
kumbh
केंद्र सरकार गंगा को बचाने के लिए अब तक लगभग 2000 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है मगर लगता है कि सारा का सारा पैसा जैसे गटर में बह गया हो। गंगा और हिमालय भारत की पहचान रहे हैं इसलिए भी गंगा को बचाया जाना चाहिए। औद्योगिक देशों में सभी उद्योग अपने कर्तव्यों का ध्यान रखते हैं और नदियों में अपना प्रदूषित पानी भेजने से पहले उसे इतना साफ करते हैं कि मछली और अन्य जलचर उसमें जिंदा रह सकें। दूसरी ओर यहां कानपुर का चमड़ा उद्योग गंगा को प्रदूषित करने में जैसे अन्य उद्योगों से होड़ ले रहा है। भारत में कुंभ का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। छः वर्ष में अर्धकुंभ, 12 वर्ष में कुंभ और 144 वर्ष में महाकुंभ! आखिर नदी के किनारे ही हमारे ज्यादातर मठ, मंदिर, तीर्थ और धर्माचार्यों के ठिकाने क्यों बने दरअसल में भारत में कुंभ की गौरवशाली परंपरा का अभिप्राय प्रकृति संरक्षण ही था। अफसोस की बात है कि कुंभ के स्नानार्थी कुंभ का अभिप्राय ही भूल गये हैं। आज कुंभ की नदियां आचमन के योग्य भी नहीं हैं। कुंभ गंगा और यमुना के संगम इलाहाबाद में आयोजित हो रहा है। वास्तविकता यह है कि गंगा-यमुना जैसी नदियों पर प्रदूषण की मार लगातार बढ़ रही है। अध्ययन के अनुसार उत्तर भारत की कोई भी नदी स्नान के योग्य नहीं रह गई है। उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तर बंगाल में 27 दिनों में 1800 किलोमीटर की यात्रा के बाद 11 पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने बताया कि यमुना सर्वाधिक प्रदूषित नदी है। अपने अनुभवों के आधार पर पर्यावरण प्रेमियों ने यह भी कहा कि गांगेय क्षेत्र की नदियां जगह-जगह नालों में तब्दील हो गई हैं जो इनके किनारे बसने और इन पर जीवनयापन के लिए आश्रित लोगों की जान के लिए सीधे-सीधे खतरे का सबब भी बन गई हैं।
यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है कि नगरों-महानगरों की सारी गंदगी इन नदियों में लगातार छोड़ी जा रही है। नदियों के आसपास लगे हजारों कारखानों से निकलने वाला रसायन युक्त और जहरीला कचरा लाख मनाही के बाद भी बिना किसी रोक-टोक के इन नदियों में ही छोड़ा जाता है। करोड़ों रुपए खर्च कर लगाए गए जलशोधन संयंत्र रख-रखाव के अभाव में ठोस नतीजा नहीं दे पा रहे हैं। रही-सही कसर हमारी मान्यताओं और धार्मिक परंपराओं ने निकालकर रख दी है। हर साल दुर्गा पूजा पर लाखों की संख्या में मूर्तियों का विसर्जन इनमें किया जाता है।
अकेले पटना में ही दुर्गा पूजा के अवसर पर हजारों लीटर पट परोक्ष रूप से गंगा में बहा दिया जाता है। इसी तरह छठ या अन्य पर्वों पर भी पूजा सामग्री नदी में प्रवाहित कर दी जाती है जो सीधे-सीधे नदी की सांसें रोकने का काम करती है। पूजा के काम आए फल-पत्तियों व अन्य सामग्री को नदी के ही हवाले करने के दृश्य कभीभी देखे जा सकते हैं। सिर्फ यमुना की सफाई के नाम पर 1200 करोड़ से ज्यादा खर्च किए गए किंतु इसकी एक बंद भी साफ नहीं हुई। उलटे यमुना और मैली होती चली गई। यही हाल गंगा का है। अब जबकि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जा चुका है, इसे फिर से नया जीवन देने और प्रदूषण की मार से बचाने को लेकर सत्ता और प्रशासन के स्तर पर कुछ सुगबुगाहट ज़रूर है। स्वयं प्रधानमंत्री भी गंगा की बदहाली पर चिंता व्यक्त कर चुके है। बहरहाल, अब यह बात साबित हो चुकी है कि मौखिक चिंतन करने और बगैर किसी ठोस और कारगर योजना के करोड़ों रुपए बहाने से नदियों का कायाकल्प नहीं होने वाला। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के ताज़ा अध्ययन के बाद गंगा के प्रदूषण के बारे में तमाम लोगों और विशेषकर उन राज्यों की सरकारों की आँखें खुल जानी चाहिए जिन राज्यों से होकर गंगा गुजरती है। इस अध्ययन के अनुसार गंगा के किनारे रहने वाले लोग देश के अन्य इलाकों की अपेक्षा कैंसर रोग से ज्यादा ग्रसित हो सकते हैं।
इस औद्योगिक कचरे में आर्सेनिक, फ्लोराइड और अन्य भारी धातुएं जैसे जहरीले तत्व भी शामिल हैं। इन्हीं के कारण नदी के किनारे रहने वाले लोगों में गॉल ब्लैडर (पित्ताशय) के कैंसर के मामले देखने में आए हैं जो कि पूरे विश्व में भारत को दूसरे स्थान पर खड़ा कर देते हैं। गंगा नदी में खतरनाक रसायनों और जहरीली धातुओं की उपस्थिति बेहद अधिक है। भारत की लगभग 40 प्रतिशत आबादी गंगा के पानी पर निर्भर करती है। इसलिए अब समय आ गया है जब गंगा में बढ़ते प्रदूषण को एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त नहीं किया जाए।
दूसरी ओर नदी में ऑक्सीजन का स्तर भी इनता कम है कि जलीय जीवन के लिए भी गंभीर खतरा है। गंगा के किनारे बसे लोगों में त्वचा का कैंसर भी पाया जा रहा है। इस बात की कल्पना ही की जा सकती है कि इन बातों से हिंदू तीर्थयात्रियों के मन पर क्या गुजर रही होगी जो गंगा में डुबकी लगाकर पुण्य कमाने के लिए दूर-दूर से आते हैं। अनेक वानस्पतिक औषधियों को स्पर्श करता हुआ गंगा का निर्मल जल जब हरिद्वार, प्रयाग और काशी पहुंचता था तो लोग इसे अपने धार्मिक अनुष्ठानों के लिए कैनों और शीशियों में भरकर अपने घर लाते थे लेकिन आज यह जल इस योग्य नहीं रह गया है।
केंद्र सरकार गंगा को बचाने के लिए अब तक लगभग 2000 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है मगर लगता है कि सारा का सारा पैसा जैसे गटर में बह गया हो। गंगा और हिमालय भारत की पहचान रहे हैं इसलिए भी गंगा को बचाया जाना चाहिए। औद्योगिक देशों में सभी उद्योग अपने कर्तव्यों का ध्यान रखते हैं और नदियों में अपना प्रदूषित पानी भेजने से पहले उसे इतना साफ करते हैं कि मछली और अन्य जलचर उसमें जिंदा रह सकें। दूसरी ओर यहां कानपुर का चमड़ा उद्योग गंगा को प्रदूषित करने में जैसे अन्य उद्योगों से होड़ ले रहा है। सभी राज्य सरकारों का यह फर्ज है कि वे एकजुट होकर गंगा के हर पल होते क्षय को रोकें। उनके सारे खर्च और प्रयासों को इस तरह से समन्वित किया जाए जिससे अधिकाधिक लाभ हो। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के इस सुझाव में दम है कि बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की सरकारें आपस में मिल-बैठकर ऐसी रणनीति बनाएं जिससे कि इस काम को युद्ध स्तर पर कैसे पूरा किया जाए।
यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है कि नगरों-महानगरों की सारी गंदगी इन नदियों में लगातार छोड़ी जा रही है। नदियों के आसपास लगे हजारों कारखानों से निकलने वाला रसायन युक्त और जहरीला कचरा लाख मनाही के बाद भी बिना किसी रोक-टोक के इन नदियों में ही छोड़ा जाता है। करोड़ों रुपए खर्च कर लगाए गए जलशोधन संयंत्र रख-रखाव के अभाव में ठोस नतीजा नहीं दे पा रहे हैं। रही-सही कसर हमारी मान्यताओं और धार्मिक परंपराओं ने निकालकर रख दी है। हर साल दुर्गा पूजा पर लाखों की संख्या में मूर्तियों का विसर्जन इनमें किया जाता है।
अकेले पटना में ही दुर्गा पूजा के अवसर पर हजारों लीटर पट परोक्ष रूप से गंगा में बहा दिया जाता है। इसी तरह छठ या अन्य पर्वों पर भी पूजा सामग्री नदी में प्रवाहित कर दी जाती है जो सीधे-सीधे नदी की सांसें रोकने का काम करती है। पूजा के काम आए फल-पत्तियों व अन्य सामग्री को नदी के ही हवाले करने के दृश्य कभीभी देखे जा सकते हैं। सिर्फ यमुना की सफाई के नाम पर 1200 करोड़ से ज्यादा खर्च किए गए किंतु इसकी एक बंद भी साफ नहीं हुई। उलटे यमुना और मैली होती चली गई। यही हाल गंगा का है। अब जबकि गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जा चुका है, इसे फिर से नया जीवन देने और प्रदूषण की मार से बचाने को लेकर सत्ता और प्रशासन के स्तर पर कुछ सुगबुगाहट ज़रूर है। स्वयं प्रधानमंत्री भी गंगा की बदहाली पर चिंता व्यक्त कर चुके है। बहरहाल, अब यह बात साबित हो चुकी है कि मौखिक चिंतन करने और बगैर किसी ठोस और कारगर योजना के करोड़ों रुपए बहाने से नदियों का कायाकल्प नहीं होने वाला। नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के ताज़ा अध्ययन के बाद गंगा के प्रदूषण के बारे में तमाम लोगों और विशेषकर उन राज्यों की सरकारों की आँखें खुल जानी चाहिए जिन राज्यों से होकर गंगा गुजरती है। इस अध्ययन के अनुसार गंगा के किनारे रहने वाले लोग देश के अन्य इलाकों की अपेक्षा कैंसर रोग से ज्यादा ग्रसित हो सकते हैं।
इस औद्योगिक कचरे में आर्सेनिक, फ्लोराइड और अन्य भारी धातुएं जैसे जहरीले तत्व भी शामिल हैं। इन्हीं के कारण नदी के किनारे रहने वाले लोगों में गॉल ब्लैडर (पित्ताशय) के कैंसर के मामले देखने में आए हैं जो कि पूरे विश्व में भारत को दूसरे स्थान पर खड़ा कर देते हैं। गंगा नदी में खतरनाक रसायनों और जहरीली धातुओं की उपस्थिति बेहद अधिक है। भारत की लगभग 40 प्रतिशत आबादी गंगा के पानी पर निर्भर करती है। इसलिए अब समय आ गया है जब गंगा में बढ़ते प्रदूषण को एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त नहीं किया जाए।

केंद्र सरकार गंगा को बचाने के लिए अब तक लगभग 2000 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है मगर लगता है कि सारा का सारा पैसा जैसे गटर में बह गया हो। गंगा और हिमालय भारत की पहचान रहे हैं इसलिए भी गंगा को बचाया जाना चाहिए। औद्योगिक देशों में सभी उद्योग अपने कर्तव्यों का ध्यान रखते हैं और नदियों में अपना प्रदूषित पानी भेजने से पहले उसे इतना साफ करते हैं कि मछली और अन्य जलचर उसमें जिंदा रह सकें। दूसरी ओर यहां कानपुर का चमड़ा उद्योग गंगा को प्रदूषित करने में जैसे अन्य उद्योगों से होड़ ले रहा है। सभी राज्य सरकारों का यह फर्ज है कि वे एकजुट होकर गंगा के हर पल होते क्षय को रोकें। उनके सारे खर्च और प्रयासों को इस तरह से समन्वित किया जाए जिससे अधिकाधिक लाभ हो। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के इस सुझाव में दम है कि बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की सरकारें आपस में मिल-बैठकर ऐसी रणनीति बनाएं जिससे कि इस काम को युद्ध स्तर पर कैसे पूरा किया जाए।
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