क्या गंगा के प्रवाह की चिंता असली है?


हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने गंगा नदी की अविरलता बरकरार रखने का आश्वासन देते हुए कहा है कि गंगा नदी पर अब नए बाँध नहीं बनेंगे तथा उत्तराखंड में जिन पनबिजली परियोजनाओं पर काम शुरू नहीं हुए हैं, उन पर काम शुरू नहीं होंगे।

क्या यह सरकार का महज एक मौखिक आश्वासन है या फिर सरकार वास्तव में गंगा जैसी नदियों के अविरल प्रवाह को लेकर चिंतित है? सवाल यह भी उठता है कि गंगा पर जो बाँध अब तक बन चुके हैं अथवा जो निर्माणाधीन हैं उनसे नदी के अविरल प्रवाह और जल की गुणवत्ता पर जो प्रतिकूल असर पड़ रहे हैं उनका क्या?

उल्लेखनीय है कि देश के ऊर्जा राज्य के रूप में प्रचारित उत्तराखंड में इस समय निर्मित, निर्माणाधीन व प्रस्तावित कुल पनबिजली परियोजनाओं की संख्या 343 से 540 तक है! इनसे गंगा और उसकी सहायक नदियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है!

नदी का अविरल प्राकृतिक प्रवाह बहुत महत्वपूर्ण व निर्णायक भूमिका निभाता है। यह न केवल अपनी जलराशि, बल्कि साथ बहाकर लाई गई उपजाऊ पोषक तत्व युक्त मिट्टी से उत्तर भारतीय मैदानों को निर्मित करता है, सींचता है और वहाँ खेती संभव बनाता है।

अविरल प्रवाह अवरुद्ध हो जाने और बाँधों द्वारा पर्यात जलराशि न छोड़े जाने से डाउनस्ट्रीम क्षेत्रों में जलसंकट उत्पन्न हो जाता है। नदी जहाँ पर सुरंगों में कैद हो जाती है; वे इलाके भी जलसंकट का सामना करते हैं। नदी का अविरल प्रवाह मछलियों के सहज आवागमन के लिए भी जरूरी है। बाँधों का प्रतिकूल प्रभाव मछुआरों, नाविकों, किसानों, स्थानीय रेत-बजरी ढोने वालों आदि की आजीविका पर भी पड़ता है।

इसके अलावा पहाड़ों-चट्टानों से टकरा-टकराकर, कभी घुमावदार तो कभी ऊँचे-नीचे रास्तों से होकर बहती, मार्ग में वनस्पतियों व खनिज-चट्टानों के संपर्क में आती, हवा-धूप का स्पर्श पाती नदी का यह अविरल प्रवाह ही इसके जल की गुणवत्ता को सुनिश्चित करता है।

जलाशयों में रुके हुए अथवा सुरंगों में बंद पानी में नदी के जल जैसी गुणवत्ता हो ही नहीं सकती। 'बहता पानी निर्मला' और 'बहता पानी रमता जोगी' जैसे मुहावरे और कहावतें लोकमानस में बैठे पानी की गुणवत्ता को ही व्यक्त करते हैं।

नदी रोक कर कुछ वर्षों के लिए ऊर्जा तथा हरित क्रांति जैसे लक्ष्यों को अदूरदर्शी ढंग से हासिल करने की कोशिश भले ही की गई हो, लेकिन उस कोशिश से हजारों-लाखों जिंदगियाँ तबाह भी हुई हैं।

हजारों लोगों को विस्थापित करके बने टिहरी बाँध के जलाशय के निकट के कई गाँव जलाशय के पानी के प्रभाव के कारण अब भू-स्खलन और भू-धँसाव की समस्या झेल रहे हैं और उनके अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है! टिहरी जलाशय के आसपास बसे लोग जल की घटिया गुणवत्ता व जलाशय से उठती दुर्गंध की शिकायत कर रहे हैं।

मनेरी भाली पनबिजली परियोजनाओं के डाउनस्ट्रीम में बसे लोग नदी में प्रायः कम पानी छोड़े जाने के कारण जलसंकट की स्थिति का सामना कर रहे हैं। सुरंगों के निर्माण के दौरान हुए विस्फोटों से कई गाँवों के घरों में दरारें आ गई हैं और यहाँ के पहाड़ी जलस्रोत नष्ट हो गए हैं। निर्मित सुरंगों से रिसाव की समस्या सामने आ रही है।

स्थानीय लोगों से उनके नदी घाट, जंगल, चरागाह तक छिन गए हैं। पहाड़ों की बात यदि छोड़ दें तो आगे गंगा पर बने फरा बैराज में भी गाद जमाव की समस्या उजागर हो रही है और यह बैराज मछलियों के सहज आवागमन में भी बाधा उत्पन्ना कर रहा है।

उत्तराखंड में गंगा पर निर्माणाधीन बाँधों ने भी कम समस्या पैदा नहीं की। फिलहाल स्थगित किए गए लोहारीनाग पाला प्रोजेक्ट के निर्माण कार्यों के दौरान यहाँ कई गाँवों के जल स्रोत नष्ट हो गए और कई घरों में दरारें आ गईं।

अलकनंदा नदी पर निर्माणाधीन हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के निर्माण कार्य का मलबा या तो इस नदी में गिराया जा रहा है या नदी तट पर! चारों ओर प्रदूषित धूल फैली है जिससे स्थानीय लोग बीमार हो रहे हैं।

हाल ही में इस निर्माणाधीन प्रोजेक्ट का कॉफर बाँध टूट ही गया था, जिससे नदी का जलस्तर अचानक बहुत बढ़ जाने से आसपास के क्षेत्रों के लिए खतरा उत्पन्न हो गया था। इन तमाम निर्माणाधीन परियोजनाओं से विस्थापित व प्रभावित होते कई लोगों में पुनर्वास, मुआवजे, रोजगार को लेकर असंतोष व्याप्त है।

गंगा के अविरल प्रवाह और गंगा तटवासियों के हित का दावा करने वाली सरकार को इन निर्माणाधीन परियोजनाओं पर भी रोक लगाना चाहिए और निर्मित बाँधों पर भी पुनर्विचार किया जाना चाहिए। (नईदुनिया)
 
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