विश्व में भारत एक मात्र ऐसा देश है जहां कुंभ और सिंहस्थ जैसे महापर्व मानए जाते हैं। देश के चार तीर्थ स्थलों उज्जैन, हरिद्वार, नासिक और प्रयाग के तट पर ये महापर्व मनाए जाते हैं। प्रयाग में 14 जनवरी से कुंभ शुरू होगा।
कुंभ में सामाजिक समरसता और आध्यात्मिक ऊर्जा का भरपूर संचार होता है। इसमें सर्व त्यागी संत, संयासी, साधुओं, मठाधीशों, पीठेश्वरों, मंडलेश्वरों, महामंडलेश्वरों और शंकराचार्यों की अहम भूमिका होती है। साथ ही गादीपति, महंत, जमातियां, महंत, श्री महंत और अखाड़ों का महत्व भी कम नहीं है। संबंधित आध्यात्मिक साधना के लिए तपस्वियों की बड़ी-बड़ी छावनियों में लहराती पताकाएं महाशिविर के रूप में अलौलिक दृश्य का निर्माण करती हैं। ये साधु-संतों के सानिध्य में धार्मिकता का प्रचुर लाभ लेने का मौका होता है। चार स्थानों पर होने वाले कुंभ में प्रयाग का महत्व सर्वाधिक है।
ये दुनिया का एकमात्र ऐसा मेला है, जिसका विज्ञापन या प्रचार-प्रसार नहीं किया जाता। फिर भी करोड़ों लोग भाषा और जात-पात से ऊपर उठकर धार्मिक निष्ठा की इस धर्म संसद में पुष्टि करते हैं। श्रीरामचरित मानस के बालकांड में उल्लेख है- ‘माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।’ दिव्य राष्ट्र के निर्माण में धर्म का चिंतन होना चाहिए। इसके लिए प्रतिदिन की साधना, मंत्रोपासना, शक्ति संवर्धन, अनुष्ठान, योग, शास्त्रीय विचार-विमर्श, सामाजिक कल्याण के निर्णय और लोगों को वैसा ही आचरण करने का निर्देश करने की परंपरा जरूरी है। इसकी शुरुआत 2520 वर्ष पहले आद्य जगदगुरू भगवत्पाद आचार्य शंकर ने की थी।
कुंभ और अमृत की कथा समुद्र मंथन से जुड़ी है। ‘देव दानव संवादे मथ्य माने महोदधौ उत्पन्नोसि तदाकुंभ विधृतो विष्णुना स्वयं।।’ यानी लोक कल्याणकारी उपायों के लिए देवताओं व दानवों के बीच सिर्फ संवाद ही नहीं हुआ। बल्कि समुद्र तक को मथा गया। विष्णु द्वारा अमरत्व प्रदान करने वाले उपायों के कलश को निकाला गया। सुख, समृद्धता, सुरक्षा और स्वास्थ्य के साधन आदि चौदह प्रकार के रत्न प्राप्त हुए। ये क्रमशः हलाहल (विष), चंद्रमा, लक्ष्मी, धनुष, कौस्तुभ मणि, गदा, शंख, रंभा, उच्चैश्रवा (अश्वशक्ति), कामधेनु, ऐरावत हाथी, पारिजात, धन्वंतरि और अमृत हैं। इसमें हलाहल विष कंठ में धारण करने के कारण महादेव नीलकंठेश्वर कहलाए।
श्रीमद्भागवत के अनुसार इंद्र पुत्र जयंत को देवगुरू बृहस्पति ने निर्देश दिया कि वह विष्णु के हाथों से अमृत कुंभ लेकर भागे। मोह ग्रस्त दैत्य उसके पीछे दौड़े। तब 12 दिन (पृथ्वी के 12 वर्ष) तक युद्ध होता रहा। युद्ध के दौरान छीना- झपटी में जयंत के हाथों से अमृत कुंभ से छलकी बूंदें हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक में गिरीं। इसलिए इन स्थानों पर कुंभ और सिंहस्थ महापर्व होता है।
ज्योतिषीय स्थिति भी अमृत कुंभ के साथ जुड़ी है। इसमें सूर्य, गुरू व चंद्रमा की स्थिति महत्वपूर्ण है। कारण कुंभ की रक्षा में रहा इनका अहम योगदान है। देवासुर संग्राम में सूर्य ने कलश को फूटने से बचाया, गुरू ने सुरक्षा प्रदान की और चंद्रमा ने राक्षसों को इससे वंचित रखने का काम किया। यही कारण है कि इन तीनों की विशेष राशियों की स्थिति के समय इन चार स्थानों पर कुंभ पर्व मनाए जाते हैं।
प्रयाग
माघी अमावस को मकर राशि में सूर्य-चंद्र तथा वृषभ राशि में बृहस्पति हो, तो त्रिवेणी के तट पर।
हरिद्वार
कुंभ राशि के बृहस्पति में जब मेष राशि का सूर्य हो, तो गंगा के तट पर
नासिक
सिंह राशि के बृहस्पति में जब सिंह राशि का सूर्य हो, तो गोदावरी के तट पर
उज्जैन
सिंह राशि के बृहस्पति में जब मेष राशि का सूर्य हो, तो शिप्रा के तट पर
कुंभ में सामाजिक समरसता और आध्यात्मिक ऊर्जा का भरपूर संचार होता है। इसमें सर्व त्यागी संत, संयासी, साधुओं, मठाधीशों, पीठेश्वरों, मंडलेश्वरों, महामंडलेश्वरों और शंकराचार्यों की अहम भूमिका होती है। साथ ही गादीपति, महंत, जमातियां, महंत, श्री महंत और अखाड़ों का महत्व भी कम नहीं है। संबंधित आध्यात्मिक साधना के लिए तपस्वियों की बड़ी-बड़ी छावनियों में लहराती पताकाएं महाशिविर के रूप में अलौलिक दृश्य का निर्माण करती हैं। ये साधु-संतों के सानिध्य में धार्मिकता का प्रचुर लाभ लेने का मौका होता है। चार स्थानों पर होने वाले कुंभ में प्रयाग का महत्व सर्वाधिक है।
बिना प्रचार के आते हैं लोग
ये दुनिया का एकमात्र ऐसा मेला है, जिसका विज्ञापन या प्रचार-प्रसार नहीं किया जाता। फिर भी करोड़ों लोग भाषा और जात-पात से ऊपर उठकर धार्मिक निष्ठा की इस धर्म संसद में पुष्टि करते हैं। श्रीरामचरित मानस के बालकांड में उल्लेख है- ‘माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।’ दिव्य राष्ट्र के निर्माण में धर्म का चिंतन होना चाहिए। इसके लिए प्रतिदिन की साधना, मंत्रोपासना, शक्ति संवर्धन, अनुष्ठान, योग, शास्त्रीय विचार-विमर्श, सामाजिक कल्याण के निर्णय और लोगों को वैसा ही आचरण करने का निर्देश करने की परंपरा जरूरी है। इसकी शुरुआत 2520 वर्ष पहले आद्य जगदगुरू भगवत्पाद आचार्य शंकर ने की थी।
समुद्र मंथन से जुड़ा है कुंभ
कुंभ और अमृत की कथा समुद्र मंथन से जुड़ी है। ‘देव दानव संवादे मथ्य माने महोदधौ उत्पन्नोसि तदाकुंभ विधृतो विष्णुना स्वयं।।’ यानी लोक कल्याणकारी उपायों के लिए देवताओं व दानवों के बीच सिर्फ संवाद ही नहीं हुआ। बल्कि समुद्र तक को मथा गया। विष्णु द्वारा अमरत्व प्रदान करने वाले उपायों के कलश को निकाला गया। सुख, समृद्धता, सुरक्षा और स्वास्थ्य के साधन आदि चौदह प्रकार के रत्न प्राप्त हुए। ये क्रमशः हलाहल (विष), चंद्रमा, लक्ष्मी, धनुष, कौस्तुभ मणि, गदा, शंख, रंभा, उच्चैश्रवा (अश्वशक्ति), कामधेनु, ऐरावत हाथी, पारिजात, धन्वंतरि और अमृत हैं। इसमें हलाहल विष कंठ में धारण करने के कारण महादेव नीलकंठेश्वर कहलाए।
युद्ध के दौरान गिरा अमृत
श्रीमद्भागवत के अनुसार इंद्र पुत्र जयंत को देवगुरू बृहस्पति ने निर्देश दिया कि वह विष्णु के हाथों से अमृत कुंभ लेकर भागे। मोह ग्रस्त दैत्य उसके पीछे दौड़े। तब 12 दिन (पृथ्वी के 12 वर्ष) तक युद्ध होता रहा। युद्ध के दौरान छीना- झपटी में जयंत के हाथों से अमृत कुंभ से छलकी बूंदें हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक में गिरीं। इसलिए इन स्थानों पर कुंभ और सिंहस्थ महापर्व होता है।
सूर्य, गुरु व चंद्रमा की भूमिका
ज्योतिषीय स्थिति भी अमृत कुंभ के साथ जुड़ी है। इसमें सूर्य, गुरू व चंद्रमा की स्थिति महत्वपूर्ण है। कारण कुंभ की रक्षा में रहा इनका अहम योगदान है। देवासुर संग्राम में सूर्य ने कलश को फूटने से बचाया, गुरू ने सुरक्षा प्रदान की और चंद्रमा ने राक्षसों को इससे वंचित रखने का काम किया। यही कारण है कि इन तीनों की विशेष राशियों की स्थिति के समय इन चार स्थानों पर कुंभ पर्व मनाए जाते हैं।
ऐसे होती है महाकुंभ की गणना
प्रयाग
माघी अमावस को मकर राशि में सूर्य-चंद्र तथा वृषभ राशि में बृहस्पति हो, तो त्रिवेणी के तट पर।
हरिद्वार
कुंभ राशि के बृहस्पति में जब मेष राशि का सूर्य हो, तो गंगा के तट पर
नासिक
सिंह राशि के बृहस्पति में जब सिंह राशि का सूर्य हो, तो गोदावरी के तट पर
उज्जैन
सिंह राशि के बृहस्पति में जब मेष राशि का सूर्य हो, तो शिप्रा के तट पर
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