कुत्ते का तालाब! जी हां एक दम सच।
गाजियाबाद के लालकुंआ से लगभग एक से डेढ़ किलोमीटर दूर चिपियाना ग्राम में स्थित है कुत्ते का तालाब एवं समाधि। इस देश को भगवान का वरदान कहें या अंधविश्वास अथवा आस्था कि कहीं कोढ़ को, कहीं बाय को तो कहीं कुत्ते के काटे को ठीक करने वाले कुएं अथवा तालाब हैं। इस कुत्ते के तालाब में नहाने मात्र से कुत्ते काटे का असर दूर हो जाता है। यह केवल अंधविश्वास, ही नहीं वरन् एक दम सच है। दूर-दूर से ऐसे मरीज यहां स्नान करके अपने पहने हुए कपड़े छोड़ देते हैं। समाधि पर स्थित कुत्ते की प्रतिमा के चरण स्पर्श करके अपनी श्रद्धानुसार कुछ दक्षिणा चढ़ाते हैं और ठीक हो जाते हैं। इन अनुष्ठानों को करने से मरीज के अकड़ाहट आदि लक्षण तुरन्त समाप्त हो जाते हैं।
इस तालाब का सीधा सम्बन्ध यहां से लगभग एक सौ किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर जनपद स्थित ‘नरा’ गांव से हैं। ‘नरा’ में भी एक टीले पर इसी लक्खी बनजारे एवं कुत्ते की समाधि बनी है। यह नष्टप्राय समाधि चारों ओर से खुली थी। जिसके बीच में तो लक्खी एवं उसकी पत्नी की समाधि बनी थी और छत में इस स्वामी भक्त कुत्ते की तस्वीर बनी थी। कुत्ते और लक्खी की कहानी जानने से पूर्व नरा के रोचक इतिहास को भी जानना आवश्यक है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि नरा का पूर्ववर्ती नाम ‘नरवरगढ़’ था। यहां का राजा नल था। नल दमयन्ती की कहानी अत्यधिक प्रसिद्ध है। नल के पुत्र ढोला का विवाह पिंगल गढ़ की राजकुमारी एवं राजा बुध की पुत्री मरवन से हुआ था। (यह नल पौराणिक नहीं बल्कि बाद के हैं।) लोक गाथाओं में आल्हा एवं बारह मासा की तर्ज पर गाया जाने वाला यह ढोला-मारूं (मरवन) का किस्सा कंवर निहालदे के रूप में प्रसिद्ध है। इसके अनुसार बन्जारों ने नरवर गढ़ पर हमला भी किया था। इस संदर्भ में निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं:
जितने संग में है बणजारे बड़े मर्द नहीं हटने हारे।
उनसे डरते राजा सारे, ये भी वहां थर्रायेगा।।
जो लड़े सो पछतावे।
मुगल काल में यह ‘बारह सादात’ (देखें बाय वाला कुआं) में सैयदों की जागीर रहा। ये सैयद दिल्ली बादशाह के यहां ऊंचे-ऊंचे पदों पर प्रतिष्ठित थे। उस समय यह नरीवाला खेड़ा एव नरागढ़ी दो भागों में विभक्त था। नरागढ़ी बारह सादात में थी और नरी वाला खेड़ा यहां के ब्राह्मणों के अधिकार में था। ये ब्राह्मण भी लड़ाकू एवं योद्धा थे। डर नाम की चीज का इन्हें पता नहीं था। सदैव शस्त्रों से लैस रहना इनका स्वभाव था। सैयद दिल्ली रहते थे और उनकी बेगमें नरागढ़ी में। ये ब्राह्मण बलपूर्वक उनकी फसल लूट लेते थे। बेगमों की शिकायत पर सैय्यदों ने दिल्ली से घर आने की खुशी का बहाना बना कर ब्राह्मणों को भोजन का निमंत्रण भेज दिया। सभी ब्राह्मण परम्परा के अनुसार अपने शस्त्र बाहर रख कर केवल अधोवस्त्र (धोती) में जमीन पर बैठ गये तो सैयदों ने उनके सिर कलम कर दिये। किसी प्रकार उनकी एक गर्भवती स्त्री भाग कर परीक्षितगढ़ के राजा जैत सिंह के राज ज्योतिषी पं. बीरूदत्त के पास भोखाहेड़ी (जानसठ के पास) जा पहुंची और उसको समस्त घटना सुनाई। जैत सिंह के आदेश पर नैन सिंह दो सौ जवानों के साथ आया और गढ़ी को बर्बाद कर के ब्राह्मणों का बदला चुकाया। गढ़ी को लूट कर उसमें आग लगा दी। (सन 1750 ई. के आसपास)।
बेगमों ने हीरे-जवाहरात आदि तो उठा लिए परन्तु हथियार और सोना आदि कुंए में डाल दिया और दिल्ली चली गईं। इस प्रकार सैय्यदों का अध्याय समाप्त हुआ और गढ़ी की शेष जनता दूर-दूर जा बसी। गढ़ी को झाड़-झंखाड़ों ने अपने आगोश में ले लिया।
कुछ समय पश्चात् शाहआलम द्वितीय की फौज से आये हुए तीन राजपूत और एक बाल्मिकी सिपाही ने आकर इसको आबाद किया। यहां से पलायन किये हुए कई परिवारों को भी वापिस लाकर उन्होंने पुनः बसाया। इन परिवारों में वर्तमान के लाल सिंह एवं विश्वम्भर धीमान के पूर्वज एवं बल्लन व जमैल सैनी के पूर्वज थे जिन्हें पास के बुपैड़ा ग्राम से लाया गया था।
गढ़ी का वह कुआं जिसमें शस्त्र और सोना आदि डाला गया था वर्तमान में शरीफ पुत्र शकरूल्ला के मकान में आकर बन्द हो चुका है। इस नरवरगढ़ के 52 कुएं जमींदोज हो चुके हैं। आज भी यहां गढ़ी-महलों के अवशेष दबे पड़े हैं। लगभग 15 फीट तक गहरे खोदने पर भी नींव का तल प्राप्त नहीं होता। खुदाई करने पर अनेक रहस्यों से पर्दा उठ सका है।
बनजारा (पहले घूम-घूम कर बणज/व्यापार करने वाले को बनजारा कहा जाता था) किसी का कर्जदार हो गया। कर्जा चुकाने के दबाव में आकर लक्खी ने अपना स्वामी भक्त कुत्ता साहूकार को अमानत के तौर पर सौंप दिया। साहूकार के यहां डकैती पड़ी। कुत्ते ने पीछा किया। डकैतों ने चोरी का धन इस तालाब में डाल दिया। सुबह होने पर मालिकों के साथ जा कर कुत्ते ने वह धन बरामद करा दिया। साहूकार ने एक कागज पर ‘कुत्ते ने कर्जा उतार दिया’ जैसा कुछ लिखकर कुत्ते के गले में बांधकर उसे छोड़ दिया। कुत्ते को लक्खी बंजारे ने आता देखा और उसे गद्दार समझकर दूर से ही गोली मार दी। कुत्ता मर गया। पास आकर गले का कागज पढ़ा तो बहुत पछताया और रोया। तभी से कहावत प्रसिद्ध हुई कि ‘ऐसे पछतायेगा जैसे कुत्ते को मार कर बनजारा पछताया था’ । बाद में लक्खी ने भी कुत्ते के शोक में आत्महत्या कर ली। उसकी पत्नी सती हो गई। इस प्रकार कुत्ते ने धन चिपियाना (गाजियाबाद) में बरामद कराया तो नरा में उसको गोली लगी। दोनों स्थानों पर कुत्ते की समाधि बनाई गई। नरा में बनजारा एवं कुत्ते की समाधि के नाम लगभग 30 बीघा भूमि थी जो कि शासन-प्रशासन ने गत योजना में दलितों को दे दी। अब केवल कुछ गज भूमि में समाधि स्थल ही शेष बचा है। वह भी समाप्तप्राय सा है।
तालाब पर पहले लक्खी बनजारा, उसकी पत्नी एवं कुत्ते की प्रतिमाएं लगी थीं। किसी कारण दोनों प्रतिमाएं नष्ट हो गई और केवल कुत्ते की शेष रह गई। एक बार समीप के जलालपुर गांव का एक कुम्हार कुत्ते की प्रतिमा चोरी से लेकर चला। कुछ दूर जाने पर कुम्हार पागल हो गया और कुत्ते की प्रतिमा को वहीं छोड़ कर चला गया। ग्रामवासियों ने उस प्रतिमा को पुनः स्थापित किया।
एक बार इसी गांव के कुछ अराजक तत्वों ने खजाने की खोज में समाधि को खोद डाला और कुत्ते की प्रतिमा तोड़ दी। पता चलने पर शेष गांव वालों ने उन्हें रोका तो उनमें झगड़ा हुआ, दो-चार मौंतें भी हुई। खजाना वहां नहीं मिला। कुछ दिन पश्चात लक्खी बनजारे के काफिले से सम्बन्धित कुछ लोग बहुत से ऊंट लेकर आये और दोनों बम्हेटा (पास ही बम्हेटा नाम के दो गांव हैं) के बीच में किसी स्थान पर खुदाई कर खजाना निकाल कर ले गये (सम्भवतः लक्खी की मृत्यु के वर्षों पश्चात्)।
इतिहास खोजने पर ज्ञात होता है कि लक्खी बनजारा लक्खी (लखपति) ही नहीं बल्कि कोरड़ी (करोड़पति) मारवाड़ी बनजारा था। प्रसिद्ध लेखक एवं चिन्तक आचार्य दीपंकर अपनी पुस्तक ‘स्वाधीनता आंदोलन और मेरठ’ में लिखते हैं कि “वह करोड़पति बनजारा अंग्रेजी राज का घोर शत्रु था”। उसने आगरा से मुजफ्फरनगर तक अपने ठहरने के पड़ावों पर 400 कुएं बना रखे थे। ग्रामीण कहावत है कि ‘लक्खी बनजारा अपना ही पानी पीता था’ अर्थात् वह जहां भी ठहरता था वहीं कुआं बनाता था। उसने 1857 के अस्थिर दिनों में भांभोरी (सरधना-मेरठ) एवं छुर ग्रामीणों को अपने काफिले में मिला कर उनकी सहायता भी की थी। इसका अर्थ है कि 1857 के आस-पास का समय लक्खी का स्वर्ण काल था। इस आधार पर कुत्ते का तालाब इससे भी बहुत पूर्व का है।
चोरों द्वारा तोड़ी गई कुत्ते की प्रतिमा का सिर वर्तमान समाधि के नीचे दबा है एवं ऊपर ग्रामीणों द्वारा नवीन प्रतिमा स्थापित है।
गाजियाबाद के लालकुंआ से लगभग एक से डेढ़ किलोमीटर दूर चिपियाना ग्राम में स्थित है कुत्ते का तालाब एवं समाधि। इस देश को भगवान का वरदान कहें या अंधविश्वास अथवा आस्था कि कहीं कोढ़ को, कहीं बाय को तो कहीं कुत्ते के काटे को ठीक करने वाले कुएं अथवा तालाब हैं। इस कुत्ते के तालाब में नहाने मात्र से कुत्ते काटे का असर दूर हो जाता है। यह केवल अंधविश्वास, ही नहीं वरन् एक दम सच है। दूर-दूर से ऐसे मरीज यहां स्नान करके अपने पहने हुए कपड़े छोड़ देते हैं। समाधि पर स्थित कुत्ते की प्रतिमा के चरण स्पर्श करके अपनी श्रद्धानुसार कुछ दक्षिणा चढ़ाते हैं और ठीक हो जाते हैं। इन अनुष्ठानों को करने से मरीज के अकड़ाहट आदि लक्षण तुरन्त समाप्त हो जाते हैं।
इस तालाब का सीधा सम्बन्ध यहां से लगभग एक सौ किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर जनपद स्थित ‘नरा’ गांव से हैं। ‘नरा’ में भी एक टीले पर इसी लक्खी बनजारे एवं कुत्ते की समाधि बनी है। यह नष्टप्राय समाधि चारों ओर से खुली थी। जिसके बीच में तो लक्खी एवं उसकी पत्नी की समाधि बनी थी और छत में इस स्वामी भक्त कुत्ते की तस्वीर बनी थी। कुत्ते और लक्खी की कहानी जानने से पूर्व नरा के रोचक इतिहास को भी जानना आवश्यक है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि नरा का पूर्ववर्ती नाम ‘नरवरगढ़’ था। यहां का राजा नल था। नल दमयन्ती की कहानी अत्यधिक प्रसिद्ध है। नल के पुत्र ढोला का विवाह पिंगल गढ़ की राजकुमारी एवं राजा बुध की पुत्री मरवन से हुआ था। (यह नल पौराणिक नहीं बल्कि बाद के हैं।) लोक गाथाओं में आल्हा एवं बारह मासा की तर्ज पर गाया जाने वाला यह ढोला-मारूं (मरवन) का किस्सा कंवर निहालदे के रूप में प्रसिद्ध है। इसके अनुसार बन्जारों ने नरवर गढ़ पर हमला भी किया था। इस संदर्भ में निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं:
जितने संग में है बणजारे बड़े मर्द नहीं हटने हारे।
उनसे डरते राजा सारे, ये भी वहां थर्रायेगा।।
जो लड़े सो पछतावे।
मुगल काल में यह ‘बारह सादात’ (देखें बाय वाला कुआं) में सैयदों की जागीर रहा। ये सैयद दिल्ली बादशाह के यहां ऊंचे-ऊंचे पदों पर प्रतिष्ठित थे। उस समय यह नरीवाला खेड़ा एव नरागढ़ी दो भागों में विभक्त था। नरागढ़ी बारह सादात में थी और नरी वाला खेड़ा यहां के ब्राह्मणों के अधिकार में था। ये ब्राह्मण भी लड़ाकू एवं योद्धा थे। डर नाम की चीज का इन्हें पता नहीं था। सदैव शस्त्रों से लैस रहना इनका स्वभाव था। सैयद दिल्ली रहते थे और उनकी बेगमें नरागढ़ी में। ये ब्राह्मण बलपूर्वक उनकी फसल लूट लेते थे। बेगमों की शिकायत पर सैय्यदों ने दिल्ली से घर आने की खुशी का बहाना बना कर ब्राह्मणों को भोजन का निमंत्रण भेज दिया। सभी ब्राह्मण परम्परा के अनुसार अपने शस्त्र बाहर रख कर केवल अधोवस्त्र (धोती) में जमीन पर बैठ गये तो सैयदों ने उनके सिर कलम कर दिये। किसी प्रकार उनकी एक गर्भवती स्त्री भाग कर परीक्षितगढ़ के राजा जैत सिंह के राज ज्योतिषी पं. बीरूदत्त के पास भोखाहेड़ी (जानसठ के पास) जा पहुंची और उसको समस्त घटना सुनाई। जैत सिंह के आदेश पर नैन सिंह दो सौ जवानों के साथ आया और गढ़ी को बर्बाद कर के ब्राह्मणों का बदला चुकाया। गढ़ी को लूट कर उसमें आग लगा दी। (सन 1750 ई. के आसपास)।
बेगमों ने हीरे-जवाहरात आदि तो उठा लिए परन्तु हथियार और सोना आदि कुंए में डाल दिया और दिल्ली चली गईं। इस प्रकार सैय्यदों का अध्याय समाप्त हुआ और गढ़ी की शेष जनता दूर-दूर जा बसी। गढ़ी को झाड़-झंखाड़ों ने अपने आगोश में ले लिया।
कुछ समय पश्चात् शाहआलम द्वितीय की फौज से आये हुए तीन राजपूत और एक बाल्मिकी सिपाही ने आकर इसको आबाद किया। यहां से पलायन किये हुए कई परिवारों को भी वापिस लाकर उन्होंने पुनः बसाया। इन परिवारों में वर्तमान के लाल सिंह एवं विश्वम्भर धीमान के पूर्वज एवं बल्लन व जमैल सैनी के पूर्वज थे जिन्हें पास के बुपैड़ा ग्राम से लाया गया था।
गढ़ी का वह कुआं जिसमें शस्त्र और सोना आदि डाला गया था वर्तमान में शरीफ पुत्र शकरूल्ला के मकान में आकर बन्द हो चुका है। इस नरवरगढ़ के 52 कुएं जमींदोज हो चुके हैं। आज भी यहां गढ़ी-महलों के अवशेष दबे पड़े हैं। लगभग 15 फीट तक गहरे खोदने पर भी नींव का तल प्राप्त नहीं होता। खुदाई करने पर अनेक रहस्यों से पर्दा उठ सका है।
बनजारा (पहले घूम-घूम कर बणज/व्यापार करने वाले को बनजारा कहा जाता था) किसी का कर्जदार हो गया। कर्जा चुकाने के दबाव में आकर लक्खी ने अपना स्वामी भक्त कुत्ता साहूकार को अमानत के तौर पर सौंप दिया। साहूकार के यहां डकैती पड़ी। कुत्ते ने पीछा किया। डकैतों ने चोरी का धन इस तालाब में डाल दिया। सुबह होने पर मालिकों के साथ जा कर कुत्ते ने वह धन बरामद करा दिया। साहूकार ने एक कागज पर ‘कुत्ते ने कर्जा उतार दिया’ जैसा कुछ लिखकर कुत्ते के गले में बांधकर उसे छोड़ दिया। कुत्ते को लक्खी बंजारे ने आता देखा और उसे गद्दार समझकर दूर से ही गोली मार दी। कुत्ता मर गया। पास आकर गले का कागज पढ़ा तो बहुत पछताया और रोया। तभी से कहावत प्रसिद्ध हुई कि ‘ऐसे पछतायेगा जैसे कुत्ते को मार कर बनजारा पछताया था’ । बाद में लक्खी ने भी कुत्ते के शोक में आत्महत्या कर ली। उसकी पत्नी सती हो गई। इस प्रकार कुत्ते ने धन चिपियाना (गाजियाबाद) में बरामद कराया तो नरा में उसको गोली लगी। दोनों स्थानों पर कुत्ते की समाधि बनाई गई। नरा में बनजारा एवं कुत्ते की समाधि के नाम लगभग 30 बीघा भूमि थी जो कि शासन-प्रशासन ने गत योजना में दलितों को दे दी। अब केवल कुछ गज भूमि में समाधि स्थल ही शेष बचा है। वह भी समाप्तप्राय सा है।
तालाब पर पहले लक्खी बनजारा, उसकी पत्नी एवं कुत्ते की प्रतिमाएं लगी थीं। किसी कारण दोनों प्रतिमाएं नष्ट हो गई और केवल कुत्ते की शेष रह गई। एक बार समीप के जलालपुर गांव का एक कुम्हार कुत्ते की प्रतिमा चोरी से लेकर चला। कुछ दूर जाने पर कुम्हार पागल हो गया और कुत्ते की प्रतिमा को वहीं छोड़ कर चला गया। ग्रामवासियों ने उस प्रतिमा को पुनः स्थापित किया।
एक बार इसी गांव के कुछ अराजक तत्वों ने खजाने की खोज में समाधि को खोद डाला और कुत्ते की प्रतिमा तोड़ दी। पता चलने पर शेष गांव वालों ने उन्हें रोका तो उनमें झगड़ा हुआ, दो-चार मौंतें भी हुई। खजाना वहां नहीं मिला। कुछ दिन पश्चात लक्खी बनजारे के काफिले से सम्बन्धित कुछ लोग बहुत से ऊंट लेकर आये और दोनों बम्हेटा (पास ही बम्हेटा नाम के दो गांव हैं) के बीच में किसी स्थान पर खुदाई कर खजाना निकाल कर ले गये (सम्भवतः लक्खी की मृत्यु के वर्षों पश्चात्)।
इतिहास खोजने पर ज्ञात होता है कि लक्खी बनजारा लक्खी (लखपति) ही नहीं बल्कि कोरड़ी (करोड़पति) मारवाड़ी बनजारा था। प्रसिद्ध लेखक एवं चिन्तक आचार्य दीपंकर अपनी पुस्तक ‘स्वाधीनता आंदोलन और मेरठ’ में लिखते हैं कि “वह करोड़पति बनजारा अंग्रेजी राज का घोर शत्रु था”। उसने आगरा से मुजफ्फरनगर तक अपने ठहरने के पड़ावों पर 400 कुएं बना रखे थे। ग्रामीण कहावत है कि ‘लक्खी बनजारा अपना ही पानी पीता था’ अर्थात् वह जहां भी ठहरता था वहीं कुआं बनाता था। उसने 1857 के अस्थिर दिनों में भांभोरी (सरधना-मेरठ) एवं छुर ग्रामीणों को अपने काफिले में मिला कर उनकी सहायता भी की थी। इसका अर्थ है कि 1857 के आस-पास का समय लक्खी का स्वर्ण काल था। इस आधार पर कुत्ते का तालाब इससे भी बहुत पूर्व का है।
चोरों द्वारा तोड़ी गई कुत्ते की प्रतिमा का सिर वर्तमान समाधि के नीचे दबा है एवं ऊपर ग्रामीणों द्वारा नवीन प्रतिमा स्थापित है।
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