जब नदी का पुनर्जीवन महज उसके रिवरफ्रंट डेवलपमेंट ऊपरी सौन्दर्यीकरण बन कर रह जाता है तो उसका फायदा नदी की व्यापक पारिस्थितिकी की कीमत पर सिर्फ रीयल एस्टेट और शहरी अभिजात को होता है। यहाँ अमृता प्रधान साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट और अन्य परियोजनाओं पर चर्चा कर रही हैं ताकि इस मॉडल में अन्तर्निहित खतरों को उद्घाटित किया जा सके।
11 सितम्बर 2014परियोजना का मुख्य आधार रिवरफ्रंट की प्रापर्टी को बेचना था। नदी की तलहटी के जिस 185 हेक्टेयर जमीन का उद्धार किया गया और जिसे नदी के पाट को पक्का करके विकसित किया गया था उसे व्यावसायिक मकसद के लिए निजी डेवलपर्स को बेच दिया गया। नदी के पेट से निकाली गई इस जमीन पर जो गतिविधियाँ चलाई गईं वे रेस्तरां, दुकानों, वाटरफ्रंट बसावट, बगीचे, भ्रमण पथ, मनोरंजन पार्क, गोल्फकोर्स, वाटरस्पोर्टस से जुड़ी मनोरंजक और व्यावसायिक गतिविधियाँ थीं। इस जमीन के कुछ हिस्से को सार्वजनिक उद्देश्य यानी कि सड़क के लिए इस्तेमाल किया गया।भारत में रिवरफ्रंट विकास योजनाओं की धूम मची हुई है। हमने साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट का ढिंढोरा कई बार पीटे जाते सुना है और उसके बाद प्रत्यक्षतः उसी तर्ज पर गंगा और यमुना के पुनर्जीवन की चर्चाएँ भी सुनाई पड़ रही हैं।
नदी के रिवरफ्रंट डेवलपमेंट के क्या मायने हैं? क्या हम इसे नदी का पुनर्जीवन कह सकते हैं? क्या नदी के रिवरफ्रंट डेवलपमेंट पर लाखों रुपयों का खर्च किया जाना उचित है? क्या इससे हमारी क्षतिग्रस्त नदियों को बचाया जा सकता है?
नदी के मौजूदा पुनर्जीवन/ सुधार/ सौन्दर्यीकरण योजनाओं पर सरसरी निगाह डालने से पता चलता है कि देश में चल रहा `कायाकल्प’ विमर्श मनोरंजक और व्यावसायिक गतिविधियों के इर्द-गिर्द घूमता है। यह नदी से ज्यादा रीयल एस्टेट के बारे में होता है। इन परियोजनाओं के भीतर कंक्रीट के तटबन्ध खड़े करना, नदी की बाढ़ से प्रभावित होने वाले मैदान को हासिल करना और उस जमीन का व्यावसायीकरण इन परियोजनाओं के स्वाभाविक तत्व हैं।
रिवरफ्रंट पर जिन गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जाता है उनमें पैदल विहार, नौका विहार, खरीददारी, छोटी दुकानें, रेस्तरां, थीम पार्क, भ्रमण पथ और यहाँ तक कि नदी कब्जा किए गए जलागम क्षेत्र में पार्किंग बनाया जाना स्वाभाविक तौर पर शामिल हैं।
इस तरह का रिवरफ्रंट डेवलपमेंट स्वाभाविक तौर पर नदी की पारिस्थितिकी और सामाजिक दायरे को एक शहरी व्यावसायिक दायरे में बदल देता है। क्या रिवरफ्रंट पर इस तरह का विकास करना विवेकपूर्ण है? इससे नदी की पारिस्थितिकी और उसके जलवैज्ञानिक चक्र पर क्या फर्क पड़ता है? रिवरफ्रंट डेवलपमेंट के मौजूदा मॉडल को अनुकरणीय या प्रसंशनीय मानने से पहले इन सवालों का जवाब ढूँढना होगा।
माना जाता है कि अहमदाबाद शहर में साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट का कार्यक्रम लंदन के टेम्स या पेरिस के शीन नदी की तर्ज पर तैयार किया गया था और इसे रिवरफ्रंट डेवलपमेंट में प्रतिनिधि परियोजना के रूप में पेश किया गया था।
इस परियोजना का प्रस्ताव अहमदाबाद की एक अर्बन प्लानिंग कन्सल्टेंसी फर्म इनवायरनमेंट प्लानिंग कोलाबोरेटिव ने 1997 में किया था। प्रस्ताव के अनुसार साबरमती के दोनों तरफ 10.4 किलोमीटर के इलाके में रिवरफ्रंट का विकास किया जाए और इसके लिए 185 हेक्टेयर जमीन हासिल की जाए और वहाँ पर तटबन्ध और सड़कें बनाई जाएँ, पानी की सप्लाई लाइनें और ट्रंक सीवर डाले जाएँ, पम्पिंग स्टेशन बनाए जाएँ, बगीचे लगाए जाएँ और टहलकदमी के पथ तैयार किए जाएँ। इस परियोजना पर निर्माण काम 2005 में शुरू हुआ।
परियोजना का मुख्य आधार रिवरफ्रंट की प्रापर्टी को बेचना था। नदी की तलहटी के जिस 185 हेक्टेयर जमीन का उद्धार किया गया और जिसे नदी के पाट को पक्का करके विकसित किया गया था उसे व्यावसायिक मकसद के लिए निजी डेवलपर्स को बेच दिया गया। नदी के पेट से निकाली गई इस जमीन पर जो गतिविधियाँ चलाई गईं वे रेस्तरां, दुकानों, वाटरफ्रंट बसावट, बगीचे, भ्रमण पथ, मनोरंजन पार्क, गोल्फकोर्स, वाटरस्पोर्टस से जुड़ी मनोरंजक और व्यावसायिक गतिविधियाँ थीं। इस जमीन के कुछ हिस्से को सार्वजनिक उद्देश्य यानी कि सड़क के लिए इस्तेमाल किया गया।
उम्मीद थी कि परियोजना के माध्यम से नदी से निकाली गई जमीन की बिक्री से परियोजना की पूरी लागत निकल आएगी। इस परियोजना को साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड नाम की एक स्पेशल परपज वेहिकिल के माध्यम से लागू किया गया। इस परियोजना पर 1152 करोड़ रुपए आने का अनुमान था। इस राशि का दो तिहाई हिस्सा अब तक खर्च किया जा चुका है। हालांकि इस परियोजना को कई वित्तीय संस्थाओं ने श्रेष्ठ आचरण के मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया लेकिन इसे विस्थापितों के खराब पुनर्वास के कारण कड़ी आलोचना का भी सामना करना पड़ा। इस तरह शहरी गरीब के आश्रय, आजीविका, और सेवाओं की शृंखला तोड़ दी गई और इसके क्रियान्वयन में पारदर्शिता की कमी के साथ नदी की संवहन क्षमता को कम करने के भी आरोप लगे। परियोजना के पर्यावरण पर पड़ने वाले किसी प्रभाव का आकलन नहीं किया गया और न ही कोई विश्वसनीय किस्म की सार्वजनिक परामर्श की प्रक्रिया अपनाई गई।
रिवरफ्रंट डेवलपमेंट परियोजना के दौरान साबरमती की प्राकृतिक धारा के 350 मीटर और न्यूनतम 330 मीटर चौड़े प्रवाह को समान रूप से संकीर्ण करके 275 मीटर चौड़ा कर दिया गया। नदी को चाँपने के इस प्रयास के दौरान नदी के मूल चरित्र को पूरी तरह से बदल कर उसे एक मौसमी प्रवाह वाली नदी से अवरुद्ध (जब्त) तालाब जैसा रूप दे दिया गया।
इस दूरी में जिस पानी को अवरुद्ध किया गया है वह साबरमती का पानी भी नहीं है बल्कि वह नर्मदा का पानी है, जिस पर अहमदाबाद शहर और साबरमती का कोई हक नहीं बनता। नर्मदा का यह पानी तो कच्छ, सौराष्ट्र और उत्तरी गुजरात के सूखाग्रस्त इलाके के लिए लाया गया था।
इस पूरी प्रक्रिया में नदी की सफाई भी नहीं की गई। परियोजना ने सिर्फ अहमदाबाद शहर और जिला उद्योगों के अशोधित सीवेज और जहरीले अवशिष्ट से भरे प्रदूषित जल को वासना बैराज से नदी के निचली धाराओं में उड़ेल दिया।
नदी से जमीन के निकाले जाने धारा को संकीर्ण किए जाने से नदी की संवहन क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ा। अगस्त 2006 से मार्च 2007 के बीच जबरदस्त बाढ़ के कारण परियोजना रोक दी गई। बाढ़ के पहले पिछले सौ साल की बारिश के आधार पर नदी की अधिकतम संवहन क्षमता 4.75 लाख क्यूसेक आँकी गई थी। लेकिन बाढ़ ने इस गणना को गलत साबित कर दिया।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलाजी और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी रुड़की ने परियोजना की डिज़ाइन का पुनर्मूल्यांकन किया। उनकी रपटों ने बताया कि गणना में पूरे जलागम क्षेत्र में साथ-साथ होने वाली वर्षा को जोड़ा ही नहीं गया था। रपट में यह भी कहा गया कि रिवरफ्रंट डेवलपमेंट बाढ़ नियन्त्रण कार्यक्रम नहीं है और बाढ़ के खतरे से निपटने के लिए नगर निगम को दूसरे उपायों पर काम करना होगा।
अहमदाबाद की तरह से नदी के बाढ़ वाले इलाके को कंक्रीट का रिवरफ्रंट बनाने के लिए हथिया लिया गया तो यह पारिस्थितिकीय लिहाज से विवेकपूर्ण नहीं होगा दिल्ली जैसी बाढ़ की आशंका वाली जगह के लिए खतरनाक भी होगा। वास्तव में जलवायु परिवर्तन पर अन्तरसरकारी पैनल ने वैश्विक स्तर पर दुनिया के जिन तीन शहरों पर बाढ़ का सबसे ज्यादा खतरा है उनमें दिल्ली को एक माना है। यमुना में तलछट बहुत ज्यादा है और बिना पक्के किनारों वाली नदी मानसून की चरम स्थिति में चार मीटर तक उठ जाती है।वहाँ की झुग्गी-झोपड़ी की विस्थापित आबादी के खराब पुनर्वास के लिए परियोजना की कड़ी आलोचना की गई। इस परियोजना को न्यायोचित बनाने और इसमें पारदर्शिता लाने के लिए साबरमती नागरिक अधिकार मंच की तरफ से गुजरात हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई जिसे कई दूसरे गैर सरकारी संगठनों ने समर्थन दिया।
हाईकोर्ट के आदेश के अनुसार अहमदाबाद नगर निगम को 11000 प्रभावित परिवारों का पुनर्वास और पुनर्बसावट करना था। इस दौरान करीब 3000 लोगों को थोड़ा सा मुआवजा देकर शहर के बाहरी दलदली इलाके में पटक दिया गया, जहाँ उनके लिए पीने के पानी की अनियमित सुविधाएँ और सफाई की न्यूनतम सुविधाएँ थीं।
इन दिनों यमुना, गंगा , मीठी, ब्रह्मपुत्र वगैरह को विभिन्न सरकारी संस्थाओं द्वारा साबरमती की तर्ज पर विकसित किए जाने का प्रस्ताव है।
हाल में सत्ता में आई भाजपा नीत केन्द्र सरकार ने यमुना की सफाई के लिए साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की तर्ज पर काम किए जाने की सम्भावना तलाशने के लिए अफसरों की एक टीम गुजरात भेजी थी। यमुना में बाढ़ आने की चिन्ता के साथ यह टीम साबरमती के मॉडल को उतारे जाने के रास्ते निकालने में लगी है।
अगर अहमदाबाद की तरह से नदी के बाढ़ वाले इलाके को कंक्रीट का रिवरफ्रंट बनाने के लिए हथिया लिया गया तो यह पारिस्थितिकीय लिहाज से विवेकपूर्ण नहीं होगा दिल्ली जैसी बाढ़ की आशंका वाली जगह के लिए खतरनाक भी होगा। वास्तव में जलवायु परिवर्तन पर अन्तरसरकारी पैनल ने वैश्विक स्तर पर दुनिया के जिन तीन शहरों पर बाढ़ का सबसे ज्यादा खतरा है उनमें दिल्ली को एक माना है। यमुना में तलछट बहुत ज्यादा है और बिना पक्के किनारों वाली नदी मानसून की चरम स्थिति में चार मीटर तक उठ जाती है। लेकिन जब इस नदी के किनारों को पक्का कर दिया जाएगा तो इसमें बाढ़ आने के खतरे कई गुना बढ़ जाएँगे।
दिल्ली विकास प्राधिकरण की यमुना रिवरफ्रंट डेवलपमेंट स्कीम की परीक्षा के लिए पर्यावरण और वन मन्त्रालय की ओर से नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति ने मनोरंजन की सुविधाएँ, पार्किंग और भ्रमण पथ बनाए जाने की महत्वाकांक्षी योजना रद्द करने का सुझाव दिया है। यह समिति यमुना जिए अभियान के संयोजक और एक्टिविस्ट मनोज मिश्रा की तरफ से दायर एक याचिका पर दिए गए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश पर बनाई गई थी।
समिति ने कहा कि नदी के आप्लावन क्षेत्र में मनोरंजन के केन्द्र बनाए जाने से नदी मर जाएगी और उसकी बाढ़ को वहन करने की क्षमता घटेगी और बाढ़ व प्रदूषण बढ़ेगा।
हालांकि नोएडा ने तय किया है कि वह ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण की तरफ से तैयार किए गए 200 करोड़ के यमुना रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट को लागू करेगा। इस परियोजना के तहत हिंडन और यमुना के आप्लावन क्षेत्र में पार्क, योग केन्द्र, पिकनिक स्पाट और स्पोर्ट्स केन्द्र, पोलो ग्राउण्ड और गोल्फ कोर्स जैसे मनोरंजन के केन्द्र विकसित किए जाने हैं। यहाँ भी इस परियोजना का नदी को टिकाऊ बनाने, साफ करने, पुनर्जीवित करने से कुछ लेना-देना नहीं है।
हाल में नेशनल गंगा घाटी प्राधिकरण को पर्यावरण मन्त्रालय से हटाकर जल संसाधन मन्त्रालय से जोड़ दिया गया है। जल संसाधन मन्त्रालय का नया नाम अब जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनर्जीवन मन्त्रालय रख दिया गया है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने गंगा सफाई के लिए विशेष तौर पर बने मन्त्रालय का जिम्मा उमा भारती को दिया है जिन्होंने प्रिंट मीडिया में कहा है, “अगर साबरमती को साफ किया जा सकता है, तो सभी नदियों को बेहतर बनाया जा सकता है।”
लेकिन उमा भारती जो बात भूल गईं वो यह थी कि साबरमती साफ नहीं की गई है, इसने सिर्फ 10.4 किलोमीटर लम्बी डाउन स्ट्रीम (अनुप्रवाह) को हस्तान्तरित कर दिया है। तो क्या साबरमती का मॉडल गंगा के लिए भी अपनाया जा सकता है? और अगर उसे गंगा पर दोहराया गया तो क्या उससे मकसद पूरा होगा या नदी का उद्देश्य सफल होगा या उसका पुनर्जीवन हो पाएगा?
इस सिलसिले में तमाम आशंकाएँ जताई गई हैं। सैनड्रप के हिमांशु ठक्कर ने ओपेन इंडिया न्यूज से कहा, “कथित साबरमती मॉडल गंगा के लिए कारगर नहीं होगा। साबरमती को न तो साफ किया गया है न ही उसका कायाकल्प हुआ है।” उन्होंने इससे आगे कहा कि साबरमती का मॉडल अहमदाबाद शहर में लाए गए नर्मदा नहर के पानी पर टिका है, जो कि गंगा के लिए सम्भव नहीं होगा।
नदी के पुनर्जीवन की प्राथमिकता में पानी की गुणवत्ता को वापस लाना, ताजे पानी का प्रवाह बनाना है न कि नदी के तट का सौन्दर्यीकरण। गंगा कार्य योजना के तहत पिछले 28 सालों में गंगा की सफाई पर 20,000 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च किए जा चुके हैं। इसके बावजूद गंगा के पानी की गुणवत्ता इस हद तक गिर गई है कि अब उसका पानी सिंचाई और नहाने तक के लायक नहीं है।
गंगा के तमाम स्थलों पर नुकसानदेह जीवों, जिनमें मल से जुड़े बैक्टीरिया शामिल हैं कि संख्या सरकार की तरफ से तय की गई सीमा से सौ गुना ज्यादा है। पानी की जैव रासायनिक ऑक्सीजन की मात्रा, जो पानी के जीवों के जीने के लिए अहम है, बुरी तरह गिर गई है। ऐसे में कोई भी सतही इलाज गंगा के लिए उसी तरह कारगर नहीं होने वाला है, जैसे कि वह साबरमती के लिए कारगर नहीं हुआ।
जहाँ ऐसे विशेषज्ञ हैं जो कि साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट को गंगा और यमुना पर लागू किए जाने का विरोध कर रहे हैं लेकिन ऐसे कई रिवरफ्रंट प्रोजेक्ट हैं जो कि साबरमती प्रोजेक्ट से प्रेरित होकर बिना किसी अध्ययन या प्रभाव के आकलन के चल रहे हैं।
ब्रह्मपुत्र रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट एक उदाहरण है। जहाँ एक तरफ गुवाहाटी ब्रह्मपुत्र के बाढ़ लाने वाले स्वभाव से निपटने में लगा है वहाँ असम सरकार गुवाहाटी मेट्रोपॉलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी (जीएमडीए) के माध्यम से ब्रह्मपुत्र रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट को लागू करने में लगी है। मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने इसकी आधारशिला 2013 में रखी।
इस परियोजना के तहत अधिकतम सम्भव भूमि ग्रहण करने की योजना है। इस परियोजना के तहत नदी की पारिस्थितिकी को पुनर्जीवित करने की चर्चा है और इसमें एक तरफ मृदा जैव अभियन्त्रण के माध्यम से नदी के तट को मजबूत करने की योजना है तो दूसरी तरफ इसमें कई शहरी परिदृश्य शामिल करने की तैयारी है जैसे कि भ्रमण पथ, प्लाजा और पार्क , कांफ्रेंस सुविधा, पार्किंग स्थल, तैरते रेस्तरां के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर और अन्य दूसरी चीजें।
यह परियोजनाएँ नदी के वस्तुकरण की प्रक्रिया हैं जो शहरी भू-परिदृश्य को विकसित करने के लिए चलाई जा रही हैं। इन परियोजनाओं में पारिस्थितिकी के साथ-साथ भारतीय नदियों की सामाजिक स्थिति की भी उपेक्षा है और यहाँ जो तथ्य उभर कर आ रहे हैं वे उन विदेशी मॉडलों से अलग हैं जिनकी नकल करने की हम कोशिश कर रहे हैं। अन्धी नकल से नदियों का और भी क्षरण होगा और सार्वजनिक धन का दुरुपयोग होगा और इससे रीयल एस्टेट के खिलाड़ियों का फायदा होगा और शहरी मध्यवर्ग के एक हिस्से को ही फायदा होगा।क्या इस स्तर का रीयल एस्टेट डेवलपमेंट नदी या उसके पुनर्जीवन के लिए कोई स्थान छोड़ेगा?
पुनश्च लखनऊ विकास प्राधिकरण ने गोमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के लिए जो तकनीकी ठेके का दस्तावेज जारी किया है उसमें पानी के शोधन और नदी के पुनर्जीवन का कोई तत्व नहीं है, हालांकि इस प्रोजेक्ट में भूदृश्य-आधारित परियोजना का दावा किया गया है लेकिन इसमें भी दुकानों, मनोरंजन स्थलों और भ्रमण स्थलों के लिए जमीन हासिल करने की चाहत है। इसमें न तो गोमती में पानी का समुचित प्रवाह बनाने, उसके सीवेज को ट्रीट करने, उसके आप्लावन क्षेत्र को संरक्षित करने या किसी अन्य तरह की पारिस्थितिकी कोण का कोई जिक्र है।
पुणे नगर निगम जो कि शहर के बीचोंबीच बहने वाली मुला और मुठा नदियों को प्रदूषित करने के लिए जाना जाता है उसने जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी पुनर्जीवन मिशन के तहत पुणे रिवरफ्रंट प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी है। इस परियोजना में नदी के किनारों को पक्का करना, पानी के स्तर को बनाए रखने के लिए बैराज खड़े करना और नदी के इलाके में मनोरंजन व शॉपिंग क्षेत्र, पार्किंग स्थल और दूसरी चीजें विकसित करने की तैयारी है।
इस `सुधार’ परियोजना ने अपने अनुमान में कहा है कि अगर वह नदी को और कसने यानी तलहटी पर कब्जा करने के बारे में सोचता है तब भी पुणे में सौ साल में एक बार ही बाढ़ आने का इतिहास है। अगर यहाँ बैराजों के माध्यम से नदी के प्रवाह को ठहरे हुए तालाब में बदला गया तो इससे नदी में गिरने वाले तमाम नालों में बैकवाटर प्रभाव पैदा होगा। इस तरह नाले बारिश के मौसम में आसपास के इलाकों में बाढ़ पैदा करेंगे और इन नालों में अतिरिक्त बैकवाटर के आने से स्थिति और भी खराब होगी।
परियोजना में नदी के पानी की गुणवत्ता को शोधित करने की कोई बात नहीं है, बल्कि कहा गया है कि नदी के पेट में ड्रेनेज लाइन बनाकर सीवेज को पुणे शहर से बाहर ले जाया जाएगा। इससे नदी के पुनर्जीवन या बहाली का कोई सवाल ही नहीं है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने इस परियोजना के विरुद्ध यही बातें कही हैं।
महाराष्ट्र के नासिक के गोडा पार्क (गोदावरी रिवरफ्रंट प्रोजेक्ट) में नासिक नगर निगम ..पानी की गुणवत्ता की अनदेखी कर... लेजर शो , संगीतमय फव्वारों, रोप-वे, मल्टीपरपज मीटिंग हाल, बगीचा, वाटरस्पोर्ट्स, कैंटीन वगैरह के माध्यम से गोदावरी के तटों के सौन्दर्यीकरण के लिए ललचाया हुआ था। नासिक नगर निगम ने बिना किसी सार्वजनिक मशविरे या चर्चा के इस परियोजना को रिलायंस फाउंडेशन को सौंप दिया।
26 जुलाई 2005 की जबरदस्त बाढ़, जब मिठी नदी ने कुछ घनी आबादी को डुबाते हुए 1000 जानें ले ली थीं, उसके बाद भी मुम्बई नगर निगम (एमसीजीएम) और मुम्बई मेट्रोपोलिटन रीजन डेवलपमेंट अथॉरिटी (एमएमआरडीए) ने नदी की बहाली का एक प्लान बनाया है।
मिठी रिवरफ्रंट डेवलपमेंट योजना में गाद निकालना , सौन्दर्यीकरण और नदी को रोकने वाली एक दीवार बनाने की योजना है। एमएमआरडीए ने 1.5 किलोमीटर (10 हेक्टेयर) के उस क्षेत्र के सौन्दर्यीकरण की योजना बनाई है जो कि मैंग्रोव के बीच पड़ता है। इसके लिए पीपीपी मॉडल पर भ्रमण पथ विकसित किया जाएगा। मजेदार बात है कि इस काम के लिए मुकेश अम्बानी के रिलायंस फाउंडेशन और स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक को चुना गया है।
यह परियोजना भी कोस्टल रेगुलेशन जोन्स (सीआरजेड) 2 और 3 में पड़ती है। सीआरजेड अथॉरिटी ने अपनी 82वीं मीटिंग में भूमि सुधार या निर्माण की किसी गतिविधि की इजाजत देने से इनकार कर दिया और एमएमआरडीए से कहा कि अगर इस परियोजना में मैंग्रोव की क्षति होनी है तो इसके लिए वह हाई कोर्ट की इजाजत ले।
प्रत्यक्षतः ऊपर वर्णित रिवरफ्रंट की सभी परियोजनाएँ आवश्यक तौर पर तटों के सौन्दर्यीकरण और रीयल एस्टेट डेवलपमेंट की परियोजनाएँ हैं और उनका नदी के कायाकल्प से कोई लेना-देना नहीं है। न तो इनके सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन किया गया है और न तो इन परियोजनाओं पर कोई नियन्त्रण लागू किया गया है और न ही रिवरफ्रंट योजनाएँ लोकतान्त्रिक और भागीदारी निर्णय प्रक्रिया के माध्यम से तैयार की गई हैं।
यह परियोजनाएँ नदी के वस्तुकरण की प्रक्रिया हैं जो शहरी भू-परिदृश्य को विकसित करने के लिए चलाई जा रही हैं। इन परियोजनाओं में पारिस्थितिकी के साथ-साथ भारतीय नदियों की सामाजिक स्थिति की भी उपेक्षा है और यहाँ जो तथ्य उभर कर आ रहे हैं वे उन विदेशी मॉडलों से अलग हैं जिनकी नकल करने की हम कोशिश कर रहे हैं। अन्धी नकल से नदियों का और भी क्षरण होगा और सार्वजनिक धन का दुरुपयोग होगा और इससे रीयल एस्टेट के खिलाड़ियों का फायदा होगा और शहरी मध्यवर्ग के एक हिस्से को ही फायदा होगा।
इसी के साथ इनमें से कोई भी मॉडल पश्चिम के उत्तरोत्तर नदी पुनर्जीवन के पारिस्थितिकी- केन्द्रित विचार को अपनाने को तैयार नहीं है, जहाँ पर नदियों को बहने के लिए ज्यादा जगह दी जाती है और यहाँ पर नदी के पुनर्जीवन का अर्थ तटों की बहाली और नदियों के पक्के तटों को तोड़ने दिया जाता है। यहाँ का नदी प्रदूषण नियन्त्रण अनुकरणीय है और यहाँ तेज बारिश के जल को रोक कर उसे तूफानी जल पार्क जैसे नए तरीकों या ग्रीन स्पंज एरिया के माध्यम से रीचार्ज किया जाता है और इस प्रक्रिया में शहरी समुदाय महत्वपूर्ण भागीदार होता है।
अब यह पहचानने का समय है कि हमारी नदियों के रिवरफ्रंट डेवलपमेंट के बजाय उनके वास्तविक पुनर्जीवन की जरूरत है। उनके गहरे जख्मों पर सुखाने, अतिक्रमण करने प्रदूषण करने या रीयल एस्टेट विकास के माध्यम से ऊपरी लीपापोती करने से कुछ नहीं होगा।
अनुवाद : अरुण कुमार त्रिपाठी
11 सितम्बर 2014परियोजना का मुख्य आधार रिवरफ्रंट की प्रापर्टी को बेचना था। नदी की तलहटी के जिस 185 हेक्टेयर जमीन का उद्धार किया गया और जिसे नदी के पाट को पक्का करके विकसित किया गया था उसे व्यावसायिक मकसद के लिए निजी डेवलपर्स को बेच दिया गया। नदी के पेट से निकाली गई इस जमीन पर जो गतिविधियाँ चलाई गईं वे रेस्तरां, दुकानों, वाटरफ्रंट बसावट, बगीचे, भ्रमण पथ, मनोरंजन पार्क, गोल्फकोर्स, वाटरस्पोर्टस से जुड़ी मनोरंजक और व्यावसायिक गतिविधियाँ थीं। इस जमीन के कुछ हिस्से को सार्वजनिक उद्देश्य यानी कि सड़क के लिए इस्तेमाल किया गया।भारत में रिवरफ्रंट विकास योजनाओं की धूम मची हुई है। हमने साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट का ढिंढोरा कई बार पीटे जाते सुना है और उसके बाद प्रत्यक्षतः उसी तर्ज पर गंगा और यमुना के पुनर्जीवन की चर्चाएँ भी सुनाई पड़ रही हैं।
नदी के रिवरफ्रंट डेवलपमेंट के क्या मायने हैं? क्या हम इसे नदी का पुनर्जीवन कह सकते हैं? क्या नदी के रिवरफ्रंट डेवलपमेंट पर लाखों रुपयों का खर्च किया जाना उचित है? क्या इससे हमारी क्षतिग्रस्त नदियों को बचाया जा सकता है?
नदी के मौजूदा पुनर्जीवन/ सुधार/ सौन्दर्यीकरण योजनाओं पर सरसरी निगाह डालने से पता चलता है कि देश में चल रहा `कायाकल्प’ विमर्श मनोरंजक और व्यावसायिक गतिविधियों के इर्द-गिर्द घूमता है। यह नदी से ज्यादा रीयल एस्टेट के बारे में होता है। इन परियोजनाओं के भीतर कंक्रीट के तटबन्ध खड़े करना, नदी की बाढ़ से प्रभावित होने वाले मैदान को हासिल करना और उस जमीन का व्यावसायीकरण इन परियोजनाओं के स्वाभाविक तत्व हैं।
रिवरफ्रंट पर जिन गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जाता है उनमें पैदल विहार, नौका विहार, खरीददारी, छोटी दुकानें, रेस्तरां, थीम पार्क, भ्रमण पथ और यहाँ तक कि नदी कब्जा किए गए जलागम क्षेत्र में पार्किंग बनाया जाना स्वाभाविक तौर पर शामिल हैं।
इस तरह का रिवरफ्रंट डेवलपमेंट स्वाभाविक तौर पर नदी की पारिस्थितिकी और सामाजिक दायरे को एक शहरी व्यावसायिक दायरे में बदल देता है। क्या रिवरफ्रंट पर इस तरह का विकास करना विवेकपूर्ण है? इससे नदी की पारिस्थितिकी और उसके जलवैज्ञानिक चक्र पर क्या फर्क पड़ता है? रिवरफ्रंट डेवलपमेंट के मौजूदा मॉडल को अनुकरणीय या प्रसंशनीय मानने से पहले इन सवालों का जवाब ढूँढना होगा।
साबरमती रिवरफ्रंट विकास परियोजना : सुधार और सौन्दर्यीकरण!
माना जाता है कि अहमदाबाद शहर में साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट का कार्यक्रम लंदन के टेम्स या पेरिस के शीन नदी की तर्ज पर तैयार किया गया था और इसे रिवरफ्रंट डेवलपमेंट में प्रतिनिधि परियोजना के रूप में पेश किया गया था।
इस परियोजना का प्रस्ताव अहमदाबाद की एक अर्बन प्लानिंग कन्सल्टेंसी फर्म इनवायरनमेंट प्लानिंग कोलाबोरेटिव ने 1997 में किया था। प्रस्ताव के अनुसार साबरमती के दोनों तरफ 10.4 किलोमीटर के इलाके में रिवरफ्रंट का विकास किया जाए और इसके लिए 185 हेक्टेयर जमीन हासिल की जाए और वहाँ पर तटबन्ध और सड़कें बनाई जाएँ, पानी की सप्लाई लाइनें और ट्रंक सीवर डाले जाएँ, पम्पिंग स्टेशन बनाए जाएँ, बगीचे लगाए जाएँ और टहलकदमी के पथ तैयार किए जाएँ। इस परियोजना पर निर्माण काम 2005 में शुरू हुआ।
परियोजना का मुख्य आधार रिवरफ्रंट की प्रापर्टी को बेचना था। नदी की तलहटी के जिस 185 हेक्टेयर जमीन का उद्धार किया गया और जिसे नदी के पाट को पक्का करके विकसित किया गया था उसे व्यावसायिक मकसद के लिए निजी डेवलपर्स को बेच दिया गया। नदी के पेट से निकाली गई इस जमीन पर जो गतिविधियाँ चलाई गईं वे रेस्तरां, दुकानों, वाटरफ्रंट बसावट, बगीचे, भ्रमण पथ, मनोरंजन पार्क, गोल्फकोर्स, वाटरस्पोर्टस से जुड़ी मनोरंजक और व्यावसायिक गतिविधियाँ थीं। इस जमीन के कुछ हिस्से को सार्वजनिक उद्देश्य यानी कि सड़क के लिए इस्तेमाल किया गया।
उम्मीद थी कि परियोजना के माध्यम से नदी से निकाली गई जमीन की बिक्री से परियोजना की पूरी लागत निकल आएगी। इस परियोजना को साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड नाम की एक स्पेशल परपज वेहिकिल के माध्यम से लागू किया गया। इस परियोजना पर 1152 करोड़ रुपए आने का अनुमान था। इस राशि का दो तिहाई हिस्सा अब तक खर्च किया जा चुका है। हालांकि इस परियोजना को कई वित्तीय संस्थाओं ने श्रेष्ठ आचरण के मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया लेकिन इसे विस्थापितों के खराब पुनर्वास के कारण कड़ी आलोचना का भी सामना करना पड़ा। इस तरह शहरी गरीब के आश्रय, आजीविका, और सेवाओं की शृंखला तोड़ दी गई और इसके क्रियान्वयन में पारदर्शिता की कमी के साथ नदी की संवहन क्षमता को कम करने के भी आरोप लगे। परियोजना के पर्यावरण पर पड़ने वाले किसी प्रभाव का आकलन नहीं किया गया और न ही कोई विश्वसनीय किस्म की सार्वजनिक परामर्श की प्रक्रिया अपनाई गई।
रिवरफ्रंट डेवलपमेंट परियोजना के दौरान साबरमती की प्राकृतिक धारा के 350 मीटर और न्यूनतम 330 मीटर चौड़े प्रवाह को समान रूप से संकीर्ण करके 275 मीटर चौड़ा कर दिया गया। नदी को चाँपने के इस प्रयास के दौरान नदी के मूल चरित्र को पूरी तरह से बदल कर उसे एक मौसमी प्रवाह वाली नदी से अवरुद्ध (जब्त) तालाब जैसा रूप दे दिया गया।
इस दूरी में जिस पानी को अवरुद्ध किया गया है वह साबरमती का पानी भी नहीं है बल्कि वह नर्मदा का पानी है, जिस पर अहमदाबाद शहर और साबरमती का कोई हक नहीं बनता। नर्मदा का यह पानी तो कच्छ, सौराष्ट्र और उत्तरी गुजरात के सूखाग्रस्त इलाके के लिए लाया गया था।
इस पूरी प्रक्रिया में नदी की सफाई भी नहीं की गई। परियोजना ने सिर्फ अहमदाबाद शहर और जिला उद्योगों के अशोधित सीवेज और जहरीले अवशिष्ट से भरे प्रदूषित जल को वासना बैराज से नदी के निचली धाराओं में उड़ेल दिया।
प्रभाव
नदी से जमीन के निकाले जाने धारा को संकीर्ण किए जाने से नदी की संवहन क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ा। अगस्त 2006 से मार्च 2007 के बीच जबरदस्त बाढ़ के कारण परियोजना रोक दी गई। बाढ़ के पहले पिछले सौ साल की बारिश के आधार पर नदी की अधिकतम संवहन क्षमता 4.75 लाख क्यूसेक आँकी गई थी। लेकिन बाढ़ ने इस गणना को गलत साबित कर दिया।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलाजी और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी रुड़की ने परियोजना की डिज़ाइन का पुनर्मूल्यांकन किया। उनकी रपटों ने बताया कि गणना में पूरे जलागम क्षेत्र में साथ-साथ होने वाली वर्षा को जोड़ा ही नहीं गया था। रपट में यह भी कहा गया कि रिवरफ्रंट डेवलपमेंट बाढ़ नियन्त्रण कार्यक्रम नहीं है और बाढ़ के खतरे से निपटने के लिए नगर निगम को दूसरे उपायों पर काम करना होगा।
अहमदाबाद की तरह से नदी के बाढ़ वाले इलाके को कंक्रीट का रिवरफ्रंट बनाने के लिए हथिया लिया गया तो यह पारिस्थितिकीय लिहाज से विवेकपूर्ण नहीं होगा दिल्ली जैसी बाढ़ की आशंका वाली जगह के लिए खतरनाक भी होगा। वास्तव में जलवायु परिवर्तन पर अन्तरसरकारी पैनल ने वैश्विक स्तर पर दुनिया के जिन तीन शहरों पर बाढ़ का सबसे ज्यादा खतरा है उनमें दिल्ली को एक माना है। यमुना में तलछट बहुत ज्यादा है और बिना पक्के किनारों वाली नदी मानसून की चरम स्थिति में चार मीटर तक उठ जाती है।वहाँ की झुग्गी-झोपड़ी की विस्थापित आबादी के खराब पुनर्वास के लिए परियोजना की कड़ी आलोचना की गई। इस परियोजना को न्यायोचित बनाने और इसमें पारदर्शिता लाने के लिए साबरमती नागरिक अधिकार मंच की तरफ से गुजरात हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई जिसे कई दूसरे गैर सरकारी संगठनों ने समर्थन दिया।
हाईकोर्ट के आदेश के अनुसार अहमदाबाद नगर निगम को 11000 प्रभावित परिवारों का पुनर्वास और पुनर्बसावट करना था। इस दौरान करीब 3000 लोगों को थोड़ा सा मुआवजा देकर शहर के बाहरी दलदली इलाके में पटक दिया गया, जहाँ उनके लिए पीने के पानी की अनियमित सुविधाएँ और सफाई की न्यूनतम सुविधाएँ थीं।
यमुना : क्या एक अधूरी परियोजना दूसरे को प्रेरित कर सकती है?
इन दिनों यमुना, गंगा , मीठी, ब्रह्मपुत्र वगैरह को विभिन्न सरकारी संस्थाओं द्वारा साबरमती की तर्ज पर विकसित किए जाने का प्रस्ताव है।
हाल में सत्ता में आई भाजपा नीत केन्द्र सरकार ने यमुना की सफाई के लिए साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की तर्ज पर काम किए जाने की सम्भावना तलाशने के लिए अफसरों की एक टीम गुजरात भेजी थी। यमुना में बाढ़ आने की चिन्ता के साथ यह टीम साबरमती के मॉडल को उतारे जाने के रास्ते निकालने में लगी है।
अगर अहमदाबाद की तरह से नदी के बाढ़ वाले इलाके को कंक्रीट का रिवरफ्रंट बनाने के लिए हथिया लिया गया तो यह पारिस्थितिकीय लिहाज से विवेकपूर्ण नहीं होगा दिल्ली जैसी बाढ़ की आशंका वाली जगह के लिए खतरनाक भी होगा। वास्तव में जलवायु परिवर्तन पर अन्तरसरकारी पैनल ने वैश्विक स्तर पर दुनिया के जिन तीन शहरों पर बाढ़ का सबसे ज्यादा खतरा है उनमें दिल्ली को एक माना है। यमुना में तलछट बहुत ज्यादा है और बिना पक्के किनारों वाली नदी मानसून की चरम स्थिति में चार मीटर तक उठ जाती है। लेकिन जब इस नदी के किनारों को पक्का कर दिया जाएगा तो इसमें बाढ़ आने के खतरे कई गुना बढ़ जाएँगे।
दिल्ली विकास प्राधिकरण की यमुना रिवरफ्रंट डेवलपमेंट स्कीम की परीक्षा के लिए पर्यावरण और वन मन्त्रालय की ओर से नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति ने मनोरंजन की सुविधाएँ, पार्किंग और भ्रमण पथ बनाए जाने की महत्वाकांक्षी योजना रद्द करने का सुझाव दिया है। यह समिति यमुना जिए अभियान के संयोजक और एक्टिविस्ट मनोज मिश्रा की तरफ से दायर एक याचिका पर दिए गए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश पर बनाई गई थी।
समिति ने कहा कि नदी के आप्लावन क्षेत्र में मनोरंजन के केन्द्र बनाए जाने से नदी मर जाएगी और उसकी बाढ़ को वहन करने की क्षमता घटेगी और बाढ़ व प्रदूषण बढ़ेगा।
हालांकि नोएडा ने तय किया है कि वह ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण की तरफ से तैयार किए गए 200 करोड़ के यमुना रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट को लागू करेगा। इस परियोजना के तहत हिंडन और यमुना के आप्लावन क्षेत्र में पार्क, योग केन्द्र, पिकनिक स्पाट और स्पोर्ट्स केन्द्र, पोलो ग्राउण्ड और गोल्फ कोर्स जैसे मनोरंजन के केन्द्र विकसित किए जाने हैं। यहाँ भी इस परियोजना का नदी को टिकाऊ बनाने, साफ करने, पुनर्जीवित करने से कुछ लेना-देना नहीं है।
हाल में नेशनल गंगा घाटी प्राधिकरण को पर्यावरण मन्त्रालय से हटाकर जल संसाधन मन्त्रालय से जोड़ दिया गया है। जल संसाधन मन्त्रालय का नया नाम अब जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनर्जीवन मन्त्रालय रख दिया गया है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने गंगा सफाई के लिए विशेष तौर पर बने मन्त्रालय का जिम्मा उमा भारती को दिया है जिन्होंने प्रिंट मीडिया में कहा है, “अगर साबरमती को साफ किया जा सकता है, तो सभी नदियों को बेहतर बनाया जा सकता है।”
लेकिन उमा भारती जो बात भूल गईं वो यह थी कि साबरमती साफ नहीं की गई है, इसने सिर्फ 10.4 किलोमीटर लम्बी डाउन स्ट्रीम (अनुप्रवाह) को हस्तान्तरित कर दिया है। तो क्या साबरमती का मॉडल गंगा के लिए भी अपनाया जा सकता है? और अगर उसे गंगा पर दोहराया गया तो क्या उससे मकसद पूरा होगा या नदी का उद्देश्य सफल होगा या उसका पुनर्जीवन हो पाएगा?
इस सिलसिले में तमाम आशंकाएँ जताई गई हैं। सैनड्रप के हिमांशु ठक्कर ने ओपेन इंडिया न्यूज से कहा, “कथित साबरमती मॉडल गंगा के लिए कारगर नहीं होगा। साबरमती को न तो साफ किया गया है न ही उसका कायाकल्प हुआ है।” उन्होंने इससे आगे कहा कि साबरमती का मॉडल अहमदाबाद शहर में लाए गए नर्मदा नहर के पानी पर टिका है, जो कि गंगा के लिए सम्भव नहीं होगा।
नदी के पुनर्जीवन की प्राथमिकता में पानी की गुणवत्ता को वापस लाना, ताजे पानी का प्रवाह बनाना है न कि नदी के तट का सौन्दर्यीकरण। गंगा कार्य योजना के तहत पिछले 28 सालों में गंगा की सफाई पर 20,000 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च किए जा चुके हैं। इसके बावजूद गंगा के पानी की गुणवत्ता इस हद तक गिर गई है कि अब उसका पानी सिंचाई और नहाने तक के लायक नहीं है।
गंगा के तमाम स्थलों पर नुकसानदेह जीवों, जिनमें मल से जुड़े बैक्टीरिया शामिल हैं कि संख्या सरकार की तरफ से तय की गई सीमा से सौ गुना ज्यादा है। पानी की जैव रासायनिक ऑक्सीजन की मात्रा, जो पानी के जीवों के जीने के लिए अहम है, बुरी तरह गिर गई है। ऐसे में कोई भी सतही इलाज गंगा के लिए उसी तरह कारगर नहीं होने वाला है, जैसे कि वह साबरमती के लिए कारगर नहीं हुआ।
नदियों से ज्यादा रीयल एस्टेट के लिए
जहाँ ऐसे विशेषज्ञ हैं जो कि साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट को गंगा और यमुना पर लागू किए जाने का विरोध कर रहे हैं लेकिन ऐसे कई रिवरफ्रंट प्रोजेक्ट हैं जो कि साबरमती प्रोजेक्ट से प्रेरित होकर बिना किसी अध्ययन या प्रभाव के आकलन के चल रहे हैं।
ब्रह्मपुत्र रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट एक उदाहरण है। जहाँ एक तरफ गुवाहाटी ब्रह्मपुत्र के बाढ़ लाने वाले स्वभाव से निपटने में लगा है वहाँ असम सरकार गुवाहाटी मेट्रोपॉलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी (जीएमडीए) के माध्यम से ब्रह्मपुत्र रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट को लागू करने में लगी है। मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने इसकी आधारशिला 2013 में रखी।
इस परियोजना के तहत अधिकतम सम्भव भूमि ग्रहण करने की योजना है। इस परियोजना के तहत नदी की पारिस्थितिकी को पुनर्जीवित करने की चर्चा है और इसमें एक तरफ मृदा जैव अभियन्त्रण के माध्यम से नदी के तट को मजबूत करने की योजना है तो दूसरी तरफ इसमें कई शहरी परिदृश्य शामिल करने की तैयारी है जैसे कि भ्रमण पथ, प्लाजा और पार्क , कांफ्रेंस सुविधा, पार्किंग स्थल, तैरते रेस्तरां के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर और अन्य दूसरी चीजें।
यह परियोजनाएँ नदी के वस्तुकरण की प्रक्रिया हैं जो शहरी भू-परिदृश्य को विकसित करने के लिए चलाई जा रही हैं। इन परियोजनाओं में पारिस्थितिकी के साथ-साथ भारतीय नदियों की सामाजिक स्थिति की भी उपेक्षा है और यहाँ जो तथ्य उभर कर आ रहे हैं वे उन विदेशी मॉडलों से अलग हैं जिनकी नकल करने की हम कोशिश कर रहे हैं। अन्धी नकल से नदियों का और भी क्षरण होगा और सार्वजनिक धन का दुरुपयोग होगा और इससे रीयल एस्टेट के खिलाड़ियों का फायदा होगा और शहरी मध्यवर्ग के एक हिस्से को ही फायदा होगा।क्या इस स्तर का रीयल एस्टेट डेवलपमेंट नदी या उसके पुनर्जीवन के लिए कोई स्थान छोड़ेगा?
पुनश्च लखनऊ विकास प्राधिकरण ने गोमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के लिए जो तकनीकी ठेके का दस्तावेज जारी किया है उसमें पानी के शोधन और नदी के पुनर्जीवन का कोई तत्व नहीं है, हालांकि इस प्रोजेक्ट में भूदृश्य-आधारित परियोजना का दावा किया गया है लेकिन इसमें भी दुकानों, मनोरंजन स्थलों और भ्रमण स्थलों के लिए जमीन हासिल करने की चाहत है। इसमें न तो गोमती में पानी का समुचित प्रवाह बनाने, उसके सीवेज को ट्रीट करने, उसके आप्लावन क्षेत्र को संरक्षित करने या किसी अन्य तरह की पारिस्थितिकी कोण का कोई जिक्र है।
पुणे नगर निगम जो कि शहर के बीचोंबीच बहने वाली मुला और मुठा नदियों को प्रदूषित करने के लिए जाना जाता है उसने जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी पुनर्जीवन मिशन के तहत पुणे रिवरफ्रंट प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी है। इस परियोजना में नदी के किनारों को पक्का करना, पानी के स्तर को बनाए रखने के लिए बैराज खड़े करना और नदी के इलाके में मनोरंजन व शॉपिंग क्षेत्र, पार्किंग स्थल और दूसरी चीजें विकसित करने की तैयारी है।
इस `सुधार’ परियोजना ने अपने अनुमान में कहा है कि अगर वह नदी को और कसने यानी तलहटी पर कब्जा करने के बारे में सोचता है तब भी पुणे में सौ साल में एक बार ही बाढ़ आने का इतिहास है। अगर यहाँ बैराजों के माध्यम से नदी के प्रवाह को ठहरे हुए तालाब में बदला गया तो इससे नदी में गिरने वाले तमाम नालों में बैकवाटर प्रभाव पैदा होगा। इस तरह नाले बारिश के मौसम में आसपास के इलाकों में बाढ़ पैदा करेंगे और इन नालों में अतिरिक्त बैकवाटर के आने से स्थिति और भी खराब होगी।
परियोजना में नदी के पानी की गुणवत्ता को शोधित करने की कोई बात नहीं है, बल्कि कहा गया है कि नदी के पेट में ड्रेनेज लाइन बनाकर सीवेज को पुणे शहर से बाहर ले जाया जाएगा। इससे नदी के पुनर्जीवन या बहाली का कोई सवाल ही नहीं है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने इस परियोजना के विरुद्ध यही बातें कही हैं।
महाराष्ट्र के नासिक के गोडा पार्क (गोदावरी रिवरफ्रंट प्रोजेक्ट) में नासिक नगर निगम ..पानी की गुणवत्ता की अनदेखी कर... लेजर शो , संगीतमय फव्वारों, रोप-वे, मल्टीपरपज मीटिंग हाल, बगीचा, वाटरस्पोर्ट्स, कैंटीन वगैरह के माध्यम से गोदावरी के तटों के सौन्दर्यीकरण के लिए ललचाया हुआ था। नासिक नगर निगम ने बिना किसी सार्वजनिक मशविरे या चर्चा के इस परियोजना को रिलायंस फाउंडेशन को सौंप दिया।
26 जुलाई 2005 की जबरदस्त बाढ़, जब मिठी नदी ने कुछ घनी आबादी को डुबाते हुए 1000 जानें ले ली थीं, उसके बाद भी मुम्बई नगर निगम (एमसीजीएम) और मुम्बई मेट्रोपोलिटन रीजन डेवलपमेंट अथॉरिटी (एमएमआरडीए) ने नदी की बहाली का एक प्लान बनाया है।
मिठी रिवरफ्रंट डेवलपमेंट योजना में गाद निकालना , सौन्दर्यीकरण और नदी को रोकने वाली एक दीवार बनाने की योजना है। एमएमआरडीए ने 1.5 किलोमीटर (10 हेक्टेयर) के उस क्षेत्र के सौन्दर्यीकरण की योजना बनाई है जो कि मैंग्रोव के बीच पड़ता है। इसके लिए पीपीपी मॉडल पर भ्रमण पथ विकसित किया जाएगा। मजेदार बात है कि इस काम के लिए मुकेश अम्बानी के रिलायंस फाउंडेशन और स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक को चुना गया है।
यह परियोजना भी कोस्टल रेगुलेशन जोन्स (सीआरजेड) 2 और 3 में पड़ती है। सीआरजेड अथॉरिटी ने अपनी 82वीं मीटिंग में भूमि सुधार या निर्माण की किसी गतिविधि की इजाजत देने से इनकार कर दिया और एमएमआरडीए से कहा कि अगर इस परियोजना में मैंग्रोव की क्षति होनी है तो इसके लिए वह हाई कोर्ट की इजाजत ले।
नदियों के शहरीकरण का वास्तविक असर
प्रत्यक्षतः ऊपर वर्णित रिवरफ्रंट की सभी परियोजनाएँ आवश्यक तौर पर तटों के सौन्दर्यीकरण और रीयल एस्टेट डेवलपमेंट की परियोजनाएँ हैं और उनका नदी के कायाकल्प से कोई लेना-देना नहीं है। न तो इनके सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन किया गया है और न तो इन परियोजनाओं पर कोई नियन्त्रण लागू किया गया है और न ही रिवरफ्रंट योजनाएँ लोकतान्त्रिक और भागीदारी निर्णय प्रक्रिया के माध्यम से तैयार की गई हैं।
यह परियोजनाएँ नदी के वस्तुकरण की प्रक्रिया हैं जो शहरी भू-परिदृश्य को विकसित करने के लिए चलाई जा रही हैं। इन परियोजनाओं में पारिस्थितिकी के साथ-साथ भारतीय नदियों की सामाजिक स्थिति की भी उपेक्षा है और यहाँ जो तथ्य उभर कर आ रहे हैं वे उन विदेशी मॉडलों से अलग हैं जिनकी नकल करने की हम कोशिश कर रहे हैं। अन्धी नकल से नदियों का और भी क्षरण होगा और सार्वजनिक धन का दुरुपयोग होगा और इससे रीयल एस्टेट के खिलाड़ियों का फायदा होगा और शहरी मध्यवर्ग के एक हिस्से को ही फायदा होगा।
इसी के साथ इनमें से कोई भी मॉडल पश्चिम के उत्तरोत्तर नदी पुनर्जीवन के पारिस्थितिकी- केन्द्रित विचार को अपनाने को तैयार नहीं है, जहाँ पर नदियों को बहने के लिए ज्यादा जगह दी जाती है और यहाँ पर नदी के पुनर्जीवन का अर्थ तटों की बहाली और नदियों के पक्के तटों को तोड़ने दिया जाता है। यहाँ का नदी प्रदूषण नियन्त्रण अनुकरणीय है और यहाँ तेज बारिश के जल को रोक कर उसे तूफानी जल पार्क जैसे नए तरीकों या ग्रीन स्पंज एरिया के माध्यम से रीचार्ज किया जाता है और इस प्रक्रिया में शहरी समुदाय महत्वपूर्ण भागीदार होता है।
अब यह पहचानने का समय है कि हमारी नदियों के रिवरफ्रंट डेवलपमेंट के बजाय उनके वास्तविक पुनर्जीवन की जरूरत है। उनके गहरे जख्मों पर सुखाने, अतिक्रमण करने प्रदूषण करने या रीयल एस्टेट विकास के माध्यम से ऊपरी लीपापोती करने से कुछ नहीं होगा।
अनुवाद : अरुण कुमार त्रिपाठी
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