कुंभ का पुण्य

भारत में ज्ञान और तप के धनी ऋषियों और मुनियों के समागम की प्राचीन परंपरा रही है। नैमिषारण्य में उनके समागम पर आधारित विपुल वांग्मय हमारे पास है। आज हम नहीं जानते कि नैमिषारण्य में कब, कैसे और कितनी अवधि के लिए यह ज्ञानयज्ञ होता था। पर उसमें कहे गए विपुल आख्यानों का जो संग्रह आज हमें प्राप्त है उससे यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि यह समागम अद्भुत होता होगा। विश्व में उसका कोई और दृष्टांत ढूंढे नहीं मिलेगा। नैमिषारण्य के समागम से कुंभ का स्वरूप कुछ भिन्न है। हम नहीं जानते कि कुंभ का आयोजन कब आरंभ हुआ, क्यों आरंभ हुआ, आरंभ से उसका स्वरूप कैसा था। और समय के साथ वह कब, कितना और कैसे बदला। हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास के बारे में गवेषणा करने का दावा जो आधुनिक शास्त्र करते हैं, यह उनकी जिज्ञासा का विषय नहीं है। अतीत को समझने और उसका आकलन करने के लिए विकसित किए गए सभी यूरोपीय शास्त्र मुख्यतः शासकीय संस्थाओं और विचारों में हुए उत्तरोत्तर परिवर्तन को ही अपने अध्ययन का केंद्र बनाते हैं। इससे इतर ज्ञान-विज्ञान और भौतिक जीवन को प्रभावित करने वाली घटनाओं में से भी केवल वहीं उनके दायरे में आ सकती है, जिनके कोई ऐतिहासिक दृश्य साक्ष्य उपलब्ध हैं। इस सबके आधार पर अतीत का अब तक जो आकलन हुआ है, उसकी भी एक बहुत बड़ी सीमा है। वह उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में यूरोप में उसके अपने सीमित अनुभव से विकसित राजनीतिक और समाजशास्त्रीय धारणाओं के आधार पर ही निर्मित हुआ है।

ऐसा नहीं कि केवल पश्चिमी इतिहास लेखन और राजनीतिक, नृशास्त्रीय या समाजशास्त्रीय चिंतन ही अतीत को समझने का उपयुक्त शास्त्र विकसित करने में असमर्थ रहा हो। उदाहरण के लिए कुंभ जैसी महत्वपूर्ण परंपरा के बारे में हमारी जिज्ञासा शांत करने में हमारे अपने सभी शास्त्र भी उतने ही असमर्थ हैं। भारतीय समाज और भारतीय सभ्यता को समझने में हमारी अयोग्यता का एक बड़ा कारण यह है कि हमने उसके लिए केवल शास्त्रों को खंगालने का प्रयत्न किया है। हमने यह साधारण-सी बात समझने का प्रयत्न नहीं किया कि सामाजिक जीवन के प्रवाह को समेट पाना किसी शास्त्रीय अनुशासन के लिए संभव नहीं है। हमारा वांग्मय तो बहुत बड़ा है, इतना बड़ा वांग्मय विश्व में और कहीं नहीं रचा गया। फिर भी वह हमारे पुरुषार्थ का, हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन का, हमारी आध्यात्मिक उपल्ब्धियों और ज्ञान-विज्ञान के उत्कर्ष का एक सीमित आख्यान ही हो सकता था। इसके अतिरिक्त वह भी इस आख्यान के रचयिताओं के पूर्वग्रहों और वैचारिक कोटियों से बंधा है। शास्त्र की ये सीमाएं स्वाभाविक ही है। जीवन का प्रवाह एक नदी की तरह है, जिसके अनवरत जल-प्रवाह में बह कर जाती हुई कुछ वस्तुओं को निकाल कर हम नदी और उसके आसपास के संसार में जो घटित हुआ है उसके बारे में कुछ बहुत नहीं जान सकते। फिर भी मनुष्य की जिज्ञासा अमर है और वह हमें अपने वर्तमान को देखने-परखने और भविष्य को प्रभावित करने के साधन के रूप में अतीत के अनुभव का आकलन करने के लिए प्रेरित करती रही है। लेकिन उसका सही तरीका यह है कि हमें अपने हाल के ज्ञात इतिहास के सूत्र पकड़ कर पीछे मुड़ना चाहिए, न कि अपने वांग्मय को कूप-मंडूक की तरह खंगालने लग जाना चाहिए। यह भी याद रखना चाहिए कि समाज अपने पुरुषार्थ के लिए जिस विशद सामग्री का, जिन व्यापक उपकरणों का उपयोग करता है, उनमें शास्त्रोक्त बातों की एक सीमित भूमिका ही है।

कुंभ के बारे में हमारे ज्ञान के सीमित होने का कारण यह नहीं है कि हमारे वांग्मय में कुंभ संबंधी हमारी सभी जिज्ञासाओं का उचित उत्तर नहीं मिलता। इसका कारण, यह है कि हमने अपनी परंपराओं को समझने के लिए अपनी स्वाभाविक स्मृति और अपने सामाजिक अनुभव में झांकने का प्रयत्न ही नहीं किया। भागवत पुराण के माध्यम से हम सागर मंथन की पौराणिक कथा जानते हैं। हम यह भी जानते हैं कि देवों और असुरों में सागर मंथन से निकलने अमृत कुंभ के लिए बारह वर्ष तक युद्ध हुआ। उसे असुरों से बचाने और देवताओं को उपलब्ध करवाने के लिए भगवान विष्णु मोहिनी रूप में कुंभ ले उड़े और छलकते हुए कुंभ से अमृत की कुछ बूंदे हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक की पुण्यदायी नदियों में गिरीं। वहीं हर बारह वर्ष पर कुंभ आयोजित करने की, जब सूर्य और वृहस्पति कुछ विशेष राशियों में होते हैं, परंपरा आरंभ हुई।

भागवत पुराण के इस लाक्षणिक आख्यान में कुंभ का आयोजन का रहस्य छिपा हुआ है। इस रहस्य को उद्घाटित करना किसी के लिए संभव नहीं है। लेकिन यह समझने के लिए किसी विश्लेषण बुद्धि आवश्यकता नहीं है कि यह महत्वपूर्ण आयोजन केवल हमारी इस पुण्यदायी नदियों में स्नान मात्र के लिए निर्धारित नहीं किया गया होगा। अमृत कुंभ से छलक कर जो बूंदे इन स्थानों में गिरी थीं, वे जल मात्र होतीं तो इन पुण्य-सलिलाओं के अनवरत प्रवाह में कब की बिला गई होती। कुंभ से छलके अमृत का अवशेष अगर कहीं है तो वह इन तपस्वी सन्यासियों के ज्ञान-यज्ञ में ही हो सकता है, जो कुंभ के समय न केवल संन्सियों के विपुल समाज को उपलब्ध होता है, ब्लकि कुंभ स्नान में निमित्त आए शेष समाज को भी उपलब्ध होता है।

हमारे कुछ पंडितों में यह मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने संन्यासियों को दशनामी संप्रदाय में संगठित करते हुए कुंभ में उनके एकत्र होने की परंपरा डाली। हम नहीं जानते कि यह बात पूरी तरह सही है या नहीं। आज केवल शंकर अनुयायी संन्यासी ही वहां एकत्र नहीं होते, अन्य चारों आचार्यों, रामानुज, मध्व, निर्म्बाक और वल्लभ संप्रदाय से जुड़े संन्यासी और अखाड़े भी वहां एकत्र होते हैं। लेकिन आचार्य शंकर से ही यह परंपरा आरंभ हुई हो तो भी वह किसी पूर्ण आयोजन का विस्तार ही होगी। सागर मंथन जैसे आख्यान पर आधारित परंपरा केवल एक आचार्य की प्रारंभ की हुई नहीं हो सकती।

भारत में ज्ञान और तप के धनी ऋषियों और मुनियों के समागम की प्राचीन परंपरा रही है। नैमिषारण्य में उनके समागम पर आधारित विपुल वांग्मय हमारे पास है। आज हम नहीं जानते कि नैमिषारण्य में कब, कैसे और कितनी अवधि के लिए यह ज्ञानयज्ञ होता था। पर उसमें कहे गए विपुल आख्यानों का जो संग्रह आज हमें प्राप्त है उससे यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि यह समागम अद्भुत होता होगा। विश्व में उसका कोई और दृष्टांत ढूंढे नहीं मिलेगा। नैमिषारण्य के समागम से कुंभ का स्वरूप कुछ भिन्न है। आज यह केवल तपःपूत संन्यासियों के चौदह अखाड़ों का आयोजन जैसा लगता है वह इसी रूप में आरंभ हुआ था या किसी और रूप में, हम नहीं जानते। पर संन्यासियों का परस्पर और शेष समाज के साथ समागम भी कोई कम महत्व की घटना नहीं है।

आज हमने अपने संन्यासियों के इस विशाल समाज को अपनी जिज्ञासा के परिधि से बाहर कर रखा है। कुछ समय पहले तक यह धारणा थी कि देश की जनसंख्या में लगभग एक प्रतिशत संन्यासी हैं। यह कोई साधारण संख्या नहीं है और उसका हमारे आध्यात्मिक जीवन ही नहीं आर्थिक और जनसांख्यकीय दृष्टि से भी बहुत महत्व है। देश के सबसे आदरणीय एक प्रतिशत लोग स्वेच्छा से न्यूनतम भौतिक साधनों पर निर्वाह करते हुए पूरे समाज के सामने सादगी और त्याग का आदर्श रख रहे हैं। यह बात समाज को नैतिक प्रतिमानों से जोड़े रखने में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती होगी, इसका अनुमान किया जा सकता है। आज साधु-संन्यासियों के एक वर्ग के त्याग और तपस्या में जो थोड़ी-बहुत क्षीणता आई है इसका कारण भी यही है कि एक समाज के रूप में हमने अपनी सामाजिक और धार्मिक विधियों को देखना-परखना छोड़ दिया है।

कुंभ आयोजन की सबसे महत्तवपूर्ण घटना है नए संन्यासियों की दीक्षा। अखाड़े तप-साधना में रत संन्यासियों के संगठन हैं। उनके शीर्ष पर महंत विराजमान होते हैं। यह व्यवस्था पंचायती है और मुख्य संन्यासियों की परिषद से बारी-बारी से एक संन्यासी महंत के पद पर आभिषिक्त होता रहता है। यह संन्यासी साधना-मार्ग से आगे बढ़े हैं और उनका शास्त्रज्ञ होना आवश्यक नहीं है। शास्त्रज्ञ की भूमिका में अखाड़े के आचार्य होते हैं और उन्हीं का दायित्व नए संन्यासियों को दीक्षा देना है। एक आचार्य के लिए यह कार्य श्रमसाध्य मान कर महामंडलेश्वर इस दायित्व का निर्वाह करने लगे हैं। हर अखाड़ा शास्त्रज्ञ संन्यासियों को अपने महामंडलेश्वर के पद पर अभिषिक्त करता रहता है। परंपरा से महंत और आचार्य समान महत्व के पद रहे हैं। लेकिन प्रचार-प्रसार के इस काल में महामंडलेश्वर का पद अधिक वैभवपूर्ण हो गया है। उन्हीं के आसपास भक्तों का जमघट लगा रहता है।

संन्यासियों के इस तंत्र में पिछले कुछ दिनों से अनुसाशन की कुछ शिथिलता दिखने लगी। कुंभ ही एक ऐसा अवसर है, जब सभी अखाड़े एक जगह एकत्र होते हैं और उनमें होने वाले विस्तार और परिवर्तन सबकी दृष्टि में आते हैं। सभी अखाड़े स्वतंत्र हैं। फिर भी उनके आचार-विचार पर सबके बीच चर्चा होती है और नए संन्यासियों या महामंडलेश्वरों को लेकर किसी को कोई आपत्ति है तो वह उनके निमित्त दिए जाने वाले भोज में सम्मिलित न होकर अपना विरोध दर्ज कराता है। संन्यासियों के इस तंत्र की आंतरिक शुद्धि उनकी अपनी पद्धतियों और परंपराओं के सुचारु निवर्तन पर निर्भर है। समाज में उसकी व्यापक समझ होनी चाहिए। यह दुख और चिंता की बात है कि हमारा राजनीतिक प्रतिष्ठान, शिक्षा जगत, समाज के मुखिया और बौद्धिक वर्ग में संन्यासियों के बारे में नाम मात्र की ही समझ है।

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