ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020 के अनुसार भारत में कुपोषण की स्थिति 107 देषों में से 94 स्थान पर है। भारत के संदर्भ में यह डराने वाला आंकड़ा हैं, क्योंकि भारत अपने पड़ोसी देशों नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और इंडोनेशिया से भी पीछे है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में 14 फीसदी लोग कुपोषण के शिकार है जबकि 37 फीसदी बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से छोटे कद के है। भारत सरकार तमाम कोशिशों के साथ-साथ कुपोषण से निपटने के लिए एक सरकुलर जारी किया है, जिसमें ग्राम पंचायत की बंजर जमीन ग्रामीण महिलाओं को लीज पर दे दी जाये, जहां महिलाएं खेती कर जरूरत भर की फल-सब्जी उगा सकें। इससे उनके परिवारों को पोषण मिलेगा और उनकी आजीविका भी सुधरेगी। सरकार की इस सकारात्मक पहल का लाभ गांवों में समूह की महिलाएं खूब उठा रही हैं।
मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले का कराहल विकास खण्ड और बुंदेलखण्ड के छतरपुर जिले के कुछ गांवों में ऐसे दृश्य देखने को मिले, जहां खेतों में महिलाएं ग्राम पंचायत की जमीन पर फल-सब्जी उगाकर परिवार का भरण- पोषण कर रही हैं। श्योपुर जिले का कराहल विकास खण्ड की सिलपुरी गांव की दो महिलाएं दोपहर में खेत में बैठकर खरपतवार निकाल रही थी। इन्हीं में से एक महिला किरण ने बताया, कि ग्राम पंचायत की ओर से समूह को दी गई यह जमीन एकदम पथरीली थी। समूह की महिलाओं ने इसमें काफी पसीना बहाया जब जाकर यह उपज के लिए तैयार हुआ। पहले निश्चित माप के अनुसार खुदाई कर 6 बाई 6 का गहरा, लम्बा और चौड़ा गड्ढा तैयार किया, इसके बाद मिट्टी का परीक्षण किया गया, फिर उद्यानिकी विभाग और कृषि विज्ञान केंद्र की ओर से दिये गये सलाह के आधार पर एक हेक्टेयर में 625 पौधें रोपे गये। पौधों की दूरी 4 बाई 4 मीटर रखी गई, जिससे एक पौधों को बढ़ने में आसानी हो। किरण ने बताया, कि देखभाल करने के लिए समूह की दो सदस्य बारी-बारी से प्रतिदिन आती हैं। शेष महिलाएं अपने घर का या अन्य काम करती हैं। लगभग एक एकड़ भूमि में उगने वाले सब्जी-फल आदि का एक हिस्सा पंचायत को तथा शेष हमलोग आपस में बराबर बांट लेते हैं।
पोषण उत्प्रेरक मनवर वर्मा बताती हैं कि इस क्षेत्र की महिलाओं के लिए यह काम आसान नहीं था। उन्हें एक महीने तक घर-घर जाकर इसके लिए तैयार किया। तब जाकर वह 10 महिलाओं को जोड़कर समूह बना पायी थी। इसके बाद महिलाओं की उन्मुखीकरण के लिए बैठकें हुईं। इन बैठकों में आशा, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, गर्भवती और धा़त्री महिलाओं के अलावा रोजगार सहायक और सरपंच आदि उपस्थित रहते थे। बैठक में महिलाओं को योजनाओं की जानकारी देने और उनके पोषण की समस्याओं का समाधान खोजा जाने लगा। महिलाओं को प्रशिक्षण एक्सपोजर विजिट, ग्राम स्तरीय कार्यशाला के माध्यम से उनकी क्षमता वृद्धि की गई। शासकीय कर्मचारियों से सीधा संवाद करने के लिए उन्हें तैयार किया गया। इसके बाद वृक्षारोपण के लिए मॉडल तैयार करने, जैविक खाद बनाने की विधि आदि भी उन्हें सिखाई गई।
हालांकि ऐसी मिसालें देश के कई हिस्से में मिलेंगे, लेकिन इस पंचायत के लिए यह अनोखी बात इसलिए है, क्योंकि यहां भील और सहरिया आदिवासी के अलावा अनुसूचित जाति के परिवार ही रहते हैं। इन्हें समूह बनाने के लिए प्रेरित करना चुनौतीपूर्ण काम था। मनवर के पास देखरेख के लिए दो गांव पर्तवाडा और सिलपुरी है। वह रोज मोटर साइकिल चलाकर दोनों गांव का दौरा करती है। रेखा ने बताया, कि गांव से अधिकांश छोटी जोत वाले किसान हैं। खेती से पेट न भरने के कारण वे दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं, इसका बुरा असर बच्चों और औरतों के सेहत पर पड़ता है। रेखा खुश हैं, क्योंकि उसे खेत में उगाये टमाटर, पालक, मटर, बैगन, मूली, मिर्च आदि के अलावा आम, नींबू आंवला, करौंदा, पपीता से बड़ा सहारा मिला है। उसने कहा, यह सारी सब्जियां जैविक है। अंजना ने कहा, इस साल गांव में केवल एक ही बच्चा पोषण पुनर्वास केंद्र में भर्ती हुआ है, जबकि यह संख्या पहले बहुत अधिक हुआ करती थी। अब पोषण सुधर रहा है। रानी ने बताया कि समूह की सभी महिलाओं के पास जॉब कार्ड हैं और इस खेत में काम करने की मजदूरी भी हमें बराबर मिल रही है।
कुराबाई अपने पति के निधन के बाद सब उम्मीद खो बैठी थी साथ ही कमजोर बच्चों के लालन-पालन के लिए उधार की नौबत आ गई थी। फिर उसे पोषण वाटिका के बारे में मालूम हुआ और वह महिला समूह की सदस्य बन गई। अब उसे किसी पर आश्रित होने की जरूरत नहीं है। पोषण वाटिका से न केवल उसके बच्चों को रोज हरी सब्जी खाने को मिल रही है, बल्कि अधिक उत्पादन बेचकर परिवार का दूसरे खर्चे भी उठा पा रही है। इसी जिले की पनवाड़ा गांव की संजू अम्मा पोषण वाटिका में सब्जी लगाकर बहुत खुश हैं। अब वह रोज अपने परिवार को ताजी हरी सब्जी खिला रही है। पहले हालत यह थी, कि सप्ताह में केवल दो-तीन दिन ही मुश्किल से सब्जी बनती थी। बाकी दिन दाल से गुजारा करना पड़ता था।
इसी तरह बुंदेलखण्ड का छतरपुर जिला बहुत पिछड़ा है और यहां लगभग 42 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं तथा 6 से 59 माह तक के 66 फीसदी बच्चे एनिमिक है। यहां लगभग 70 फीसदी पलायन है। रगोली गांव की कल्पना बताती हैं, कि ग्रामसभा की चिन्हित एक हेक्टेअर भूमि समूह को लीज पर मिल गई। बंजर और ऊबड़-खाबड़ भूमि को समूह ने अपने श्रम से समतल किया, इसे उपजाऊ बनाया। इन्हें एक निजी संस्था की ओर से निःशुल्क तौरई, लौकी, कद्दू, भिंडी, सेम, पालक, करेला व टमाटर, आलू, प्याज, मेथी, बथुआ, चौलाई, मूली, गाजर, शलजम, शिमला मिर्च, बैंगन, मिर्च तथा काशीफल आदि का जैविक बीज उपलब्ध कराया गया। साथ ही इन्हें नींबू, आंवला, अनार, पपीता, फालसा, जामुन, अमरुद, सहजन के वृक्ष लगाने की सलाह दी गई। मात्र 6 महीने बाद ही इनके मेहनत का फल इन्हें मिलने लगा। खेत में फल और सब्जियां लहलहाने लगी। इस पोषण वाटिका के जरिये एक ओर तो ग्रामीण महिलाएं पोषण विविधता के महत्व को जान पायी और, दूसरी तरफ वे अपने परिवार को स्वस्थ रखने के प्रति जागरूक हुईं।
दरअसल पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर लगभग एक साल पहले मध्यप्रदेश सरकार ने छतरपुर जिले के रगोली, रतनपुर, विजयपुर, डारगुंआ, अमरपुर और नारायणपुरा गांव को चुना था और इन्हीं गांवों के समूहों को लगभग एक एक हेक्टेअर भूमि उपलब्ध कराया था। रामकुंवर कहती हैं कि हरी और ताजी सब्जी के सेवन से कुपोषित बच्चों की पहले की अपेक्षा कम हुई है। साथ ही गर्भवती और धात्री महिलाओं के आहार में अनिवार्य रूप से हरी सब्जी को शामिल कर लिया गया है। पुष्पा मिश्रा कहती हैं, कि इससे पोषण सुधरने के साथ-साथ हमें आमदनी भी हो रही है। प्रत्येक परिवार को एक हजार से डेढ़ हजार रूपए की मासिक बचत हो जाती है।
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