हल्द्वानी। हल्द्वानी के तीन पानी से गौला पार को जाने वाली बाईपास रोड पर फैले कूड़े के ढेरों से फैलती बदबू ने राहगीरों का राह पर चलना दुश्वार कर दिया है। हाइवे के एक ओर कूड़े का ढेर तो दूसरी ओर स्लाटर हाउस से फैलती गंदगी ने सुनहरे मार्ग की शोभा को बदहाली में बदल डाला है। कूड़ा निस्तारण का कोई उपाय नहीं किया गया है। इस क्षेत्र में फैलती गंदगी ने पर्यावरण का भी नाश कर दिया है। विदित हो कि लाख कोशिशों के बाद भी प्लास्टिक कचरे का निस्तारण नहीं हो पा रहा है।
स्वयंसेवी संगठनों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कई बार लोगों को जागरूक करने का प्रयास भी किया, लेकिन कोई खास परिवर्तन देखने में नहीं आया। नगरपालिका व जिला प्रशासन ने पॉलीथीन के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की। इसके बावजूद इसका चलन कम नहीं हुआ। आज स्थिति विस्फोटक बनती जा रही है। गौला पार का जंगल गंदगी की चपेट में आता जा रहा है और पर्यावरण के पहरुए यह सब तमाशा देख रहे हैं। बहरहाल इस पर शीघ्र नियंत्रण के उपाय जरूरी हो गए हैं।
जैसे-जैसे आबादी बढ़ती जा रही है, शहरीकरण होता जा रहा है वैसे-वैसे बीमारियों का संक्रमण भी फैलता जा रहा है। जिन बीमारियों का छोटे शहरों, कस्बों और गाँव में कोई नाम भी नहीं जानता था वह अब आम हो गई हैं। स्पष्ट है जहाँ बीमारी आई वहाँ इलाज की व्यवस्था भी होगी, इसी कारण कुमाऊँ के सभी छोटे-बड़े शहरों में निजी चिकित्सालय हैं, उनमें मरीजों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो गई है। इसी के साथ अस्पतालों से निकलने वाले हर तरह के कचरे के निस्तारण की समस्या भी आवश्यक हो गई है।
पहले आबादी कम होने, शहर के बाहर कूड़ा-कचरा इकट्ठा करने की जगह पर्याप्त होने के कारण कचरे की बड़ी समस्या नहीं थी। फिर पहले आज की तरह का होने वाला प्लास्टिक और न सड़ने वाला सामान भी नहीं होता था, जिसके कारण जो कचरा होता वह सब आसानी से सड़ जाता था। प्लास्टिक के सामान के प्रचलन और खतरनाक बीमारियों के फैलने से इस कचरे के खतरों को हजारों गुना बढ़ा दिया है। उदाहरण के लिये पहले सबसे ज्यादा संक्रमित बीमारियों में टीबी और कोढ़ प्रमुख माना जाता था। जिनके इलाज के लिये शहर के बाहर या सामान्य मरीजों से अलग व्यवस्था की जाती थी, परन्तु अब ऐसा नहीं होता है। अब कहीं नहीं सुना जाता है कि संक्रमित बीमारियों के लिये अलग से कोई अस्पताल खुला हो। सभी मरीजों का इलाज सभी अस्पतालों और सभी डॉक्टरों के द्वारा हो रहा है। विशेषज्ञों की बात अलग है। ऐसे में स्थिति विस्फोटक हो गई है। संक्रमित बीमारियों का खतरा हर गली-मोहल्ले तक पहुँच गया है।
अभी तक प्रचार माध्यम एड्स जैसी प्राणघातक बीमारियों के खतरों से भरे रहते थे। पिछले कुछ समय से हेपेटाइटिस बी और सी जैसी बीमारियों के फैलाव के खतरों और उसके भयावहता के समाचार आने लगे हैं।एड्स जानलेवा है इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन उसके मरीज को छूने, साथ बैठने, साथ खाना खाने से संक्रमण नहीं होता है। उसके द्वारा प्रयोग की गई चिकित्सा सामग्री के उपयोग से संक्रमण की आशंका रहती है, लेकिन हेपेटाइटिस बी ऐसी खतरनाक बीमारी है जिसके मरीज को छूने, उसके प्रयोग किये गये हर सामान को छूने, प्रयोग करने से इस जानलेवा बीमारी के लगने और फैलने की आशंका रहती है। इसके मरीज से मिलने वाला थूक, लार, खून, मूत्र आदि सभी पूरी तरह संभावना रहती है। यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि हैपेटाइटिस बी जिससे जिगर का संक्रमण होता है और जिसके मरीज के कभी ठीक होने की संभावना नहीं रहती, आने वाले समय में सबसे बड़ा खतरा बनने जा रहा है। इसलिये इस बीमारी को एड्स से 100 गुना खतरनाक बीमारी कहा जाता है।
हमारे शहरों, कस्बों और गाँवों में खुलने वाले अस्पतालों, चिकित्सालयों या पुराने वाले अस्पताल इस खतरे से निपटने में असमर्थ हैं। इसलिये यह खतरा बहुत तेजी से बढ़ रहा है। इस खतरे से निपटने व इसे दूर करने के उपाय हैं, लेकिन लापरवाही की स्थाई संस्कृति के पनपने से इस खतरे को दूर करने या निपटने का स्थाई समाधान खोजना कठिन हो रहा है। इस विषय में प्रशासनिक उदासीनता के कारण देश की अदालतें सक्रिय हुई हैं, लेकिन उनकी सक्रियता अभी राजधानियों और बड़े शहरों तक ही सीमित है। छोटे शहरों में उनके निर्देश अभी तक नहीं पहुँचे हैं। यदि पहुँचे भी हैं तो स्थानीय स्तर पर ऊँची अदालतों के आदेशों के निरीक्षण मॉनीटरिंग की व्यवस्था नहीं होने से ऊँची अदालतों के आदेशों-निर्देशों का लाभ छोटे कस्बों शहरों को नहीं हो पा रहा है।
इस विषय में भी यही हो रहा है। उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में इस समस्या पर विचार हो चुका है और उसने इस समस्या के निस्तारण के लिये आवश्यक निर्देश भी दिये हैं। जिनके पालन के लिये बड़े शहरों की मशीनरी सक्रिय हैं। न्यायालयों ने अस्पतालों के कचरे को 100 प्रतिशत निस्तारित करने के जो निर्देश दिये हैं। उनमें इस कचरे को विद्युत धमन भट्टियों (इंसीनिरेटर) में पूरी तरह जलाकर उसके राख को गाड़ देने के निर्देश हैं। कुमाऊँ की स्थिति इस विषय में निराशाजनक है। यहाँ के अस्पतालों में न तो अभी इंसीनिरेटर लगे हैं और न लगने की कोई संभावना दिखती है। फिर उससे निकलने वाले धुएँ को जहरीला बताया जा रहा है। जिसके आधार पर इंसीनिरेटर लगाने की योजना खटाई में पड़ रही है।
जैसा कि चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि इंसीनिरेटर लगाने से खतरे हैं। उसका धुँआ खतरनाक होता है। उससे जहरीली गैस निकलती है, तब इस समाधान का निस्तारण क्या हो? वे कहते हैं कि अस्पतालों के कचरे को विसंक्रमित करने की व्यवस्था होनी चाहिए। मरहम पट्टी आदि का कचरा अस्पताल में एक किनारे बने गड्ढे में जला दिया जाता है। अन्य कचरे को क्लोरीन के घोल में 10 मिनट तक डुबा कर फिर उसके टुकड़े करके उसे गड्ढे में दबा दिया जाता है, जिससे इसका खतरा नहीं है।
पूरे अस्पताल के कर्मचारियों को इस प्रक्रिया का बकायदा प्रशिक्षण दिलाया गया है, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इस तरह सभी कचरा विसंक्रमित हो रहा है? शायद नहीं। एक तो कर्मचारी ऐसे झंझट में नहीं पड़ते, फिर इस काम के लिये कोई बजट नहीं है और सबसे बड़ा कारण यह है कि उसमें जिम्मेदारी की व्यवस्था नहीं है। एक और प्रश्न है कि क्या प्रतिदिन अच्छी खासी मात्रा में होने वाला व कभी न गलने वाला कचरा क्या 8 गुणा 6 फीट के गड्ढे में हमेशा रहेगा? क्या इसके लिये और जगह की आवश्यकता नहीं होगी? इन्हीं सब कारणों से यह योजना व्यवहार में नहीं आ रही है। इसका फल यह हो रहा है कि अस्पताल का प्लास्टिक कचरा खुलेआम बिक रहा है। अस्पतालों से सार्वजनिक रूप से निकाल कर कर्मचारी बेच रहे हैं। जिससे यह खतरा बहुत बढ़ गया है। न्यायालय के निर्देशानुसार किसी किस्म का कचरा बिना ढके कहीं निस्तारण के लिये ले जाना भी अपराध है और यहाँ स्थिति यह है कि अस्पताल का कचरा भी खुलेआम मोहल्लों, गलियों में फेंका जा रहा है या फिर ठेलों में ले जाकर कबाड़ी की दुकान में ले जाया जा रहा है।
हैपेटाइटिस बी फैल रहा है यह सभी जानते हैं, इसलिये उसके खतरे भी स्थाई हैं। वह कम नहीं हो सकते हैं। इस खतरनाक कचरे के इस तरह के फैलाव से कितना खतरा बढ़ गया है, यह आसानी से समझा जा सकता है। सबसे अधिक खतरा हलद्वानी शहर को है जो पूरे कुमाऊँ की थोक कचरा मण्डी बन गया है। जहाँ के आजाद नगर और वनभूलपुरा मोहल्ले में अनेक दुकानें मिला-जुला कचरा खरीद रही हैं। आशंका है कि शहर में बढ़ते हुए हैपेटाइटिस बी के केसों से यह शहर संकट में न फँस जाए।
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