क्षारीय मृदा सुधार जरूरी है जल निकास

आज के परिप्रेक्षय में क्षारीय मृदाओं का विस्तार 3.4 मिलियन है। क्षेत्र में फैला हुआ है जिसका लगभग 75 प्रतिशत सिन्धु-गंगा जलौढ़ क्षेत्र में मिलता है। ऐसी मृदाएं पंजाब, हरियाणा और उत्तार प्रदेश के अतिरिक्त मध्य प्रदेश, तमिलनाडू और बिहार राज्यों के काफी क्षेत्र में फैली हुई है। पिछले तीन-चार दशकों में लगभग 1.2 मिलियन हैक्टर क्षेत्र का सुधार होने के बावजूद, 2.2 मिलियन हैक्टर क्षेत्र में इनका विस्तार एक चिंता का विषय है। बचे हुए क्षारीय क्षेत्र का लगभग 40 प्रतिशत क्षेत्र केवल उत्तर प्रदेश में ही स्थित है।

क्षारीय मृदा सुधार कार्यक्रम का उत्तर प्रदेश में एक महत्वपूर्ण स्थान है। क्षारीय मृदाओं के बनने में जल निकास की कमी या अवरूद्धता एक मुख्य कारण होने के कारण इन मृदाओं के सुधार के लिए सुचारू जल निकास का प्रबंध एक आवश्यक कार्य है।

खासियम क्षारीय मृदाओं की


• क्षारीय मृदाएं लगभग अधिकतर अर्धशुष्क व अर्द्धनम क्षेत्रों में पाई जाती है।
• क्षारीय मृदाएं आमतौर पर अच्छी जमीनों के मुकाबले थोड़ी कम ऊंचाई वाले स्थानों पर पाई जाती हैं।
• क्षारीय मृदाएओं वाले क्षेत्रों में एक दिन में 250 मि.मी. या उससे अधिक वर्षा हो सकती है।
• इन मृदाओं की पानी सोखने की शक्ति अच्छी जमीनों या लवणीय जमीनों के मुकाबले काफी कम होती है।
• क्योंकि इनका सुधार धीर-धीरे होता है अत: सुधारोपरान्त भी इन जमीनों की पानी सोखने की क्षमता कम ही रहती है।
• क्षारीय मृदाओं के सुधार उपरान्त चावल-गेहूं की खेती की सिफारिश की जाती है।
• आमतौर पर क्षारीया मृदाओं वाले क्षेत्रों में भूमिगत जल की गुणवत्ता अच्छी होती है और उसका उपयोग फसल उत्पादन के लिए किया जा सकता है। लेकिन कुछ क्षेत्रों में उच्च कोटि अवशिष्ट सोडियम कार्बोनेट (आर.एस.सी.) की संभावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता।

खासियम क्षारीय मृदाओं की


• क्षारीय मृदाओं में सतही जल निकास मानसून व सर्द ऋतु दोनों में ही अवरूद्ध हो सकता है। समय पर उचित मात्रा में इसके निकास के लिए सतही जल निकास का प्रावधान आवश्यक है।
• इन क्षेत्रों में पानी की अधिकता व कमी एक ही मानसून ऋतु में स्पष्ट होती है। इससे स्पष्ट है कि जहां जल निकास की आवश्यकता है, वहीं सिंचाई के लिए पानी का सुयारू प्रबंध भी आवश्यक है। ऐसे में वर्षा जल का सुचारू प्रबंध इन दोनों समस्याओं के समाधान में सक्षम हो सकता है।
• भूमिगत जल सतह वर्षा के दौरान ऊपर नीचे आता रहता है। लेकिन लम्बी अवधि में यह कई स्थानों पर नीचे जा रहा है तो दूसरे कई स्थानों पर ऊपर भी उठ रहा है। क्षारीय मृदाओं वाले क्षेत्रों में कई स्थानों पर पानी उथला हो सकता है। इसके लिए भूमिगत प्रबंध करना आवश्यक है।

जल निकास प्रणालियां


भूमिगत जल निकास : भूमिगत जल निकास तीन विधियों द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है। एक भूमिगत जल निकास (छिद्रदार पाइपों द्वारा जल निकास) और क्षैतिज जल निकास (नलकूप विधि द्वारा जल निकास) तीसरा जैविक जल निकास (पौधों द्वारा जल निकास) इसके अतिरिक्त कई स्थानों पर नहरों आदि से होने वाले पानी के बहाव में अवरोध डालकर भी जल निकास समस्या का समाधान किया जा सकता है।

क्योंकि केवल सतही जल निकास द्वारा उथले जल स्तर पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता इसलिए यह आवश्यक है कि क्षारीय मृदा के टिकाऊ सुधार के लिए सतही व भूमिगत जल निकास की उचित प्रणालियों के सम्मिश्रण द्वारा जल निकास का प्रावधान किया जाए।

सतही जल निकास


मानसून ऋतु में जल निकास अर्धशुष्क अर्द्धनम और नम क्षेत्रों में एक समस्या का विषय है। सतही पानी के इकट्ठा होने से होने वाला नुकसान फसलों के प्रकार, फसल की किस्म तथा फसल वृद्धि के किस चरण पर पानी इकट्ठा हुआ है उस पर भी निर्भर करता है। लेकिन सबसे अधिक असर पानी इकट्ठा रहने के समय होता है। ज्यों-ज्यों समय बढ़ता है फसलों की उपज घटती है तथा एक समया ऐसा आता है कि फसलें पूर्णत: बर्बाद हो जाती हैं।

सतही जल निकास के सुचारू कार्यान्वयन के लिए क्षारीय सुधार प्रक्रिया शुरू करते समय ही इसका ध्यान रखना चाहिए। भूमि समतनल सतही जल निकास प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग है। भूमि समतलन का अर्थ यहां पर एक मेज की तरह समतल सतह नहीं है, बल्कि एक उचित ढाल की सतह निर्माण करने से है। आमतौर पर यह ढाल क्षारीय मृदा क्षेत्रों में 0.1 से 0.2 प्रतिशत तक होती है। इस ढाल के साथ अधिक छेड़-छाड़ न करते हुए भूमि समतलीकरण के दौरान यही ढाल बरकरार रखनी चाहिए। लेजर भूमि समतलीकरण यंत्रों द्वारा यह कार्य आसानी से किया जा सकता है। ढाल के ऊपर की तरह सिंचाई नालियां व नीचे की तरफ जल निकास नालियों के प्रावधान से सिंचाई और जल निकास दोनों की क्षमता बढ़ाई जा सकती है। सतही निक्षालण, जो कई अवस्थाओं में अत्यन्त आवश्यक हो जाता है, के लिए निकास नालियां काफी लाभप्रद सिद्ध हो सकती हैं।

फसलों के लिए सतही जल निकास की आवश्यकता


धान : हरियाणा में धान की औसत उपज तथा वर्षा के आंकेड़े दर्शाते हैं कि यदि वर्षा लम्बी अवधि के औसत से 200 मि.मी. अधिक हो या 200 मि.मी. से कम हो तो दोनों ही अवस्थाओं में धान की पैदावार में गिरावट आती है। करनाल में किए गए परीक्षणों से भी ऐसे परिणाम सामने आए हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि औसत से अधिक वर्षा वाले सालों में धान के लिए जल निकास की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे वर्षों की लगभग पांच सालों में एक बार आने की सम्भावना रहती हैं दूसरे धान लगाने के 10-15 दिन बाद एक बार पानी निकालने कि लिए भी जल निकास प्रणाली की आवश्यकता होती है। लेकिन यदि धान-गेहूं पद्धति की बात करें तो गेहूं के लिए किया गया जल निकास प्रबंध धान की फसल के लिए जल निकास की आवश्यता पूरी करने में सक्षम होगा।

गेहूं : स्पष्ट क्षारीय मृदाओं की निचली सतहों में अधिक विनिमय योग्य सोडियम प्रतिशतता होने की वजह से हल सतह पर एक कठोर परत बनने तथा सिंचाई के तुरन्त या कुछ समय बाद वर्षा होने के कारण इस फसल के लिए सतही जलनिकास की अत्यन्त आवश्यकता है। परिबंध सिंचाई प्रणाली में भी नीचे की तरफ पानी इकट्ठा होने के कारण इसका निष्कासन आवश्यक हो जाता है। करनाल के वर्षा के आंकड़े दर्शाते हैं कि गेहूं के समय 4 सें.मी. वर्षा हर दूसरे साल हो सकती है। इसका अभिप्राय: यह है कि यदि यह वर्षा सिंचाई के बाद हो तो भूमि सतह पर काफी दिन तक पानी खड़ा रहनेकी संभावना बनी रहती है। यदि यह पानी एक दिन से अधिक इकट्ठा रहे तो गेहूं की फसल में 10 प्रतिशत से अधिक की कमी आ सकती है। एक ही समय पर उगाई जाने वाली जौ, सरसों और गेहूं की फसलों में यह पाया गया है कि जौ सबसे अधिक सहनशील तथा गेहूं सबसे कम सहनशील फसल है। सतही जल निकास के उचित प्रावधान के लिए जल निकास की नालियों की कम से कम गहराई 0.6 मी. व इस गहराई पर चौडाई 0.5 मी. होनी चाहिए। ऊपर की चौड़ाई मृदा के प्रकार के अनुसार रखी जा सकती है।

सतही जल निकास के लिए वर्षा जल का समुचित संरक्षण और उपयोग : मानसून ऋतु में धान के समय वर्षा जल का समुचित प्रबंध सतही जल निकास की मात्रा में काफी कमी ला सकता है। इसके अतिरिक्त यह सिंचाई जल की आवश्यकताओं में कमी लाकर तथा खेतों से होने वाले जल रिसाव में वृध्दि कर भूमिगत जल स्तर संरक्षण में काफी सहायक सिध्द हो सकता है। इस व्यवस्था के लिए केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान द्वारा एक त्रिसूत्रीय प्रणाली का विकास किया गया है। इस प्रणाली के तीन सूत्र इस प्रकार हैं -

• जहां तक हो सके धान के खेतों में वर्षा जल को रोकने का प्रावधान करें। इसके लिए आमतौर पर मेढ़ों की ऊंचाई में 15-20 सें.मी. की बढोत्तरी लाभदायक रहती है।
• यदि पानी की गहराई अधिक हो, विशेष तौर पर फसल के आरम्भ के दिनों में तो वर्षा जल का निकास करें। इस पानी को खेतों में बनाए तालाबों या सार्वजनिक गड्डों में ले जाने का प्रावधान करें। इस पानी का वर्षा ऋतु के दौरान होने वाले शुष्क दिनों में सिंचाई के लिए प्रयोग किया जा सकता है। रबी के मौसम में एक या दो सिंचाईयों के लिए भी इस पानी का प्रयोग किया जा सकता है। जल निकास के लिए विशेष तौर पर बनाए गए कैविटी नलकूप का भी प्रयोग किया जा सकता है।
• इससे अधिक जल का सार्वजनिक जल निकास नालियों द्वारा प्राकृतिक निकास स्त्रातों में निकास करना चाहिए। ऐसा देखने में आया है कि इस त्रिसूत्रीय प्रणाली द्वारा 80 प्रतिशत या उससे अधिक वर्षा का पानी उसी क्षेत्र में जहां वर्षा गिरती है में संरक्षण किया जा सकता है। इससे सार्वजनिक जल निकास पर कम दबाव पड़ता है तथा बाढ़ जैसी स्थितियों में कमी आने की सम्भावना बनती है।

क्षारीय काली कपासीय मृदाओं के लिए जल निकास : वर्टीसाल्ज, जिन्हें काली कपासीय मृदाएं भी कहा जाता है, की पानी की षोषण क्षमता काफी कम होती है। इसके अतिरिक्त क्षारीयता अधिक होने से यह क्षमता और भी कम हो जाती है। बारानी क्षेत्रों में वर्षा का पानी इतना नहीं होता कि उससे धान की फसल ली जा सके जबकि दूसरी फसलें पानी के लम्बे समय तक इकट्ठा रहने की वजह से बुरी तहर प्रभावित होती हैं। इस प्रकार की समस्या के समाधान के लिए इन्दौर स्थित खारे पानी के प्रबंध नामक प्रौजैक्ट के अर्न्तगत एक बैड तथा खाली प्रणाली का विकास किया गया है। इसमें बैड क्षेत्र का पानी का निकास खाली क्षेत्र में होता है ताकि खाली क्षेत्र में उगाई गई धान की फसल के लिए अतिरिक्त पानी का प्रावधान हो सके। बैड क्षेत्र में कोई दूसरी फसल जैस ज्वार, मक्का आदि उगाई जाती है। क्योंकि इस क्षेत्र से निकास आसानी से हो जाता है इसलिए फसल पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता।

भूमिगत जल निकास : क्षारीय मृदाओं में आमतौर पर भूमिगत जलस्तर उथला होता है। लेकिन अधिकतर स्थानों पर यह पानी फसलों के लिए प्रयोग में लाए जाने योग्य होता है। कहीं-कहीं पर पानी क्षारीय हो सकता है जिसके प्रयोग के लिए अतिरिक्त उपाय करने की आवश्यकता पड़ सकती है। उथले जलस्तर को उचित सीमा में स्थिर करने के लिए आमतौर पर नालीदार जल निकास प्रणाली की सिफारिश की जाती है। लेकिन कई अवस्थाओं में हर स्थान पर इसकी सिफारिश करना उचित नहीं होगा। आमतौर पर धान की फसल उथले जलस्तर को सहन कर सकती है तथा सुधार के लिए नलकूप लगाने की भी सिफारिश की जाती है। इसलिए सुधान प्रक्रिया में तेजी लाने से बढ़ते नलकूपों की संख्या जलस्तर नीचे ले जाने में सहायता प्रदान करती है। लेकिन अर्द्धनम क्षेत्रों में जहां नहरी पानी अधिक होता है तथा अधिकतर वाष्पोत्पादन क्रिया के लिए पानी की कमी वर्षा द्वारा पोषित हो सकती है या सामाजिक-आर्थिक कारणों से अधिक संख्या में नलकूप लगाने की सम्भावना कम हो तो इस प्रकिया द्वारा सालों-साल लग सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों में समय का इन्तजार करना मुमकिन नहीं, विशेष तौर पर जब छोटे किसानों की खुशहाली का सवाल हो तो। इन सभी बातों का ध्यान रखते हुए भूमिगत जल निकास के लिए निम्नलिखित विकल्प ठीक जान पड़ते हैं।

• अधिकतर जलकूपों द्वारा जल निकास क्षारीय मृदा सुधार के टिकाऊ सुधार के लिए आवश्यक पानी के जलस्तर में कमी लाने में सक्षम होता है।
• जहां नहरी रिसाव द्वारा जलस्तर उथला हो वहां पर अवरोधक नालियों द्वारा जल निकास लगाने से समस्या का समाधान हो सकता है। लेकिन सतही अवरोधक नालियों को इसके लिए लाभदायक नहीं पाया गया है। इसलिए जहां तक सम्भव हो छिद्रदार नालियों द्वारा जल निकास करें। जैविक जल निकास भी इस में काफी सहायक हो सकता है। इस विषय में काफी अनुसंधान कार्य किए जा रहे हैं।
• जहां जलस्तर लगभग पूरे वर्ष 1.5 मी. या उससे ऊपर रहता हो तथा जल के कृषि में प्रयोग में सामान्यत: कठिनाई हो तो नालीदार जल निकास लगाना आवश्यक हो जाता है। ऐसा देखने में आया है कि उथले जलस्तर वाले क्षेत्रों में जहां क्षारीय भूमि का सुधार किया सुधार टिकाऊ नहीं हुआ और सुधारी जमीन फिर से बंजर बन गई। इसलिए इस तकनीक के प्रयोग के परीक्षणों की सिफारिश की जाती है। ताकि इस पद्धति के द्वारा भूमि सुधार को टिकाऊ बनाया जा सके।

जलनिकास के विषय में जल निकास प्रणाली के उपयुक्त चुनाव के साथ-साथ एक ओर समस्या का सामना करना पड़ता है। ऐसा देखने में आया है कि भारत में मानसून की स्थिति साल-दर-साल बराबर नहीं होती। किन्हीं वर्षों में वर्षा कम तो किन्हीं वर्षों में वर्षा अधिक होती है। इसलिए कम वर्षा वाले वर्षों में जल निकास की आवश्यकता कम या बिल्कुल नहीं होती तो किसान जल निकास के प्रति उदासीन हा जाते हैं। यहां तक कि जो थोड़ी बहुत जल निकास प्रणाली होती है उसका रखरखाव भी बन्द कर देते हैं। लेकिन यकायक जब इसकी जरूरत पड़ती है तो इसका प्रयोग करना कठिन ही नहीं दुष्कर और नए के समान खर्चीला हो जाता है। फसल पर दुष्प्रभाव के कारण फसल काफी कम होती है। इसीलिए यह सिफारिश की जाती है कि किसान अपने खेतों की जल निकास प्रणाली को हर वर्ष मानसून से पहले चुस्त-दुरूस्त कर लें ताकि जरूरत पड़ने पर इसका प्रयोग किया जा सके।

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