अवशिष्ट की आवश्यकता होती है।
स). संरचना (Infrastructure)
- 12 फीट X 10 फीट x 40 फीट (4800 sq. ft.) आकार के छप्पर लगभग 150-175 टन प्रतिवर्ष केंचुआ खाद बनाने हेतु पर्याप्त होते हैं।
- केंचुआ खाद बनाने की बेड में पानी के छिड़काव हेतु फव्वारे (Sprinkler) का प्रबन्ध ।
- छप्पर के अन्दर हवा के उचित प्रवाह का प्रबन्ध होना चाहिए।
- केंचुआ खाद को सुखाने हेतु 12 फीट x 6 फीट x 1 फीट आकार का सीमेंट का पक्का फर्श ।
- प्रसंस्कृत केंचुआ खाद हेतु भण्डारण की व्यवस्था।
- पानी की व्यवस्था।
स्रोत :- कृषि विभाग, हिमाचल प्रदेश, कृषि भवन, शिमला-5.फोनः 0177-2830162/2830174/2830618 फैक्स: 0177-2830612
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