कटि –मेखला, विंध्य-सतपुड़ा

विंध्य और सतपुड़ा नर्मदा के बलवान् रक्षक है। इन दोनों ने मिलकर नर्मदा को उसका जल भी दिया है और उसका रक्षण भी किया है। ये दोनों पहाड़ नर्मदा के अति निकट होने के कारण नर्मदा को न अपना पात्र बदलने का मौका मिला है, न अपने पानी के आशीर्वाद से दूर-दूर तक खेती करने की जमीन उसे मिली है।

जहां नर्मदा नदी का उद्गम है, वहां विंध्य और सतपुड़ा को जोड़ने वाला मेकल या मेखल पहाड़ चंद्राकार खड़ा है। मेखल ऋषि की यह तपोभूमि है। यहां से अनेक नदियों का उद्गम है। नर्मदा पश्चिम की ओर बहती हुई भृगुकच्छ के पास समुद्र से मिलती है। शोणनद इसी पहाड़ से निकलकर गर्जना करता हुआ अपना सारा पानी गंगा को प्रदान करता है। गुप्तदान वह जानता ही नहीं। महानदी और जोहिल्ला, ये दो नदियां भी मेकल पहाड़ से ही निकलती हैं। प्राचीन काल में इस प्रदेश में अच्छी बस्ती आबाद थी। उड़ीसा के उत्कल लोग, और इस ओर के मेखल लोग, रामायण में और पुराणों में अपना उल्लेख पाते हैं।

नर्मदा नदी को ‘मेखल-कन्या’ कहते हैं। कभी-कभी उसे ‘मेखला’ भी कहते हैं। भारतमाता की कटिमेखला तो वह है ही।

जिस तरह नर्मदा के उत्तर के पहाड़ों को विंध्य कहते हैं, उसी तरह दक्षिण के पहाड़ों को सतपुड़ा कहते हैं।

इन पहाड़ों के पश्चिम विभाग का ही असली नाम था सातपुत्र या सतपुड़ा। विंध्यपर्वत के ये सात लड़के गिने जाते थे। कोई कहते हैं कि प्राचीन भूविप्लव के कारण यहां की किसी जमीन के साथ पुड़े या झुर्रिया बन गई, इसीलिए इसे ‘सातपुड़ा’ कहते हैं। आज ये सब पहाड़ियां नर्मदा और ताप्ती के बीच अपना स्थान ले बैठी हैं। राजपीपला और अशीरगढ़ की ओर से इनकी शोभा अच्छी दीख पड़ती है।

सतपुड़ा और मेकल इन दो पहाड़ियों के बीच होशंगाबाद और हराद के पास जो टेकड़ियां हैं, उन्हें ‘महादेव के डोंगर’ कहते हैं। उनकी शोभा को छिंदवाडा़ से अच्छी तरह देखा जा सकता है। यों देखा जाय तो मंडला, बालाघाट, सिवनी, छिंदवाड़ा और बैतूल ये सब तहसीलें मिल कर सतपुड़ा की अधित्य का बनती है। मराठी में अधित्यका को ‘पठार’ कहते हैं, जो शब्द अब हिन्दी ने ले लिया है।

सतपुड़ा, महादेव और मेखल पर्वतों का सारा प्रदेश आदिवासियों की पैतृक भूमि है। यहां गोंड, बैगा, भील, कोल, कोरकू आदि अनेक आदिवासी जातियां रहती हैं।

जिस तरह सह्याद्रि में हिमालय में और कुछ हद तक आसाम की पहाड़ियों में घुमा हूं, वैसा विंध्य-सतपुड़ा में घूमने का मौका मुझे मिलता तो यह जीवन की धन्यता होती लेकिन रेल के रास्ते और कभी-कभी मोटर के रास्ते भी इस पहाड़ में काफी घूमा हूं। नागपुर से इटारसी और इटारसी से जबलपुर कई बार, अनगिनत बार, रेल का सफर किया है और तब यहां की छोटी-मोटी पहाड़ियों, उनके गर्वोन्नत शिखरों और उनके बीच से बहने वाली छोटी-मोटी नदियों को देखने का सौभाग्य मिला है।

इसी तरह गोंदिया से जबलपुर भी रेल द्वारा सफर करके मैंने अपनी हड्डियां ढीली की हैं।

एक बार स्वातन्त्र्य-प्राप्ति का उत्सव मनाने के लिए आधे लाख से अधिक आदिवासियों के बीच जब नयनपुर गया था, तब भी इन पहाड़ों का नयन-सुभग दर्शन पाया था। राजपीपला के पास जो सतपुड़ा और सह्याद्रि का समकोण होता है, वहां ये दोनों पहाड़ इतने नम्र है, मानों एक-दूसरे को नमस्कार ही करते हैं।

नर्मदा के दक्षिणी किनारे पर बड़वानी के पास भगवान ऋषभदेव की बावनगजी मूर्ति पहाड़ी सतपुड़ा में गिनी जाती है या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता; लेकिन अगर खंडवा व अशीरगढ़ तक सतपुड़ा की पहुंच होगी तो बड़वानी के पास की पहाड़ी को भी मैं सतपुड़ा में ही शुमार करूंगा।

किसी ने कहा है कि जैन संस्कृति पहाड़ी संस्कृति नहीं है, मैदान की और खेती के साम्राज्य की संस्कृति है। बात सही मालूम होती है। फिर भी मैं कहूंगा कि इस संस्कृति ने पहाड़ के लोगों को अपने को अपने असर के नीचे लाने की कोशिश किसी समय जरूर की थी।

विंध्य और सतपुड़ा, नर्मदा और ताप्ती, शोण और मही, इन नामों के साथ जो प्रदेश ध्यान में आता है, वहां की संस्कृति भूमिजन या गिरिजन आदिम जातियों की ही संस्कृति है।

स्वतंत्र भारत ने राज्यों की जो नई सीमाएं बनाई, उनके अन्दर मध्यप्रदेश एक इतना अच्छा विशाल राज्य बनाया, कि उसके अन्दर विंध्य-सतपुड़ा मेखला के सबके सब अदिवासियों का अन्तर्भाव हुआ है। इस राज्य मे ऐसे ही मंत्री और कर्मचारी नियुक्त होने चाहिये, जिनका इस प्रदेश के साथ पूरा-पूरा परिचय हो और जिनके हृदय में यहां के गिरिजनों के प्रति आत्मीयता और आदर हो। विंध्य पर्वत (इसके साथ सतपुड़ा भी आ गया) अगस्त्य के सामने सिर झुकाया, उस घटना को हुए कई युग बीत गये। अब विंध्य और सतपुड़ा के लिए नये अर्थ में सिर ऊंचा, करने के दिन आ गये हैं।

जब हम भारत का चित्र नजर के सामने रखते हैं, तब नर्मदा के रक्षक भाई वीर विंध्य और वीर सप्तपुत्र को कमर के स्थान पर देखते हैं। नर्मदा कटि-मेखला है ही और ये दो पहाड़ कमर की मजबूत हड्डियां हैं। अब लोकोन्नति के लिए कमर कसने के दिन आ गये हैं। सबसे अच्छे लोक सेवकों को अब इसी प्रदेश में जाकर वहां की आदिम जातियों को जरूरी शिक्षा देनी चाहिये, ताकि वे भारत के अच्छे-से-अच्छे नागरिक हो जायें और स्वराज्य की धुरी वहन करने की योग्यता और उसका उत्साह उनके हृदय में प्रकट हो।

11 मार्च, 1973

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