क्या जीडी अग्रवाल की मौत के बाद ही जागेंगी हमारी संवेदनायें? क्या सरकार ने तय कर लिया है कि वह जीडी अग्रवाल की ’गंगा रक्षा मांग’ को मानने की बजाय उनकी मृत्यु पर सीधे शोक प्रस्ताव ही पास करेगी ? सरकार ने श्रीप्रकाश जायसवाल को बतौर प्रतिनिधि भेजा था। क्या जायसवाल जीडी अग्रवाल की मांग पर अंतिम निर्णय लेने में सक्षम थे ? ...नहीं। वह बात करने गये थे। शायद वह भूल गये थे कि जीडी अग्रवाल का यह अनशन पहली बार नहीं है। गंगा पर पनबिजली परियोजनाओं को हटाने को लेकर वह पहले भी विकट अनशन कर चुके हैं। पहले भी प्रधानमंत्री के प्रतिनिधि उनकी राय जान चुके हैं। जीडी अग्रवाल अब बात नहीं करना चाहते। वह गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए ठोस निर्णय चाहते हैं। जिस दिन उन्होंने सन्यास का नया बाना पहना था... स्वामी ज्ञानस्वरूप सांनद के रूप में गंगा सेवा मिशन से भारत प्रमुख की जिम्मेदारी संभाली थी; शायद उन्होंने उसी दिन पूरा निश्चय कर लिया था कि जीवन जाये तो जाये, अब तो गंगा बचनी ही चाहिए। यह बात समझे बगैर जाने के कारण ही जायसवाल को खाली हाथ लौटना पड़ा। इस बात को कई दिन बीत चुके हैं और सरकार ने चुप्पी साध ली है। फिलहाल संरकार की चुप्पी ने जीडी अग्रवल की सेहत बिगाड़ दी है। दिल का हल्के दौरे ने अनहोनी की आशंका बढा दी है। उन्हें ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल सांइसेज, नई दिल्ली लाया गया है। इलाहाबाद, दिल्ली, हरिद्वार, वाराणसी से फिर दिल्ली पहुंचे जीडी अग्रवाल के सफर ने बता दिया है कि सरकारों ने स्वामी निगमानंद की मौत से कुछ नहीं सीखा है।
सरकार बताती क्यों नहीं कि जीडी अग्रवाल ने गंगा के लिए अविरलता और नरोरा से प्रयाग के बीच न्यूनतम प्रवाह की जो मांग की है, क्या वे देने योग्य नहीं हैं? क्या हम गंगा से सिर्फ लेने के लिए पैदा हुए हैं? क्या गंगा को देने के लिए हमारे पास अपने मल, मूत्र और कचरे के सिवाय कुछ नहीं हैं? अपनी संवेदनायें भी नहीं ? हमारे पास गंगा को देने को तो बहुत कुछ है, लेकिन जीडी अग्रवाल ने ठीक ही आरोप लगाया है कि न देने के पीछे, कई के स्वार्थ हैं। राजेन्द्र सिंह ने गलत नहीं कहा कि 2 जी से भी बड़ा भ्रष्टाचार नदियों में है। कम से कम हमारी नदियों की सफाई के नाम पर आये पैसे से नदियां तो साफ नहीं ही हो रही है। लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि गंगा के पैसे की चिंता तो बहुत से लोगों को है, गंगा की चिंता किसी को नहीं है।
कोई बताये कि कहां गये रेवतीरमण सिंह, शरद यादव, लालू यादव, हुकुम देव नारायण सिंह, प्रदीप टम्टा, सतपालजी महाराज, भृतहरि महताब, सईद उल हक और वे अन्य सांसद, जिन्होंने 19 दिसंबर को संसद में हुई बहस में गंगा को लेकर बेहद संजीदगी दिखाई थी ?.. जिन्होंने गंगा के प्रति सरकार की निष्ठुरता और प्राधिकरण की लापरवाही को पानी पी-पी कर कोसा था ? प्रदीप टम्टा जी ! आपने वन क्षेत्रों में बांधों की मंजूरी पर सवाल उठाया था ? लालू जी ! आपने तो गंगा के मसले पर सर्वदलीय बैठक की मांग तक कर डाली थी। शरद जी ! आपने भी तो उत्तराखण्ड में बन रही सुरंगों की मुखालफत की थी। रेवती रमण सिंह के बाद गंगा की दुर्दशा पर आक्रोश तो आपने ही दिखाया था। वह आक्रोश अब कहां गया ? गंगा पुत्र की हालत बिगड़ रही है और आप चुप बैठे हैं। बाद में शोक जताने से क्या होगा ।
यूं तो अखाड़ा परिषद व वाराणसी के मुफ्ती ने समर्थन जताया है। अन्ना ने भी समर्थन में बयान दे दिया है। लेकिन इस लेख के लिखे जाने तक इन समर्थनों में संकल्प की कहीं छाया भी दिखाई नहीं दी। वे झंडे - डंडे के चक्कर में फंसे हैं। पिछले कुंभ मेले में गंगा की अविरलता के लिए दहाड़ने वाले ज्यादातर संत तो अब अपने-अपने मठों में चुपचाप बैठ गये हैं। वे भूल गये हैं कि गंगा के साथ समाज व सत्ता कैसे व्यवहार करे; यह बताने का दायित्व संतों का ही था। जब वे ही अपने व्यवहार से चूक गये हों, तो आप भला उनसे दूसरों को राह बताने के दायित्व निर्वाह की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? उमा भारती जी ने चुनाव पूर्व गंगा परिक्रमा कर जताने की कोशिश की थी कि इस सन्यासिन के लिए गंगा से ज्यादा इस दुनिया में कुछ नहीं है ? खुद उमा होकर उमा भारती शिव की गंगा को ऐसे भूल गईं, जैसे कभी गंगा दर्शन किए ही न हो। जब अपने को राष्ट्रभक्त, स्वदेशी और जाने क्या-क्या दावे करने वाली पार्टी की नेता भी राष्ट्रीय नदी का ख्याल रखने की बजाय उससे वोट बटोरने का निमित्त मात्र माने, तो गंगा संतानों के पास रास्ता ही क्या बचता है, सिवाय जान देने के। खैर उमाजी! आपको क्या ? राजनेता कहलाने के मजे लूटिए। लगाइए डुबकी चरखारी के तालाबों में। बांदा - महोबा में तो वैसे भी लोग बेपानी होकर मरे ही हैं। मरने दीजिए गंगा व गंगा की संतानों को भी।
याद रखिए! कि जीडी अग्रवाल के अनशन को एक मजहब, संगठन या खेमे में बांटकर देखने वालों को भविष्य माफ नहीं करेगा। संत-समाज-सत्ता-पक्ष-विपक्ष... किसी को नहीं। जीडी अग्रवाल का अनशन गंगा के लिए है। गंगा सभी की है। गंगा से किसी का कोई मतभेद कैसे हो सकता है ?.... और फिर अब तो गंगा कहने के लिए ही सही, राष्ट्रीय नदी है। अब राष्ट्र के हर नागरिक का दायित्व है गंगा। अफसोस है कि राष्ट्रीय मीडिया भी इस आगाज को आवाज देने में बहुत रुचि लेता दिखाई नहीं दे रहा। फिलहाल उसकी हैडलाइन्स में सत्ता है, बजट है, अपराध हैं; लेकिन राष्ट्रीय नदी नहीं है। कहना न होगा कि मरी संवेदनाओं को जगाने का वक्त है यह। आइए ! हम सब ही गंगा रक्षा की आवाज लगाने वालों की आवाज में अपनी आवाज मिला दें। हो सकता है तब शायद मरी संवेदनायें जाग उठें। ..गंगा मरे नहीं। ....जीडी अग्रवाल की रक्षा हो सके।
सरकार बताती क्यों नहीं कि जीडी अग्रवाल ने गंगा के लिए अविरलता और नरोरा से प्रयाग के बीच न्यूनतम प्रवाह की जो मांग की है, क्या वे देने योग्य नहीं हैं? क्या हम गंगा से सिर्फ लेने के लिए पैदा हुए हैं? क्या गंगा को देने के लिए हमारे पास अपने मल, मूत्र और कचरे के सिवाय कुछ नहीं हैं? अपनी संवेदनायें भी नहीं ? हमारे पास गंगा को देने को तो बहुत कुछ है, लेकिन जीडी अग्रवाल ने ठीक ही आरोप लगाया है कि न देने के पीछे, कई के स्वार्थ हैं। राजेन्द्र सिंह ने गलत नहीं कहा कि 2 जी से भी बड़ा भ्रष्टाचार नदियों में है। कम से कम हमारी नदियों की सफाई के नाम पर आये पैसे से नदियां तो साफ नहीं ही हो रही है। लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि गंगा के पैसे की चिंता तो बहुत से लोगों को है, गंगा की चिंता किसी को नहीं है।
कोई बताये कि कहां गये रेवतीरमण सिंह, शरद यादव, लालू यादव, हुकुम देव नारायण सिंह, प्रदीप टम्टा, सतपालजी महाराज, भृतहरि महताब, सईद उल हक और वे अन्य सांसद, जिन्होंने 19 दिसंबर को संसद में हुई बहस में गंगा को लेकर बेहद संजीदगी दिखाई थी ?.. जिन्होंने गंगा के प्रति सरकार की निष्ठुरता और प्राधिकरण की लापरवाही को पानी पी-पी कर कोसा था ? प्रदीप टम्टा जी ! आपने वन क्षेत्रों में बांधों की मंजूरी पर सवाल उठाया था ? लालू जी ! आपने तो गंगा के मसले पर सर्वदलीय बैठक की मांग तक कर डाली थी। शरद जी ! आपने भी तो उत्तराखण्ड में बन रही सुरंगों की मुखालफत की थी। रेवती रमण सिंह के बाद गंगा की दुर्दशा पर आक्रोश तो आपने ही दिखाया था। वह आक्रोश अब कहां गया ? गंगा पुत्र की हालत बिगड़ रही है और आप चुप बैठे हैं। बाद में शोक जताने से क्या होगा ।
कहना न होगा कि मरी संवेदनाओं को जगाने का वक्त है यह। आइए ! हम सब ही गंगा रक्षा की आवाज लगाने वालों की आवाज में अपनी आवाज मिला दें। हो सकता है तब शायद मरी संवेदनायें जाग उठें। ..गंगा मरे नहीं। ....जीडी अग्रवाल की रक्षा हो सके।
उन्नाव की सांसद अन्नू टंडन! जीडी अग्रवाल भी तो वही बात कह रहे हैं, जो बात आपने कही थी - ’’बिजली चाहिए, किंतु गंगा की कीमत पर नहीं।’’ दिग्गी बाबू! याद कीजिए, गांधी स्मृति दर्शन समिति में जलबिरादरी द्वारा आयोजित एक बैठक में पधारकर आपने भी यही कहा था-’’ थोड़ी सी बिजली के लिए गंगा की हत्या की इजाजत कैसे की जा सकती है ?’’ किंतु आपकी ही सरकार के ऊर्जा मंत्री ने चुनाव के नतीजे आने से पहले ही श्री खंडूरी को बुलाकर उकसाया। उत्तराखण्ड में बिजली परियोजनाओं को लेकर रोडमैप तैयार करने को कहा। यह कैसा दोमुंहापन है ? संकटमोचक! गंगा बचाकर आपकी सरकार जायेगी नहीं, बचेगी ही। जयराम रमेश जी ! आप ही कुछ कीजिए श्रीमान ! प्रधानमंत्री जी, यदि आपको आशंका हो कि आपके उठाये कदम का राज्य सरकारें विरोध कर सकती हैं; तो बुलाइए न प्राधिकरण की बैठक। लालूजी के कहे अनुसार सर्वदलीय बैठक बुलाकर निर्णय लेने का विकल्प भी तो खुला है।यूं तो अखाड़ा परिषद व वाराणसी के मुफ्ती ने समर्थन जताया है। अन्ना ने भी समर्थन में बयान दे दिया है। लेकिन इस लेख के लिखे जाने तक इन समर्थनों में संकल्प की कहीं छाया भी दिखाई नहीं दी। वे झंडे - डंडे के चक्कर में फंसे हैं। पिछले कुंभ मेले में गंगा की अविरलता के लिए दहाड़ने वाले ज्यादातर संत तो अब अपने-अपने मठों में चुपचाप बैठ गये हैं। वे भूल गये हैं कि गंगा के साथ समाज व सत्ता कैसे व्यवहार करे; यह बताने का दायित्व संतों का ही था। जब वे ही अपने व्यवहार से चूक गये हों, तो आप भला उनसे दूसरों को राह बताने के दायित्व निर्वाह की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? उमा भारती जी ने चुनाव पूर्व गंगा परिक्रमा कर जताने की कोशिश की थी कि इस सन्यासिन के लिए गंगा से ज्यादा इस दुनिया में कुछ नहीं है ? खुद उमा होकर उमा भारती शिव की गंगा को ऐसे भूल गईं, जैसे कभी गंगा दर्शन किए ही न हो। जब अपने को राष्ट्रभक्त, स्वदेशी और जाने क्या-क्या दावे करने वाली पार्टी की नेता भी राष्ट्रीय नदी का ख्याल रखने की बजाय उससे वोट बटोरने का निमित्त मात्र माने, तो गंगा संतानों के पास रास्ता ही क्या बचता है, सिवाय जान देने के। खैर उमाजी! आपको क्या ? राजनेता कहलाने के मजे लूटिए। लगाइए डुबकी चरखारी के तालाबों में। बांदा - महोबा में तो वैसे भी लोग बेपानी होकर मरे ही हैं। मरने दीजिए गंगा व गंगा की संतानों को भी।
याद रखिए! कि जीडी अग्रवाल के अनशन को एक मजहब, संगठन या खेमे में बांटकर देखने वालों को भविष्य माफ नहीं करेगा। संत-समाज-सत्ता-पक्ष-विपक्ष... किसी को नहीं। जीडी अग्रवाल का अनशन गंगा के लिए है। गंगा सभी की है। गंगा से किसी का कोई मतभेद कैसे हो सकता है ?.... और फिर अब तो गंगा कहने के लिए ही सही, राष्ट्रीय नदी है। अब राष्ट्र के हर नागरिक का दायित्व है गंगा। अफसोस है कि राष्ट्रीय मीडिया भी इस आगाज को आवाज देने में बहुत रुचि लेता दिखाई नहीं दे रहा। फिलहाल उसकी हैडलाइन्स में सत्ता है, बजट है, अपराध हैं; लेकिन राष्ट्रीय नदी नहीं है। कहना न होगा कि मरी संवेदनाओं को जगाने का वक्त है यह। आइए ! हम सब ही गंगा रक्षा की आवाज लगाने वालों की आवाज में अपनी आवाज मिला दें। हो सकता है तब शायद मरी संवेदनायें जाग उठें। ..गंगा मरे नहीं। ....जीडी अग्रवाल की रक्षा हो सके।
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