कवायद कागजी ज्यादा

गंगा कार्ययोजना का प्रथम चरण पूरा हो जाने के बाद गंगाजल की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ। गंगा में मलमूत्र तथा गंदा पानी गिरने का क्रम जारी है। इसके चलते उसमें मानव स्वास्थ्य के लिए घातक विषाणुओं की मात्रा अब भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई ने गंगा में गिरने वाले गंदे पानी को रोकने के लिए अनेक पंपिंग स्टेशन बनाए हैं। इसके बावजूद गंगा में नहर के सीवर का बहाव कैसे हो रहा है। यह गंभीर जांच का विषय है।

गंगा कार्ययोजना के प्रथम चरण की अनेक तकनीकी खामियों, योजना के क्रियान्वयन में अनियमितताओं तथा वैज्ञानिक मानदंडों के अभाव के कारण गंगा में प्रदूषण का बढ़ना ढाई दशक बाद भी जारी है। योजना के प्रथम चरण की समाप्ति के पश्चात काशी में गंगा को प्रदूषण मुक्त किए जाने का दावा किया गया था, लेकिन वास्तविकता यह है कि गंगा में आज भी रासायनिक जहर घुल रहा है। काशी में विभिन्न घाटों पर गिरते नाले तथा गंगा में तैरती अधजली लाशें इन दावों की असलियत उजागर कर रही हैं।

गंगा कार्य योजना के प्रथम चरण में किए गए कार्यों में व्यापक खामियां आज भी दिखाई देती हैं। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट आदि में जिस प्रौद्योगिकी या तकनीक का उपयोग किया गया है, वह भारत जैसे देश के उपयुक्त थी ही नहीं। स्वच्छ गंगा अभियान से जुड़ी स्वयंसेवी संस्थाओं तथा वैज्ञानिकों का दावा है कि काशी में गंगाजल में बीओडी औसतन 7 से 11 के बीच है, जबकि गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई के अधिकारियों का दावा है कि काशी में बीओडी की मात्रा निर्धारित मानदंडों के अनुसार तीन मिलीग्राम प्रति लीटर है। इसी प्रकार, फीकल कोलिफार्म प्रति घाट पर औसत 60-70 हजार के बीच रहा।

स्वच्छ गंगा अभियान से जुड़े वैज्ञानिकों का आरोप है कि विभिन्न घाटों पर गिरने वाले सीवर को रोक पाने में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट सक्षम नहीं है। अस्सी घाट और खिड़किया घाट स्थित मेन सीवर लाइनों से सीवर का प्रवाह आज भी जारी है, जबकि दोनों सीवर लाइनें ट्रीटमेंट प्लांट से जुड़ी हुई हैं। कोनिया प्री ट्रीटमेंट प्लांट से मुख्य सीवर को जोड़ा गया है। इस प्लांट के निर्माण में अनेक खामियां उजागर हो चुकी हैं, जिनके चलते नगर की सीवर प्रणाली पूरी तरह से ध्वस्त पड़ी है। गंगा कार्ययोजना के अंतर्गत कोनिया नाले के सीवर को गंगा में गिरने से रोकने के लिए नाले के मुहाने पर गेट लगा दिया गया था, जिससे सीवर का निकास नहीं हो पाता था, लेकिन वह अंदर ही रिसता था। इसके साथ ही घरों में शौचालय जाम की घटनाएं आम हो गई थीं। साथ ही, दबाव के कारण नगर की सीवर पाइपें टूट रही थीं, गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई के अधिकारियों ने इस नाले को मोड़ कर एक बड़े गड्ढ़े में गिरा कर उसे पंप के जरिए प्री ट्रीटमेंट प्लांट तक ले जाने की कोई व्यवस्था नहीं की।

आपात स्थिति में वैकल्पिक व्यवस्था नहीं


शुरू से ही दीनापुर ट्रीटमेंट प्लांट उचित तरीके से कार्य नहीं कर पा रहा है। ट्रीटमेंट चैंबर का निर्माण वैज्ञानिक मानदडों के अनुसार नहीं हुआ है। ये प्लांट गंगा में गिरने वाले सीवर को पूरी तरह रोक कर शहर के बाहर पंप करने में अक्षम साबित हुए हैं। इसके साथ ही इन संयंत्रों की क्षमता भी काफी कम है।

प्रदूषण नियंत्रण इकाई के अधिकारी प्रायः बिजली फेल होने, संयंत्रों की तकनीकी खराबी दिखा कर सीवर को सीधे गंगा में गिरा देते हैं। इन आपात स्थिति का सामना करने के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई है। इन संयंत्रों में पहुंचने वाले जल में बीओडी की मात्रा 150 मिलीग्राम प्रति लीटर होती है, लेकिन उसके तद्नुरूप संयंत्र नहीं बनाया गया है। इसके साथ ही संयंत्र में लगी गैस उत्पादन इकाई निष्क्रिय पड़ी है। तकनीकी खामियों के चलते संयत्रों में लगे होल्डरों को कभी गैस नहीं मिल पाई। इन संयंत्रों में अत्यंत जटिल प्रक्रिया अपनाई गई है। इन पंपिंग स्टेशनों तक एसटीपी के रखरखाव पर प्रतिवर्ष तीन करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च होता रहा है। केंद्र सरकार प्रथम चरण की योजना की समाप्ति के पश्चात इस पर अकेले करने को तैयार नहीं है।

गंगा कार्य योजना के प्रथम चरण की समाप्ति के बावजूद विभिन्न घाटों पर गिरने वाले अधिकांश बड़े नालों के सीवर को आज तक पंपिंग स्टेशनों की ओर मोड़ा नहीं जा सका है। अनके नालों को एक घाट से मोड़ कर दूसरे घाटों पर गिराया जा रहा है। वैज्ञानिक मानदंडों के अभाव तथा भारी अनियमितताओं के चलते दर्जनों नाले गंगा में गिर रहे हैं।

गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के दावों के दोष अब छिपाए नहीं छिप रहे हैं। सरकारी फाइलों में गंगा की धार को निर्मल करने का दावा करने वाली सरकारी एजेंसी की पोल परत-दर-परत खुलती ही गई। स्वच्छ गंगा अभियान से जुड़े वैज्ञानिकों तथा स्वयंसेवी संस्थाओं का अपने लंबे शोध तथा प्रयोगों के बाद यह दावा है कि गंगा कार्ययोजना का प्रथम चरण बीत जाने के बाद भी गंगा जल की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हो पाया है। इसके साथ ही उनका आरोप है कि प्रथम चरण में प्रयुक्त प्रौद्योगिकी जटिल होने के साथ-साथ स्तरीय नहीं है। दूसरी तरफ सरकार और उसके नुमाइंदे यहां की गर्म जलवायु में उच्च तकनीकी का प्रयोग कर गंगा को स्वच्छ करने का दावा कर रहे हैं।

व्यथित हैं वैज्ञानिक


स्वच्छ गंगा अभियान से लंबे समय से जुड़े रहे काशी हिंदू विश्वविद्यालय प्रौद्योगिकी संस्थान के प्रो. एसएन उपाध्याय का कहना है कि काशी में गंगा की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है। हम लगातार गंगा जल के नमूनों की जांच करते रहे हैं। जांच के आंकड़े गंगा के प्रदूषित होते जाने की बात कहते रहते हैं। उनका कहना है कि यहां गंगा के प्रदूषित होने का एकमात्र कारण सीवेज का गंगा में गिरना है। यदि निश्चित कार्ययोजना के तहत गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का अभियान चलाया जाता तो काफी सफलता मिलती। गंगा में गिरने वाले नालों को घुमा कर या अवजल के उपचार के लिए प्लांट लगा कर प्रदूषण कम किया जा सकता है। एसटीपी को यहां जलवायु और उपलब्ध सुविधाओं के मद्देनजर ही लगाया जाना चाहिए था। यहां लगाया गया प्लांट ठंडे देशों की तकनीक पर आधारित है। यहां की गर्म जलवायु में तकनीक की असफलता का प्रतिशत बढ़ जाता है। विद्युत आपूर्ति ठप होने पर प्लांट भी काम करना बंद कर देता है। उपाध्याय का मानना है कि गंगा को स्वच्छ करने के देशी तरीके (पानी एक जगह एकत्र कर पंप करने का तरीका) अपनाया जाए तो अच्छे परिणाम सामने आएंगे।

प्रो. वीरभद्र मिश्र का कहना है कि गंगा कार्ययोजना का प्रथम चरण पूरा हो जाने के बाद गंगा जल की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ। गंगा में मल-मूत्र तथा गंदा पानी गिरने का क्रम जारी है। इसके चलते उसमें मानव स्वास्थ्य के लिए घातक विषाणुओं की मात्रा अब भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। गंगा नियंत्रण इकाई ने गंगा में गिरने वाले गंदे पानी को रोकने के लिए अनेक पंपिंग स्टेशन बनाए हैं। इसके बावजूद गंगा में नहर के सीवर का बहाव कैसे हो रहा है। यह गंभीर जांच का विषय है।

गेप पर सवाल


वाराणसी में गंगा नदी के प्रदूषण को रोकने के लिए गंगा कार्य योजना द्वितीय चरण के अंतर्गत कई प्रस्ताव उत्तर प्रदेश जल निगम द्वारा प्रदेश शासन के माध्यम से भारत सरकार को भेजे गए। गंगा कार्य योजना द्वितीय चरण के कार्य आठ वर्षों तक लंबित रहे। इसके कारण शहर के कुल 24 करोड़ लीटर सीवेज में से केवल दस करोड़ लीटर सीवेज ही उपचारित हो पा रहा था तथा शेष 14 करोड़ लीटर सीवेज बिना उपचारित किए ही गंगा नदी में जा रहा था।

द्वितीय ट्रंक सीवर


गंगा कार्य योजना के प्रथम चरण में किए गए कार्यों में व्यापक खामियां आज भी दिखाई देती हैं। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट आदि में जिस प्रौद्योगिकी या तकनीक का उपयोग किया गया है, वह भारत जैसे देश के उपयुक्त थी ही नहीं। स्वच्छ गंगा अभियान से जुड़ी स्वयंसेवी संस्थाओं तथा वैज्ञानिकों का दावा है कि काशी में गंगाजल में बीओडी औसतन 7 से 11 के बीच है, जबकि गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई के अधिकारियों का दावा है कि काशी में बीओडी की मात्रा निर्धारित मानदंडों के अनुसार तीन मिलीग्राम प्रति लीटर है। इसी प्रकार, फीकल कोलिफार्म प्रति घाट पर औसत 60-70 हजार के बीच रहा।

पुरानी ट्रंक सीवर लगभग नौ दशक पुरानी पड़ चुकी है। इसकी जर्जर स्थिति व नगर की बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए नई ट्रंक सीवर दुर्गाकुंड से प्रारंभ होकर विजया क्रॉसिंग, भेलपुर जल संस्थान, कमच्छा, गुरुबाग, रथयात्रा, सिगरा, मलदहिया, लहुराबीर होते हुए चौकाघाट तक प्रस्तावित है। यह सीवर शहर की मुख्य ट्रंक सीवर के समानांतर होगी तथा इसकी गहराई ट्रंक सीवर से प्रत्यावर्तित कर पुराने ट्रंक सीवर की मरम्मत की जाएगी। चौकाघाट पर वरुणापार कर एक मुख्य पंपिंग स्टेशन प्रस्तावित है। महमूरगंज व सोनिया क्षेत्र की जलभराव समस्या के निवारण के लिए महमूरगंज पुलिस चौकी से रथयात्रा तक 900 मीटर व्यास (तीन फीट) तथा सोनिया से सिगरा (2 फीट आकार) की ब्रांच सीवर का प्रस्ताव भी है। इसके अतिरिक्त, पुरानी ट्रंक सीवर के दबाव को कम करने के लिए नई सड़क से 900 मिमी (तीन फीट आकार) की सीवर प्रस्तावित रिलीविंग ट्रंक सीवर से लहुराबीर में मिलाने का कार्य प्रस्तावित है।

सब सेंट्रल व ट्रांस वरुणा जोन का प्रदूषण निवारण


वरुणा नदी में शहर के दोनों तरफ से गिरने वाले नालों के सीवेज को डायवर्ट करने के लिए दोनों किनारों पर इंटरसेप्टर सीवर प्रस्तावित है, जिसके माध्यम से सीवेज चौकाघाट पर स्पेशल मैनहोल तथा मुख्य पंपिंग स्टेशन के पंप में एकत्रित किया जाएगा। सीवेज को पंप करके राइजिंग मेन के माध्यम से वाराणसी-आजमगढ़ रोड पर स्थित संथवा गांव ले जाया जाएगा, जहां पर वेस्ट स्टेबलाइजेशन पांड (ऑक्सीजन पांड) में शोधित होना प्रस्तावित है। शोधित अवजल में कोलिफार्म की मात्रा वांछित स्तर तक कम करके इसे सिंचाई विभाग की नहर में डाल दिया जाएगा।

अस्सी-बीएचयू जोन में प्रदूषण निवारण


इस योजना के अंतर्गत बीएचयू एसटीपी भगवानपुर में 5.2 एमएलडी शोधन क्षमता की वृद्धि, नगवा नाले पर एक 50 एमएलडी क्षमता के एक नग पंपिंग स्टेशन का निर्माण तथा रमना गांव में लो कास्ट टेक्नोलॉजी पर आधारित 37 एमएलडी क्षमता के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण मुख्य रूप से प्रस्तावित है। नाला से नगवा पंपिंग स्टेशन तक 750 मिमी (ढाई फीट व्यास) की तीन किमी लंबाई में 4200 मिमी (4 फीट आकार) का इंटरसेप्टर सीवर प्रस्तावित है, जिससे सामने घाट के आसपास के क्षेत्र तथा बीएचयू के दक्षिणी पूर्व भाग में विकसित हो रहे क्षेत्र से नदी का प्रदूषण रोका जा सके।

दीनापुर एसटीपी की क्षमता वृद्धि


पुराने ट्रंक सीवर की जर्जर स्थिति को देखते हुए यह प्रस्तावित किया गया है कि इस ट्रंक सीवर से मात्र 90 एमएलडी सीवेज ही ले जाया जाए ताकि यह सीवर सुरक्षित रह सके। शेष सीवेज को प्रस्तावित द्वितीय ट्रंक सीवर में डाइवर्ट कर दिया जाएगा। कोनिया में इमरजेंसी बाइपास पाइप को नीचा करना प्रस्तावित है, ताकि विद्युत व्यवधान की स्थिति में शहर की सीवर व्यवस्था सरचार्ज न हो। इस योजना में दीनापुर एसटीपी की क्षमता 8 एमएलडी से बढ़ाकर 9.60 प्रतिदिन करने का प्रस्ताव है।

संवेदनशीलता की दरकार


दूसरे चरण के लिए केंद्र सरकार और जापान की संस्था ‘जाइका’ की ओर से करीब एक हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की धन राशि गंगा निर्मलीकरण योजना पर खर्च की जा चुकी है, लेकिन कहावत है न कि ज्यों-ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता गया। यदि उपलब्ध आंकड़ों पर ध्यान दिया जाए तो आज से लगभग बीस वर्ष पूर्व नगर की आबादी को देखते हुए 120 एमएलडी का एसटीपी लगाया गया था, किंतु नगर की जनसंख्या में लगातार वृद्धि के कारण नगर में 260 एमएलडी सीवेज सीधे गंगा में जा रहा है। नगर के विभिन्न घाटों से गंगा में मल-जल का प्रवाह निर्बाध गति से जारी है। गंगा में लगभग दो दर्जन बड़े नालों से सीधे गंगा में गिरते मलजल गंगा कार्ययोजना की सार्थकता पर सीधे सवाल खड़ा करते हैं। प्रदूषण नियंत्रण इकाई के संयंत्र से बिना शोधन के गंगा में गिरता मल-जल रही-सही कसर भी पूरा कर रहा है।

प्रख्यात नदी विशेषज्ञ व बीएचयू प्रौद्योगिकी संस्थान में गंगा प्रयोगशाला के निदेशक प्रो. यूके चौधरी का कहना है, ‘शहर की भौगोलिक परिस्थितियों को अनदेखी तथा बढ़ती आबादी का आकलन किए बिना जल्दबाजी में प्रथम चरण की योजनाओं को क्रियान्वित किया गया। इसी का परिणाम है कि गंगा जल न तो पीने योग्य है, न ही आचमन करने योग्य’ उनका कहना है, ‘गंगा जल में प्रदूषण को बढ़ावा देने वाले तत्वों में वृद्धि तो होनी ही है क्योंकि गंगा कार्ययोजना के प्रथम चरण में संपादित कार्यों में कभी इस पहलू की ओर ध्यान नहीं दिया गया कि जल में प्रदूषण की मात्रा कैसे कम की जाए। सिर्फ नदी में गिरने वाले नालों के डायवर्जन पर ही ध्यान दिया गया। वह भी पूरी तरह से अवैज्ञानिक तरीकों से।’

यही वजह है कि ‘नव उज्जवल जलधार हार हीरक सी सोहति’ जैसी उक्तियों को चरितार्थ करने वाली गंगा काशी में रुग्णावस्था को प्राप्त हो रही है। 1986 में काशी से ही गंगा कार्ययोजना की शुरुआत हुई थी, लेकिन इस कार्ययोजना में निर्मलीकरण तो दूर गंगा यहां सबसे विवादित होकर रह गई। गंगा जल की अविरलता व निर्मलता की बात तो ठीक है, लेकिन जिस तरह से गंगा तट पर बने मठ-मंदिरों से लेकर होटल या लॉजों का गंदा पानी सीधे गंगा में बह रहा है और जल को आचमन योग्य होने से रोक रहा है, उसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? आखिर, हम अपनी राष्ट्रीय नदी के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए आगे क्यों नहीं आ रहे हैं? – मनोज श्रीवास्तव और सौरभ अग्रवाल की रपटें

गंगा एक्शन प्लान गेप


(एक और दो के दो चरणों में गंगा सफाई अभियान के लिए 20,000 से 25,000 करोड़ रुपए ‘आवंटित’ किए गए हैं।)

गेप एक
1. अब तक कुल व्यय राशि 461 करोड़ रुपए
2. इनमें 190.12 करोड़ उत्तर प्रदेश
3. बिहार 53.55 करोड़ रु.
4. पश्चिम बंगाल 185.60 करोड़ रु.
5. प्रतिस्थापना मद में 22.43 करोड़ रु.

गेप दो
(गंगा और इनकी सहायक नदियों के लिए इस प्लान को 1993 और 1996 में पांच राज्यों के लिए मंजूरी दी गई थी)

1. 591 करोड़ रुपए आबंटित खर्च के लिए था
2. 505 करोड़ रुपए (केंद्र और राज्य मिलाकर) अब तक खर्च किए जा चुके हैं
3. 264 कुल परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं
4. इस चरण में गंगा की सहायक नदियों यमुना
5. और गोमती को भी परियोजना में शामिल किया गया

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Post By: pankajbagwan
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