कतार में खड़े ढेरों ताप बिजली घर निहितार्थ और युक्तिसंगत बनाने की ज़रूरत


भूमिका


देश की ताप बिजली उत्पादन क्षमता में भारी वृद्धि मुंह बाए खड़ी है। 30 अप्रैल 2011 के दिन भारत में कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता 1,74,361 मेगावॉट थी। इसमें से कोयला-आधारित क्षमता 94,653 मेगावॉट और गैसआधारित क्षमता 17,706 मेगावॉट थी; इस प्रकार, कुल ताप1बिजली क्षमता 1,13,559 मेगावॉट थी। पर्यावरण व वन मंत्रालय की जानकारी के अध्ययन से पता चलता है कि ताप बिजली क्षमता में ज़बर्दस्त इज़ाफा प्रस्तावित है।

बिजली कानून 2003 में ताप बिजली उत्पादन को लायसेंस मुक्त कर दिए जाने के बाद यह किसी व्यवस्थित नियोजन प्रक्रिया के दायरे में नहीं रह गई है। नए प्रस्तावित प्रोजेक्ट्स की जानकारी एक जगह न होकर, बिखरी हुई है। साथ ही, मीडिया व अन्य रिपोट्र्स से पता चलता है कि काफी नवीन ताप बिजली क्षमता विचाराधीन है।

अब शायद ताप बिजली घर के लिए केंद्र सरकार से जिस एकमात्र अनुमति की ज़रूरत होती है, वह है पर्यावरण मंज़ूरी। लिहाज़ा, सारी प्रक्रियाधीन बिजली परियोजनाओं की समग्र जानकारी केंद्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय के पास ही मिल सकती है। अत: इस रिपोर्ट के लिए प्रक्रियाधीन ताप बिजली प्रोजेक्ट्स की जानकारी का संकलन पर्यावरण व वन मंत्रालय की पर्यावरण मंज़ूरी प्रक्रिया में उपलब्ध जानकारी के आधार पर किया गया है।

इस अध्ययन का मकसद ताप बिजली क्षेत्र में प्रस्तावित क्षमता वृद्धि के परिमाण व अन्य पहलुओं का एक मोटा-मोटा चित्र प्रस्तुत करके इसके परिणामस्वरूप उभरने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों को समझना है।

परिमाण


प्रयास ऊर्जा समूह द्वारा पर्यावरण व वन मंत्रालय के आंकड़ों का विश्लेषण दर्शाता है कि मंत्रालय ने बड़ी संख्या में कोयला व गैस आधारित बिजली परियाजनाओं को पर्यावरण मंज़ूरी प्रदान की है। इन परियोजनाओं की कुल क्षमता 21,92,913 मेगावॉट है। इनके अलावा 5,08,907 मेगावॉट क्षमता पर्यावरण मंज़ूरी चक्र के विभिन्न चरणों में हैं। अर्थात ये पर्यावरण मंज़ूरी की प्रतीक्षा में हैं, या इनके टम्र्स ऑफ रेफरेंस मंज़ूर हो चुके हैं, या ये टम्र्स ऑफ रेफरेंस की प्रतीक्षा कर रहे हैं (देखें बॉक्स 1)। यह कभी-कभार ही होता है कि किसी ताप बिजली घर को पर्यावरण मंज़ूरी न मिल पाए। दरअसल, ईआईए रिस्पॉन्स सेंटर, नई दिल्ली द्वारा सूचना का अधिकार कानून के तहत प्राप्त जानकारी के मुताबिक, 2006 से 2010 जुलाई के बीच पर्यावरण व वन मंत्रालय ने एक भी ताप 4बिजली संयंत्र को मंज़ूरी देने से इन्कार नहीं किया है (बॉक्स 2 भी देखें)। इसका मतलब यह हुआ कि आने वाले वर्षों में 7,01,820 मेगावॉट क्षमता के कोयला व गैस आधारित बिजली संयंत्र निर्मित होने जा रहे हैं। इस आंकड़े में सिर्फ वही संयंत्र शामिल हैं, जो पर्यावरण व वन मंत्रालय की मंज़ूरी प्रक्रिया में हैं।

ऐसे कई सारे और संयंत्र हैं जो पर्यावरण व वन मंत्रालय की पर्यावरण मंज़ूरी प्रक्रिया में नहीं आए हैं हालांकि इनकी घोषणा हो चुकी है। इनकी क्षमता भी हज़ारों मेगावॉट में होगी। मसलन, उड़ीसा सरकार ने राज्य में कई बिजली घरों की घोषणा कर दी है और कई कंपनियों के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर भी कर दिए हैं। इनमें से 9 संयंत्र, जिनकी कुल क्षमता 18,920 मेगावॉट है, अभी पर्यावरण व वन मंत्रालय की मंज़ूरी प्रक्रिया में नहीं हैं। लिहाज़ा इनकी क्षमता उपरोक्त 6आंकड़े में शामिल नहीं है। ऐसी ही स्थिति कई अन्य राज्यों में भी है। अलबत्ता, इस रिपोर्ट में हमने सिर्फ उन ताप बिजली घरों को शामिल किया है जो पर्यावरण व वन मंत्रालय की 7प्रक्रिया में हैं। ये आंकड़े तालिका 1 व चित्र 1 में स्पष्ट किए गए हैं।

ताप बिजलीघर
तालिका 1

र्इंधन के अनुसार विभाजन


प्रक्रियाधीन (और मौजूदा) परियोजनाओं में बहुत बड़ी संख्या कोयला आधारित परियोजनाओं की है। यदि हम सिर्फ उन परियोजनाओं को देखें जो पर्यावरण मंज़ूरी प्राप्त स्थिति में हैं, तो इनमें से 87 प्रतिशत कोयला आधारित हैं। लगभग यही अनुपात प्रक्रियाधीन परियोजनाओं के संदर्भ में भी है - कुल 6,07,396 मेगावॉट में से 5,12,652 मेगावॉट (84 प्रतिशत) 9 कोयला आधारित हैं (चित्र 2)

ताप बिजलीक्षमता

अन्य अनुमानों से तुलना


कुछ तुलनाएं करने से इन आंकड़ों को समझने में मदद 10मिलेगी। 2011 तक कुल स्थापित ताप बिजली क्षमता 1,13,000 मेगावॉट थी। प्रक्रियाधीन परियोजनाओं के ज़रिए प्रस्तावित 7,01,820 क्षमता इस स्थापित क्षमता से 6 गुना ज़्यादा है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) में योजना आयोग ने लक्ष्य (गैर-ताप बिजली समेत) 1,00,000 11मेगावॉट रखा है। जिन ताप बिजली परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंज़ूरी मिल चुकी है, वे इस लक्ष्य से लगभग दुगनी क्षमता की द्योतक हैं।

योजना आयोग (2006) की एकीकृत ऊर्जा योजना (आईईपी) में देश के लिए 2032 में 7,78,000 मेगावॉट 12ऊर्जा ज़रूरत का अनुमान व्यक्त किया गया है। और, यह कुल स्थापित क्षमता है, सिर्फ कोयला या गैस आधारित बिजली क्षमता नहीं। आईईपी में ऊर्जा सम्बंधी कई परिदृश्य रखे गए हैं। नवीकरणीय ऊर्जा के भरपूर उपयोग और ऊर्जा की उच्च कार्यक्षमता पर आधारित परिदृश्य में 2,69,997 मेगावॉट कोयला-आधारित तथा 69,815 मेगावॉट गैस13आधारित क्षमता की ज़रूरत होगी। अर्थात कुल 3,40,000 मेगावॉट ताप बिजली क्षमता। इसका अर्थ है कि ताप बिजली क्षमता में करीब 2,30,000 मेगावॉट की वृद्धि करने की ज़रूरत होगी। अर्थात जो प्रस्तावित परियोजनाएं पर्यावरण व वन मंत्रालय की निर्णय प्रक्रिया में हैं, उनकी क्षमता 2032 में आईईपी के अनुसार अनुमानित ज़रूरी क्षमता से भी तीन गुना 14ज़्यादा है।

वितरण


प्रक्रियाधीन ताप बिजली घरों की विशालता के अलावा इनसे जुड़े कुछ अन्य पहलू भी हैं। जैसे परियोजनाओं का भौगोलिक संकेंद्रण, उनकी भौगोलिक स्थिति (तटवर्ती या अंदरुनी भूभाग पर) और उनके स्वामित्व का पैटर्न। आगे इनकी चर्चा विस्तार में की गई है।

भौगोलिक संकेंद्रण


प्रस्तावित ताप बिजली घरों का एक उल्लेखनीय लक्षण यह है कि ये चंद स्थानों पर संकेंद्रित हैं। जैसा कि तालिका 2 में दर्शाया गया है, 50 प्रतिशत से ज़्यादा क्षमता निर्माण मात्र 30 ज़िलों (यानी भारत के 626 ज़िलों में से 4.7 प्रतिशत ज़िलों) में होगा; इनकी कुल क्षमता 3,80,000 मेगावॉट होगी। पंद्रह ज़िले ऐसे हैं जहां 10-10 हज़ार मेगावॉट या उससे भी ज़्यादा क्षमता का निर्माण किया जाएगा। प्रस्तावित ताप बिजली परियोजनाओं का सर्वाधिक संकेंद्रण छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा और रायगढ़ ज़िलों में होगा - यहां क्रमश: 30,470 और 24,380 मेगावॉट क्षमता निर्माण की योजना है। इनके बाद 22,700 मेगावॉट के साथ नेल्लोर (आंध्र प्रदेश) का नंबर आता है।

इनमें से कई ज़िले एक-दूसरे से सटे हुए हैं। लिहाज़ा, ज़िलावार आंकड़ों में बिजली परियोजनाओं का जितना संकेंद्रण नज़र आता है, वास्तव में उससे कहीं ज़्यादा है। उदाहरण के लिए, रीवा (17,820 मेगावॉट), सिंगरौली (15,240 मेगावॉट), सोनभद्र (7,638 मेगावॉट), सीधी (5,240 मेगावॉट) और इलाहाबाद (5,280 मेगावॉट) सटे हुए ज़िले हैं और इनमें प्रस्तावित क्षमता का योग 51,218 मेगावॉट है। गौरतलब है कि इनमें से कुछ ज़िले सर्वोच्च 30 में नहीं है। इस तरह के कई और झुंड हैं। चित्र 3 में विभिन्न ज़िलों में क्षमता वृद्धि का मानचित्र प्रस्तुत किया गया है (इसमें ‘पर्यावरण मंज़ूरी प्राप्त’ से लेकर ‘टम्र्स ऑफ रेफरेंस’ प्रतीक्षारत तक सारी परियोजनाएं शामिल हैं)।

जिलावर प्रस्तावित क्षमताइस तरह के विकास का एक पहलू स्थानीय प्रभाव से सम्बंधित है। ताप बिजली घर के प्रभाव वैसे ही काफी गंभीर होते हैं, और एक छोटे से इलाके में इतने सारे बिजली घरों का जमावड़ा होगा तो उनका समेकित असर अलग-अलग परियोजनाओं के असर के योग से भी ज़्यादा होगा। सल्फर डाईऑक्साइड और पारा प्रदूषण, राख का निपटान, अत्यधिक उलीचे जाने की वजह से पानी पर होने वाले असर विशेष चिंता के विषय होंगे। (इनकी विस्तृत चर्चा अगले खंड में की गई है।)

भौगोलिक स्थिति (तटवर्ती या अंदरुनी)


पर्यावरण मंज़ूरी प्राप्त ताप बिजली परियोजनाओं का तटवर्ती इलाकों और अंदरुनी भूमि पर वितरण चित्र 4 में दर्शाया गया है। लगभग 72 प्रतिशत क्षमता (1,37,986 मेगावॉट) अंदरुनी भूमि पर स्थापित की जानी है जबकि 28 प्रतिशत (54,818 मेगावॉट) का निर्माण तटवर्ती क्षेत्रों में प्रस्तावित है।

स्वामित्व


ताप बिजलीघर की बौगोलिक क्षमतामौजूदा ताप बिजली परियाजनाओं में एक बड़ा हिस्सा राज्य व केंद्र की संस्थाओं का है (क्रमश: 45 प्रतिशत व 37 15प्रतिशत; कुल 82 प्रतिशत )। मगर, जैसा कि तालिका 1 से पता चलता है, पर्यावरण मंज़ूरी शुदा प्रस्तावित ताप बिजली परियोजनाओं में निजी क्षेत्र के हिस्से में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है (67 प्रतिशत)। यदि सारी प्रक्रियाधीन परियोजनाओं को देखें, तो निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी और भी ज़्यादा (73 प्रतिशत) है। एक तथ्य यह भी है कि मात्र 10 निजी कार्पोरेट घराने 1,60,000 मेगावॉट क्षमता निर्माण की योजना रखते हैं, जिसमें और वृद्धि की संभावना है। सार्वजनिक क्षेत्र के राष्ट्रीय ताप बिजली निगम (एनटीपीसी) द्वारा 60,000 मेगावॉट क्षमता निर्माण का प्रस्ताव है। चित्र 6 में प्रस्तावित परियोजनाओं में कुछ बड़ी कंपनियों की हिस्सेदारी दर्शाई गई है।

ताप बिजलीघरों की सघनता

प्रदूषण


अत्यंत प्रदूषित इलाकों में प्रस्तावित परियोजनाएं 2009 में पर्यावरण व वन मंत्रालय ने चुनिंदा औद्योगिक केंद्रों का एक मूल्यांकन किया था ताकि इन केंद्रों में प्रदूषण का स्तर पता किया जा सके। इसके लिए भूमि, जल व वायु प्रदूषण का एक मिला-जुला सूचकांक इस्तेमाल किया गया था 16जिसे समग्र पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक (सेपी) कहते हैं। सेपी 70 से अधिक होने पर उस इलाके को ‘क्रिटिकली पोल्यूटेड’ यानी अत्यंत प्रदूषित माना गया था। प्रस्तावित ताप बिजली परियोजनाओं का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इनमें से कई ऐसे ही अत्यंत प्रदूषित औद्योगिक क्षेत्रों में या उनके निकट उसी ज़िले में बनाए जाएंगे। इसके चलते इन इलाकों के हालात और बिगड़ने की आशंका है। तालिका 3 में वे ज़िले चिन्हित किए गए हैं जहां ये अत्यंत प्रदूषित क्षेत्र स्थित हैं और साथ ही उस ज़िले में प्रस्तावित ताप बिजली परियोजनाएं भी दर्शाई गई हैं।

कम्पनी
अत्यंत प्रदूषित क्षेत्र

सल्फर डाईऑक्साइड


कोयला आधारित ताप बिजली घरों से निकलने वाला एक प्रमुख प्रदूषक सल्फर डाईऑक्साइड (SO) है। सल्फर डाई 2 ऑक्साइड को अलग करने के लिए चिमनी की गैस में से गंधक हटाने की विधि (Flue Gas Desulphurisation - FGD) का उपयोग किया जाता है। अलबत्ता, भारत में कोयला आधारित संयंत्रों में एफजीडी की बाध्यता नहीं है। एफजीडी या गंधक हटाने की किसी अन्य विधि के उपयोग की शर्त मात्र 8 संयंत्रों में लगाई गई है, जिनकी कुल क्षमता 5448 मेगावॉट यानी कुल स्वीकृत क्षमता में से मात्र 3.2 प्रतिशत है (तालिका 4 देखें)। कई अन्य संयंत्रों में सिर्फ इतनी ही शर्त रखी गई है कि एफजीडी के लिए जगह का प्रावधान किया जाएगा; हो सकता है भविष्य में कभी एफजीडी लगाने की ज़रूरत पड़े। यह ज़िक्र करना लाज़मी है कि एफजीडी या गंधक हटाने का कोई उपकरण लगाना महंगा पड़ता है, और परियोजना के मालिक इसे तभी लगाएंगे जब ऐसा करना अनिवार्य हो।

गंधक हटाने के उपकरण लगाना अनिवार्य करने के मामले में कोई स्पष्ट मापदंड भी नहीं है। हम शायद सोचेंगे कि या तो बड़ी परियोजनाओं, या अधिक गंधक युक्त कोयला इस्तेमाल करने वाली परियोजनाओं या एक छोटे से इलाके में संकेंद्रित परियोजनाओं के लिए ऐसे उपकरण लगाना अनिवार्य किया गया होगा। अलबत्ता, उक्त 8 संयंत्रों को देखें, तो पता चलता है कि इनमें से 3 (कुल क्षमता 4120 मेगावॉट) तो गिगावॉट पैमाने के हैं (यानी 1000 मेगावॉट से बड़े हैं), उनके कोयले में गंधक की मात्रा 0.6-0.8 प्रतिशत है, जबकि 5 अन्य ताप बिजली घरों (कुल 1328 मेगावॉट) के कोयले में गंधक की मात्रा 0.4-1.3 प्रतिशत तक है।

दूसरी ओर, ऐसे कई बड़े ताप बिजली घरों को पर्यावरण मंज़ूरी मिली है, जो ऐसे कोयले का उपयोग करेंगे जिसमें गंधक की मात्रा ज़्यादा है मगर इनके लिए एफजीडी की अनिवार्यता नहीं रखी गई है। इन्हें सिर्फ एफजीडी के लिए स्थान रखने को कहा गया है ताकि भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर एफजीडी लगाया जा सके। इन बड़े ताप बिजली घरों में निम्नलिखित शामिल हैं: 1. बाड़मेर (जेएसडब्लू) में 1000 मेगावॉट की लिग्नाइट आधारित परियोजना 2 प्रतिशत गंधक वाला लिग्नाइट इस्तेमाल करेगी; 2. 4000 मेगावॉट टुंडा ताप बिजली घर (टाटा का मुंद्रा यूएमपीपी) 1 प्रतिशत गंधक वाला कोयला उपयोग करेगा; 3. 4000 मेगावॉट नेल्लोर ताप बिजली घर (रिलाएन्स का कृष्णापट्नम यूएमपीपी) 0.8 प्रतिशत गंधक वाला कोयला इस्तेमाल करेगा; 4. 4000 मेगावॉट तिलैया ताप बिजली घर (रिलाएन्स का तिलैया यूएमपीपी) 0.5 प्रतिशत गंधक वाला कोयले इस्तेमाल करेगा।

संयंत्रों की सूचिहम देख ही चुके हैं कि कई स्थानों पर एक साथ कई सारे कोयला आधारित संयंत्र संकेंद्रित होने जा रहे हैं। ऐसे स्थानों पर, चाहे एक-एक परियोजना का सल्फर डाईऑक्साइड उत्सर्जन कम हो, मगर इन सबका कुल उत्सर्जन बहुत अधिक हो सकता है। इससे इस बात की ज़रूरत रेखांकित होती है कि ऐसे इलाकों में अलग-अलग परियोजनाओं को मंज़ूरी देने से पहले समेकित व क्षेत्रीय प्रभाव का आकलन किया जाना चाहिए।

राख का निपटान


कोयला आधारित संयंत्रों के निकलने वाली राख को ठिकाने लगाना अतीत में एक बड़ी समस्या रही है। बढ़ती क्षमता के साथ यह समस्या और विकराल होगी। यह बात खास तौर से उन संयंत्रों पर लागू होती है जो अधिक राख वाले भारतीय कोयले का इस्तेमाल करेंगे। बरसों से राख को या तो राख-तालाबों में गारे के रूप में या राख के ढेरों में सूखे रूप में ठिकाने लगाया जाता रहा है। इसका गंभीर असर भूजल के प्रदूषण और स्थानीय सतही पानी के प्रदूषण के रूप में सामने आता है। इसके अलावा, हवा के साथ उड़ती राख घरों, खेतों, उपकरणों और यहां तक कि इन्सानों पर जमा होती रहती है। स्थानीय आबादी के लिए एक बड़ा खतरा यह होता है कि राख भरे बांध में दरार पड़ जाए, तो राख का गारा बड़े इलाके में फैल सकता है। राख के बांधों के टूटने की घटनाएं पहले कई जगहों पर हो चुकी हैं और स्थानीय आबादियां गंभीर रूप से प्रभावित हुई हैं।

भारत के अनुभव को देखते हुए यह मानना मुश्किल है, मगर यदि मान लिया जाए कि तालाबों या गड्ढों में राख के निपटान का प्रबंधन समुचित ढंग से किया जाएगा, तो भी स्थानीय समुदायों पर काफी असर की संभावना बनी रहेगी। ऐसा इसलिए कि इस तरह से राख के निपटान हेतु बहुत अधिक पानी की ज़रूरत होती है और ज़मीन का काफी बड़ा भूभाग ज़रूरी होता है। कुछ नए संयंत्रों से कहा जा रहा है कि वे उच्च सांद्रता गारा निपटान विधि का उपयोग करें। हालांकि बताया जाता है कि इस विधि में पानी की बचत होती है, मगर हमें ये आंकड़े नहीं मिले हैं कि इस टेक्नॉलॉजी के उपयोग से वास्तव में पानी की कितनी बचत होती है और इसके अन्य प्रभाव क्या होते हैं।

राख निपटान के बारे में प्रमुख नीति यह है कि इस राख को सीमेंट में मिलाकर निर्माण कार्यों, गड्ढा भराव, र्इंटें बनाने व रास्तों पर बिछाने वगैरह में किया जाए। शुरुआती कदमों में एक कदम यह था कि कोयला आधारित संयंत्रों से एक निश्चित दूरी तक स्थित सीमेंट व र्इंट कारखानों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया था कि वे राख के एक निश्चित अनुपात का उपयोग करेंगे। आगे चलकर इस नीति को कोयला आधारित संयंत्रों के आसपास निर्माण कार्यों पर भी लागू कर दिया गया था। 1999 में पर्यावरण व वन मंत्रालय 17ने एक अधिसूचना जारी करके नियम बनाया कि इस अधिसूचना के जारी होने के 15 वर्षों के अंदर समस्त परियोजनाओं को राख का 100 प्रतिशत इस्तेमाल हासिल 18करना होगा। तब से इस अधिसूचना में समय-समय पर संशोधन किए गए हैं। 3 नवंबर 2009 के संशोधन के बाद, अंतिम स्थिति यह थी कि अधिसूचना जारी होने की तारीख के बाद शुरू होने वाले समस्त कोयला व लिग्नाइट आधारित संयंत्रों को शुरू होने के 4 वर्षों के अंदर 100 प्रतिशत राख का इस्तेमाल हासिल करना होगा। दूसरी ओर, जो संयंत्र अधिसूचना से पहले शुरू हुए थे, उन्हें संशोधन के प्रकाशन के बाद 5 वर्षों का समय दिया गया है। अलबत्ता, कुछ ताप बिजली घरों के लिए ज़्यादा सख्त शर्तें लगाई गई हैं। जैसे, 4240 मेगावॉट क्षमता के 3 संयंत्रों, जिन्हें 2010 में पर्यावरण मंज़ूरी मिली थी, से कहा गया है कि वे संयंत्र शुरू होने के दिन से ही राख का 100 प्रतिशत इस्तेमाल करें।

जैसा कि ऊपर ज़िक्र किया गया था, राख के पुन: उपयोग की नीति 1999 से लागू रही है। मगर वास्तविक उपयोग काफी पिछड़ा रहा है। हाल के वर्षों में, इसमें सुधार हुआ है मगर फिर भी आंकड़ा मात्र 42 प्रतिशत पर ही पहुंचा है और कोयला आधारित संयंत्र वाले क्षेत्र आज भी राख 19निपटान के कुप्रभावों से पीड़ित हैं। जिस बड़े पैमाने पर कोयला आधारित बिजली उत्पादन प्रस्तावित है, राख का उत्पादन भी उसी अनुपात में बढ़ेगा। इससे यह सवाल उठता है कि क्या सीमेंट व निर्माण उद्योग में इतनी क्षमता और तैयारी है कि वे इतनी राख का पूरा उपयोग कर सकें।

यह मुद्दा उन इलाकों में ज़्यादा महत्व रखता है जहां ताप बिजली घरों का संकेंद्रण अधिक है। ज़रूरत इस बात की है कि राख के निपटान व पुन: उपयोग की निगरानी ज़्यादा सख्ती से की जाए।

पारा


पारा एक प्रमुख प्रदूषक है और हाल के वर्षों में यह काफी चिंता का विषय रहा है। इंफ्रास्ट्रक्चर लीज़िंग एण्ड फायनेंशियल सर्विसेज़ लिमिटेड (IL&FS) ने पर्यावरण व वन मंत्रालय के लिए सितंबर 2009 में ताप बिजली घरों के लिए 20तकनीकी पर्यावरण प्रभाव आकलन मार्गदर्शिका तैयार की थी। इसके मुताबिक “भारत में बढ़ती चिंता का एक विषय यह है कि ताप बिजली घरों में से राख के निपटान व फैलाव के साथ पारा, आर्सेनिक, सीसा, कैडमियम जैसे विषैले तत्व भी छोड़े जाते हैं। कोयला आधारित ताप बिजली घरों से निकलने वाले विषैले तत्वों में से पारा विशेष चिंता का विषय है, जो चिमनी की गैसों के साथ निकलता है या उड़न राख या पेंदे में बैठने वाली राख में होता है, जिसे राख-तालाबों में ठिकाने लगाया जाता है और पारा जल चक्र में प्रवेश कर जाता है, जहां इसका मिथाइलीकरण होने की संभावना रहती है। इस तरह बने पारे के मिथाइल यौगिक (मिथाइल मर्करी) मछली उपभोग के ज़रिए मानव भोजन श्रृंखला में प्रवेश कर सकते हैं (शाह व साथी, 2008)। भोजन श्रृंखला के माध्यम से पारे की उच्च मात्रा से होने वाला यह संपर्क हर उम्र के लोगों के मस्तिष्क, ह्मदय, गुर्दों, फेफड़ों और प्रतिरक्षा तंत्र को प्रभावित कर सकता है।

“पारा तीन अलग-अलग रूपों में उत्सर्जित हो सकता है: तात्विक (HgO), ऑक्सीकृत (Hg2+), और कणों से जुड़े हुए रूप में (HgP)। जलने के बाद उड़न राख में प्राय: पारे की मात्रा ज़्यादा होती है, और कुछ चुनिंदा बिजली घरों में किए गए मापन के आधार पर अनुमान है कि भारतीय कोयले की राख में औसतन 0.53 मि.ग्रा./कि.ग्रा. पारा होता है।

“इसके अलावा, भारतीय कोयले में पारे की बहुत ज़्यादा मात्रा पाई जाती है... अन्य देशों की अपेक्षा भारत के कोयले में (पारे की मात्रा) ज़्यादा होती है..। 21

“फिलहाल पारे को लेकर कोई एनएएक्यूएस नहीं है, हालांकि ऐसी सहमति की शर्तें हैं जिनके तहत ग्रीनफील्ड बिजली घरों के आसपास वायुमंडल में तथा उत्सर्जन में पारे की मात्रा की निगरानी अनिवार्य होती है। हालांकि इस वक्त बिजली घर से पारा उत्सर्जन की कोई सीमा तय नहीं की गई है, मगर बिजली संयंत्र से निकलने वाले (निस्सारित) पानी में पारे की मात्रा के कुछ सामान्य दिशानिर्देश उपलब्ध हैं।”

अर्थात बिजली संयंत्रों से पारा उत्सर्जन के गंभीर असर तो होंगे मगर इसे लेकर न तो कोई मापदंड हैं और न कोई सीमा तय की गई है। यह उन इलाकों में खास तौर से महत्त्वपूर्ण है जहां एक छोटे-से क्षेत्र में बहुत सारे बिजली घर लगने वाले हैं। ज़ाहिर है, ताप बिजली घरों के संकेंद्रण वाले इलाकों में पारे के उत्सर्जन का मॉडलिंग और इसके नियंत्रण के उपाय करना ज़रूरी है।

फरवरी 2009 में राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम की प्रशासनिक परिषद में पारे को लेकर कानूनी रूप से बंधनकारी 22वैश्विक व्यवस्था विकसित करने पर सहमति हुई थी। भारत इस वार्ता में शामिल है। अलबत्ता, इस मामले में वार्ता 2013 में ही पूरी होने की संभावना है। लिहाज़ा, सरकार को पारा उत्सर्जन पर नियंत्रण के उपाय करने के मामले में इस व्यवस्था के बनने और लागू होने का इन्तज़ार नहीं करना चाहिए।

इस बीच राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम की प्रशासनिक परिषद 25/5 ने स्पष्ट किया है कि राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम की वैश्विक पारा साझेदारी ही वैश्विक पारा संधि की वार्ता के दौरान पारे को लेकर तात्कालिक कार्रवाई की प्रमुख विधि होगी। कुल मिलाकर पारे व उसके यौगिकों के उत्सर्जन से मानव स्वास्थ्य और वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा ही राष्ट्र संघ वैश्विक पारा साझेदारी का मकसद है। अलबत्ता, भारत इस 23पहल में साझेदार नहीं है।

और तो और, वैश्विक स्तर पर बंधनकारी व्यवस्था को लेकर भारत का नज़रिया बहुत आशाजनक नहीं है। 31 अक्टूबर से 4 नवंबर के बीच होने वाली अंतर्सरकारी वार्ता समिति की बैठक के लिए भारत के प्रस्तुतीकरण में कहा गया 24है :

“बंधनकारी लक्ष्य और कठोर समय सीमाएं अपनाना संभव नहीं है। भारत में ताप बिजली क्षेत्र विशाल है और टेक्नॉलॉजी में किसी भी परिवर्तन या किसी भी उपाय का काफी वित्तीय असर होगा...। हम टेक्नॉलॉजी उन्नयन के माध्यम से अपना उत्सर्जन घटाने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। अलबत्ता, पारे का उत्सर्जन कम करने के लिए वर्तमान में उपलब्ध टेक्नॉलॉजी लागत-क्षम नहीं है और हमारे देश की परिस्थिति के अनुरूप नहीं है। वित्तीय अड़चनों के कारण वर्तमान कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्रों को रिट्रोफिट (नए उपकरण जोड़कर दुरुस्त) करना मुश्किल होगा। इसके अलावा, साझा मगर विभेदित ज़िम्मेदारियों के सिद्धांत का भी ध्यान रखना होगा, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता, ऊर्जा इंफ्रास्ट्रक्चर, जनसंख्या का आकार और अन्य मुद्दे शामिल होंगे। अतएव, भारत का मत है कि अनुकूल परिस्थितियों में पारे के वायुमंडलीय उत्सर्जन में स्वैच्छिक ‘कमी’ की बात होनी चाहिए, पारे के वायुमंडलीय उत्सर्जन के ‘उन्मूलन’ की नहीं।”

भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साझा मगर विभेदित ज़िम्मेदारियों की बात कहना तो सर्वथा उचित है, मगर उसका यह दावा चिंता का विषय है कि पारे का उत्सर्जन कम करने की टेक्नॉलॉजी लागत-क्षम नहीं है, और हमारे देश की परिस्थितियों में उपयुक्त नहीं है। चिंता का कारण यह है कि यह समस्या की अनदेखी का एक बहाना बन सकता है, जिसके गंभीर असर होंगे।

संसाधन सम्बंधी असर


कोयले की ज़रूरत
लगभग 85 प्रतिशत प्रक्रियाधीन परियोजनाएं कोयला आधारित हैं। वैसे तो कहा जाता है कि देश में कोयला संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं, मगर इतने विशाल प्रसार के मद्देनज़र इन ताप बिजली घरों के लिए र्इंधन आपूर्ति को लेकर सवाल उठते हैं। समस्त प्रस्तावित ताप बिजली परियोजनाओं के लिए कोयले की अलग-अलग ज़रूरत के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अत: हमने इनके लिए ज़रूरी कोयले की मात्रा की गणना एक सामान्य नियम के आधार पर की है। पर्यावरण व वन मंत्रालय के मुताबिक भारतीय कोयले पर आधारित लगभग 4,16,000 मेगावॉट क्षमता प्रस्तावित है। इसके अलावा, 1,44,000 मेगावॉट क्षमता आयातित कोयले पर आधारित होगी। यह माना जा सकता है कि भारतीय कोयले पर आधारित संयंत्रों के लिए प्रति मेगावॉट प्रति वर्ष 4800 टन कोयले की ज़रूरत होगी। इसके आधार पर हमने गणना की है कि इन संयंत्रों के लिए प्रति वर्ष कुल 200 करोड़ टन (2 अरब टन) कोयले की ज़रूरत होगी। इसके अलावा, करीब 44 करोड़ टन कोयला आयात करने की ज़रूरत होगी। यह मौजूदा बिजली परियोजनाओं में उपयोग किए जा रहे कोयले के अतिरिक्त है।

हमारे भरपूर कोयला भंडार के बावजूद, घरेलू उत्पादन का ज़रूरी स्तर हासिल करने और इन भंडारों का उपयोग घरेलू मांग की आपूर्ति हेतु कर पाने को लेकर जो पूर्वानुमान व्यक्त किए गए हैं, वे निराशाजनक हैं। जैसा कि 11वीं योजना के मध्यावधि मूल्यांकन में कहा गया है, देश में कोयला उत्पादन अनुमानों से कम हो रहा है, और जितने कोयले के 25आयात की योजना बनाई गई थी, ज़रूरत उससे ज़्यादा है। मध्यावधि मूल्यांकन में कोयले के वार्षिक उत्पादन के 68 करोड़ टन के अनुमान को संशोधित करके 62.991 करोड़ टन किया गया था और आयात की ज़रूरत 5.1 करोड़ टन 26से बढ़ाकर 8.333 करोड़ टन की गई थी। इसके अलावा, अनुमान व्यक्त किया गया है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक मांग व आपूर्ति की खाई, और आयात की ज़रूरत और भी ज़्यादा होने की आशंका है। नतीजतन 23 करोड़ टन आयात की ज़रूरत होगी। लिहाज़ा, 2 अरब टन सालाना घरेलू ज़रूरत की पूर्ति की संभावना को लेकर आशाजनक होने की गुंजाइश बहुत कम है।

इस बात के भी कई संकेत हैं कि विभिन्न प्रस्तावित ताप बिजली घरों को घरेलू कोयले का आवंटन इस संसाधन को कई सारी परियोजनाओं के बीच थोड़ा-थोड़ा बांटने की कवायद होगी। दूसरे शब्दों में, परियोजनाओं की बड़ी संख्या को अपनी ज़रूरत का पूरा कोयला नहीं मिलेगा। एक तो इसके चलते अलग-अलग संयंत्र के लिए अनिश्चितता पैदा होगी, और इसका मतलब यह भी है कि संसाधन का आवंटन यथेष्ट ढंग से नहीं किया जा रहा है।

पानी की ज़रूरत


कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को भारी मात्रा में पानी की ज़रूरत होती है - उन्हें ठंडा रखने के लिए भी और राख के निपटान के लिए भी। तटवर्ती बिजली घरों में पानी की ज़रूरत आम तौर पर समुद्र से पूरी की जाती है। मगर अंदरुनी इलाकों में स्थित ताप बिजली घरों के मामले में पानी एक निहायत अहम मुद्दा होता है।

जिस 1,92,804 मेगावॉट को पर्यावरण मंज़ूरी मिली है, उसमें से करीब 1,38,000 यानी 72 प्रतिशत अंदरुनी इलाकों में है। इसमें से लगभग 50 प्रतिशत चार नदी घाटियों में हैं: गंगा (33,255 मेगावॉट), गोदावरी (16,235 मेगावॉट), महानदी (14,595 मेगावॉट) और ब्रााहृणी (6534 मेगावॉट)। हालांकि इनमें से महानदी जैसी कुछ नदी घाटियों को पानी 28के लिहाज़ से सरप्लस (अतिशेष युक्त) माना जाता है , मगर यदि खेती, स्थानीय समुदायों (जैसे छोटे किसान, नदी किनारे की बस्तियों, मछुआरों), तथा पर्यावरण की ज़रूरतों को हिसाब में लिया जाए, तो महानदी समेत अधिकांश नदी घाटियों में इन विभिन्न मांगों को पूरा करने के लिए काफी खींचतान करनी होगी। ऐसी स्थिति में, ताप बिजली घरों, खास तौर से एक ही घाटी/उपघाटी में स्थित ताप बिजली घरों द्वारा पानी उलीचे जाने की वजह से टकराव की स्थिति निर्मित होने की पूरी संभावना है। उदाहरण के लिए, 2007 में 30,000 से ज़्यादा किसान हिराकुड जलाशय (महानदी घाटी) पर इकट्ठे हुए थे और मानव श्रृंखला बनाई थी। वे इस बात का विरोध कर रहे थे कि उन्हें सिंचाई के लिए पानी नहीं मिल रहा है, और उद्योगों को पानी आवंटित किया जा रहा है। अब इसी घाटी में बड़ी संख्या में ताप बिजली घर प्रस्तावित हैं।

अप्रैल 2010 में पानी की कमी के चलते महाराष्ट्र की राज्य बिजली उत्पादन कंपनी महाजेनको को चंद्रपुर ज़िले में 2340 मेगावॉट के सुपर ताप बिजली घर की कई इकाइयां बंद करनी पड़ी थीं। कम बारिश होने के कारण वहां पानी का ज़बर्दस्त अभाव हो गया था, और इराई बांध (उक्त संयंत्र के लिए पानी का रुाोत) का पानी पेयजल हेतु आरक्षित करना पड़ा था। इसकी वजह से उत्पादन में 1900 मेगावॉट की 29कमी आई थी। अब इसी ज़िले में लगभग 8000 मेगावॉट के कोयला आधारित ताप बिजली घर प्रक्रियाधीन हैं। इनमें महाजेनको की क्षमता में 1000 मेगावॉट की वृद्धि भी शामिल है। इसके लिए भी पानी का रुाोत इराई बांध ही होगा।

पर्यावरण व वन मंत्रालय के आंकड़ों में अलग-अलग परियोजनाओं के लिए पानी की ज़रूरत के आंकड़े नहीं दिए गए हैं। अलबत्ता, केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण का सामान्य नियम है कि कोयला आधारित ताप बिजली घर के लिए पानी की व्ययशील खपत 39.2 लाख घन मीटर प्रति 100 मेगावॉट 30प्रति वर्ष होती है । कुल 1,17,500 मेगावॉट के अंदरुनी इलाकों के कोयला आधारित संयंत्रों को पर्यावरण मंज़ूरी मिल चुकी है। इनके आधार पर गणना करने पर हम पाते हैं कि पानी का व्ययशील उपयोग 460.8 करोड़ घन मीटर प्रति वर्ष होगा। इस पानी से प्रति वर्ष करीब 9,20,000 हैक्टर ज़मीन की सिंचाई हो सकती है, या 8.4 करोड़ लोगों अर्थात देश की 7 प्रतिशत आबादी को एक साल तक पीने व घरेलू उपयोग हेतु पानी दिया जा सकता है।31

ध्यान दें कि यह सिर्फ उन परियोजनाओं की ज़रूरत है जिन्हें पर्यावरण मंज़ूरी मिल चुकी है। जब प्रक्रियाधीन शेष परियोजनाओं पर विचार करेंगे तो पानी की ज़रूरत में और इज़ाफा होगा। इसके अलावा, पानी के मामले में सिर्फ पानी की ज़रूरी मात्रा जानने से समस्याओं की पूरी तस्वीर नहीं उभरती। एक तो पानी एक अत्यंत तीव्र स्थानीय ज़रूरत है। इसलिए स्थानीय असर का बहुत महत्व है। हो सकता है कि किसी नदी घाटी में पूरी घाटी के स्तर पर पर्याप्त पानी हो मगर उस इलाके में पानी का घोर अभाव हो, जहां ताप बिजली घर स्थित है। उतनी ही महत्वपूर्ण बात यह है कि पानी की उपलब्धता वर्ष भर बदलती रहती है। हो सकता है कि वर्ष की कुछ अवधियों में ताप बिजली घरों को पानी प्रदान करना खास तौर से मुश्किल साबित हो। चंद्रपुर के उदाहरण में यह बात भलीभांति स्पष्ट हो जाती है।

इसके मद्देनज़र, और यह देखते हुए कि ताप बिजली घरों को भारी मात्रा में पानी की ज़रूरत होती है, यह साफ नज़र आता है कि पानी को लेकर टकराव की स्थितियां निर्मित हो रही हैं। इससे साफ हो जाता है कि नदी घाटी स्तर के नियोजन की महती ज़रूरत है ताकि यह पता लगाया जा सके कि अन्य कार्यों को प्रतिकूल प्रभावित किए बगैर ताप बिजली उत्पादन के लिए कितने पानी का उपयोग किया जा सकता है। नदी घाटी नियोजन एक सहभागी प्रक्रिया है जिसमें पानी के सारे संभावित उपयोगों और भूमिकाओं को ध्यान में रखा जाता है और घाटी के संतुलित विकास की योजना विकसित की जाती है।

निहितार्थ


ज़ाहिर है, प्रक्रियाधीन ताप बिजली घर निर्माणाधीन अतिक्षमता के द्योतक हैं। इसके निहितार्थ क्या हैं?

सबसे पहले, यह एक स्पष्ट संकेत है कि ताप बिजली क्षेत्र में क्षमता वृद्धि का कोई सम्बंध बिजली क्षेत्र की ज़रूरतों व उद्देश्यों और नियोजन से नहीं रह गया है। अतिरिक्त क्षमता से जुड़े प्रत्यक्ष मुद्दों के अलावा, इस तरह की त्रुटिपूर्ण क्षमता वृद्धि के अंतर्गत न तो संचारण/पारेषण का नियोजन सही ढंग से हो सकता है और न ही मांग-आपूर्ति का संतुलन बनाया जा सकता है। जब से ताप बिजली परियाजनाओं के लिए लायसेंस की ज़रूरत को समाप्त किया गया है, तब से यह मान लिया गया है कि ताप बिजली घरों का निर्माण और संचालन बाज़ार की शक्तियों के अधीन होगा। कहा जाता है कि बाज़ार की ये शक्तियां दुर्लभ संसाधनों के नियोजन व आवंटन का ज़्यादा कार्यक्षम तरीका हैं। लिहाज़ा, हम मान सकते हैं कि बाज़ार अकार्यक्षम व गैर-ज़रूरी क्षमता की छंटाई कर देगा। अतिरिक्त क्षमता का मतलब होगा कि मांग कम हो जाएगी और बाज़ार में उठाव भी कम होगा। इसका असर यह होगा कि बैंकर्स और अन्य कर्ज़दाता ऐसी परियोजनाओं का वित्तपोषण करने से परहेज़ करेंगे। अर्थात कई परियोजनाएं शायद वित्तीय परिपूर्णता (financial closure) तक न पहुंचें। हो सकता है कि अन्य कई परियोजनाएं मांग के अभाव में रास्ते में छूट जाएंगी।

अलबत्ता, इस पूरे तर्क में यह बात भुला दी गई है कि बिजली क्षेत्र सिर्फ बाज़ार से संचालित नहीं होता। खास तौर से, कोयला, गैस, भूमि और पानी जैसे मुख्य इनपुट्स का आवंटन गैर-बाज़ारी व अपारदर्शी मापदंडों के आधार पर होता है, जिसमें प्राय: भारी भरकम रियायतें और सबसिडियां दी 32जाती हैं । इन इनपुट्स का सम्बंध महत्वपूर्ण साझा संपत्ति संसाधनों से है, जैसे नदी, झीलें, जंगल, कृषि भूमि, गैस, और कोयला जैसे खनिज पदार्थ। इसके अलावा, इसकी काफी बाह्र लागतें (externalities) होती हैं - जैसे समुदायों का विस्थापन, इकॉलॉजिकल तबाही, और जैव विविधता का विनाश। चूंकि ताप बिजली घरों के लिए इन संसाधनों की ज़रूरत है, इसलिए राष्ट्र ताप बिजली घरों के निर्माण के फैसले की भारी कीमत चुकाता है। ये लागतें प्रत्यक्ष रूप से वित्तीय, सामाजिक व पर्यावरण के लिहाज़ से तो होती ही हैं, अप्रत्यक्ष रूप में किसी अन्य विकल्प को छोड़कर इस विकल्प को अपनाने की लागत (opportunity costs) के रूप में भी होती हैं।

जब ताप बिजली घर ज़रूरत से बहुत अधिक हैं, तो एक निहितार्थ यह है कि हम भूमि, पानी, गैस और कोयले जैसे दुर्लभ प्राकृतिक संसाधन ऐसी परियोजनाओं के लिए आवंटित कर रहे हैं जिनकी ज़रूरत नहीं है। और, यदि बाज़ार की शक्तियां अकार्यक्षम और अतिरिक्त परियोजनाओं की छंटाई कर देंगी और मांग व आपूर्ति का संतुलन स्थापित कर देंगी, तो इस प्रक्रिया में कई सारी अधूरी परियोजनाओं का मलबा इकट्ठा हो जाएगा, जिन्होंने लोगों को विस्थापित कर दिया होगा, पर्यावरण को बदल डाला होगा, बड़ी मात्रा में वित्तीय संसाधन कैद कर दिए होंगे, संयंत्र में और पारेषण सुविधाओं के रूप में तमाम बेकार ज़ायदाद निर्मित कर दी होगी। बाज़ार प्रणाली में ऐसी छंटाई प्रक्रिया की लागत परियोजनाओं के प्रवर्तकों द्वारा वहन की जाती है। अलबत्ता, ताप बिजली घरों के मामले में, लागत का बड़ा हिस्सा आम लोगों, देश और पर्यावरण द्वारा वहन किया जाएगा। दरअसल, होगा यह कि यह बेकार पड़ी ज़ायदाद आगे और संसाधन आवंटन (वह भी अयथेष्ट आवंटन) का सबब बन जाएगी।

एक अहम बात यह है कि ऐसे ताप बिजली घरों के लिए ज़मीन सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण कानून के तहत लोगों से जबरन प्राप्त की जाती है। भूमि अधिग्रहण कानून का सारतत्व यह है कि यदि किसी ज़मीन की ज़रूरत सार्वजनिक उद्देश्य के लिए है, तो सरकार उसे बलपूर्वक अधिग्रहित कर सकती है। जब प्रक्रियाधीन ताप बिजली क्षमता ज़रूरत से काफी ज़्यादा है, तब स्पष्ट है कि इनमें से कई संयंत्र ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ की पूर्ति नहीं करेंगे। लिहाज़ा, ऐसे ताप बिजली घरों के लिए ज़मीन का अधिग्रहण उचित नहीं होगा। यही तर्क पानी, कोयले और गैस आवंटन के मामले में भी लागू होगा क्योंकि इनका आवंटन भी इसी आधार पर उचित ठहराया जाता है कि ये संयंत्र सार्वजनिक हित में हैं।

जब इनमें से हरेक ताप बिजली घर पानी आपूर्ति, भूमि 33और र्इंधन पर दावा जताएगा , तो इन बिजली घरों की अतिरिक्त संख्या को देखते हुए यह आशंका पैदा होती है कि इनमें से कुछ परियोजनाएं तो सिर्फ संसाधनों पर कब्ज़ा करने का साधन बन जाएंगी। इनका मकसद शायद यही होगा कि बिजली उत्पादन संयंत्र स्थापित करने के नाम पर ज़मीन, पानी और कोयले पर अधिकार जमा लिया जाए। जो संसाधन इन्हें कौड़ियों के भाव मिलेंगे, बाद में ये उन्हें अन्य कार्यों में लगाकर या सट्टाबाज़ी करके उनके वास्तविक मूल्य के आधार पर मुनाफा कमाएंगे।

अर्थात यदि किसी परियोजना को ज़मीन आवंटित हो जाए, और वह वित्तीय परिपूर्णता हासिल न कर सके, तो वह कभी साकार नहीं होगी मगर उसके प्रवर्तक इस ज़मीन से भरपूर मुनाफा कमा सकेंगे। हो सकता है कि कुछ परियोजनाएं तो सिर्फ यह मुनाफा कमाने के मकसद से ही प्रस्तावित की जाएं।

इससे प्रक्रियाधीन ताप बिजली घरों में भयानक फैलाव का एक और पहलू रेखांकित होता है - प्रशासन की प्रमुख प्रक्रियाएं या तो नदारद हैं या काम नहीं कर रही हैं।

उपरोक्त बातों के मद्देनज़र, यह एक गलत निर्णय होगा कि बाज़ार को एक निर्णायक की भूमिका अदा करने दें और यह उम्मीद करें कि वह अतिरिक्त व अकार्यक्षम क्षमताओं की छंटाई कर देगा। इसकी बजाय, ज़रूरत इस बात की है कि उद्देश्यपूर्ण व सोचा-समझा हस्तक्षेप किया जाए, जिसमें समावेशी विकास को अधिकतम करने, सामाजिक व पर्यावरणीय प्रभावों को न्यूनतम करने, क्षेत्रीय संकेंद्रण पर अंकुश लगाने, पानी व अन्य संसाधनों के यथेष्ट उपयोग करने वगैरह के स्पष्ट मापदंड हों। दूसरे शब्दों में, छंटाई का काम बाज़ार के भरोसे छोड़ने, जिसकी लागत बहुत भारी होगी, की बजाय राज्य को यह काम अपने हाथों में लेना चाहिए और इस अवसर का उपयोग उन परियोजनाओं की छंटाई में करना चाहिए जो सबसे ज़्यादा सामाजिक, पर्यावरणीय अथवा वित्तीय नुकसान करने वाली हैं या उन परियोजनाओं के सफाए में करना चाहिए जो सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति सबसे कम करती हों।

इस तरह के हस्तक्षेप का एक कारण और भी है। प्रक्रियाधीन ताप बिजली क्षमता के विशाल पैमाने के चलते प्रदूषण, राख निपटान, और पानी की ज़रूरत जैसे मुद्दे अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इनके अलावा, विस्थापन व भूमि अधिग्रहण से सम्बंधित अन्य मुद्दे हैं जिनकी चर्चा इस रिपोर्ट में नहीं की गई है। फिर, इन ताप बिजली घरों का भौगोलिक संकेंद्रण इन मुद्दों को उन क्षेत्रों में और भी गंभीर बना देता है जो कई परियोजनाओं के मिले-जुले प्रभाव का सामना करेंगे। बदकिस्मती से, प्रभाव आकलन के वर्तमान ढांचे में तथा पर्यावरण मंज़ूरी प्रक्रिया में ऐसे संकलित प्रभावों पर कदापि विचार नहीं किया जाता। आकलन एक-एक परियोजना का अलग-अलग होता है, और इसमें भी काफी खामियां होती 34हैं। ज़रूरत न सिर्फ इस बात की है कि एक-एक परियोजना के प्रभाव आकलन को सुदृढ़ बनाया जाए, बल्कि इस बात की भी है कि उससे पहले ही क्षेत्रीय प्रभावों और वहन क्षमता का आकलन किया जाए। एक-एक परियोजना को मंज़ूरी इन अध्ययनों के प्रकाश में ही दी जानी चाहिए, और विशालता को संकलित प्रभाव आकलन के मद्देनज़र समायोजित किया जाना चाहिए।

आगे का रास्ता


ऊपर प्रस्तुत आंकड़ों से स्पष्ट पता चलता है कि जितनी ताप बिजली क्षमता को पर्यावरण मंज़ूरी मिल चुकी है या मंज़ूरी की प्रक्रिया में है, वह आगामी दो दशकों की ज़रूरत से बहुत ज़्यादा है। इस अतिरिक्त क्षमता के कारण र्इंधन और वित्त जैसे महत्वपूर्ण संसाधन कई परियोजनाओं के बीच थोड़ेथोड़े बंट रहे हैं। दुर्लभ संसाधनों के इस अयथेष्ट उपयोग के अलावा, अतिरिक्त क्षमता का एक प्रभाव यह भी होगा कि बिजली क्षेत्र के पहले से ही गंभीर सामाजिक व पर्यावरणीय प्रभाव और घातक हो जाएंगे। लिहाज़ा बिजली परियोजनाओं के विकास के हमारे नज़रिए की बुनियादी समीक्षा की तत्काल ज़रूरत है। आगे बढ़ते हुए, हम निम्नलिखित उपायों का सुझाव दे रहे हैं:

1. नए ताप बिजली घरों को पर्यावरण मंज़ूरी देने पर तत्काल रोक लगाई जानी चाहिए। इसमें खास तौर से वह 5,00,000 मेगावॉट क्षमता शामिल है जो पर्यावरण मंज़ूरी का इन्तज़ार कर रही है, जिसके टम्र्स ऑफ रेफरेंस स्वीकृत हो चुके हैं या जो टम्र्स ऑफ रेफरेंस की प्रतीक्षा में है।

2. जिन परियोजनाओं को पर्यावरण मंज़ूरी दी जा चुकी है (यानी करीब 2,00,000 मेगावॉट), उनमें से उन परियोजनाओं को लंबित रखा जाए जिनकी सामाजिक व पर्यावरणीय लागत बहुत ज़्यादा है, जिन्हें व्यापक स्थानीय स्वीकृति हासिल नहीं है, और जिनमें पारेषण, र्इंधन, भूमि व पानी का समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा है।

3. इसके साथ ही हमें अगले दो वर्षों में एक पूर्णत: पारदर्शी विचार-विमर्श की प्रक्रिया चलानी चाहिए ताकि

क. बिजली उत्पादन संयंत्रों के लिए पर्यावरण मंज़ूरी की पूरी प्रक्रिया में आमूल बदलाव किए जा सकें, ताकि बिजली परियोजनाओं की सामाजिक व पर्यावरणीय लागतों को न्यूनतम किया जा सके। खास तौर से, इस प्रक्रिया में लक्ष्य यह होना चाहिए कि किसी इलाके में ताप बिजली घर की स्थापना का नियमन करने में क्षेत्रीय वहन क्षमता के अध्ययन तथा संकलित प्रभाव आकलन का उपयोग अनिवार्य किया जा सके।

ख. विभिन्न परियोजनाओं को र्इंधन, भूमि व पानी का आवंटन करने में विभिन्न संस्थाओं के बीच तालमेल बन सके।

ग. बिजली की दीर्घावधि मांग और इस मांग की आपूर्ति के सबसे यथेष्ट उपायों का आकलन हो सके, जिसमें ऊर्जा कार्यक्षमता बढ़ाना तथा नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग शामिल होगा ताकि ऊर्जा सुरक्षा में सुधार हो और बिजली क्षेत्र के विकास के कारण होने वाले सामाजिक व पर्यावरणीय नुकसान कम से कम हों।

यह देखते हुए कि काफी क्षमता को पर्यावरण मंज़ूरी मिल चुकी है और/या निर्माणाधीन है, इस तरह की रोक लगाने और समीक्षा करने से अगले दशक में देश की बिजली की ज़रूरतों की पूर्ति पर कोई आंच नहीं आएगी। उक्त सुझावों के क्रियान्वयन से ताप बिजली के विकास में बिजली नियोजन की दृष्टि से भी और सामाजिक व पर्यावरणीय दृष्टि से भी एक संतुलन बहाल करने, तथा तंत्रों व बुनियादी रूप से अच्छी प्रशासन प्रक्रिया तैयार करने में मदद मिलेगी।

पर्यावरण मंत्रालय में हुई चर्चा

प्रयास के प्रकाशन
संदर्भ

इस रिपोर्ट में प्रस्तावित ताप बिजली घरों पर स्थानीय सामाजिक व पर्यावरणीय सरोकारों तथा भूमि, पानी व र्इंधन सम्बंधी मुद्दों की दृष्टि से विचार किया गया है। इसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन सम्बंधी मुद्दों की दष्टि से विचार नहीं किया गया है क्योंकि भारत जैसे देश के लिए विकास की ज़रूरतें प्रमुख महत्त्व रखती हैं।

1. स्रोत http://www.cea.nic.in/reports/monthly/executive_rep/apr11/8.pdf - 23 मई, 2011 के दिन देखा गया। कुल ताप बिजली क्षमता में 1200 मेगावॉट डीज़ल जनरेशन क्षमता शामिल है। इसके अलावा, 19,509 मेगावॉट की ग्रिड से जुड़ी स्व-उपयोग क्षमता भी है। यहां ग्रिड से अलहदा स्व-उपयोग क्षमता के आंकड़े शामिल नहीं किए गए हैं।

2. यह 12 मई 2011 की स्थिति है। इसमें बायोमास व बगास (खोई) पर आधारित 433 मेगावॉट ताप बिजली क्षमता शामिल है। हमने उन ताप बिजली घरों को छोड़ दिया है जिन्हें 31 दिसंबर 2006 से पहले पर्यावरण मंज़ूरी मिल चुकी थी। दूसरे शब्दों में, इस आंकड़े में मात्र वही ताप बिजली घर शामिल हैं जिन्हें 1 जनवरी 2007 और 12 मई 2011 के बीच स्वीकृति मिली है। गौरतलब है कि ईआईए अधिसूचना एस.ओ. 1533, दिनांक 14 सितंबर 2006 के मुताबिक ताप बिजली घरों के मामले में ‘पर्यावरण मंज़ूरी की वैधता’ अर्थात अग्रिम पर्यावरण मंज़ूरी स्वीकृत होने से लेकर परियोजना या गतिविधि द्वारा उत्पादन शुरू होने तक की अवधि 5 वर्ष है। पर्यावरण व वन मंत्रालय इसे पांच साल के लिए और बढ़ा सकता है।

3. 12 मई 2011 की स्थिति। इसमें बायोमास व बगास (खोई) आधारित तकरीबन 2200 मेगावॉट क्षमता शामिल है।

4. पर्यावरण व वन मंत्रालय से सूचना का अधिकार के तहत ईआईए रिसोर्स सेंटर, नई दिल्ली द्वारा हासिल जानकारी से पता चलता है कि 2006 से 2008 के बीच पर्यावरण व वन मंत्रालय ने 1746 परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान की, जबकि मात्र 14 परियोजना को खारिज किया गया (इसमें सिर्फ ताप बिजली परियोजनाएं नहीं बल्कि समस्त परियोजनाएं शामिल हैं)। इसके अलावा, 1 अगस्त 2009 से 31 जुलाई 2010 के बीच समस्त क्षेत्रों की 535 परियोजनाएं स्वीकृत की गर्इं जबकि मात्र 6 परियोजनाएं अस्वीकृत की गर्इं। स्वीकृत परियोजनाओं में से ताप बिजली परियोजनाओं की संख्या 134 (वर्ष 2006-2008) और 49 (अगस्त 2009-जुलाई 2010) थी। कोई भी ताप बिजली परियोजना अस्वीकृत नहीं हुई, हालांकि एक ताप बिजली घर को दी गई स्वीकृति बाद में निरस्त कर दी गई। रुाोत: ईआरसी वेबसाइट http://www.ercindia.org/rtiresp.php और ईआरसी की प्रेस विज्ञप्ति http://www.ercindia.org/files

5. http://www.ercindia.org/files/rti/scan0005.pdf 6 जून 2011 को डाउनलोड किया गया।5

6. रुाोत: एमओयू सम्बंधी जानकारी का रुाोत: उड़ीसा सरकार, ऊर्जा विभाग, http://218.248.11.68/energy/MoU_IPP.asp?lnk=14 - 19 मई 2011 को देखा गया। सिर्फ 500 मेगावॉट से अधिक की परियोजनाओं पर विचार किया गया है।

7. हमने 500 मेगावट से कम की उन परियोजनाओं पर विचार नहीं किया है जिन्हें राज्य स्तर पर मंज़ूरी मिली है, क्योंकि संभवत: ये क्षमता में उतनी वृद्धि नहीं करेंगी जितनी कि केंद्र सरकार की पर्यावरण मंज़ूरी प्रक्रिया के ताप बिजली घर करेंगे।

8. इस तालिका में और अन्यत्र प्रस्तुत कुल मौजूदा क्षमता के आंकड़ों के बीच थोड़ा फर्क इस वजह से है क्योंकि इन आंकड़ों के लिए अलग-अलग दस्तावेज़ों का सहारा लिया गया है। कारण यह है कि र्इंधन-वार और स्वामित्व-वार विभाजन अलग-अलग दस्तावेज़ों में उपलब्ध है। यह आंकड़ा यहां से लिया गया है:

http://www.cea.nic.in/reports/monthly/generation_rep/actual/may11/opm_06.pdf
http://www.cea.nic.in/reports/monthly/generation_rep/actual/may11/opm_07.pdf
http://www.cea.nic.in/reports/monthly/generation_rep/actual/may11/opm_05.pdf 23 मई 2011 को देखा गया।

9. हमने पर्यावरण मंज़ूरी प्राप्त, टीओआर स्वीकृत, पर्यावरण मंज़ूरी प्रतीक्षारत, परियोजनाओं पर ही विचार किया है। यहां टीओआर प्रतीक्षारत परियोजनाओं को शामिल नहीं किया गया है क्योंकि ऐसी परियोजनाओं का र्इंधन-वार वितरण उपलब्ध नहीं है।

10. इस पर्चे में ‘ताप बिजली क्षमता’ से हमारा आशय सिर्फ कोयला व गैस आधारित क्षमता से है। तेल को छोड़ दिया गया है; वैसे भी कोयला व गैस के मुकाबले इनकी संख्या बहुत कम है, जैसा कि फुटनोट 1 में बताया गया है।

11. योजना आयोग की 21 अप्रैल 2011 को आयोजित पूर्ण बैठक में आयोग का प्रस्तुतीकरण, http://planningcommission.nic.in/plans/planrel/12appdrft/pc_present.pdf

12. योजना आयोग (2006): एकीकृत ऊर्जा नीति - विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट, योजना आयोग, भारत सरकार, नई दिल्ली, रिपोर्ट निम्न स्थान पर उपलब्ध है: http://planningcommission.nic.in/reports/genrep/rep_intengy.pdf पृष्ठ 20। यह नीति अगले 20 वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में निरंतर 8 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि के लिए है, जिसमें जीडीपी के रूबरू बिजली की नम्यता 0.95 से घटकर 0.78 रह जाएगी।

13. परिदृश्य 11, जिसका उल्लेख पृष्ठ 46 पर किया गया है। इस परिदृश्य में यह उम्मीद है कि 27,778 मेगावॉट बिजली कोल बेड मीथेन से और 22,222 मेगावॉट इन सीटू कोल गैस से मिलेगी। ये पारंपरिक कोयला व गैस आधारित ताप बिजली घरों से अलग हैं।

14. मौजूदा 1,13,000 मेगावॉट की मौजूदा क्षमता में से कुछ वर्ष 2032 तक काम करना बंद कर देगी क्योंकि उनका जीवन काल पूरा हो जाएगा। वैसे इसका परिमाण अपेक्षाकृत कम ही होगा। संभावना यह है कि इस क्षमता को उसी स्थान पर पुन: निर्मित कर दिया जाएगा अथवा मरम्मत कर दी जाएगी। लिहाज़ा आज जो परियोजनाएं प्रक्रियाधीन हैं, वे उपरोक्त मौजूदा परियोजनाओं के अतिरिक्त हैं।

15. केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (2011): 30.04.11 को राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में बिजली संस्थानों (यूटिलिटीज़) की स्थापित उत्पादन क्षमता (मेगावॉट), केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण, भारत सरकार, नई दिल्ली। देखें: http://www.cea.nic.in/reports/monthly/executive_rep/apr11/9-10.pdf (23 मई 2011 के दिन देखा गया)।15

16. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (2009): औद्योगिक झुंडों का समग्र पर्यावरण आकलन: इकॉलॉजिकल प्रभाव आकलन श्रृंखला: EIAS/5/2009-10, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पर्यावरण व वन मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली। देखें: http://moef.nic.in/downloads/public-information/Industrial%20Clusters_env_assessment.pdf (11 अप्रैल 2011 के दिन डाउनलोड किया गया)।

17. http://www.moef.nic.in/legis/hsm/so763%28e%29.pdf (1 जुलाई 2011 के दिन देखा गया)।17
18. http://moef.nic.in/downloads/public-information/2804.pdf (1 जुलाई 2011 के दिन देखा गया)
19. पर्यावरण व वन मंत्रालय हेतु क्ष्ख्र्ःक़च् द्वारा ताप बिजली घरों के लिए सितंबर 2009 में विकसित तकनीकी पर्यावरण प्रभाव आकलन मार्गदर्शन मैनुअल (http://moef.nic.in/Manuals/Thermal%20Power.pdf - 17 जून 2011 के दिन देखा गया) के मुताबिक देश में इस्तेमाल की गई कुल उड़न राख की मात्रा 2006-07 में 5.501 करोड़ टन रही (पृष्ठ 4-47)। इस दस्तावेज़ में यह नहीं बताया गया है कि कितनी उड़न राख पैदा होती है मगर विज्ञान व टेक्नॉलॉजी विभाग के एक दस्तावेज़ (http://www.dst.gov.in/whats_new/what_new08/fly-ash.pdf) में इसकी मात्रा 13.0 करोड़ टन आंकी गई है। इससे पता चलता है कि 2006-07 में उड़न राख का इस्तेमाल 42 प्रतिशत हुआ।

20. http://moef.nic.in/Manuals/Thermal%20Power.pdf, परिशिष्ट 1, पृष्ठ त्, 17 जून 2011 के दिन देखा गया

21. इसका पूरा नाम नहीं बताया गया है मगर संदर्भ को देखते हुए यह राष्ट्रीय वातावरणीय वायु गुणवत्ता मानक (National Ambient Air Quality Standard) होना चाहिए।

22. http://www.unep.org/hazardoussubstances/MercuryNot/MercuryNegotiations/tabid/3320/language/en-US/Default.aspx22

23. http://www.unep.org/hazardoussubstances/Mercury/GlobalMercuryPartnership/tabid/1253/language/en-US/Default.aspx23

24. “इण्डियाज़ व्यूस रिगार्डिंग दी एलीमेंट्स ऑफ एक कम्प्रीहेंसिव एण्ड सुटेबल एप्रोच टु ए लीगली बाइंडिंग इंस्ट्रूमेंट ऑन मर्करी” (पारे के संदर्भ में एक कानूनन बंधनकारी व्यवस्था को लेकर एक समग्र व उपयुक्त नज़रिए के बारे में भारत के अभिमत), देखें: http://www.unep.org/hazardoussubstances/Portals/9/Mercury/Documents/INC3/India.pdf, 17 17 अगस्त 2011 के दिन देखा गया।

25. योजना आयोग (2011): 11वीं पंचवर्षीय योजना 2007-2012 का मध्यावधि आकलन, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, पैरा 1.77, पृष्ठ 14। देखें: http://planningcommission.gov.in/plans/mta/11th_mta/MTA.html

26. http://planningcommission.gov.in/plans/mta/11th_mta/chapterwise/Comp_mta11th.pdf, 18 18 अगस्त 2011 के दिन देखा गया, तालिका 15.1, पृष्ठ 305।

27. उदाहरण के लिए, कोयला मंत्रालय द्वारा अपने वेबसाइट पर कोल इण्डिया की एक उप कंपनी और निजी बिजली कंपनी के बीच जो आदर्श र्इंधन आपूर्ति समझौता प्रस्तुत किया गया है उसमें स्पष्ट कहा गया है कि यदि उप-कंपनी कोयले की निर्धारित मात्रा की आपूर्ति नहीं कर पाती है, तो वह बकाया मात्रा की आपूर्ति वैकल्पिक रुाोतों से कर सकती है, जिनमें आयातित कोयला भी शामिल है, और अतिरिक्त लागत खरीददार द्वारा वहन की जाएगी। (देखें र्इंधन आपूर्ति समझौते का पैरा 4.3, यह दस्तावेज़ http://www.coalindia.in/Documents/NCDP/Model पर उपलब्ध है।) एक गौरतलब बात यह भी है कि उप-कंपनी को कम आपूर्ति के लिए कोई मुआवज़ा भी नहीं देना होगा, बशर्ते कि वह वार्षिक अनुबंधित मात्रा की 50 प्रतिशत की आपूर्ति कर दे।

28. उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण महानदी को एक ‘अतिशेष’ पानी वाली घाटी मानता है। यह अभिकरण नदी जोड़ परियोजना विकसित कर रहा है जिसके तहत 30 कड़ियां बनाकर ‘अतिशेष’ पानी वाली नदी घाटियों से पानी को ‘कम’ पानी वाली घाटियों में पहुंचाया जाएगा। देखें: http://nwda.gov.in/index2.asp?slid=3&sublinkid=3&langid=1

29. प्रकरण क्रमांक 23/2010 के संदर्भ में महाराष्ट्र विद्युत नियामक आयोग का आदेश दिनांक 30 मई 2011, पृष्ठ 4, निम्न स्थान पर देखा जा सकता है:www.mercindia.org.in/pdf/Order%2058%2042/Order23of2010.pdf, 7 जुलाई 2011 के दिन डाउनलोड किया गया।

30. राष्ट्रीय एकीकृत जल संसाधान विकास आयोग (1999): एकीकृत जल संसाधन विकास योजना, राष्ट्रीय एकीकृत जल संसाधन विकास आयोग, जल संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, पृष्ठ 63।

31. सिंचाई के लिए 50 से.मी. पानी या पेयजल व घरेलू ज़रूरत के लिए 150 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मानकर

32. अशोक चावला समिति की रिपोर्ट के बाद सरकार ने कोयले जैसे कुछ संसाधनों का आवंटन बाज़ार आधारित तरीकों से करने पर कुछ विचार शुरू किया है। जब तक ऐसा वास्तव में नहीं किया जाता, और इसके लिए तौर-तरीके स्थापित नहीं किए जाते, तब तक ताप बिजली घरों के संदर्भ में इसके निहितार्थों का आकलन संभव नहीं है। इसका असर बिजली की दरों और कमज़ोर तबकों के लिए बिजली की आपूर्ति पर भी पड़ेगा। बहरहाल, फिलहाल तो ये संसाधन गैर-बाज़ार तरीकों से आवंटित किए जा रहे हैं।

33. र्इंधन कड़ियों के अंतर्गत यह शामिल होता है कि हर ताप बिजली घर को किसी निर्धारित कोयले की सुनिश्चित आपूर्ति हो। ताप बिजली घरों के लिए कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करने का एक तरीका यह भी है कि हरेक बिजली घर को कोयला खदान अकेले उसके उपयोग के लिए आवंटित कर दी जाए। पहले तरीके में खदान तो कोल इण्डिया की उप-कंपनी के पास ही रहती है, जबकि दूसरे तरीके में खदान का संचालन बिजली घर का मालिक करता है।

34. सिविल सोसायटी ने तो पर्यावरण मंज़ूरी तथा पर्यावरण प्रभाव आकलन की गुणवत्ता की काफी आलोचना की ही है, तत्कालीन पर्यावरण व वन मंत्री स्वयं श्री जयराम रमेश ने पर्यावरण प्रभाव आकलन की घटिया गुणवत्ता की बात को स्वीकार किया है। बताते हैं कि उन्होंने हैदराबाद में 19 मार्च 2011 को कहा था, “स्पष्ट कहूं तो परियोजनाओं के लिए तैयार की गर्इं पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोट्र्स मज़ाक जैसी हैं। परियोजना बनाने वाला व्यक्ति ही यह रिपोर्ट बनाने का काम भी करता है। यहां तक कि प्रतिष्ठित सरकारी संस्थाएं भी यहां वहां से काटकर चिपकाने का काम करती हैं।” (हेडलाइन्स इण्डिया व अन्य स्थानों पर प्रकाशित। देखें: http://headlinesindia.mapsofindia.com/environment-news/global-warming/environmental-impact-assessment-is-a-joke-jairamramesh-78425.html)

हिंदी अनुवाद - सुशील जोशी

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