क्या हम अपनी नदियों को जिंदा रहने देना चाहते हैं


मनुष्य का शरीर पंच महाभूतों से बना है। जल उसका प्रमुख घटक है। हमारे शरीर में तीन चौथाई जल ही है। यदि हमें अपने अस्तित्व को बचाना है तो जल संरक्षण हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। उसके संरक्षण और संवर्धन के गम्भीर प्रयास करने होंगे। पानी का कोई विकल्प नहीं। ऊर्जा के विकल्प हैं कोयला, पेट्रोल, डीजल, गैस। लेकिन पानी का कोई विकल्प नहीं। इसका कोई स्थानापन्न नहीं। जो पानी को प्रदूषित करते हैं, वे स्वयं जीवन को प्रदूषित करते हैं।

मनुष्य को विपन्न से सम्पन्न बनाने में सबसे बड़ा योगदान नदियों का रहा है। पहले मनुष्य जंगलों में रहता था और शिकार के पीछे मारा-मारा फिरता था। बाद में उसने खेती करना सीखा, खेती के लिये खुला मैदान चाहिए, पानी चाहिए, तब वह जंगल से निकलकर बाहर आया और नदियों के किनारे बसा।

जंगल ने उसे केवल रोटी दी थी, नदी ने उसे रोटी, कपड़ा और मकान तीनों दिए। इससे भी ज्यादा दिया - एग्रीकल्चर आया तो उसके पीछे कल्चर आया। संसार की समस्त सभ्यताओं का जन्म नदियों की कोख से हुआ। नदियाँ मानव जाति की आध्यात्मिक केंद्र भी रहीं। एक बार डॉ. राम मनोहर लोहिया नर्मदा तट पर स्थित महेश्वर गए थे। वहाँ एक ग्रामीण ने उनसे पूछा, “तुम किसी नदी से हो?” लोहिया जी ने लिखा, उसका वाक्य मुझे भीतर तक भिगो गया। वह यह नहीं पूछ रहा था कि तुम किस प्रदेश से हो, किस जाति से हो, किस धर्म से हो, किस भाषा से हो। नहीं, वह पूछ रहा था तुम किस नदी से हो। तो कभी यह महत्त्व था हमारे देश में नदियों का।

नदियाँ धरती की धमनियाँ हैं, हमारी जीवनरेखा हैं। एक आदिवासी लोक-कथा के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में केवल तीन चीजें थी - माता, रात्रि और जल। कुछ आदिवासी उत्तर या दक्षिण नहीं कहते, वे कहते हैं नदी के ऊपर की ओर या नदी के नीचे की ओर। प्राचीन काल में हमारे देश में नर्मदा के उत्तर का भू-भाग आर्यावर्त और दक्षिण का भाग दक्षिणावर्त कहलाता था। जल हमें वरदान की तरह मिला है। जहाँ जल नहीं, वहाँ जीवन नहीं। एक आदमी बिना भोजन के एक माह तक जीवित रह सकता है लेकिन पानी के बिना एक सप्ताह से भी कम समय में मर जाएगा। हम जल की दया पर जीवित हैं।

भगवान की तरह पानी सर्वव्यापी है। वह तीनों लोक में है। पाताल में भूगर्भ जल, धरती पर नदियाँ तथा अन्य जलाशय में आकाश में बादल। ये बादल ही हैं जो बाकी सभी को जल की आपूर्ति करते हैं। बादल में जो पानी है, वह सबसे स्वच्छ पानी है, डिस्टिल्ड वाटर है। जब वह धरती पर उतरता है, तब शुरू में जरूर मटमैला होता है, लेकिन बाद में निथर कर स्वच्छ हो जाता है। भूगर्भ जल भी स्वच्छ ही होता है। पानी कहीं भी हो, किसी मंजिल में रहता हो, मूल रूप से वह स्वच्छ ही होता है।

फिर पानी को गंदा कौन करता है? हमारी नदियों को गंदा ही नहीं, विषाक्त कौन कर रहा है? हमारे शहर जबलपुर के बीच से एक नाला बहता है - ओमती नाला। लेकिन यह शुरू से ही नाला नहीं था। आज से दो सौ साल पुराने अंग्रेजों के समय के जो नक्शे हैं, उनमें लिखा है - ओमती रिवर। तो हमने एक नदी को नाला बना दिया। ओमती तो खैर छोटी नदी थी, पर हमने तो गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों तक को नाला बना दिया। परिणाम यह हुआ कि जिस गंगा ने कभी भीष्म को जन्म दिया था, वही गंगा आज वायरस और बैक्टीरिया को जन्म दे रही है। गोमती का हाल तो और भी बुरा है। ये नदियाँ आई.सी.यू. में हैं। इनमें आज पानी नहीं, रासायनिक घोल बह रहा है।

नदियों को नाला कौन बना रहा है?


बहू को कौन जलाता है? उसकी सास और उसकी ननदें। आजकल नदियों की सास पैदा हो गई हैं और उनमें ननदें भी। ये ही नदियों का गला घोंट रही हैं, उन्हें नदी में से नाला बना रही हैं। नदियों की सास है बड़े-बड़े शहर और बड़े-बड़े कारखानों से निकलने वाले जहरीले नाले। ये नाले नदियों को बुरी तरह प्रदूषित करते हैं। नदियाँ शहरों का मैला ढोने वाली गटर नहीं हैं। न ही नदियाँ कूड़ादान हैं। औद्योगिक सभ्यता प्रकृति, पर्यावरण और नदियों को लील रही हैं।

यह तो हुई नदियों की सास। उसकी दो ननदें भी हैं जो इस नदी हत्या में शामिल हैं। दो में से एक ननद तो बेहद खतरनाक है। वह है हमारे किसान भाइयों द्वारा खेत की मिट्टी में डाली गई रासायनिक खाद और कीटनाशक। रसायन कभी नष्ट नहीं होते। इनमें से कुछ रिसकर जमीन के अंदर चले जाते हैं और भूगर्भ जल को जहरीला बनाते हैं लेकिन अधिकांश वर्षाजल के साथ बहकर नदियों में जा पहुँचते हैं और नदियों को विषाक्त बनाते हैं। नदियों को सबसे ज्यादा खतरा इसी से है और मजे की बात यह है कि यह ननद नदी-हत्या में सीधे-सीधे शामिल नहीं है। वह दूर बैठकर सारा खेल खेलती है। ये रसायन नदियों में सर्वाधिक जहर घोल रहे हैं। तीसरी ननद है हम स्वयं। हम बड़ी श्रद्धा से प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी बड़ी-बड़ी मूर्तियों का विभिन्न त्योहारों पर नदियों में विसर्जन करते हैं। इन पर रासायनिक रंग लगे होते हैं। प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी और केमिकल कलर्स से पुती ये मूर्तियाँ आसानी से घुलती नहीं हैं और नदियों में बरसों पड़ी रहती हैं। अधजले मुर्दे जलाना, खारी बहाना, पूजा-सामग्री के साथ पन्नी को भी बहाना, नदी में ट्रकों, ट्रैक्टरों आदि को धोना - ये सब इस तीसरी ननद के काम हैं।

नदी को गंदा करना उतना ही बड़ा अपराध है, जितना बहू को जलाना। नदियों में बड़ी-बड़ी मूर्तियों का विसर्जन या प्लास्टिक के दोनों में दीप जलाकर प्रवाहित करना पुण्य का नहीं, पाप का काम है। ये जो नदियाँ हैं, वे जीवित और जागृत यज्ञ कुंड हैं। जो इन्हें गंदी कर रहा है, वह यज्ञ कुंड में हड्डियाँ डाल रहा है। यज्ञ कुंड में हड्डियाँ डालना राक्षसों का काम है। हम मनुष्य होकर ऐसा काम न करें।

सीमित मात्रा में नदी में से रेत निकालना ठीक है। ऐसा करने से नदी उथली नहीं होती। लेकिन अत्यधिक रेत निकालना नदी की सेहत के लिये बुरा होता है। रेत नदी के पानी को साफ रखती है। यह प्रकृति का फिल्ट्रेशन प्लांट है, जिसे उसने नदी में लगा रखा है। नदी में मशीनों से रेत निकालना, नदी में गहरे गड्ढे करना नदी के शरीर में छुरा घोंपना है। ऐसा होता रहा तो हमारी नदियों की हालत बाण-शय्या पर लेटे भीष्म जैसी हो जाएगी।

एक और खतरे की ओर इंगित करना आवश्यक है। हमारी नदियों में पानी केवल प्रदूषित नहीं हो रहा, कम भी हो रहा है। जो नदियाँ पहले गर्मियों में नहीं सूखती थीं, वे अब सूखने लगी हैं। क्यों सूख रही हैं? क्योंकि वर्षा कम हो रही है। वर्षा कम क्यों हो रही है? क्योंकि जंगल कट भी गए हैं और आज भी कट रहे हैं। घने जंगल (और ऊँचे पहाड़) बादलों के उतरने के हवाई अड्डे हैं। हवाई जहाज वहीं उतरेगा, जहाँ हवाई अड्डा होगा। हमने जंगल काट डाले, अब बादल कैसे उतरें? पहले हम हवाई अड्डा नष्ट कर दें, फिर शिकायत करें कि जहाज उतर नहीं रहा, तो यह कैसे हो सकता है? इसीलिये अब पहले जैसी मूसलाधार बारिश नहीं होती। वर्षा कम होगी तो नदियाँ सूखेंगी ही। वन-विनाश यानी नदी-विनाश। हम जितना समझते हैं, उससे कहीं ज्यादा जंगल और नदी एक-दूसरे से गुंथे हुए हैं। हमने अधिकांश वनों को काट डाला, अब शायद पहाड़ों की बारी है।

अगर हमें नदियों को बचाना है, उनके किनारों को क्षरण से बचाना है, तो हमें नदियों के दोनों तटों पर सघन वृक्षारोपण करना होगा। ये वृक्ष ही हैं, जो बरसात में अपनी जड़ों के माध्यम से वर्षा के पानी को रोक लेते हैं और फिर साल भर तक यह पानी नदी को देते रहते हैं। हर पेड़ एक चेक-डैम है। इन्हीं के कारण नदियों में सालभर पानी रहता है। वन बचेंगे तो नदियाँ बचेंगी। भू-क्षरण नहीं होगा। किनारे कटेंगे नहीं, लेकिन हमने तो जंगल को काट-काटकर अधमरा कर दिया है।

कभी लोग नदियों के साथ सामंजस्य के साथ रहते थे। जब मनुष्य असभ्य था, तब नदियाँ स्वच्छ थीं। आज जब मनुष्य सभ्य हो गया है तो नदियाँ मलिन और विषाक्त हो गई हैं। सौ साल पहले तक सब ठीक चलता रहा। लेकिन ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक सभ्यता का दबदबा बढ़ता गया पानी के बुरे दिन शुरू हो गए। औद्योगिक सभ्यता के पर्यावरण को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। आधुनिक सभ्यता ने हमें महानगर दिए, बड़े-बड़े कारखाने दिए। इनकी गंदगी कहाँ फेंके? ये नदियाँ किसलिए हैं? तो औद्योगिक सभ्यता ने नदियों को नाला बना दिया। औद्योगिक सभ्यता ने हमें रासायनिक खाद और रासायनिक कीटनाशक भी दिए। ये दोनों नदियों के पानी को जहरीला बनाते हैं। गंदा पानी पीने से कई तरह की बीमारियाँ होती हैं और बच्चे विकलांग पैदा होते हैं।

रासायनिक खाद और कीटनाशक नदियों में तो जहर घोलते ही हैं, खेतों की भी हत्या करते हैं। इन्हें खेत में डालना खेत को शराब पिलाना है। जो नशेड़ी होता है, वह शुरुआत अल्पमात्रा से करता है, फिर उसकी मात्रा बढ़ाते रहना पड़ता है और अंत में उसका गुलाम बन जाता है। यही हाल खेतों का हो रहा है। पहले एक बोरी रासायनिक खाद से काम चल जाता है, लेकिन बाद में वह कम जान पड़ी तब वह दो बोरी खाद देता है, फिर तीन, फिर पाँच। फिर दस बोरी भी कुछ नहीं कर पाएगी, क्योंकि खाद और कीटनाशक की ओवरडोज ने खेत की मिट्टी को मार डाला है। तब किसान उसे त्यागकर शहर चला जाता है, दिन में रिक्शा चलाता है और रात में फुटपाथ पर सोता है। किसान अपने खेतों को गंजेड़ी-नशेड़ी न बनाएँ। यह धीमा जहर नदी के साथ-साथ उनके खेतों को भी मार रहा है।

मनुष्य का शरीर पंच महाभूतों से बना है। जल उसका प्रमुख घटक है। हमारे शरीर में तीन चौथाई जल ही है। यदि हमें अपने अस्तित्व को बचाना है तो जल संरक्षण हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। उसके संरक्षण और संवर्धन के गम्भीर प्रयास करने होंगे। पानी का कोई विकल्प नहीं। ऊर्जा के विकल्प हैं कोयला, पेट्रोल, डीजल, गैस। लेकिन पानी का कोई विकल्प नहीं। इसका कोई स्थानापन्न नहीं। जो पानी को प्रदूषित करते हैं, वे स्वयं जीवन को प्रदूषित करते हैं।

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