देश के कुल क्षेत्रफल के 23.81 फीसदी हिस्से पर जंगल हैं। वहीं, भारत सरकार का आंकड़ा कहता है कि हाल के वर्षों में 367 वर्ग किलोमीटर जंगल का सफाया कर दिया गया है। यह कुचक्र गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक के पूरे इलाके में चल रहा है। कहीं कारण प्राकतिक है तो कहीं मानव निर्मित। अगर कुछेक राज्यों को छोड़ दें तो कमोबेश इस हरियाली को बनाए रखने के लिए प्रति उदासीनता एक जैसी ही नजर आती है।
पर्यावरण से पृथ्वी का गहरा नाता है। इस रिश्ते की डोर को सबसे मजबूती से जिसने बांधे रखा है वे पेड़ हैं। लेकिन दरख्तों की बेहिसाब कटाई और कंक्रीट के जंगलों के बीच आज अगर हम छांव को तरसते हैं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि इन हालातों के जनक भी हम ही हैं। प्रदेश में पेड़ लगाने का अभियान छेड़ने वाली समाजवादी पार्टी सरकार भी अब हरियाली को लेकर चिंतित दिखाई पड़ रही है। इसलिए बीते दिनों के आदेश में उन्होंने बेवजह पेड़ काटने और कटवाने वालों पर सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए हैं। पर सरकार के इस आदेश पर अमल करने वाले महकमे की पड़ताल करें तो साफ होता है कि उसके पास सरकारी आदेश को जमीन पर उतारने के लिए कोई नीति और नीयत नहीं है। यही वजह है कि जब वन महकमे के हुक्मरानों से पेड़-पौधे लगाने के बाबत बातचीत की जाती है तब उनके दावे इतने बढ़-चढ़कर होते हैं कि उस पर सहसा विश्वास कर पाना आसान नहीं होता। मसलन, वन महकमे का दावा है कि चंदौली को छोड़कर सूबे के सभी जिलों में वृक्षारोपण का लक्ष्य न केवल हासिल किया गया है बल्कि अधिकांश जिलों में तो लक्ष्य से आगे जाकर वृक्षारोपण किया गया। लेकिन इसी महकमे के पास इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि बीते पांच-दस सालों में सूबे में कितने पेड़ काटे गए।हालांकि खुद सरकारी आंकड़े यह चुगली करते हैं कि वृक्षारोपण और हरित क्षेत्र के मामले में सरकार के दावे कितने बेमानी हैं। उत्तर प्रदेश में पेड़-पौधों और वन का इलाका महज 9.01 फीसदी ही है जबकि राष्ट्रीय वन नीति के मुताबिक राज्य का 33 फीसदी भौगोलिक क्षेत्रफल वनाच्छादित या वृक्षाच्छादित होना चाहिए। ‘फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया’ की दो साल पहले की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश का केवल 14,341 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल ही वनाच्छादित हैं जो कि प्रदेश के भौगोलिक क्षेत्र का सिर्फ 5.95 फीसदी है। जबकि प्रदेश का 7381 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र वृक्षाच्छादित है जो भौगोलिक क्षेत्रफल का केवल 3.06 फीसदी है। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर केंद्र सरकार की ओर से सभी प्रदेशों में कंपंसेटरी फॉरस्टेशन मैनेजमेंट प्लानिंग अथॉरिटी (कैंपा) का गठन किया गया है। इसके तहत जिस भी इलाके में पेड़ काटे जाएंगे वहां दस गुने पेड़ उसी प्रजाति के लगाने होंगे। पेड़ लगाने की राशि काटने वाली एजेंसी को जमा करनी होगी।
उत्तर प्रदेश में ‘कैंपा’ के पास अब तब 400 करोड़ रुपए जमा हैं। वैसे, वन विभाग के जनसंपर्क अधिकारी आशुबोध पंत बताते हैं कि उनके पास बीते दस सालों में सूबे में कितने पेड़ कटे इस बाबात कोई आंकड़ा नहीं है। हालांकि बताते हैं कि लखनऊ-फैजाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग को फोर लेन बनाने के लिए 11 हजार पेड़ों की बलि चढ़ाई गई। जबकि लखनऊ-सीतापुर राष्ट्रीय राजमार्ग को चौड़ा करने के लिए 8,166 पुराने पेड़ काट गिराए गए। बाराबंकी में 47 किलोमीटर लंबे राजमार्ग को चौड़ा करने के लिए 9,450 पेड़ काटे गए। फैजाबाद में 1.10 लाख पेड़ लगने चाहिए, पर 45 हजार पेड़ लगाने का लक्ष्य रखा गया। जबकि बाराबंकी में 94 हजार पेड़ लगाए जाने चाहिए थे, लेकिन लक्ष्य 50 हजार पेड़ लगाने का रखा गया। इसी तरह सीतापुर मार्ग पर कटे पेड़ों की एवज में 25 हजार पेड़ लगाने का लक्ष्य रखा गया। पर इस मार्ग से गुजरे तो यह दावे खुद-ब-खुद खोखले दिखाई पड़ते हैं। राजमार्ग के नाम पर सड़क को चौड़ा करने के लिए सौ-सौ साल पुराने पीपल, बरगद, आम, जामुन सहित तमाम जातियों के हरे-भरे पेड़ों का नामोनिशान मिटा दिया गया।
हद तो यह है कि दस गुने पेड़ लगाने का दावा करने वालों ने इन राष्ट्रीय राजमार्गों पर ‘ग्रीन बेल्ट’ के लिए जगह तक नहीं छोड़ी है। आंकड़े बताते हैं कि बीते दो दशक में लखनऊ में सात फीसदी हरियाली कम हुई है। दस्तावेजों के मुताबिक तीन साल में लखनऊ में 34 लाख से ज्यादा पौधे लगाए गए लेकिन छांव कहीं भी मयस्सर नहीं है। यही नहीं, अनियोजित विकास ने शहर की हरियाली को कुचल दिया है। साठ के दशक में राजधानी में बना आच्छादन 21 फीसदी के आस-पास था जो अब तकरीबन 11 फीसदी रह गया है। राजधानी की औसत वर्षा की मात्रा 953 मिलीमीटर है। लेकिन 2008 को छोड़ दें तो पिछले पंद्रह वर्षों में एक बार भी सामान्य वर्षा नहीं हुई। नमी के असंतुलन की वजह से बीते 10 सालों के दौरान औसत न्यूनतम तापमान पांच डिग्री से घटकर 2 से 3 डिग्री के बीच पहुंच रहा है। अधिकतम तापमान में भी हर दशक में तकरीबन एक डिग्री की बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है।
एटा जिले में हरे-भरे पेड़ों की कटान से हालत यह बन गई है कि दूर-दूर तक छायादार पेड़ नहीं दिखाई देते। चिड़ियों के बैठने के लिए छायादार पेड़ यहां नदारद हैं। आंकड़े बताते हैं कि हर साल दो करोड़ रुपए से अधिक की लकड़ी अकेले इस जिले से बेची जाती है। गौतमबुद्ध नगर जिले में भी कागजों पर पेड़ लगाए जा रहे हैं। जबकि भारत-नेपाल सीमा पर सक्रिय वन माफियाओं के आगे बहराइच में तैनात सुरक्षा एजेंसियां भी बेबस नजर आ रही हैं। अलीगढ़ में 1.42 फीसदी ही वन क्षेत्र बचा है। हरियाली के मामले में यह जिला प्रदेश में 63वें पायदान पर है। यह स्थिति तब है जब बीते पांच सालों 100 करोड़ रुपए बहाकर इस जिले में दो करोड़ पेड़ लगाने का दावा किया जा रहा है। लेकिन यह दावा कितना बेमानी है यह इसी से समझा जा सकता है कि इन पांच सालों में हरित क्षेत्र का आंकड़ा 1.60 फीसदी से घटकर 1.42 फीसदी जा पहुंचा है। वर्ष 2011 के वन महोत्सव में उत्तर प्रदेश में 3 करोड़ 60 लाख तथा बुंदेलखंड तथा विंध्य क्षेत्रों के 11 जनपदों में इसके अलावा ढाई करोड़ पेड़ लगाने के दावे किए गए। इस लिहाज से देखें तो वर्ष 2011 में 6 करोड़ पेड़ लगे। लेकिन इन्हीं दावों के साथ यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर हर साल लगाए जा रहे वृक्षों के बावजूद वनाच्छादित क्षेत्र बढ़ने का नाम क्यों नहीं ले रहे हैं।
राष्ट्रीय वननीति में निर्धारितों लक्ष्य से कोसों दूर उत्तर प्रदेश में हरीतिमा की चादर फैलाने के लिए वर्ष 2012-13 मं पौधा रोपण के लक्ष्य के लिए 10.52 फीसदी इजाफा करने का फैसला किया गया है। सरकारी विभागों द्वारा 61,450 हेक्टेयर क्षेत्रफल पर वृक्षारोपण किया जाएगा। इस साल सिंचाई और सार्वजनिक निर्माण विभाग ने उन विभाग से करार किया है कि वन महकमा उनकी जमीन पर फलदार और छायादार वृक्ष लगाएगा। पेड़ लगाने और उनके रखरखाव का काम वन महकमे का होगा। इनसे होने वाली आमदनी जिस विभाग की जमीन होगी, उसके और वन महकमे के बीच बराबर-बराबर धनराशि में बांटी जाएगी।
बिहार में लगेंगे 15 करोड़ नए पौधे
बिहार में अब सिर्फ 9.89 प्रतिशत ही वन क्षेत्र रह गया है। झारखंड के अलग हो जाने के बाद बिहार की हरियाली घट गई और हरित क्षेत्रफल घटकर छह प्रतिशत के नीचे पहुंच गया। ऐसे में अब राज्य सरकार ने प्रदेश में हरित क्षेत्रफल को बढ़ाकर कुल भू-भाग का 15 प्रतिशत करने की योजना बनाई है। वृक्षारोपण के तहत हर साल कम से कम तीन करोड़ पौधे लगाने का लक्ष्य रखा गया है ताकि पांच साल में 15 करोड़ नए पौधे लहलहा सकें। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ‘पौधा प्रोत्साहन योजना’ और ‘वृक्ष पट्टा योजना’ के नाम से दो नई योजनाएं शुरू की है। इसके तहत नई नर्सरी विकसित करने के लिए किसानों को अनुदान दिया जाएगा। सार्वजनिक स्थलों पर लगे पेड़ों का पट्टा किसानों को मिलेगा। किसान और छात्र वृक्षों की देखभाल करेंगे और उत्पाद का उपयोग कर सकेंगे।
नई व्यवस्था में वन एवं पर्यावरण विभाग अब किसानों की जमीन पर भी पौधारोपण करेगा। इसके लिए ‘प्लाटेंशन ऑन पीपुल्स लैंड’ नामक योजना शुरू की जा रही है। यह योजना की शुरुआत कोसी प्रमंडल के जिलों से पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू की जाएगी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि पौधारोपण अभियान को बढ़ावा देने के लिए आम लोगों से सहायता ली जाए। न केवल विभागीय स्तर पर पौधारोपण हो बल्कि निजी जमीनों पर जमीन मालिकों से ही पौधारोपण कराया जाए। अगर कोई किसान कृषि योग्य भूमि पर पौधारोपण करेगा तो उसे सरकार की ओर से एक निश्चित अनुदान भी देने की बात है। वैशाली जिले में चल रहे ‘एग्रो फॉरेस्टरी कार्यक्रम’ के तहत तीन साल में पोपलर नामक 76 लाख पौधे लगाए जा चुके हैं।
इसी योजना को एक मॉडल के तौर पर पूरे बिहार में लागू करने पर विभाग मंथन कर रहा है। इसमें किसी एक किसान की सहायता से प्लांटेशन का काम होगा और फिर उसे गांव के किसानों को मुफ्त में वितरित कर दिया जाएगा। जल संसाधन विभाग की ओर से बने तटबंधों पर पोपलर के पौधे लगाए जाएंगे। अमूमन 10 साल में तैयार होने वाले पोपुलर पेड़ को मजबूती में आम का विकल्प माना जाता है। हालांकि यह फलदार नहीं होता है। अगर कोई किसान अपनी जमीन पर पोपलर लगाना चाहता है तो उसे यह निःशुल्क दिया जाएगा। ‘इंडियन फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट’ ने इस पौधे को नोएडा में तैयार किया है। समतल भूमि वाले राज्य की श्रेणी में रहे बिहार में 15 से 20 फीसदी क्षेत्र हरा-भरा होना चाहिए। एक प्रतिशत हरा-भरा क्षेत्र बनाने के लिए लगभग 12 करोड़ पौधे लगाने की आवश्यकता होती है। इस हिसाब से बिहार में एक प्रतिशत हरा-भरा क्षेत्र बढ़ाने के लिए लगभग तीन साल लगेंगे। जदयू भी इसके लिए अभियान चला रहा है और 50 लाख पौधारोपण का लक्ष्य तय किया गया है।
चुनौतियों के मद्देनजर सार्थक कदम
राजस्थान में पिछले तीन वर्ष वृक्षारोपण, वन संरक्षण और वनों के विकास की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण रहे हैं। यहां वन नीति क्रियान्वयन किया जा रहा है, वहीं पहली बार राज्य की ‘पारिस्थितिकी पर्यटन नीति’ बनाई गई है। इसी तरह पहली बार प्रदेश में जैव विविधता धरोहर संरक्षण की दिशा में कार्य हुआ है। ‘साझा वन प्रबंधन’ की दिशा में तो राजस्थान पूरे देश में प्रथम रहा है। इसी की मिशाल है कि राज्य को साझा वन प्रबंधन के तहत पिछले तीन वर्षों से लगातार भारत सरकार का इंदिरा प्रियदर्शिनी अवॉर्ड मिलता आ रहा है।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की पहल पर ‘हरित राजस्थान’ के तहत गांव, ढानी, शहर, कस्बे में पेड़ों की सघन श्रृंखलाएं बनने लगी हैं। ‘हरित राजस्थान’ के तहत अब तक वन विभाग द्वारा करीब 9 लाख से अधिक पौधे लगाए गए हैं। वित्तीय वर्ष 2011-12 के अंतर्गत राज्य के 50,573 हेक्टेयर क्षेत्र में 276 लाख से अधिक पौधे इस अभियान के तहत लगाए जा चुके हैं। रोड साइट के अंतर्गत भी 594 करोड़ किलोमीटर में 0.84 लाख पौधे लगाने की महती पहल इस अभियान के तहत की गई है। ‘वन मित्र’ नाम की नई योजना प्रारंभ की गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में वन एवं वन्य जीव संरक्षण तथा पर्यावरण के प्रति लोगों में जागरूकता के लिए बड़ी संख्या में वन मित्र कार्य कर रहे हैं। वर्ष 2011-12 में एक हजार वन मित्रों को लगाए जाने के लिए 180 लाख रुपए की स्वीकृति दी गई है।
वनों की रक्षा बड़ी चुनौती है। इसे ध्यान में रखते हुए मनरेगा के तहत ‘इको रेस्टोरेशन मॉडल’ में वन सुरक्षा के लिए स्थान-स्थान पर पक्की दीवार का निर्माण किया गया है। राजस्थान के लिए यह भी महत्वपूर्ण रहा है कि इसे जापान सरकार से वित्त पोषित ‘राजस्थान वानिकी एवं जैव विविधता परियोजना’ के द्वितीय चरण को मंजूरी मिली है। इस परियोजना का क्रियान्वयन वन सुरक्षा एवं प्रबंध समितियों के माध्यम से किए जाने का निर्णय लिया गया है। 1152.43 करोड़ की इस परियोजना से राज्य में वानिकी विकास के साथ ही जैव विविधता का संरक्षण और वनों के जरिए गांवों में रोजगार गतिविधियों पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। वन विभाग द्वारा राज्य के इतिहास में पहली बार महिला वन रक्षकों की भर्ती करके भी मिसाल कायम की गई है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की पहल पर वन क्षेत्रों को पुनः हरा-भरा करने के लिए एक ‘विजन डॉक्यूमेंट फॉर रेस्टोरेशन ऑफ डिग्रेडेड फोरेस्ट्स’ भी इस दौरान तैयार किया गया। इसके तहत वृक्षारोपण के साथ ही राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, नरेगा आदि तहत चरागाह विकास कार्यक्रम को बढ़ावा दिए जाने पर जोर दिया गया है।
कागज की मिट्टी, स्याही की खाद
पश्चिम बंगाल में वृक्षारोपण अभियान फिलहाल कागजों तक ही सीमित दिख रहा है। कोलकाता और आसपास नए आवास बनाने के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई का मामला हो या फिर दक्षिणी छोर पर स्थित सुंदरवन में मैंग्रोव के नष्ट हो चुके जंगल के पुनरुद्धार का मामला हो या फिर पश्चिम के माओवादी प्रभावित क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई रोकने का मामला। बंगाल सरकार की योजनाएं फिलहाल परवान नहीं चढ़ सकी हैं। कोलकाता और सुंदरवन के क्षेत्रों में तो अभी घोषणाओं का ही दौर चल रहा है जबकि पश्चिम के जिलों में अभी तक नष्ट किए जा चुके वन क्षेत्र के पुनरुद्धार में माओवादी समस्या ही आड़े आ रही है। इनके अलावा कई बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं के लिए सैकड़ों वृक्ष काटे गए हैं, लेकिन परियोजनाओं के शक्ल लेने के साथ-साथ उन इलाकों में हरित-पट्टी विकसित करने की गारंटी ताक पर रख दी जा रही है।
सुंदरवन के लिए पश्चिम बंगाल सरकार ने 12 हजार करोड़ रुपए की परियोजना घोषित की है जिसके तहत यहां की जैव-विविधता को बचाने के उपाय किए जाने हैं। विश्व बैंक की मदद से इस कार्य की विस्तृत परियोजना रपट (डीपीआर) के मौजूदा वित्त वर्ष की शुरुआत में ही तैयार कर लिए जाने की बात थी। लेकिन अभी तक यह काम फाइलों में है। पश्चिम बंगाल हरित ऊर्जा विकास निगम के अध्यक्ष शांति पद गण चौधरी के अनुसार, ‘मुख्य रूप से वहां मैंग्रोव के जंगल को संरक्षित करने का काम होगा। नए पेड़ लगाए जाएंगे। इस कार्य में बंगाल सरकार के पांच मंत्रालय शामिल किए जाएंगे। जीवों और पेड़ों की 260 प्रजातियों का संरक्षण किया जाएगा।’ सुनामी में सुंदरवन का काफी हिस्सा नष्ट होने के बाद से ही वहां मैंग्रोव के जंगलो की कटाई पर बहस चल रही है। एक अनुमान के मुताबिक 80 के दशक से अब तक 40 फीसदी जंगल साफ हो चुके हैं। प्राकृतिक तूफानों में सुंदरवन की जैव विविधता को अक्सर क्षति पहुंचती है। पिछले साल आए तूफान ‘आएला’ से व्यापक क्षति के बाद संरक्षण के उपायों को लेकर गंभीरता दिख रही है।
इसी तरह राजधानी कोलकाता की 25 सड़कों पर वृक्षारोपण के लिए कोलकाता नगर निगम और बंगाल के वन विभाग ने करार किया है। इसके तहत सड़कों के किनारे-किनारे 20 हेक्टेयर जमीन पर पेड़-पौधे लगाए जाएंगे। बंगाल के अतिरिक्त प्रमुख वनपाल अतनु राहा के अनुसार, ‘इस साल कुल एक लाख पेड़ कोलकाता में लगाए जाएंगे। अगले पांच साल तक एक-एक लाख पेड़ प्रति वर्ष लगाए जाएंगे।’ वृक्षारोपण अभियान में माओवादी समस्या को बड़ी परेशानी बताया जा रहा है। बंगाल में 23 फीसदी जंगल माओवादी प्रभावित इलाकों में हैं। नवंबर 2008 के बाद से पश्चिम मेदिनीपुर, बांकुड़ा, पुरुलिया, वीरभूम और झारग्राम में सड़कों पर बाधा डालने या जंगलों में छिपने के ठिकाने तैयार करने के लिए माओवादी या स्थानीय हथियार बंद समूहों के गुरिल्ले –अंधाधुंध जंगल काटते रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक बंगाल के पांचों जिलों में कम से कम छह लाख पेड़ पिछले दो साल में काट डाले गए हैं। बंगाल में ‘डिग्रेडेड फॉरेस्ट लैंड’ एक लाख हेक्टेअर का बताया जाता है। इसमें से वन विभाग सिर्फ 15 हजार हेक्टेअर में ही पौधारोपण कर सका है। राष्ट्रीय लक्ष्य 2020 तक 33 फीसदी वनीकरण का है। जबकि बंगाल का मौजूदा औसत सिर्फ 13.4 फीसदी है और शहरी क्षेत्र में पांच फीसदी। शहरीकरण के चलते बंगाल में जंगल हर साल 0.3 वर्ग किलोमीटर की दर से घट रहे हैं। अनुमानित आंकड़े हैं कि हर साल छह हजार वयस्क पेड़ काटे जा रहे हैं। बाजार दर के लिहाज से लगभग दो सौ करोड़ रुपए की परिसंपत्ति का नुकसान हुआ है।
घटते जंगल, सुस्त सरकार
उत्तराखंड में भी साल दर साल वृक्षारोपण की योजनाएं बनती रहती हैं। तमाम स्वैच्छिक संगठनों समेत वन महकमा योजनाएं बनाते रहते हैं। तथापि कहीं वृक्षारोपण का प्रभाव दिखने को नहीं मिलता। उल्टा प्रदेश के वनों में लगने वाली आग को लोग वृक्षारोपण की असफलता छिपाने के लिए लगाई गई आग के रूप में देखते हैं। प्रदेश का 65 प्रतिशत भू-भाग वन क्षेत्र में पड़ता है। यहां चीड़ वनों का क्षेत्र बढ़ रहा है जबकि हरे-भरे सदाबहार वृक्षों का क्षेत्र कम हो रहा है। चीड़ वन क्षेत्र का प्रसार आग की अधिसंख्य घटनाओं के कारण बढ़ना बताया जाता है। हालांकि कई वन प्रेमी अपने स्तर पर वृक्षारोपण कर इसमें उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज कराते रहे हैं। डीडीहाट के पास जंगल बनाने में लगे दामोदर सिंह राठौर हों या पिर नगरासू से आगे हरियाली घाटी में जगत सिंह जंगली द्वारा विकसित सदाबहार जंगल या फिर वृक्ष मित्र सकलान द्वारा सकवाना गांव में उगाया गया जंगल। इन जीवट वन प्रेमियों के पुरुषार्थ का ही नतीजा है। उफरैखाल क्षेत्र में सच्चिदानंद भारती ने शिक्षक रहते हुए दूधातोली क्षेत्र में जंगल तैयार कर पानी का संरक्षण कर ऐसी मिसाल पेश कर दी है कि सूखी नदी को नीर मिलना शुरू हो गया है।
पिछले दिनों विकास नगर क्षेत्र में कागजों पर लगाए गए जंगल का मामला विधानसभा की एक समिति के सामने आया तो इसने लोगों को दांतों तले उंगली दबाने को विवश कर दिया। करोड़ों खर्च करने के बावजूद धरातल पर वृक्षों का अता-पता नहीं था। यह मामला लोक लेखा समिति के समक्ष विचाराधीन था। ऑडिट जनरल की रिपोर्ट में भी इस भारी अनियमितता की ओर इशारा किया गया था। राज्य के बंटवारे से पहले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर रहे के.एम.मुंशी की पहल पर वृक्षारोपण अभियान शुरू हुआ था जो अब बंद हो चुका है। इसके अलावा चमोली जिले के ग्वालदम क्षेत्र में मैती नामक एक संस्था ने शादी-ब्याह के मौके पर पेड़ लगाने की परंपरा शुरू की थी। इस अभियान को एक स्कूली शिक्षक कल्याण सिंह रावत के प्रयासों से शुरू किया गया था। लेकिन वन विभाग इससे भी कोई प्रेरणा नहीं ले सका।
इतना जरूर है कि पर्यावरण मंत्रालय ने मसूरी की पहाड़ियों में हरियाली बढ़ाने का काम किया। लेकिन यह कार्यक्रम वन महकमे के हाथ में न होकर सेना द्वारा नियंत्रित रहा। इस कारण इसकी सफलता में विभाग के बजाय सेना को ही श्रेय मिला। बढ़ती गर्मी, पशु चारे की कमी और जल स्रोतों के ह्रास को लेकर सरकार वृक्षारोपण व जलसंरक्षण की आवश्यकता को तो रेखांकित करती है, लेकिन जिम्मेदार विभागों में इसको लेकर तालमेल की अब भी भारी कमी है। वृक्षारोपण एवं जल संरक्षण जैसे समन्वित कार्यक्रमों को अंजाम देने को जलागम प्रबंधन एवं आजीविका जैसे कार्यक्रम प्रदेश में चलाए गए। इनमें करोड़ों रुपए भी खर्च किए गए, मगर नतीजा ढाक के तीन पात रहा। प्रदेश में हर वर्ष लग रही दावानल चीड़ वन क्षेत्र का दायरा फैला रही है। जबकि सदाबहार एवं हरे वन कम होने के बावजूद इनके संरक्षण की चिंता सरकारी स्तर पर नहीं दिख रही है।
देहरादून से महेश पांडे, पटना से राघवेंद्र नारायण मिश्र, जयपुर से कपिल भट्ट, कोलकाता से दीपक रस्तोगी
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