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स्वामी सानंद गंगा संकल्प संवाद- दूसरा कथन
तारीख : 30 सितम्बर, 2013। अस्पताल के बाहर खाने-पीने की दुकानों की क्या कमी, किन्तु उस दिन सोमवार था; मेेरे साप्ताहिक व्रत का दिन। एक कोने में जूस की दुकान दिखाई दी। जूस पी लिया; अब क्या करूँ?
स्वामी जी को आराम का पूरा वक्त देना चाहिए। इस विचार से थोड़ी देर देहरादून की सड़क नापी; थोड़ी देर अखबार पढ़ा और फिर उसी अखबार को अस्पताल के गलियारे में बिछाकर अपनी लम्बाई नापी। किसी तरह समय बीता। दरवाज़े में झाँककर देखा, तो स्वामी के हाथ में फिर एक किताब थी।
समय था -दोपहर दो बजकर, 10 मिनट। किताब बन्द की। स्वामी जी ने पूछा कि क्या खाया और फिर बातचीत, वापस शुरू।
यूँ हुई शुरुआत
“गंगा जी के प्रति कुछ करने की मैंने क्यों और कब सोची? तिवारी जी, यह प्रश्न अक्सर मुझसे पूछा जाता है। क्यों किया? क्या सोचता हूँ?
जब से मैंने किया, क्या हासिल हुआ? ....तो गंगाजी के प्रति भले ही बचपन से श्रद्धा थी, किन्तु मैंने विशेष रूप से सोचना 1990-91 में शुरू किया।
सबसे पहले मैंने सोचा कि 1992 में 60 साल का होने के बाद पैसे के सब काम छोड़ दूँ और आत्म सन्तुष्टि के लिये करुँ। 1990-91 में बहुत प्रेशर में रहता था।
एडवाइज के लिये लोग आते थे। मुझे लगता था कि उससे एन्वायरनमेंट को कम मदद हो रही है, इंडस्ट्री को ज्यादा। मैं दूर चले जाना चाहता था। मैं सिक्किम में रहना चाहता था।
1992 में ग्रामोदय विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर आर.एन. कपूर जी मिले, तो उन्होंने कहा कि सिक्किम क्यों जाते हो; चित्रकूट आ जाइए न।’’
चित्रकूट का वनवास
1991-92 में मैं बांग्लादेश एन्वायरनमेंट डिपार्टमेंट सेटअप कर रहा था। शर्त थी कि चार महीने बांग्लादेश को दूँ। बांग्लादेश से लौटा, तो मई 92 में चित्रकूट गया। वहाँ पहुँचकर, दूसरे दिन ही तय कर लिया।
ग्रामोदय से जुड़ गया। वहाँ एन्वायरनमेंट डिपार्टमेंट में एक व्यक्ति डॉ. प्रमोद सिंह थे। वहीं रहते हुए चित्रकूट की मन्दाकिनी नदी पर अध्ययन शुरू किया। वहीं रहते हुए रामायण आदि धार्मिक ग्रंथ भी पढ़ने का मौका हुआ। विपश्यना साधना भी की। रामजी ने 14 साल वनवास किया था।
1992 से 2006 तक मैं चित्रकूट रहा। इस बीच प्राकृतिक-ग्रामीण पर्यावरण के प्रति कुुछ करने की आस्था प्रबल हुई।
मन ने पूछा प्रश्न
2006 में एम.सी. मेहता जी के यहाँ आया हुआ था। मेहता जी का आश्रम, देहरादून-ऋषिकेश के बीच में है। मेहता जी के घर गया, तो वहाँ प्रिया पटेल आईं। वह, मेहता जी के पास आई हुई थीं। वह लोहारी-नाग-पाला का विरोध कर रही थीं।
प्रिया ने मेहता जी से भी मदद माँगी थी। मेहता जी ने कहा कि चलकर देख लेते हैं। मेहता जी के कहने से मैं भी चल दिया; तब तक कोई विचार गंगाजी को लेकर नहीं था। मैं, उन दोनों के साथ गया।
उत्तरकाशी से पहले गंगा जी को जो देखा, तो चम्बा देवी, धरासूँ व उत्तरकाशी तक देखता गया। देखा कि उत्तरकाशी के आगे तो गंगाजी में जल ही नहीं है। मैंने सोचा कि यह क्या हुआ! स्ट्राइक हुआ कि उत्तरकाशी से 22 किलोमीटर दूरी पर मनेरी है।
1977 में जब मनेरी बैराज बन रहा था, तो मैंने आईआईटी कानपुर छोड़ा था। छोड़ने से पहले यूपी सिंचाई विभाग ने मनेरी के लिये आईआईटी कानपुर के 15 दिन का ट्रेनिंग प्रोग्राम रखा था। उसमें मैं भी गया था।
जब 2006 में जलविहीन भागीरथी देखी, तो कारण समझ में आ गया कि यह सब मनेरी बैराज के कारण है। बैराज के पीछे की झील टूरिज़्म के लिये डेवलप कर ली गई थी।
बीच में लोहारी-नाग-पाला का कंसट्रक्शन देखा। प्रिया पटेल की चिन्ता, परियोजना की वजह से स्थानीय लोगों को लेकर थी। रात में गंगोत्री रुके। रात से ही मन उद्वेलित हुआ।
सोचा, लोहारी से पाला-मनेरी तक सुरंग-ही-सुरंग हो जाएगा; फिर मनेरी से उत्तरकाशी तक। मन में प्रश्न उठा- “क्या मैं भागीरथी का सच्चा बेटा हूँ?’’
गुरूजी गिरधर आचार्य ने किया प्रेरित
“सुबह हुई। एक ग्रामीण बैठक रखी हुई थी। महिलाएँ ज्यादा थीं। कह रही थीं कि पुरुषों को चिन्ता नहीं हैं। महिलाओं को ही कष्ट ज्यादा है। मन में द्वन्द्व शुरू हुआ।
सोचा कि स्थानीय विरोध से कुछ निकलना चाहिए। फिर सोचा कि सुन्दरलाल बहुगुणा जी, मेधा पाटकर.. स्थानीय विरोध के बावजूद अन्ततः टिहरी, नर्मदा आदि सब बने ही। आगे बढ़े। मनेरी से छह किलोमीटर पर आर्य विहार आश्रम, भटवारी है; वहाँ रुके। गुरूजी गिरधर आचार्य वहाँ थे। उनसे पहली बार मिला।
उनकी प्रभावशाली वाणी व गंगा की उनकी समझ ने मुझे प्रेरित किया जरूर, किन्तु मैं कुछ करुँगा; यह मन में तब भी नहीं था। जब गिरधर आचार्य को सुन चुका, तो मुझे लगा कि वह मानते हैं कि गंगाजी को टनल में नहीं डाला जाना चाहिए।
लेकिन वह विरोध करने वाला किसी को नहीं पाते। उन्होंने स्वयं ही प्रश्न किया कि स्वयं विरोध क्यों नहीं कर रहे हैं? फिर स्वयं ही उत्तर दिया कि सामर्थ्य और समर्पण के बगैर कोई भी काम नहीं हो सकता।
गहरा हुआ गंगा भाव
जब मैं आर्य विहार से चला, तो मेरे मन में भाव आया कि यह मुझे ही करना है; मुझे ही करना है। चित्रकूट पहुँचकर यह भाव गहरा होता गया। मैंने सोचा, मेरा जन्म इसीलिये हुआ है।
मैंने यह भी सोचा कि मैं इंजीनियर बना; मुझे विदेश जाकर काम करने का मौका मिला; चित्रकूट में रहा; यह सब मेरी तैयारी थी। 1992 से मेरी जो ट्रेनिंग थी, वह इस बात की थी कि मैं बिना स्वार्थ के काम कर सकता हूँ।
लम्बा लगा कोर्ट का रूट
अब प्रश्न था कि इस काम को किस तरह करूँ?
मेहता जी से मेरा सम्पर्क 1985 से था। राजेन्द्र सिंह (तरुण भारत संघ, अलवर) से 1989 से, रागिनी बहन (वनवासी सेवाश्रम, सोनभद्र) से 1993 से और दुनु राय (हैज़ार्ड सेंटर, नई दिल्ली) से 1967 से सम्पर्क था।
मैंने सोचा कि अब तक मैंने इनकी सहायता की है, अब ये मेरी सहायता करेंगे। मुझे लगा कि मुझे अब करना है।
2006 के अन्त में मेहता जी के साथ संवाद शुरू किया कि क्या सुप्रीम कोर्ट जाया जा सकता है। मैंने डाटा वगैरह तैयार किया। उन्होंने कहा कि और तैयारी करनी होगी।
उन्होंने यह भी कहा कि यदि फेवरेबल बेंच न हो, तो कोर्ट जाने से कोई फायदा नहीं होगा। सो, वह टालते रहे; तो लगा कि यह रूट लम्बा है। और बाकी लोगों से बात होती थी, तो रागिनी, राजेन्द्र, दुनु सब जनहित की दृष्टि से एनालिसिस तो करते थे, लेकिन वे तीर्थयात्रियों के भौतिक हितों को देखते थे, मानसिक व आध्यात्मिक हितों को नहीं।
संवाद जारी...
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