कुपोषण से होने वाली बीमारियां और उनसे बचाव

कुपोषण से होने वाली बीमारियां और उनसे बचाव
कुपोषण से होने वाली बीमारियां और उनसे बचाव

एक कुपोषित बच्चे में सही समय पर कुपोषण की पहचान और सही निदान बहुत महत्त्वपूर्ण है, ताकि कुपोषण से बच्चे पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को रोका जा सके और समय रहते बेहतर इलाज किया जा सके। शरीर में पर्याप्त मात्रा में पोषक-तत्वों के स्तर को बनाए रखने के लिए संतुलित आहार लेना जरूरी है। 888 विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक बच्चों में कुपोषण की समस्या पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। विश्व भर में 15 करोड़ से अधिक बच्चे कुपोषण प्रभावित हैं। आंकड़ों के अनुसार पांच साल के कम उम्र के बच्चों की मौतों में से आधी कुपोषण के कारण ही होती हैं।

यूं तो कुपोषण सभी उम्र के लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है लेकिन गर्भवती महिला और शिशु के आरम्भिक वर्षों में बेहतर पोषण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। बच्चे के मस्तिष्क और शारीरिक विकास के लिए आवश्यक है कि वाटामिन, कैल्शियम, आयरन, वसा और कार्बोहाइड्रेट वाले पोषक तत्वों के साथ संतुलित आहार बच्चे और माँ को दिया जाए। जब बच्चे को आवश्यक पोषक तत्व, खनिज और कैलोरी प्राप्त नहीं होते, जो बच्चे के अंगो के विकास में मदद करते हैं तब बच्चे का शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। कुपोषण के कारण बच्चे के शारीरिक व मानसिकता विकास में रुकावट ही नहीं बल्कि मानसिक विकलांगता, जी.आई. ट्रैक्ट संक्रमण, एनीमिया और यहां तक कि मृत्यु भी हो सकती है। शोधों के अनुसार कुपोषण न केवल पोषक तत्वों की कमी के कारण होता है, बल्कि अत्यधिक सेवन के कारण भी समस्या हो सकती है।

बच्चों में कुपोषण की एक बड़ी चुनौती स्टंटिंग और वेस्टिंग (सामान्य भाषा में नाटापन और दुबलापन) के रूप में सामने आई है। स्टंटिंग (नाटापन) से तात्पर्य है उम्र के अनुसार बच्चे की लम्बाई का विकास न होना और वेस्टिंग (दुबलापन) यानी बच्चे का लम्बाई के अनुपात में कम वजन होना। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2015-16 में, पांच साल से कम उम्र के 38.4 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग से ग्रसित थे और 35.8 प्रतिशत बच्चों में कम वजन की समस्या थी। ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2018 के अनुसार, भारत में दुनिया के सर्वाधिक ‘स्टंटेड’ बच्चे और ‘वेस्टेड’ बच्चे पाए गए हैं। भारत में विश्व के सर्वाधिक 4.66 करोड़ स्टंटेड बच्चे हैं (स्टंटेड बच्चों की कुल संख्या का लगभग एक तिहाई), इसके बाद नाइजीरिया (1.39 करोड़) और पाकिस्तान (1.07 करोड़) हैं।

देश के मध्य और उत्तरी जिलों में सबसे अधिक स्टंटेड बच्चों की संख्या पाई जाती है। उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में 65.1 प्रतिशत बच्चे स्टंटेड हैं, जो देश में सबसे बड़ा आंकड़ा है। आस-पास के जिलों श्रावस्ती और बलरामपुर में दूसरे और तीसरे स्थान पर सबसे अधिक संख्या में स्टंटेड बच्चे हैं।

विश्व बैंक के अनुसार, ‘बचपन में स्टंटिंग के कारण वयस्क की औसत ऊंचाई में 1 प्रतिशत की कमी, आर्थिक उत्पादकता में 1.4 प्रतिशत के दर से नुकसान पहुंचा रही है। स्टंटिंग का भविष्य की पीढ़ियों पर भी प्रभाव पड़ता है। साल 2015-16 में 53.1 प्रतिशत महिलाएं रक्तहीनता या एनीमिया से पीड़ित थीं, इसलिए भविष्य में उनके गर्भधारण और बच्चों पर इसका स्थाई प्रभाव पड़ेगा। इसके अलावा, स्थिति तब और बिगड़ जाती है जब शिशुओं को अपर्याप्त आहार खिलाया जाता है।’

रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के आधे से अधिक बच्चे ‘वेस्टिंग’ से प्रभावित हैं, जो दक्षिण एशिया में रहते हैं। इन तीन देशों में, जो विश्व के स्टंटेड बच्चों के लगभग आधे (47.2 प्रतिशत) का घर हैं, दो देश एशिया में हैं, जिनमें भारत 4.66 करोड़ (31 फीसदी) और पाकिस्तान के पास 1.07 करोड़ बच्चे हैं। भारत उन देशों के समूह में भी शामिल है जहाँ 10 लाख से ज्यादा अधिक वजन वाले यानी मोटापे के शिकार बच्चे हैं। जहाँ अधिक वजन वाले बच्चे पाए जाते हैं, उन देशों में भारत सहति चीन, इंडोनेशिया, मिस्र, अमरिका, ब्राजील और पाकिस्तान भी शामिल हैं।

कुपोषण या दीर्घकालिक कुपोषण कहे जाने वाले ‘वेस्टिग’ और ‘स्टंटिंग’ के कारण बच्चा अपनी उम्र के अनुसार वजन/लम्बाई में नहीं बढ़ता है। यदि बच्चे के पोषण की जरूरतों में सुधार किया जाए, तो बच्चे में वजन सम्बन्धी कमियों को सुधारा जा सकता है, पर बच्चे की लम्बाई में आई कमियों को सही करना चुनौतीपूर्ण है। बच्चे में स्टंटिंग का सम्बन्ध जन्म से पहले, गर्भावस्था के दौरान माँ के खराब स्वास्थ्य से होता है। स्टंटिंग लम्बे समय तक चलती है और इसीलिए इसके दीर्घगामी परिणाम भी दिखाई देते हैं। स्टंटिंग के मुख्य कारण स्तनपान न कराना, पोषक तत्वों की अपर्याप्त आपूर्ति और निरंतर संक्रमण का शिकार होना है। स्टंटिंग बच्चे के लिए खतरनाक है, क्योंकि एक उम्र के बाद इसे ठीक नहीं किया जा सकता है। इसलिए गर्भवती महिलाओं के लिए गर्भावस्था के दौरान उचित स्वास्थ्य और जन्म के बाद बच्चे की व्यापक देखभाल सुनिश्चित करना बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

कुपोषण का एक बड़ा कारण शरीर में विटामिन ए,बी,सी,और डी की कमी के साथ-साथ, फोलेट, कैल्शियम, आयोडीन, जिंक और सेलेनियम की कमी भी है। इन पोषक तत्वों में से प्रत्येक शरीर में महत्त्वपूर्ण अंगों के विकास और कार्य में सहायता करता है और इसकी कमी से अपर्याप्त विकास और एनीमिया, अपर्याप्त मस्तिष्क विकास, थाइरॉयड की समस्या, रिकेट्स, प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होना, तंत्रिका का अधपतनः नजर कमजोर होना और हड्डियों का अपर्याप्त विकास आदि जैसे रोग हो सकते हैं। विटामिन ए की कमी से खसरा और डायरिया जैसी बीमारियों का संक्रमण बढ़ जाता है। लगभग 40 प्रतिशत बच्चों को पूर्ण टीकाकरण और विटामिन ए की खुराक नहीं मिल पाती है।

‘वेस्टिंग’ तीव्र कुपोषण के चलते अचानक व बहुत अधिक वजन घटने की स्थिति है। वेस्टिंग क्वाशिरकोर, मरास्मस और मरास्मिक-क्वाशिरकोर के मिश्रण के रूप में दिखाई देती है। क्वाशिरकोर में, पैरों और पंजों में द्रव के अवरोध के कारण कम पोषण के बावजूद बच्चा मोटा दिखता है। मरास्मस प्रकार के कुपोषण में शरीर की वसा और ऊतक, शरीर में पोषक तत्वों की कमी की भरपाई नहीं कर पाते और आंतरिक प्रक्रियाओं की गतिविधि को धीमा कर देता है। मरास्मिक-क्वाशिरकोर में गम्भीर वेस्टिंग के साथ-साथ सूजन भी शामिल है।

एक कुपोषित बच्चे क सही निदान और सही समय पर कुपोषण की पहचान करना बहुत महत्त्वपूर्ण है, ताकि कुपोषम से बच्चे पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को रोका जा सके और समय रहते बेहतर इलाज किया जा सके। शरीर में पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों के स्तर को बनाए रखने के लिए संतुलित हार लेना जरूरी है। शिशुओं और बच्चों में कुपोषण के संकेत और लक्षण बच्चे की पोषण सम्बन्धी कमी पर निर्भर करते हैं। कुपोषण के कुछ संकेतों और लक्षणों में शामिल हैः थकान और कमजोरी, चिड़चिड़ापन, खराब प्रतिरक्षा प्रणाली के कारण संक्रमण के प्रति संवेदनशील बढ़ जाती है, सूखी और पपड़ीदार त्वचा, अवरुद्ध विकास, फूला हुआ पेट, घाव, संक्रमण और बीमारी से ठीक होने में लम्बा समय लगना, मांसपेशियों का कम होना, व्यावहारिक और बौद्धिक विकास का धीमा होना, मानसिक कार्यक्षमता में कमी और पाचन समस्याएं आदि।

राष्ट्रीय पोषण मिशन, जिसे ‘पोषण अभियान’ के नाम से भी जाना जाता है, की शुरुआत भारत सरकार द्वारा वर्ष 2018 में की गई। राष्ट्रीय पोषण मिशन की अभिकल्पना नीति आयोग द्वारा ‘राष्ट्रीय पोषण रणनीति’ के तहत की गई है। इस रणनीति का उद्देश्य वर्ष 2022 तक ‘कुपोषण-मुक्त भारत’ बनाना है। इसके तहत वर्ष 2022 तक प्रति वर्ष बच्चों में स्टंटिंग की समस्या को तीन प्रतिशत तक कम करना और माँ बनने की उम्र में पहुंची महिलाओं में एनीमिया की समस्या को एक तिहाई कम करना है। यह एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य है, क्योंकि अगर आंकड़ों पर गौर करे तो हम पाएंगे कि स्टंटिंग की समस्या में गिरावट पिछले 10 वर्षों में प्रति वर्ष केवल एक प्रतिशत की हुई है अर्थात यह 2006 में 48 प्रतिशत थी और 2016 में कुछ कम 38.4 प्रतिशत तक रही। आंकड़ों के अनुसार जन्म के एक घंटे के भीतर केवल 41.6 प्रतिशत बच्चों को स्तनपान कराया जाता है, 54.9 प्रतिशत को विशेष रूप से छह महीने के लिए स्तनपान कराया जाता है; 42.7 प्रतिशत को समय पर पूरक आहार प्रदान किया जाता है और दो साल से कम उम्र के केवल 9.6 प्रतिशत बच्चों को पर्याप्त आहार प्राप्त होता है।

स्टंटिंग की समस्या लगभग 12 या उससे अधिक वर्षों तक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने वाली माताओं की तुलना में अशिक्षित माताओं से पैदा होने वाले बच्चों में अधिक पाई जाती है। अन्तरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के एक अध्ययन (2015-16) के अनुसार स्टंटिंग की समस्या जिला-स्तर पर (12.4-65.1 प्रतिशत) अलग-अलग है और लगभग 40 प्रतिशत जिलों में स्टंटिंग का स्तर 40 प्रतिशत से ऊपर है। उत्तर प्रदेश सूची में सबसे ऊपर है जहाँ 10 में से छह जिलों में स्टंटिंग की उच्चतम दर है। इस रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने स्टंटिंग के वितरण में स्थानिक अंतर को समझने के लिए मैपिंग और वर्णनात्मक विश्लेषण का उपयोग किया। मैपिंग से पता चला कि स्टंटिंग की समस्या का प्रतिशत जिलेवार भिन्न होता है, जिसमें 12.4 प्रतिशत से 65.1 प्रतिशत तक का अंतर पाया जाता है। 604 जिलों में से 239 में स्टंटिंग का स्तर 40 प्रतिशत से अधिक पाया गया। अध्यन में ज्ञात हुआ कि महिलाओँ के कम बीएमआई (बॉडी मास इंडेक्स) जैसे कारकों में निम्न बनाम उच्च कुपोषण बोझ वाले जिलों के बीच का अंतर 19 प्रतिशत था। स्टंटिंग सम्बद्ध कुपोषण के अन्य कारणों में शामिल थे- मातृ शिक्षा (12 प्रतिशत), विवाह के समय आयु (7 प्रतिशत), प्रसव-पूर्व देखभाल (6 प्रतिशत), बच्चों का खानपान (9 फीसदी), सम्पत्ति (7 प्रतिशत), खुले में शौच (7 प्रतिशत), घरेलू आकार (5 प्रतिशत)। रिपोर्ट से जुड़े विशेषज्ञों के अनुसार ‘आंकड़े तत्काल कार्रवाई के लिए कहते हैं। कुपोषण किसी भी अन्य कारण से अधिक बीमार होने के लिए जिम्मेदार है। अधिक वजन और मोटापे के कारण वैश्विक-स्तर पर अनुमानित 40 लाख मौतें होती हैं।’

हाल ही में केन्द्रीय महिला और बाल विकास मंत्री ने विश्व बैंक की वैश्विक पोषण रिपोर्ट 2018 का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि भारत को कुपोषण के मामले में वार्षिक रूप से कम से कम 10 बिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है। यह नुकसान उत्पादकता, बीमारी और मृत्यु से जुड़ा है और गम्भीर रूप से मानव विकास तथा बाल मृत्युदर में कमी लाने में बाधक है। उन्होंने कहा कि पोषण सभी नागरिकों के जीवन के लिए एक अभ्यास है और इसे महिलाओं और बच्चों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। महिला और बाल विकास मंत्रालय बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन तथा दीनदयाल शोध संस्थान के साथ एक पोषण मानचित्र विकसित कर रहा है जिसमें देश के विभिन्न क्षेत्रों की फसलों और खाद्यान्नों को दिखाया जाएगा, क्योंकि कुपोषण संकट का समाधान कुछ हद तक क्षेत्रीय फसल को प्रोत्साहित करने और प्रोटीन समृद्ध स्थानीय खाद्य पदार्थ को अपनाने में है। महिला और बाल विकास मंत्रा ने सुझाव दिया कि पोषण अभियान के अनाम नायकों को मान्यता देने के लिए स्वास्थ्य और पोषण मानकों पर राज्यों की रैंकिंग की प्रणाली विकसित की जा सकती है और इसके लिए नीति आयोग राज्यों के लिए ढांचा विकसित कर सकता है ताकि जिलों की रैंकिंग की जा सके। उन्होंने कहा कि रैंकिंग प्रक्रिया में नागरिकों और सिविल सोसाइटी को शामिल किया जा सकता है।

विभिन्न राज्यों में वर्ष 1990 से 2017 के दौरान इंडिया स्टेट लेवल डिसीज बर्डन इनीशिएटिव द्वारा दिए गए अध्ययन में पता चला है कि कुपोषण के मामलों में दो-तिहाई गिरावट हुई है। हालांकि, पांच साल से कम उम्र के बच्चों की 68 प्रतिशत मौतों के लिए कुपोषण एक प्रमुख कारक बना हुआ है। बच्चों के अलावा, अलग-अलग उम्र के 17 प्रतिशत लोग भी कुपोषण-जनित बीमारियों का शिकार पाए गए हैं। राष्ट्रीय दर की तुलना में कुपोषण के मामले राज्य-स्तर पर सात गुना अधिक पाए गए हैं। सबसे अधिक कुपोषण राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, नागालैंड और त्रिपुरा में पाया गया है। यह अध्ययन भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद, पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया तथा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की संयुक्त पहल पर आधारित है। इस अध्ययन के अनुसार लम्बे समय तक पोषक तत्वों की कमी और बार-बार संक्रमण से बच्चों का संज्ञानात्मक, भावनात्मक और शारीरिक विकास प्रभावित होता है, जो कुपोषण के प्रमुख संकेतक माने जाते हैं। कुपोषण से होने वाली मौतों के लिए जन्म के समय बच्चों का कम वजन मुख्य रूप से जिम्मेदार पाया गया है। बच्चों का समुचित विकास न होना भी कुपोषण से जुड़ा एक प्रमुख जोखिम है। उम्र के अनुपात में कम लम्बाई और लम्बाई के अनुपात में कम वजन बच्चों की मौतों के लिए जिम्मेदार कुपोषण-जनित अन्य प्रमुख कारकों में शामिल हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि भारत में 21 प्रतिशत बच्चों का वजन जन्म के समय से ही कम होता है। उत्तर प्रदेश में यह संख्या सबसे अधिक 24 प्रतिशत और सबसे कम मिजोरम में 09 प्रतिशत है। नवजात बच्चों में पोषण बनाए रखने में स्तनपान की भूमिका अहम होती है। बच्चों को सिर्फ स्तनपान कराने की दर 1.2 प्रतिशत बढ़ी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि सामान्य से अधिक वजन वाले बच्चों की संख्या 12 प्रतिशत है, जिनकी संख्या विकसित राज्यों में सबसे ज्यादा है। लेकिन, धीरे-धीरे ऐसे बच्चों की संख्या पूरे देश में पांच प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। सामान्य से अधिक वजन वाले बच्चों की संख्या मध्य प्रदेश में सर्वाधिक 7.2 प्रतिशत और मिजोरम में सबसे कम 2.5 प्रतिशत है। हालांकि, राष्ट्रीय-स्तर पर जन्म के समय बच्चों के कम वजन के मामलों में 1.1 प्रतिशत की दर से वार्षिक गिरावट हुई है। राज्यों के स्तर पर यह गिरावट दिल्ली में सबसे कम 0.3 प्रतिशत और सिक्किम में सबसे अधिक 3.8 प्रतिशत देखी गई है।

कुपोषण से लड़ने के लिए तीन सस्ते खाद्य-पदार्थों को खाने की सलाह एक शोध में सामने आई है। अमरीका की वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया है कि मूंगफली, चने और केले से तैयार किए गए आहार से आंतों में रहने वाले लाभदायक जीवाणुओं की हालत में सुधार होता है जिससे बच्चों का तेजी से विकास होता है। बांग्लादेश में बहुत से कुपोषित बच्चों पर किए शोध के नतीजे के मुताबिक, लाभदायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ने से बच्चों की हड्डियों, दिमाग और पूरे शरीर के विकास में मदद मिलती है।

कुपोषित बच्चे न सिर्फ सामान्य बच्चों की तुलना में कमजोर और छोटे होते हैं बल्कि इनमें से कई के पेट में लाभदायक बैक्टीरिया नहीं होते या बहुत कम होते हैं। इस शोध के प्रमुख वैज्ञानिक जेफरी गार्डन के अनुसार कुपोषित बच्चों के धीमे विकास की वजह उनकी पाचन नली में अच्छे बैक्टीरिया की कमी हो सकती है। वैज्ञानिकों ने बांग्लादेश के स्वस्थ बच्चों के शरीर में रहने वाले बैक्टीरिया की किस्मों की पहचान की। फिर उन्होंने चूहों और सूअरों पर प्रयोग किया और देखा कि कौन-सा आहार लेने से आंतों के अन्दर इन महत्त्वपूर्ण बैक्टीरिया की संख्या बढ़ती है। इसके बाद उन्होंने 68 महीनों तक 12 से 18 महीनों की आयु तक के 68 बांग्लादेशी बच्चों को अलग-अलग तरह का आहार दिया। जिन बच्चों को सोया, पिसी हुई मूंगफली, चने और केले आहार में दिए गए थे, उनकी सेहत में सुधार हुआ। इस आहार से आंतों में रहने वाले उन सूक्ष्मजीवों की संख्या बढ़ी जो हड्डियों, दिमाग और रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मददगार माने जाते हैं। शोधार्थियों के अनुसार अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि यह आहार क्यों इतना कामयाब रहा।

कुपोषण का समय पर निदान करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। किसी व्यक्ति को कुपोषण का खतरा है, यह पहचानने के लिए, मालन्यूट्रीशन यूनिवर्सल स्क्रीनिंग टूल (एमयूएसटी) एक जाँच उपकरण है, जो कुपोषण का पता लगाने में मदद करता है। बच्चों के मामले में, डॉक्टर बच्चे की लम्बाई और वजन का परीक्षण करते हैं, बच्चों में कुपोषण को निर्धारित करने के लिए नैदानिक प्रक्रियाओं में हाथ के मध्य-ऊपरी व्यास का मापन किया जाता है। यदि मध्य-ऊपरी बांह की परिधि 110 मिमी. से नीचे है, तो यह आपके बच्चे में कुपोषण का एक स्पष्ट संकेत है। विशिष्ट रक्त-परीक्षण जैसे रक्त कोशिकाओं की गिनती, रक्त शर्करा, रक्त प्रोटीन या एल्बुमिन-स्तर और अन्य नियमित रक्त परीक्षण बच्चों में कुपोषण की पहचान करने में मदद करते हैं। अन्य परीक्षण जैसे कि थायराइड परीक्षण, कैल्शियम, जिंक और विटामिन की जांच करना आदि। यह सभी परीक्षण करने के लिए डॉक्टर बताते हैं क्योंकि यह बच्चों में कुपोषण को पहचानने में मदद करते हैं।

कुपोषण के इलाज के लिए पहले मूल कारण की पहचान करना महत्त्वपूर्ण है। एक बार मूल कारण पता हो जाने के बाद, डॉक्टर कुपोषण या अतिपोषण की समस्या को ठीक करने के लिए सप्लीमेंट और आहार में भोजन की सही मात्रा को शामिल करने के लिए विशेष बदलाव का सुझाव देते हैं। कुपोषण से बचाव के लिए खाद्य पदार्थों जैसे फल और सब्जियां, दूध, पनीर, दही जैसे डेयरी उत्पाद, चावल, आलू, अनाज और स्टार्च के साथ प्रोटीन से भरपूर खाद्य पदार्थ, मांस, मछली, अंडे, बींस और वसा तेल, नट बीज पर्याप्त मात्रा में आवश्यक हैं।

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के निदेशक प्रोफेसर बलराम भार्गव का कहना है कि देश में कुपोषण की निगरानी बढ़ाने के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं। राष्ट्रीय पोषण संस्थान और दूसरी सहभागी संस्थाओं की कोशिश राज्यों से कुपोषण सम्बन्धी अधिक से अधिक आंकड़े जुटाने की है, ताकि कुपोषण की निगरानी के लिए प्रभावी रणनीति बनाई जा सके। इस अध्ययन से विभिन्न राज्यों में कुपोषण में विविधता का पता चला है। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है कि कुपोषण में कमी की योजना ऐसे तरीके से बनाई जाए जो प्रत्येक राज्य के लिए उपयुक्त हो।

(लेखक विज्ञान प्रसार में वैज्ञानिक ई हैं एवं विज्ञान संचार के राष्ट्रीय कार्यक्रमों से सम्बद्ध हैं।)

ईमेलः nimish2047@gmail.com

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Post By: Shivendra
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