भास्कर न्यूज/ कोटा। मैं चंबल हूं। मैं इस शहर की कब से प्यास बुझा रही हूं, अब तो बरस भी याद नहीं रहे। कोटा के लिए मुझे जीवन रेखा माना जाता है तो दक्षिण-पूर्वी राजस्थान के लिए धरोहर। मेरा जल मूलत: शुद्ध, अलवण और गंगाजल के समतुल्य है, इसीलिए मुझे लोग चर्मण्यवती कहकर पूजते रहे हैं।
तैरना शान समझा जाता था
मैंने वह दौर देखा, जब लोग मेरे इस छोर से उस छोर तक तैरने को शान समझते थे। तैराकों के लिए मैं जल क्रीड़ा का माध्यम रही तो धार्मिक प्रयोजनों के लिए लोग मेरे तट पर आकर धन्य हो जाते थे। वह भी दौर था, जब लोग मेरे तट से सूर्य की उपासना करते थे, अध्र्य चढ़ाते थे। रविवार या छुट्टी का दिन मेरे तटीय क्षेत्रों के लिए मनोरंजन और भ्रमण का सबसे बड़ा माध्यम हुआ करता था।
इस शहर की मैंने 24 घंटे प्यास बुझाई। शहर को रोशन करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। मैंने इस शहर के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया। कल-कारखाने और उद्योग स्थापित होने में सबसे बड़ा आकर्षण मैं ही थी। मेरे ही गर्भ से कालीसिंध, परवन, पार्वती सरीखी सहायक नदियां निकली, जिन्होंने हाड़ौती अंचल का गौरव बढ़ाया। विकास के नए आयाम बनाए।
लोगों के मायने बदल गए
समय क्या बदला, मेरे प्रति लोगों के मायने बदल गए। सबसे पहले तो बांध बनाकर मेरा प्रवाह रोका गया। बची-खुची कसरत थर्मल ने पूरी कर दी। चिमनियों की राख दिन-रात मेरे शरीर पर काली परत जमाए रहती है, जिससे मेरा पारदर्शी स्वरूप मटमैला होता गया। कैचमेंट में दिन-रात खनन गतिविधियों के कारण लोहा, कैल्शियम, मैगनीज, खारापन (कैल्सियम-मैग्नीशियम व एल्युमिनीयम के काबरेनेट एवं बाई काबरेनेट लवण) मुझ पर गिरते-पड़ते रहते हैं।
सब-कुछ न्यौछावर किया
दिनों-दिन बढ़ता प्रदूषण
अस्पतालों का वेस्टेज, घरेलू कूड़ा-कचरा मेरी छाती पर डालने से भी लोग नहीं हिचकिचाते। इससे मैं फ्लोराइड, नाइट्रेट, फास्टफेट, बेक्टीरिया (क्लोरीफार्म व अन्य), कृषि रसायन, आर्गेनिक पदार्थ की मैं शिकार हो चुकी हूं। औद्योगिक और परिवहन गतिविधियों के कारण लोहा, सीसा, पारा (मरकरी), आर्सेनिक, आर्गेनोक्लोराइड (पेस्टीसाइड), इनसेक्टीसाइड (बीएचसी-डीडीटी), तेल, सोडियम पोटेशियम, नाइट्राइटर समेत नाइट्रोजन मेरे पानी में घुल गए हैं। काश्तकारी में उपयोग होने वाले एग्रोकैमिकल्स से प्रदूषण बढ़ रहा है।
21 नालों का गंदा पानी
अकेले यहां के 21 नाले 960 लाख लीटर गंदा पानी प्रतिदिन मुझमें गिरा रहे हैं, जबकि 23 सौ लाख लीटर पानी देकर मैं रोज शहर की सुधा तृप्त कर रही हूं।
कहां गई ‘जीवनरेखा’ की उपमा
लोग मेरे प्रति मानवीय आधार पर संवेदना तो रखते हैं पर मेरे स्वरूप को बिगाड़ने में भी वे ही जिम्मेदार है। यदि मैं इस शहर की मां हूं तो कोई बताए कि मां के साथ ऐसा बर्ताव किया जाता है। कहां गई आस्था की बातें, कहां गई लाइफ लाइन की उपमा।
सामूहिक पहल जरूरी
शहर के नालों में डाली जाने वाली पॉलीथिन की थैलियां नदी में पानी का प्रवाह रोकती हैं। बायो और सभी तरह का वेस्ट भी नदी में डाला जाता है। इसके जिम्मेदार हम हैं और इसके लिए सामूहिक पहल करनी होगी।
-डॉ. साधना गौतम
मौजूदा हालत से मन दुखी
चंबल का मौजूदा हाल देख कर दुख होता है। लोगों ने नदी के हिस्से पर भी कब्जा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अतिक्रमण साफ करके और नालों का सीवरेज सिस्टम सुधारकर इसे सुन्दर बनाने के लिए पहल करनी चाहिए।
-रमन जैन, व्यवसायी
पानी के बगैर प्रगति नहीं
किसी भी क्षेत्र की उन्नति पानी के बगैर संभव नहीं है। फैक्ट्री वेस्ट, कचरा गंदगी आदि पानी के र्सोसेज के आसपास नहीं डाली जानी चाहिए। यह जनचेतना का काम है और इसमें सरकार की ही नहीं हर इंसान को पहल करनी चाहिए।
- डॉ. नीलम जैन, मेडिकल ऑफिसर
महिलाओं ने जाना छोड़ दिया
चार दशक पहले मैं शादी करके आई, उस समय महिलाएं भी नदी पर जाती थीं। जैसे-जैसे पानी दूषित होता गया और तट बदहाल होते गए, महिलाओं का नदी पर जाना भी कम होता गया।-सीमा व्यास,गृहिणी
/articles/kayaa-kaoi-maan-sae-aisaa-barataava-karataa-haai