क्या कहते हैं भुक्त-भोगी

2004 में तो इस गाँव में कमला माई की कृपा से चारों ओर मिट्टी पड़ गई है पर कल क्या होगा कौन जानता है? नाव वाले 25 रुपया ले लेते हैं एक ओर का तब ऐसी जगह जाकर कौन रहेगा? तटबन्धों के बीच साक्षरता दर 10 प्रतिशत या उससे भी कम होगी और स्वास्थ्य सुविधाएँ तो करीब-करीब गायब हैं। यही तो है हमारा पुनर्वास। मजे की बात है कि महिषी प्रखण्ड के वह गाँव जो कि कोसी के पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में बसे हुये हैं उनकी हालत तो कोसी तटबंधों के बीच या कमला तटबन्धों के बीच बसे हुये गाँवों से भी बदतर है। सहरसा जिले के सिमरी बख्तियारपुर प्रखण्ड की बेलवारा पंचायत के मुखिया राम सागर बताते है कि, “... हमारे गाँव के पुनर्वास के लिए जमीन तटबन्ध के पूर्व में बेलवारा पुनर्वास में अर्जित की गई थी। गाँव के 90 प्रतिशत परिवार इस पुनर्वास से वापस हमारे पुराने गाँव में चले आये हैं क्यों कि पुनर्वास स्थल में जल-जमाव है। पुनर्वास की हमारी वह जमीन जो कि हमारी ही रहनी चाहिये थी वह सरकार के कब्जे में चली गई। हमारी इस जमीन की नीलामी सरकार हर साल खेती के उद्देश्य से करती है यानी यह जमीन अब हमारी नहीं रही। तटबन्धों के अन्दर जो हमारा मूल गाँव है वह कोसी की बाढ़ और कटाव से तबाह रहता है। पिछले 42 वर्षों में हमारा गाँव 14 बार कटा है और हमें हर बार नये सिरे से अपना घर बनाना पड़ता है। हमारे पास वहाँ रहने के अलावा कोई चारा भी नहीं है क्यों कि हमारी रोजी-रोटी और जमीन तो वहीं तटबन्धों के बीच में ही है। बरसात के मौसम में हम लोग हर साल पूर्वी तटबन्ध पर चले आते हैं और नदी का पानी उतरने पर वापस अपने गाँव चले जाते हैं। कुछ लोगों ने जरूर यहीं तटबन्ध पर ही अपने ठिकाने बना लिये हैं।”

इस तरह से लोग जमीन-जायदाद के पास तो जरूर पहुँच गये मगर नागरिक सुविधाओं से उनकी दूरी बढ़ गई क्यों कि वह तटबन्धों के बीच कैद हैं। उनका प्रखण्ड कार्यालय, अनुमण्डल कार्यालय और जिला मुख्यालय सब कुछ तटबन्धों से बाहर है। शिक्षा, स्वास्थ सुविधाएँ, कानूनी सहायता, प्रशासनिक सहायता, बैंक और रोजगार की सम्भावनाएँ हैं तो जरूर मगर सब तटबन्धों के बाहर के इलाके में। महिषी प्रखण्ड के पचभिण्डा गाँव के बिन्देश्वरी पासवान बताते हैं कि, “...किसी जमाने में, तटबन्धों के निर्माण से पहले, कोसी 16 धाराओं से हो कर बहती थी। उस समय की बाढ़ की तकलीफों से लोगों का बचाव करने के लिए नदी पर तटबन्ध बना दिया गया। उस समय 16 धाराओं के फैले हुये इलाके में जो लोगों को तकलीफें होती होंगी उसका कैपसूल बना कर उन लोगों के हिस्से में डाल दिया जो यहाँ तटबन्धों के बीच में फंसे हैं... यहाँ से हमारे प्रखण्ड कार्यालय महिषी जाने के लिए मल्लाह को 17 रुपये देने पड़ जाते हैं। इतना ही पैसा वापस लौटने के लिए भी चाहिये। जो लोग तटबन्धों के बाहर रहते हैं उन्हें तो कम से कम यह दण्ड नहीं भुगतना पड़ता है। एक दिन में महिषी जाकर लौटा भी नहीं जा सकता जिसका मतलब होता है कि आस-पास कहीं रिश्तेदारी या परिचय होना चाहिये रात बिताने के लिए। इतना हो तभी हम प्रखण्ड कार्यालय जा सकते हैं। अनुमण्डल और जिला मुख्यालय तो दूर की बात है। एक बार 1995-96 में हम लोग अपनी तकलीफों के सामाधान के लिए कलक्टर के दफ्तर के सामने धरने पर बैठे और उन्हें एक माँग पत्र दिया। कलक्टर ने हम लोगों को बुला कर कहा कि आप लोगों की नींद 40 साल बाद खुली है ? अब हम लोग क्या कहते, चले आये?”

धरने पर बैठे लोगों को कलक्टर ने भला-बुरा कह कर लौटा दिया कि उनकी नींद 40 साल बाद क्यों खुली थी? कलक्टर साहब शायद यह भूल गये कि खुद सरकार ने नींद में करवट 30 साल बाद ली थी जब 1987 में उसने कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार की स्थापना की। इस प्राधिकार की स्थापना वेफ 8-9 साल के निखट्टूपन के बाद अगर तटबन्ध प्रभावित लोगों ने सरकार के सामने गुहार लगाई तो क्या बुरा किया ? ऐसी सरकारें हमारी तकदीर की मालिक जरूर होती हैं मगर वह कभी हमारी नहीं होतीं।

उधर तटबन्धों द्वारा सुरक्षित गाँव महिषी के केदार मिश्र का कहना है कि, “...यह कोसी का इलाका अब मिनी चम्बल बन गया है। अब यहाँ आम आदमी की हिम्मत नहीं पड़ती कि वह तटबन्धों के बीच में या पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम चला जाये। हम लोगों से कहा गया था कि जमीन के बदले जमीन, घर के बदले घर, तटबन्धों तक के लिए सम्पर्क सड़क और मुफ्त नाव की व्यवस्था की जायेगी। इन वायदों का क्या हुआ? हमारे देवन बन और भकुआ गाँव कब के कट कर नदी में विलीन हो गये, उन गाँवों के लोग आज कल कहाँ है, कोई हमें बतायेगा? दुनियाँ की कौन सी ऐसी नियामत है जिसका जिक्र कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार के प्रावधानों में नहीं है मगर कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार खुद कहाँ है और क्या करता है, यह हमें कैसे पता लगेगा? किसी के पास प्राधिकार का पता है क्या? महिषी के पुनर्वास स्थल में महिषी के थाने का कब्जा है और वह भी जबरदस्ती। लिलजा वालों का पुनर्वास जलै में दिया गया जहाँ पहुँचने के लिए 5 धारों को पार कर के जाना पड़ता है। 2004 में तो इस गाँव में कमला माई की कृपा से चारों ओर मिट्टी पड़ गई है पर कल क्या होगा कौन जानता है ? नाव वाले 25 रुपया ले लेते हैं एक ओर का तब ऐसी जगह जाकर कौन रहेगा? तटबन्धों के बीच साक्षरता दर 10 प्रतिशत या उससे भी कम होगी और स्वास्थ्य सुविधाएँ तो करीब-करीब गायब हैं। यही तो है हमारा पुनर्वास।”

मजे की बात है कि महिषी प्रखण्ड के वह गाँव जो कि कोसी के पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में बसे हुये हैं उनकी हालत तो कोसी तटबंधों के बीच या कमला तटबन्धों के बीच बसे हुये गाँवों से भी बदतर है। जलै, मनुअर, संकरथुआ, घोंघेपुर, पचभिण्डा, समानी, गण्डौल, तथा भंथी जैसे गाँव कोसी और कमला के पानी पर तैरते हैं क्यों कि इस इलाके में भीषण जल-निकासी की समस्या है। जैसे इतना ही काफी न हो, इसमें बागमती का पानी कोढ़ में खाज की स्थिति पैदा करता है। इन गाँवों में रहने वाले लोगों की हालत को खुद देखे बिना यकीन नहीं किया जा सकता। बिरौल, सिंघिया, गौरा-बौराम, कुशेश्वर स्थान, कीरतपुर और घनश्यामपुर प्रखण्डों के अधिकांश गाँवों की स्थिति भी कोई भिन्न नहीं है।

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Post By: tridmin
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