जोबनेर में अंग्रेजी राज के समय ही कृषि की आधुनिक पढ़ाई की शुरूआत हो गई थी। वहां की रियासत के राजा ने, ठिकानेदार ने अपने एक महल को कृषि महाविद्यालय खोलने के लिए दान में दिया था। आजादी के बाद यहां आधुनिक कृषि शिक्षा का विस्तार हुआ। आज इस क्षेत्र से न जाने कितनी तरह के शोध होते हैं। पर किसान के इस कौशल की ओर हमारे नए कृषि पंडितों का अधिकारियों का, किसी का भी ध्यान नहीं जा पाया है।
पिछले साल इन्हीं दिनों की बात है। हम लोग राजस्थान के जोबनेर क्षेत्र से निकल रहे थे। सड़क के दोनों तरफ खेतों में गेहूं कट चुका था। अभी पूले खलियान में नहीं पहुंचे थे। सारा दृश्य वही तो था जो बैसाखी के आसपास गेहूं के खेतों से गुजरते हुए दिखता था।नहीं। सारा दृश्य वैसा नहीं था। यहां खेतों में कुछ नया-सा, कुछ अटपटा-सा दिख रहा था। और जगहों से कुछ ज्यादा व्यवस्थित, कुछ अलग, कुछ विचित्र सुंदरता लिए। हमारी गाड़ी थोड़ी तेज रफ्तार से भाग रही थी। फिर भी जोबनेर के इन खेतों की कोई एक अलग विशेषता हमारी आंखों को ब्रेक-सा लगा रही थी। यहां केवल गेहूं नहीं था। यहां तो कनक यानी सोना बिखरा हुआ था, चारों तरफ। इस सोने के भंडार का आकर्षण, खिंचाव इतना तेज था कि हमारी तेज दौड़ रही लोहे की गाड़ी हमें रोकनी ही पड़ी।
कई खेत पीछे छूट गए थे। पर अभी भी हमारे दोनों ओर वैसे ही शानदार खेत थे। हम लोग सड़क छोड़ पास के एक खेत में उतरे। एकदम दिख गया कि खेतों में कटे गेहूं के जो पूले रखे हैं, जादू कुछ उनमें ही है। ये सारे उलटे रखे गये थे। बहुत ही व्यवस्थित ढंग से इनके बंडल बांधे गए थे। सारे पूले एक से। गेहूं की सारी बालियां ऊपर आकाश की ओर न होकर नीचे भूमि की ओर थीं। जिस माटी से उनका अंकूरण हुआ है, शायद अब कट कर विदा लेते समय ये बालियां अपनी उस मां की गोद में थोड़ा और समय काट लेना चाहती थीं।
देश के खेतों का एक बड़ा भाग गेहूं पैदा करता है। इन सब जगहों पर कटाई के बाद पूले सीधे रखे जाते हैं। यानी बालियां, गेहूं के दाने ऊपर की ओर। कई जगहों पर काट कर पूले बनाने के बाद उन्हें सीधा न रख लिटा कर ढेर बनाते हैं। कुछ ही समय में थ्रेशर से या बिना मशीन की मदद से दाने अलग कर खलियान, कोठी या मंडी चले जाते हैं।
फिर पीछे जोबनेर लौटें। बालियां कटने से भी पीछे लौटें। खेत में बुआई हुई है। सिंचाई हुई है। धीरे-धीरे मटमैले रंग पर हरा रंग उभरने लगता है। फिर गेहूं का पौधा आकार लेने लगता है। कोमल, नरम पौधा हवा, मिट्टी, पानी, धूप और किसान की मेहनत से ताकत पाकर मजबूती से खड़ा हो जाता है। अब बारी है दाने बनने की। फिर उनके पकने की। हरा रंग अब धीरे-धीरे पीले रंग में, सुनहरे रंग मे अपना कनक नाम पाने की तरफ लहराते हुए बढ़ चला है। अंकुरण के पहले क्षण से आज पकने तक इस दाने का संबंध अपनी मजबूत जड़ों के कारण मिट्टी से बना रहा है। आज फसल पक जाने पर यह संबंध अचानक कटने, टूटने जा रहा है।
जिस डंठल से इन दानों को अपने बनने से पकने तक हर क्षण पौष्टिक खुराक मिलती थी, अब उस अटूट संबंध के टूट जाने का समय भी आ गया है। जोबनेर के किसानों ने न जाने कब, इसी क्षण को अपने अनुभव से एक नया अर्थ दे दिया था।
दरांती से फसल कटते ही दानों का, बालियों का संबंध मिट्टी से, जड़ से पौष्टिकता से, नमी से एकाएक टूट जाता है। इस गहरे झटके को दाने कैसे सह पाते होंगे, क्या मालूम? पर इतना तो मालूम ही है कि कटने के बाद वे अपना आश्रय छिनते ही, कुछ असहाय से होकर सूखने लगते हैं। अप्रैल की गरम होती हवा इन सुंदर स्वस्थ दानों को थोड़ा पिचका भी देती है।
जिस डंठल से इन दानों को अपने बनने से पकने तक हर क्षण पौष्टिक खुराक मिलती थी, अब उस अटूट संबंध के टूट जाने का समय भी आ गया है। जोबनेर के किसानों ने न जाने कब, इसी क्षण को अपने अनुभव से एक नया अर्थ दे दिया था।
पर जोबनेर में ऐसा नहीं होता। इस छोटे से क्षेत्र के किसानों ने, कृषि पंडितों ने झटके से टूट जाने वाले संबंध को बहुत प्रेम से देखकर इसे सहने लायक बना देने की सुंदर व्यावहारिक तरकीब खोज ली। यहां न जाने कब से पूले काटने के बाद उलटे रखे जाने लगे। कनक की बालियों का मुंह नीले आकाश की ओर न रख कर नीचे जमीन की तरफ कर दिया गया। कटे डंठल की सारी नमी धीरे-धीरे बालियों की ओर, दानों की ओर नीचे रिसती जाती है। उन्हें अपनी अंतिम बूंद तक पौष्टिक खुराक देती रहती है।जोबनेर के इन खेतों का गेहूं बाजार में, मंडी में आने वाले अन्य जगह के दानों से ज्यादा बेहतर माना जाता है। यहां के दाने का आकार बड़ा होता है। दाना ठोस बनता है और स्वस्थ भी। बताया जाता है कि मंडी में जोबनेर के इस गेंहू का दाम भी ज्यादा मिलता है। गेहूं के अन्य क्षेत्रों में फसल अच्छी ही होती है पर इस जोबनेर क्षेत्र के गेहूं की बात ही कुछ और है। यहां का दाना मुहावरे में ‘जमीन से कटने’ वाली हालत से अलग है। जमीन से कटने के बाद भी उलटी बालियों का संबंध डंठल से बना रहता है। हर डंठल में पौधे के संचित पौष्टिक तत्व और नमी बनी रहती है। यह धीरे-धीरे दानों को सहारा देती रहती है। इस तरह जमीन से कटने के बाद भी दाने सारा बचा-खुचा तत्व पा जाते हैं।
देश के अन्य गेंहू उत्पादक क्षेत्रों में प्रायः बालियां पूले के ढेर में ऊपर की ओर या फिर खेत में दाएं-बाएं आड़े-तिरछे या व्यस्थित ढंग से बिछा कर लिटा कर रखी जाती है। एक बड़ा कारण उन क्षेत्रों में भूमि की नमी, वर्षा का कुल आंकड़ा भी होता है। पर जोबनेर में वैसी आशंका नहीं रही है। यह अन्य गेहूं उत्पादक क्षेत्रों से कम वर्षा वाला क्षेत्र रहा है।
लेकिन अब तो देश के बड़े गेहूं क्षेत्रों में धीरे-धीरे मशीनों से कटाई करने का चलन बढ़ने लगा है। पंजाब में बैसाखी पर फसल कटती थी। पूले या परी, भरी लिटा कर रखे जाते थे अब तो वहां किसान के हाथ का काम, मन का काम, कौशल, कला और बुद्धि की जगह भारी मशीनों ने ले ली है। यही प्रवृत्ति अब मध्य प्रदेश के अच्छे गेहूं उत्पादक क्षेत्रों में भी पसर रही है। जोबनेर के किसानों ने अभी अपने हाथ, अपना मन खेती से काटा नहीं है, इसलिए वे अन्य क्षेत्रों के किसानों की तरह खुद भी कटने से बचे हैं। देश के अन्य भागों में किसान पर आ रही लाचारी यहां कहीं देखने मिलती नहीं। खेत अभी अनाज पैदा करने की फैक्टरी नहीं बने हैं। उनमें अन्न-उत्पादन की आत्मीय, रसीली कला, परंपरा पूले के ढेर में ही मिल जाती है।
जोबनेर में अंग्रेजी राज के समय ही कृषि की आधुनिक पढ़ाई की शुरूआत हो गई थी। वहां की रियासत के राजा ने, ठिकानेदार ने अपने एक महल को कृषि महाविद्यालय खोलने के लिए दान में दिया था। आजादी के बाद यहां आधुनिक कृषि शिक्षा का विस्तार हुआ। आज इस क्षेत्र से न जाने कितनी तरह के शोध होते हैं। पर किसान के इस कौशल की ओर हमारे नए कृषि पंडितों का, अधिकारियों का, किसी का भी ध्यान नहीं जा पाया है।
जोबनेर का यह ‘जमीन से जुड़ा’ किस्सा हम लोगों ने हिमाचल प्रदेश के एक कृषि विश्वविद्यालय के कुछ अध्यापकों को भी बताया। उन्होंने इसे आश्चर्यजनक तो माना ही, बाद में हिमाचल प्रदेश के कुछ भागों से इसी तरह की जानकारी भी भेजी। वहां कुछ अन्य फसलों को काटने के बदले जड़ समेत उखाड़ कर उलटा रखने की रीत चलती है। वे लोग इस परंपरा पर कुछ अध्ययन करने की तैयारी भी कर रहे हैं।
देश के अनेक सामाजिक आंदोलन लोक-शक्ति की बात तो हमेशा ही करते हैं, उसका महत्व जताते हैं पर हम लोक बुद्धि की, कौशल की प्रतिष्ठा नहीं कर पाते। जोबनेर के किसान की प्रतिष्ठा हमें अपनी जड़ से, अपनी मिट्टी से जोड़ती है। कटे डंठल की बची-खुची नमी, पौष्टिकता न सिर्फ गेहूं की बाली को, बल्कि अपने समाज से अचानक कटते जा रहे हम लोगों को भी कुछ खुराक देकर हमें भी बचा सकती है। क्या हम उलटे होने के लिए तैयार हैं?
श्री कुंजबिहारी शर्मा और श्री फरहाद कांट्रेक्टर से सहयोग से
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