क्षति-पूर्ति आन्दोलन

इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद भी सरकार को राहत कार्य शुरू करने में बहुत समय लगा क्योंकि तेज रफ्तार से फैलते और बहते हुये नदी के पानी के कारण न तो कोई बाढ़ पीडि़तों तक पहुँच सकता था और न ही बाढ़ पीड़ित उस इलाके से बाहर निकल सकते थे। तटबन्ध टूटने के लगभग 8 दिन बाद तक सरकारी राहत का कहीं अता-पता नहीं था। जो कुछ भी राहत कहीं मिली वह भोजन की शक्ल में और नाते-रिश्ते वालों, मारवाड़ी युवा मंच और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के माध्यम से मिली। कुछ दिनों बाद भारत सेवाश्रम संघ और रामकृष्ण मिशन के लोग भी इस इलाके में आये। सरकारी निष्क्रियता और तटबन्धों के रख-रखाव में लापरवाही तथा भ्रष्टाचार से पैदा हुये आक्रोश ने लोगों को सरकार के विरु( गोलबन्द होने को मजबूर किया। नेतृत्व मिला सर्वोदय के कार्यकत्र्ता शिवानन्द भाई, उनकी पत्नी सरला बहन, तपेश्वर भाई, श्रद्धानन्द, राजेन्द्र झा, राजेन्द्र यादव, सत्य नारायण प्रसाद, किशोरी बहन, कमला बहन और अमर नाथ भाई की ओर से और इस कार्यक्रम को मिर्जापुर के प्रेम भाई का समर्थन प्राप्त था। तय यह हुआ कि तटबन्ध के रक्षा की जिम्मेवारी सरकार की थी जिसका निर्वहन उसने नहीं किया अतः काम-चलाऊ राहत का बहिष्कार करके तटबन्ध टूटने के कारण हुये नुकसान की क्षतिपूर्ति सरकार से करवाई जाय क्योंकि यह बाढ़ प्राकृतिक बाढ़ तो थी नहीं, यह तो मानव निर्मित बाढ़ थी और इस मामले में तो लोग उन चेहरों को भी पहचानते थे जिनकी वजह से यह बाढ़ आई थी।

लोगों को संगठित करना प्रारम्भ किया गया और 19 नवम्बर 1984 को पहली बार सहरसा के जिलाधिकारी के दफ्तर पर 20,000 सत्याग्रहियों ने प्रदर्शन किया। इनकी मांगें थी कि, (1) तटबन्ध टूटने के कारण सभी प्रकार की चल-अचल सम्पत्ति को हुए नुकसान का मुआवजा दिया जाय, (2) बांध टूटने के कारणों की जांच के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की अध्यक्षता में जांच कमीशन बहाल किया जाय और दोषी व्यक्तियों को कड़ी सजा दी जाये तथा (3) तत्काल रोजगार देने के लिए कठिन श्रम योजना एवं सरल श्रम योजनाएं शुरू की जायें। क्षतिपूत्र्ति आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले शिवानन्द भाई का कहना था कि, ‘‘ ... जिलाधिकारी ने हम लोगों को बुलाया और पूछा कि आप लोग क्यों ऐसा कर रहे हैं, ‘यह क्या बदमाशी है?’ उन्होंने पूछा। हमें बड़ा आघात लगा। तत्कालीन राजस्व मंत्री ने, जो कि उसी क्षेत्र के थे, भी कहा कि आप लोगों के विरोध का तरीका गैर-गाँधीवादी है, सर्वोदय की विचारधारा से मेल नहीं खाता। हम लोगों ने उन लोगों को समझाने की कोशिश की पर कोई नतीजा नहीं निकला। फिर तय हुआ कि क्षतिपूर्ति की माँग के पक्ष में हम घेराव करेंगे और प्रशासन को ठप्प करेंगे।

जिलाधिकारी ने मुख्यमंत्री (चन्द्र शेखर सिंह) से सम्पर्क किया जो कि उस वक्त राँची में थे, जिसमें उन्होंने परिस्थिति की जानकारी दी और कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये गोली चलाने की छूट माँगी जो कि उन्हें नहीं मिली। इस तरह आन्दोलन ने रंग पकड़ा। बाद में लोगों ने, एक कानूनी सहायता की संस्था की मदद से, उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर की जिसका आशय बाढ़ पीड़तों को क्षति-पूर्ति दिलाना था और पटना उच्च-न्यायालय में इस मामले की पैरवी रामचन्द्र लाल दास ने की थी। माननीय अदालत ने रूरल एन्टाइटिलमेन्ट ऐण्ड लीगल सपोर्ट सेन्टर, पटना बनाम बिहार सरकार तथा अन्य से सम्बन्धी याचिका नम्बर 5212 (1985) के 20 फरवरी 1989 के अपने प़ैफसले में लिखा है कि, ‘हमने दोनों पक्षों के विद्वान अधिवक्ताओं का बयान सुना है और दलीलों का अध्ययन किया है। बिहार सरकार के अधिवक्ता ने हमारे इस प्रस्ताव को स्वीकार किया है कि बिहार सरकार आज से दो महीने के अन्दर 1984 में कोसी तटबन्ध के टूटने तथा इस कारण हुये जान-माल के नुकसान की जाँच करने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन करेगी जिससे कि उचित मुआवजे का भुगतान किया जा सके। यह समिति अपने गठन के तीन महीने के अन्दर राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट देगी। आवेदनकर्ता इस समिति के सामने अपना पक्ष रखने के लिए अधिकार युक्त हैं। इस परिप्रेक्ष्य में इस याचिका का निस्तार किया जाता है।’ यह आदेश न्यायमूर्ति मा. श्री रंगनाथ मिश्र तथा न्यायमूर्ति मा. श्री के. जगन्नाथ शेट्टी की अदालत से पारित हुआ।

यह समिति आज तक नहीं बनी। हमने सरकार के एक आला अफसर से इस मसले पर तहकीकात की तो उन्होंने बताया कि इससे तो सरकार का दिवाला निकल जायगा।’

उच्चतम न्यायालय के इस फैसले पर राज्य सरकार की तरफ से आने वाले तीन वर्षों में जब कोई कार्यवाही नहीं की गई तब सपोर्ट सेन्टर ने 3 अप्रैल 1992 को न्यायालय की अवमानना का मुकद्दमा दायर किया जिस पर कोई कार्यवाही नहीं हो पाई क्योंकि कुछ दिनों बाद प्रेम भाई का निधन हो गया और मामले के पीछे लगे रहने वाली शक्ति का ह्रास हो गया। इस पूरे प्रकरण पर अब कोई सक्रियता नहीं बची है।

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Post By: tridmin
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