ब्रह्मपुत्र असमिया जाति के इतिहास की धारा का प्रतीक है। यह विकासमान असमिया संस्कृति का महाकाव्य है। यह नदी नहीं नद है। यह किरातों को महानद है। यह मात्र जलधारा नहीं है, बल्कि इतिहास में विकासमान एक भावसत्ता भी है
अद्भुत शिशुजन्म। पिता ऋषि शांतनु चकित हो गए जब उनकी रूपवती पत्नी अमोघा ने एक वारिधारा का प्रसव किया। उस वारिधारा के मध्य एक गौर चतुर्भुज बालक खेल रहा था जिसके हाथों में क्रमशः पुस्तक, श्वेत पद्म, ध्वज और शक्ति शोभित थे, जिसका वसन शुद्ध आकाशवर्ण नील था, और जो जलधारा के मध्य ऐसे क्रीड़ारत था जैसे लहरों पर प्रस्फुटित कमल। आकाश से विविध लोकों के प्रजापतियों के हंसयान उतरे और इस जलदेवता - जैसे शिशु का नाम दिया ‘लौहित्य’ शांतनु ने पूर्व घटना का स्मरण करते हुए कहा, “इसका नाम होगा, ब्रह्मपुत्र।” भरतखण्ड के कवियों और व्यासों ने उपस्थित होकर दोनों नामें को समान रूप से उच्चारित किया। तभी त्रिविष्टप देश की व्योमवासी सिद्धों और उपवनचारी किन्नरों ने आकर प्रार्थना की, इसका नाम होगा ‘साड.पो!’ तत्पश्चात भारतीय किरातों ने अपने धनुष उठाकर प्रतिवाद किया, “इसका नाम रहेगा ‘दिहाड्.!’” तत्पश्चात तीनों गायत्रियों ने बालक पर कुश-जल का छिड़काव करते हुए पवित्र साम-पाठ किया। सप्तछंदों ने मृदंग बजाकर नूपुर-नृत्य किया। मंत्रसिद्ध पुरूषों ने सम्मिलित आवाहन ध्वनि की, “ऊँ मणिपद्मे हुम!” तत्पश्चात विधाता ने स्वयं आकर अपने पुत्र का आदेश दिया, “वत्स, अभी तुम जाओ दिव्य कैलाश-भूमि में। वहीं पार्वती के चरणों में जाकर निवास करो। काल पाकर तुम जब बड़े हो जाना तो युवा नद के रूप में कामीठ की यज्ञ-भूमि में आ जाना और सुख-पूर्वक प्रवाहित होना। पर अभी नहीं। अभी तुम बच्चे हो। तुम्हारे अंग पुष्ट नहीं हुए हैं। अतः तुम अभी पार्वती के चरणों के नीचे मानस-सर में निवास करो और प्रतीक्षा करो।” विधाता का आदेश हुआ। पिता शांतनु ऋषि ने इस जल-शिशु को वारिधारा के साथ कैलाश, गंधमार्दन, जारूधी और संवर्तक पर्वतों के मध्य स्थापित कर दिया। वहीं विरजा निर्मल जलराशि के रूप में ब्रह्मपुत्र अपनी क्षमता को पुष्ट करता रहा।
जिस प्रकार गंगा निषादों की नदी है उसी भाँति ब्रह्मपुत्र किरातों का महानद है। यह मात्र वारिधारा नहीं, इतिहास में विकासमान एक भावसत्ता भी है। हमारी भारतीय जाति की रचना में चार नस्लों के धागे हैं- आर्य, निषाद, किरात और द्राविड़। ये चारों मिलकर जिस जाति की रचना करते हैं उसे ही कभी ‘नव्य आर्य’ या भारतीय आर्य, कभी हिन्दू और कभी केवल भारतीय कहते हैं। हमारी भारतीय जाति के चारों धागों के सांस्कृतिक प्रवाहों की प्रतीक चार नदियाँ है: सरस्वती (आर्य), गंगा (निषाद), ब्रह्मपुत्र (किरात), और कावेरी (द्राविड़)। जैसे सरस्वती अंतः सलिला है वैसे ही आर्यत्व भी हमारी जाति के उस चिन्मय व्यक्तित्व की रचना करता है जो भीतर व्याप्त रहता है। परन्तु हमारा सब कुछ बाहरी रूपकलाप और क्रियाकलाप निषाद-किरात-द्राविड़ है। यदि रस-सिद्धांत की भाषा में बोलें तो हमारी संस्कृति का ‘रस’ है भारतीयता, जिसमें आर्यत्व है स्थायी भाव। पर इस स्थायी भाव की रचना के लिए अनुभाव, विभाव और संचारी भाव चाहिए और ये अनुभाव, विभाव तथा संचारी भाव हैं क्रमशः किरात, निषाद और द्राविड़। इनकी ही निष्पत्ति से जिस रस का अनुभव होता है वह है भारतीयता या भारत।
(निषाद बांसुरी-ले.: कुबेरनाथ राय, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से एक अंश)
अद्भुत शिशुजन्म। पिता ऋषि शांतनु चकित हो गए जब उनकी रूपवती पत्नी अमोघा ने एक वारिधारा का प्रसव किया। उस वारिधारा के मध्य एक गौर चतुर्भुज बालक खेल रहा था जिसके हाथों में क्रमशः पुस्तक, श्वेत पद्म, ध्वज और शक्ति शोभित थे, जिसका वसन शुद्ध आकाशवर्ण नील था, और जो जलधारा के मध्य ऐसे क्रीड़ारत था जैसे लहरों पर प्रस्फुटित कमल। आकाश से विविध लोकों के प्रजापतियों के हंसयान उतरे और इस जलदेवता - जैसे शिशु का नाम दिया ‘लौहित्य’ शांतनु ने पूर्व घटना का स्मरण करते हुए कहा, “इसका नाम होगा, ब्रह्मपुत्र।” भरतखण्ड के कवियों और व्यासों ने उपस्थित होकर दोनों नामें को समान रूप से उच्चारित किया। तभी त्रिविष्टप देश की व्योमवासी सिद्धों और उपवनचारी किन्नरों ने आकर प्रार्थना की, इसका नाम होगा ‘साड.पो!’ तत्पश्चात भारतीय किरातों ने अपने धनुष उठाकर प्रतिवाद किया, “इसका नाम रहेगा ‘दिहाड्.!’” तत्पश्चात तीनों गायत्रियों ने बालक पर कुश-जल का छिड़काव करते हुए पवित्र साम-पाठ किया। सप्तछंदों ने मृदंग बजाकर नूपुर-नृत्य किया। मंत्रसिद्ध पुरूषों ने सम्मिलित आवाहन ध्वनि की, “ऊँ मणिपद्मे हुम!” तत्पश्चात विधाता ने स्वयं आकर अपने पुत्र का आदेश दिया, “वत्स, अभी तुम जाओ दिव्य कैलाश-भूमि में। वहीं पार्वती के चरणों में जाकर निवास करो। काल पाकर तुम जब बड़े हो जाना तो युवा नद के रूप में कामीठ की यज्ञ-भूमि में आ जाना और सुख-पूर्वक प्रवाहित होना। पर अभी नहीं। अभी तुम बच्चे हो। तुम्हारे अंग पुष्ट नहीं हुए हैं। अतः तुम अभी पार्वती के चरणों के नीचे मानस-सर में निवास करो और प्रतीक्षा करो।” विधाता का आदेश हुआ। पिता शांतनु ऋषि ने इस जल-शिशु को वारिधारा के साथ कैलाश, गंधमार्दन, जारूधी और संवर्तक पर्वतों के मध्य स्थापित कर दिया। वहीं विरजा निर्मल जलराशि के रूप में ब्रह्मपुत्र अपनी क्षमता को पुष्ट करता रहा।
जिस प्रकार गंगा निषादों की नदी है उसी भाँति ब्रह्मपुत्र किरातों का महानद है। यह मात्र वारिधारा नहीं, इतिहास में विकासमान एक भावसत्ता भी है। हमारी भारतीय जाति की रचना में चार नस्लों के धागे हैं- आर्य, निषाद, किरात और द्राविड़। ये चारों मिलकर जिस जाति की रचना करते हैं उसे ही कभी ‘नव्य आर्य’ या भारतीय आर्य, कभी हिन्दू और कभी केवल भारतीय कहते हैं। हमारी भारतीय जाति के चारों धागों के सांस्कृतिक प्रवाहों की प्रतीक चार नदियाँ है: सरस्वती (आर्य), गंगा (निषाद), ब्रह्मपुत्र (किरात), और कावेरी (द्राविड़)। जैसे सरस्वती अंतः सलिला है वैसे ही आर्यत्व भी हमारी जाति के उस चिन्मय व्यक्तित्व की रचना करता है जो भीतर व्याप्त रहता है। परन्तु हमारा सब कुछ बाहरी रूपकलाप और क्रियाकलाप निषाद-किरात-द्राविड़ है। यदि रस-सिद्धांत की भाषा में बोलें तो हमारी संस्कृति का ‘रस’ है भारतीयता, जिसमें आर्यत्व है स्थायी भाव। पर इस स्थायी भाव की रचना के लिए अनुभाव, विभाव और संचारी भाव चाहिए और ये अनुभाव, विभाव तथा संचारी भाव हैं क्रमशः किरात, निषाद और द्राविड़। इनकी ही निष्पत्ति से जिस रस का अनुभव होता है वह है भारतीयता या भारत।
(निषाद बांसुरी-ले.: कुबेरनाथ राय, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से एक अंश)
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