कुदरती खेती के अनुभव

आम तौर पर यह माना जाता है कि रासायनिक खाद का प्रयोग न करने पर उत्पादन घटता है, विशेष तौर पर शुरु के सालों में। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। अगर पूरी तैयारी के साथ कुदरती खेती अपनाई जाए (यानी कि पर्याप्त बायोमास- हर प्रकार का कृषि-अवशेष या कोई भी वनस्पति-पराली, पत्ते, इत्यादि-हों, और पूरे ज्ञान के साथ, समय पर सारी प्रक्रिया पूरी की जायें तथा अनुभवी मार्गदर्शक हो) तो पहले साल भी घाटा नहीं होता। अगर यह सब न हो, तो पैदावार घट सकती है परन्तु फिर भी तीसरे साल तक आते-आते उत्पादकता पुराने स्तर पर पहुँच जाती है। बाद के सालों में कुछ फसलों में उत्पादन काफी बेहतर भी हो सकता है और कुछ में थोड़ा कम भी रह सकता है। यहाँ यह समझना भी आवश्यक है कि हमें किसी एक फसल (मसलन गेहूँ) के उत्पादन पर ध्यान न दे कर, कृषि से प्राप्त कुल उत्पादन और आय को देखना चाहिये। इस के साथ-साथ कुदरती पद्धति में फसल की गुणवत्ता अच्छी होने से, बगैर किसी विशेष प्रमाण पत्र के भी, स्थानीय बाजार में ही बेहतर बाव मिल जाते हैं। खर्च तो काफी घट ही जाता है, पानी की जरूरत भी घट जाती है। ट्यूबवेल होने के बावजूद कुदरती केती अपनाने वाले किसान केवल नहरी पानी से खेती कर रहे हैं।

कुल मिला कर अनुभव यह है कि कुदरती खेती अपनाने से लागत कम हो जाती है परन्तु (कुछ हद तक शुरू के समय को छोड़ कर) न तो उत्पादन में कमी आती है और न किसान की आय में। बल्कि इस तरह की खेती उत्पादन और आय, दोनों में ज्यादा स्थिरता लाती है क्योंकि सूखे और बाढ़ आदि में भी फसल में उतनी ज्यादा कमी नहीं आती जितनी कि रासायनिक खेती में आती है। अगर उत्पादन में विशेष कमी नहीं होती तो उपभोक्ता को भी महँगी नहीं पड़नी चाहिये। (आज के दिन बगैर जहर के जैविक उत्पाद काफी महँगे मिलते हैं परन्तु इस के पीछे कम उत्पादकता मुख्य कारण नहीं है। आज भी छोटे किसानों को तो आमतौर पर जैविक उत्पादों के लिये बाजार भाव से लगभग 20% ही अधिक कीमत मिल पाती है।)

यह सब मनघड़ंत नहीं है। देश-विदेश के वैज्ञानिक अध्ययन इस का समर्थन करते हैं। रोम में 2007 में “जैविक कृषि और खाद्य सुरक्षा” पर एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) द्वारा आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में 80 देशों, 24 शोध संस्थानों, 31 विश्वविद्यालयों, पाँच सरकारी संस्थाओं के 350 प्रतिभागी शामिल थे। इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में इस प्रश्न पर विचार किया गया था कि क्या ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था हो सकती है जो 2030 तक कृषि उत्पादकता में 56 प्रतिशत की वृद्धि सुनिश्चित कर सके? इस अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन की रपट के अनुसार वैकल्पिक कृषि में यह क्षमता है कि यह सुनिश्चित कर सके और विश्व को अन्न सुरक्षा उपलब्ध करा सके। न केवल इतना, अपितु पर्यावरण को भी कहीं कम नुकसान पहुँचाए।

हमारे देश में भी महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक आदि राज्यों में बड़े पैमाने पर किसान इस खेती को सफलतापूर्वक अपना चुके हैं। भारत सजीव कृषि समाज के सहयोग से प्रकाशित पुस्तक में ऐसे हजारों किसानों के अनुभव, नाम, पते और फोन नम्बर इत्यादि दिये हुए हैं। चौथाई एकड़ भूमि में पाँच सदस्यों का परिवार ‘मौज कर सके’, ऐसे उदाहरण भी हैं। हैदराबाद के एक अन्तर्राष्ट्रीय शोध संस्थान में (भूतपूर्व) प्रमुख वैज्ञानिक डॉक्टर ओम प्रकाश रुपेला (जो हरियाणा मूल के हैं) द्वारा 1999 में शुरू किये गये एक लम्बी अवधि के 2.5 एकड़ में किये गये तुलनात्मक अध्ययन में यह पाया गया कि किसान को रासायनिक खेती के मुकाबले कुदरती खेती में ज्यादा फायदा होता है। विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि यह परिणाम तब आये हैं जब जैविक और रासायनिक दोनों तरह के उत्पाद के लिये एक ही बाजार मूल्य लगाया गया।

पंजाब में भी कई साल पहले से शुरूआत हो चुकी है। हरियाणा में पूरी तरह से जहर रहित खेती के उदाहरण, खास तौर पर छोटे किसानों के उदाहरण, अभी कम हैं. परन्तु कई जगह टुकड़ों में वैकल्पिक खेती हो रही है। कहीं बिना कीटनाशक खेती हो रही है, तो कहीं बिना रासायनिक खाद के खेती हो रही है। जींद जिले में कृषि वैज्ञानिक डा. सुरेन्द्र दलाल की अगुआई में कपास के कीटों की पहचान का काम कई सालों से चल रहा है। इसके चलते जींद के निडाना और आसपास के गावों में कई किसानों ने कपास में, जिस में आमतौर पर सब से ज्यादा कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है, कीटनाशकों का प्रयोग बंद कर दिया है। 2010 की खरीफ़ की बुआई से हरियाणा में भी कई जगह कुदरती खेती के प्रयोग शुरू हो गये हैं। (कुछ संदर्भ सामग्री और किसानों का विवरण इस पुस्तिका के अंत में है। अगर आप और जानकारी चाहें या इन किसानों से मिलना चाहें तो सम्पर्क करें।)

हाँ, एक दिक्कत तो है। इस तरह की कुदरती केती सारा साल खेत में देखभाल मांगती है। शुरू में यह ज्यादा मेहनत भी माँगती है परन्तु समय गुज़रने के साथ श्रम की जरूरत कम हो जाती है (इसलिये इसे ‘कुछ भी न करने वाली खेती’ भी कहा जाता है)। वैसे भी अगर शुरू में यह खेती ज्यादा मेहनत मांगती है तो इस का मतलब यह है कि गाँव में रोज़गार के अवसर बढ़ते हैं, बेरोजगारी कम होती है। अगर पूरे साल खेत में काम रहता है, तो मजदूर मिलने भी आसान हो जाते हैं। परन्तु दूर शहर में रह कर खेती कराने वाले या अंशकालीन किसान के लिये यह थोड़ा मुश्किल पड़ता है। केवल नौकरों के भरोसे खेती करने वालों के लिये यह उतनी अनुकूल नहीं है जितनी की वर्तमान रासायनकि खेती। परन्तु शायद यह इस विधि का दोष न हो कर गुण ही है कि खुद हाथ से करने वाला ज्यादा फायदे में रहता है।

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