पिछले दिनों मैं होशंगाबाद के राजू टाइटस फार्म गया, जहां वे पिछले 25 बरस से कुदरती खेती कर रहे हैं। मध्यप्रदेश में होशंगाबाद-भोपाल रोड़ पर स्थित टाइटस फार्म की शहर से दूरी करीब 3 किलोमीटर है।
मेरे साथ चेन्नई के मशहूर एशियन कॉलेज ऑफ जर्नालिज्म के प्रतिभाशाली छात्र-छात्राएं भी थे। राजू भाई ने द्वार पर हमारा स्वागत इस सवाल के साथ किया कि क्या आपने पीपली लाइव देखी है। वे बोले- आज हर किसान नत्था बन गया है। इन दिनों मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या के समाचार लगातार आ रहे हैं।
कुछ कदम चलते ही हम गेहूं के खेत में पहुंच गए। हवा के साथ गेहूं के हरे पौधे लहलहा रहे थे। हम एक पेड़ की छाया तले खड़े होकर राजू भाई का अनुभव सुन रहे थे। कुछ अचरज की बात यह थी कि खेत में फलदार और अन्य जंगली पेड़ थे जिनके नीचे गेहूं की फसल थी। आम तौर पर खेतों में पेड़ नहीं होते हैं। लेकिन यहां अमरूद, नीबू और बबूल के पेड़ों के नीचे गेहूं की फसल थी। अमरूद के फलों से लदे पेड़ देखकर सुखद आश्चर्य हो रहा था।
वे बताते हैं कि पेड़ों के कारण खेतों में गहराई तक जड़ों का जाल बुना रहता है। और इससे भी जमीन ताकतवर बनती जाती है। अनाज और फसलों के पौधे पेड़ों की छाया तले अच्छे होते हैं। छाया का असर जमीन के उपजाऊ होने पर निर्भर करता है। चूंकि हमारी जमीन की उर्वरता और ताकत अधिक है, इसलिए पेड़ों की छाया का फसल पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता।
आधुनिक खेती या रासायनिक खेती प्रकृति के खिलाफ है। रासायनिक खादों व कीटनाशको से हमारी खेतों की मिट्टी की उर्वरता खत्म हो रही है। मिट्टी में मौजूद जीवाणु और जैव तत्त्व मर रहे हैं। जबकि कुदरती खेती, प्रकृति के साथ होती है। यद्यपि प्राकृतिक खेती की शुरूआत जापान के कृषि वैज्ञानिक फुकुओवा ने की है। लेकिन हमारे यहां भी ऐसी खेती होती रही है। मंडला के बैगा आदिवासी बिना जुताई की खेती करते हैं जिसे झूम खेती कहते हैं।
यहां बिना जुताई (नो टिलिग) और बिना रासायनिक खाद के यह कुदरती खेती की जा रही है। बीजों को मिट्टी की गोली बनाकर बिखेर दिया जाता है और वे उग आते हैं। यह सिर्फ खेती की एक पद्धति भर नहीं है बल्कि जीवनशैली है। यहां का अनाज और फल जैविक हैं और पानी और हवा शुद्ध है। यहा कुआं है, जिसमें पर्याप्त पानी है।
रासायनिक खेती का दुष्प्रभावों का उन्हे प्रत्यक्ष अनुभव है। वे खुद पहले रासायनिक खेती करते थे। पर उसमें लगातार हो रहे घाटे और मिट्टी की उर्वरता कम होने के कारण उसे छोड़ दिया। लेकिन उन्होंने फुकुओवा की किताब एक तिनके से क्रांति को पढ़कर फिर खेती की ओर रूख किया और तबसे अब तक कुदरती खेती कर रहे हैं।
बिना जुताई के खेती मुश्किल है, ऐसा लगना स्वाभाविक है। जब पहली बार मैंने सुना था तब मुझे भी विश्वास नहीं हुआ था। लेकिन देखने के बाद सभी शंकाएं निर्मूल हो गई। दरअसल, इस पर्यावरणीय पद्धति में मिट्टी की उर्वरता उत्तरोतर बढ़ती जाती है। जबकि रासायनिक खेती में यह क्रमशः घटती जाती है। और एक स्थिति के बाद उसमें कुछ भी नहीं उपजता। वह बंजर हो जाती है।
करीब 12 एकड़ के फार्म में सिर्फ 1 एकड़ में खेती की जा रही है और बाकी 11 एकड़ में सुबबूल (आस्टेलियन अगेसिया) का जंगल है। सुबबूल एक चारे की प्रजाति है। आगे नाले को पार कर हम जंगल में पहुंच चुके थे। यहां कुछ मजदूर महिलाएं लकड़ी सिर पर रखकर ले जा रही थी जबकि कुछ पुरूष पेड़ों से टहनियों की कटाई-छंटाई कर रहे थे।
राजू भाई बताते हैं कि हम खेती को भोजन की जरूरत के हिसाब से करते हैं, बाजार के हिसाब से नहीं। हमारी जरूरत एक एकड़ से ही पूरी हो जाती है। यहां से हमें अनाज, फल और सब्जियां मिलती हैं, जो हमारे परिवार की जरूरत पूरी कर देते हैं। जाड़े मे गेहूं, गर्मी में मक्का व मूंग और बारिश में धान की फसल ली जाती है।
सुबबूल के जंगल से हमें मवे्शियों का चारा और लकड़ियां मिल जाती हैं। लकड़ियों का टाल है, जहां से जलाऊ लकड़ी बिकती हैं, जो हमारी आय का मुख्य स्त्रोत है। उनके मुताबिक वे एक एकड़ जंगल से हर वर्ष करीब ढाई लाख रू की लकड़ी बेच लेते हैं।
आमतौर पर किसान अपने खेतों से अतिरिक्त पानी को नालियों से बाहर निकाल देते हैं लेकिन यहां ऐसा नहीं किया जाता। वे कहते हैं कि हम खेतों को ग्रीन कवर करके रखते हैं। बारिश में कितना ही पानी गिरे, वह खेत के बाहर नहीं जाता। खेतों में जो खरपतवार, ग्रीन कवर या पेड़ होते हैं, वे पानी को सोखते हैं। इससे एक ओर हमारे खेतों में नमी बनी रहती है। दूसरी ओर वह पानी वाष्पीकृत होकर बादल बनता है और बारिश में पुनः बरसता है।
इन खेतों में पुआल, नरवाई, चारा, तिनका व छोटी-छोटी टहनियों को पड़ा रहने देते हैं, जो सड़कर जैव खाद बनाती हैं। खेत में तमाम छोटी-बड़ी वनस्पतियों के साथ जैव विविधताएं आती -जाती रहती हैं। और हर मौसम में जमीन ताकतवर होती जाती है। इस जमीन में पौधे भी स्वस्थ और ताकतवर होते हैं जिन्हें जल्द बीमारी नहीं घेरती।
यहां जमीन को हमेशा ढककर रखा जाता है। यह ढकाव हरा या सूखा किसी भी तरह से हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। इस ढकाव के नीचे अनगिनत जीवाणु, केंचुए और कीड़े-मकोड़े रहते हैं। और उनके ऊपर-नीचे आते-जाते रहने से जमीन पोली और हवादार व उपजाऊ बनती है।
जमीन जुताई से भू-क्षरण होता है। जब जमीन की जुताई की जाती है और उसमें पानी दिया जाता है तो खेत में कीचड़ हो जाती है। बारिश होती है तो पानी नीचे नहीं जा पाता और तेजी से बहता है। पानी के साथ खेत की उपजाऊ मिट्टी बह जाती है। इस तरह हम मिट्टी की उपजाऊ परत को बर्बाद कर रहे हैं और भूजल का पुनर्भरण भी नहीं कर पा रहे हैं। साल दर साल भूजल नीचे चला जा रहा है।
कुदरती खेती एक जीवन पद्धति है। इसमें मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। यह पूरी तरह अहिंसक खेती भी है। इससे मिट्टी-पानी का संरक्षण भी होता हैं। इसे ऋषि खेती इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि ऋषि मुनि कंद-मूल, फल और दूध को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे। बहुत कम जमीन पर मोटे अनाजों को उपजाते थे। वे धरती को अपनी मां के समान मानते थे। उससे उतना ही लेते थे, जितनी जरूरत होती थी। सब कुछ निचोड़ने की नीयत नहीं होती थी। इस सबके मद्देनजर कुदरती खेती भी एक रास्ता है। कुदरती का यह प्रयोग सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।
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