क्या संभव है भूकंप की भविष्यवाणी

जापान और इंडोनेशिया जैसे भूकंप की सर्वाधिक आशंका वाले क्षेत्रों में भूकंप की भविष्यवाणी करना थोड़ा आसान है लेकिन बाकी स्थानों पर ऐसा कोई दावा करने का मतलब अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। यह विडंबना ही है कि इन तमाम प्रयासों के बावजूद कोई भी यह पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि कब, किस जगह पर कितना बड़ा भूकंप आएगा। शायद कुछ चीजें अभी भी प्रकृति ने अपने हाथ में ही रखी हुई हैं।

रविवार को सिक्किम में आए भूकंप में नुकसान की मात्रा और मृतकों की संख्या हर दिन के साथ बढ़ती ही जा रही है। हर भूकंप की तरह इस बार भी लोग सोच रहे हैं कि क्या कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे भूकंप को आने से रोका जा सके? और यदि इस प्राकृतिक आपदा को रोका नहीं जा सकता है, तो साइंटिस्टों के पास क्या कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे इसके आने की भविष्यवाणी की जा सके, ताकि विनाश को कम किया जा सके? हालांकि साइंटिस्ट भूकंप को पहले से जान लेने की कोशिशें करते रहे हैं। पर दो साल पहले इटली में वैज्ञानिकों ने जिस रोज ला-अकिला के नागरिकों को आश्वस्त किया था कि फिलहाल वहां भूकंप का कोई ऐसा खतरा नहीं है कि पूरे इलाके को खाली कराया जाए, वहां उसके अगले ही दिन 6.3 की ताकत वाला बड़ा भूकंप आ गया, जिसमें 300 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। इससे वहां की सरकार इतनी खफा हुई कि उसने सही भविष्यवाणी करने में नाकाम रहने पर छह साइंटिस्टों और एक सरकारी अधिकारी के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज करा दिया।

भूकंप का पहले से अनुमान लगाने के मकसद से वैज्ञानिक पृथ्वी की भीतरी और बाहरी संरचना को समझने का प्रयास करते रहे हैं। अनुमान है कि सदियों पहले धरती पर भूकंप नहीं आते होंगे क्योंकि इसके सभी महाद्वीप आपस में जुड़े हुए थे। पर करीब साढे़ 22 करोड़ साल पहले धरती में ऐसी टूटफूट शुरू हुई जिससे पैन्जया (जुड़ी हुई धरती के इकलौते टुकड़े) के तीन हिस्से हो गए। पहला हिस्सा लौरेशिया था जिसमें उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया बने। दूसरा हिस्सा गोंडवाना कहलाया। इसमें से दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका व भारत का निर्माण हुआ। अंटार्कटिका और आस्ट्रेलिया आदि का जन्म तीसरे बचे हिस्से में हुआ। करोड़ों साल के अंतराल में भारतीय खंड दक्षिण अमेरिका व अफ्रीका से अलग होकर एशियाई खंड से आ टकराया, जिससे हिमालय पर्वतश्रृंखला बनी। इसके बाद भी चूंकि धरती के अंदर प्लेटों का खिसकना जारी है, इसलिए जमीनी हलचलों के कारण पैदा होने वाले भूकंपों, सूनामी लहरों, ज्वालामुखी विस्फोटों का सिलसिला भी नहीं रुका है।

धरती के भीतर की भारी-भरकम प्लेटें हर साल कुछ सेंटीमीटर खिसकती रहती हैं, पर साथ ही इन प्लेटों के जुड़ने, जमीन से अलग होने और टूटने-चटकने के कारण भूमिगत ताप, दाब और रासायनिक क्रियाओं का जन्म होता है, जिससे किसी एक स्थान पर ऊर्जा का बड़ा भंडार जमा हो जाता है। यही जमी हुई ऊर्जा जिस स्थान से धरती फोड़कर बाहर निकलती है, वही स्थान भूकंप का केंद अथवा एपीसेंटर कहलाता है। प्राय: एपीसेंटर से जो ऊर्जा निकलती है, वह किसी परमाणु बम से अधिक शक्तिशाली होती है। अगर यह ऊर्जा ज्वालामुखी विस्फोटों आदि से बाहर नहीं निकल पाती है, तो वह धरती की परतें फाड़ती है और इसी से भूकंप पैदा होता है।

प्रश्न उठता है कि जब साइंटिस्ट यह जानते हैं कि धरती के अंदर क्या चल रहा है तो वे ऐसे प्रबंध क्यों नहीं करते जिनसे भूकंप का सटीक अंदाजा लगाया जा सके? वैसे इस मामले में वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे हैं। सच तो यह है कि अनेक साइंटिस्ट कई विधियों से धरती के अंदर चल रही हलचलों की टोह लेने की कोशिश कर रहे हैं। सीस्मोलॉजिस्ट धरती की भीतरी चट्टानी प्लेटों की चाल, अंदरूनी फॉल्ट लाइनों और ज्वालामुखियों से निकल रही गैसों के दबाव पर नजर रख कर भूकंप की चाल का अंदाजा लेने की कोशिश करते हैं। जापान और कैलिफोर्निया में जमीन के अंदर चट्टानों में ऐसे सेंसर लगाए गए हैं, जो बड़ा भूकंप आने से ठीक 30 सेकेंड पहले इसकी चेतावनी जारी कर देते हैं। ऐसे आंकड़ों का विश्लेषण कर भूकंप की भविष्यवाणी करने के मकसद से 2005 में अमेरिका के जूलॉजिकल सर्वे विभाग ने एक वेबसाइट भी बनाई। इसमें स्थान विशेष के धरातल में हो रहे बदलावों पर नजर रखकर हर घंटे भूकंप की आशंका वाले क्षेत्रों का अनुमान लगाकर वे स्थान नक्शे में चिह्नित किए जाते हैं। इस विभाग ने इन जानकारियों और गणनाओं के लिए एक बड़ा नेटवर्क बना रखा है।

बीबीसी के अनुसार, इस साल के अंत तक अमेरिका एक सैटेलाइट भी छोड़ने वाला है जिसका मकसद भूकंप का पता लगाना ही है। असल में कुछ साइंटिस्ट मानते हैं कि वायुमंडल के सुदूर हिस्सों में होने वाली विद्युतीय प्रक्रियाओं और जमीन के नीचे होने वाली हलचलों में कोई रिश्ता है। यह सैटेलाइट इन्हीं हलचलों को पढ़ने में साइंटिस्टों की मदद करेगा। वैसे दुनिया में भूकंप का पहले से अंदाजा लगाने के कुछ अपारंपरिक तौर-तरीके भी प्रचलित हैं। जैसे, माना जाता है कि कई जीव-जंतु अपनी छठी इंद्रिय से जान जाते हैं कि जलजला आने वाला है। ब्रिटेन के जर्नल ऑफ जूलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार 2009 को इटली के ला-अकिला में आए भूकंप से तीन दिन पहले टोड अपने प्रजनन स्थल छोड़कर दूर चले गए थे।

कुछ ज्योतिषी भी अपनी गणनाओं से सटीक भविष्यवाणी का दावा करते रहे हैं। उन्नीसवीं सदी में हुए इटली के राफेले बेनदांदी को इस मामले में काफी प्रतिष्ठा हासिल है। उन्होंने नवंबर, 1923 को घोषणा की थी कि दो जनवरी, 1924 को इटली के प्रांत ले-माचेर में भूकंप आ सकता है। घोषित तारीख के ठीक दो दिन बाद वहां ताकतवर भूकंप आया था। बेनदांदी की गणनाओं के आधार पर इस साल 11 मई को रोम में भूकंप आने की आशंका के मद्देनजर अनेक लोग रोम से बाहर चले गए थे, हालांकि इस तारीख को वहां भूकंप नहीं आया। न्यूजीलैंड में एक जादूगर केन रिंग को भी ऐसी ख्याति हासिल रही है।

साइंटिस्ट कहते हैं कि धरती के भीतर चल रही भूगर्भीय प्रक्रियाओं की वजह से हर साल दस करोड़ छोटे-मोटे भूकंप दुनिया में आते हैं। हर सेकेंड लगभग तीन भूकंप ग्लोब के किसी न किसी कोने पर सीस्मोग्रॉफ के जरिए अनुभव किए जाते हैं। पर शुक्र है कि इनमें से 98 फीसदी सागर तलों में आते हैं और जो दो प्रतिशत जलजले सतह पर महसूस होते हैं, उनमें से भी करीब सौ भूकंप ही हर साल रिक्टर पैमाने पर दर्ज किए जाते हैं। इन्हीं कुछ दर्जन भूकंपों में बड़ा भारी विनाश छिपा रहता है। जापान और इंडोनेशिया जैसे भूकंप की सर्वाधिक आशंका वाले क्षेत्रों में भूकंप की भविष्यवाणी करना थोड़ा आसान है लेकिन बाकी स्थानों पर ऐसा कोई दावा करने का मतलब अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। यह विडंबना ही है कि इन तमाम प्रयासों के बावजूद कोई भी यह पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि कब, किस जगह पर कितना बड़ा भूकंप आएगा। शायद कुछ चीजें अभी भी प्रकृति ने अपने हाथ में ही रखी हुई हैं।
 

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