कृषि विकास की गाथा बयां करती क्रांतियां

देश के कृषि विकास की गाथा में हरित क्रांति के अतिरिक्त श्वेत क्रांति, पीली क्रांति, गुलाबी क्रांति, गोल क्रांति, नीली क्रांति, सिल्वर क्रांति, सुनहरी आदि क्रांतियों का अहम योगदान रहा है। हरित क्रांति के जरिए देश के खाद्यान्न उत्पादन में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। सत्तर के दशक में देश खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बना और अस्सी के दशक में मौसम एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने के लिए खाद्यान्नों का बफर स्टॉक बनाने में भी सफल हो गया। नब्बे के दशक आते-आते तो देश कुछ खाद्यान्नों के निर्यात करने की स्थिति में पहुंच गया। यह सब हरित क्रांति का ही चमत्कार थादेश आजादी के डेढ़ दशक बाद तक तमाम प्रयासों के बावजूद खाद्यान्न की समस्या से उबर नहीं पा रहा था। देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि लोगों को दो जून की रोटी कैसे मुहैया कराई जाए? उस समय देश की जनसंख्या वृद्धि दर भी खाद्यान्न उत्पादन दर से अधिक थी। खाद्यान्न की समस्या से पार पाने के लिए हरित क्रांति की शुरुआत की गई। यह क्रांति इतनी सफल हुई कि देश के खाद्यान्न उत्पादन की दिशा ही बदल गई। इस क्रांति का देश पर इतना व्यापक और प्रभावशाली असर हुआ कि वर्ष-दर-वर्ष एक के बाद एक कृषि के विभिन्न क्षेत्रों में क्रांतियों का आगमन होता गया और देश कृषि विकास की बुलंदियों को छूता गया। देश के कृषि विकास की गाथा में हरित क्रांति के अतिरिक्त श्वेत क्रांति, पीली क्रांति, गुलाबी क्रांति, गोल क्रांति, नीली क्रांति, सिल्वर क्रांति, सुनहरी आदि क्रांतियों का अहम योगदान रहा है।

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हरित क्रांति


देश में हरित क्रांति की शुरुआत 1966-67 में हुई। इसका श्रेय डॉ. नार्मन ई बोरलाग को जाता है। अमेरिका के सैन्य सलाहकार डीसी सामन ने जापानी गेहूं की एक बौनी प्रजाति भेजी थी। इस प्रजाति का संकरण बोरलाग ने मैक्सिको स्थित अंतरराष्ट्रीय गेहूं एवं मक्का अनुसंधान केंद्र (सिमिट) में फफूंद प्रतिरोधी गेहूं की किस्मों से कराया तो गेहूं की अर्धबौनी अधिक उपज देने वाली प्रजातियों की प्राप्ति हुई। इसी तरह धान का ताईचुंग नेटिव संस्करण बीमारी प्रतिरोधक अन्य किस्मों के साथ कराया गया तो अधिक उपज देने वाली उन्नतशील प्रजातियों की प्राप्ति हुई। संपूर्ण हरित क्रांति की रचना इन्हीं गेहूं और धान की प्रजातियों को मिलाकर रची गई। इन किस्मों की पैदावार रासायनिक उर्वरकों के साथ बहुत अच्छी थी। बहरहाल, सबसे पहले इसके लिए 1966 में मैक्सिको से 18,000 टन गेहूं और धान के बीज को मंगाया गया। प्रारंभ में सिंचित क्षेत्र में किसानों को पांच-पांच किलोग्राम के पैकेट बनाकर वितरित किए गए। इसके बाद जो घटित हुआ, वह सबके सामने है। देश में सन् 1950 के दशक में कुल खाद्यान्न उत्पादन लगभग 50 मिलियन टन था, जो आज बढ़कर लगभग 230 मिलियन टन तक पहुंच गया। इस क्रांति का असर देश तक ही सीमित नहीं था बल्कि वैश्विक स्तर पर रहा। यही कारण था कि एशिया एवं लैटिन अमेरिका के विभिन्न भागों में भी हरित क्रांति खूब फली-फूली।

हरित क्रांति के जरिए देश के खाद्यान्न उत्पादन में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। पहले सत्तर के दशक में देश खाद्यान्नों से आत्मनिर्भर बना और सन् अस्सी के दशक के बाद देश मौसम एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने के लिए खाद्यान्नों के बफर स्टॉक बनाने में भी सफल हो गया। नब्बे का दशक आते-आते तो देश कुछ खाद्यान्नों के निर्यात करने की स्थिति में पहुंच गया। यह सब हरित क्रांति का ही चमत्कार था। हरित क्रांति की सफलता के बाद बोरलाग को 1970 में शांति का नोबेल पुरस्कार एवं 2007 में अमेरिका के सर्वोच्च सम्मान से नवाजा गया। लेकिन हम सबके लिए दुख की बात यह रही कि दुनिया को भूख से मुक्ति दिलाने वाला मसीहा 13 सितंबर, 2009 को हम सबको अलविदा कह गया।

श्वेत क्रांति


भारत में श्वेत क्रांति की नींव सघन पशु विकास कार्यक्रम 1964-65 के तहत ही पड़ गई थी। लेकिन इसको त्वरित गति प्रदान करने के लिए ऑपरेशन फ्लड चलाया गया। यह एक ग्रामीण विकास परक कार्यक्रम था जिसको नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड द्वारा 1970 में शुभारंभ किया गया। यह विश्व की सबसे बड़ी योजना थी। इसके सूत्रधार डॉ. वर्गीज कुरियन थे, जो नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड के अध्यक्ष भी थे। ऑपरेशन फ्लड को तीन चरणों में चलाया गया था।

प्रथम चरण 1970-80: इस दौरान 18 प्रमुख दुग्ध शेडों की स्थापना की गई एवं डेयरी को एक इंडस्ट्री के रूप में विकसित किया गया।
द्वितीय चरण 1981-85: इस चरण में दुग्ध शेडों की संख्या 18 से बढ़ाकर 136 की गई एवं 290 शहरी बाजारों तक पकड़ बढ़ाई गई। इस तरह से लगभग 42.5 लाख दुग्ध उत्पादन-कर्ताओं तक पहुंच बनाई गई।
तृतीय चरण 1985-96: इस चरण की शुरुआत का मुख्य उद्देश्य था प्रथम एवं द्वितीय चरणों से प्राप्त लाभों को बनाए रखना, सरकारी समितियों की संख्या में वृद्धि करना, दुग्ध उत्पादन क्षेत्रों को राष्ट्रीय दुग्ध ग्रिड से जोड़ना, जिससे पूरे वर्ष पर्याप्त मात्रा में दूध उपलब्ध हो सके।

इस ऑपरेशन की सफलता इस बात से लगाई जा सकती है कि सन् 1950-51 में देश का दुग्ध उत्पादन मात्र 17 मिलियन टन था जो बढ़कर लगभग 97 मिलियन टन हो गया। नतीजतन, देश दुग्ध उत्पादन में दुनिया का सर्वाधिक दूध उत्पादन करने वाला देश बन गया। देश में दुग्ध क्रांति के पुरोधा डॉ. वर्गीज कुरियन को उनके कार्यों के लिए पद्म विभूषण, रेमन मैग्सेसे, वर्ड फूड, वेटलर वर्ड पीस आदि पुरस्कारों से नवाजा गया।

पीली क्रांति


देश को खाद्य तेलों से आत्मनिर्भर बनाने के लिए अनुसंधान एवं विकास की नई सिरे से रणनीति तैयार की गई, जिसे पीली क्रांति के नाम से जाना गया। तिलहनी फसलों के उत्पादन में आत्मनिर्भरता लाने के लिए उत्पादन, प्रसंस्करण एवं प्रबंध प्रौद्योगिकी के समुचित उपयोग के उद्देश्य के लिए तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन 1986 में शुरू किया गया। इस मिशन में 23 राज्यों के 337 जनपदों को शामिल गया गया। इस मिशन के बहुत ही सकारात्मक परिणाम हासिल हुए, लेकिन अभी काफी कुछ करना शेष है। इस मिशन को चार चरणों में चलाया गया।

प्रथम चरण में किसानों को अधिक लाभ अर्जित करने के लिए तिलहन की आधुनिक उत्पादन प्रौद्योगिकी को अपनाने को लेकर जोर दिया गया।
द्वितीय चरण में प्रोसेसिंग के दौरान पारंपरिक और अपारंपरिक तरीके से तेल निकालने में होने वाली क्षति को कम करना।
तृतीय चरण में किसानों को समय से उन्नत बीज, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई एवं ऋण आदि की उपलब्धता पर जोर दिया गया।
चतुर्थ चरण में फसल कटाई उपरांत उचित भंडारण, उचित मूल्य निर्धारण एवं तेल प्रसंस्करण इकाइयों को सहायता करना।

देश में आजादी के बाद खाद्य तेलों में पांच गुना से अधिक वृद्धि हुई है। वर्तमान में खाद्य तेलों का कुल उत्पादन लगभग 28.8 मिलियन टन है। देश में खाद्य तेलों की उपलब्धता प्रति व्यक्ति/वर्ष 7.5 किलोग्राम है। जबकि अंतरराष्ट्रीय पोषक मान के अनुसार 10.95 किलोग्राम प्रति व्यक्ति/वर्ष होना चाहिए।

गुलाबी क्रांति


देश में झींगा उत्पादन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से गुलाबी क्रांति का आगाज हुआ। पहले झींगा उत्पादन का कार्य प्रमुख रूप से प्राकृतिक तरीके से समुद्र के खारे पानी से किया जाता था। लेकिन वैज्ञानिकों के अथक प्रयास के चलते कृषि में हुए तकनीकी विकास और अनुसंधान से झींगा का सफल उत्पादन मीठे पानी में भी संभव हो सका। देश में झींगा उत्पादन की भरपूर संभावनाएं मौजूद हैं क्योंकि लगभग 4 मिलियन हेक्टेयर मीठे जल क्षेत्र के रूप में जलाशय, पोखरे, तालाब आदि उपलब्ध हैं। इन जल क्षेत्रों का उपयोग झींगा पालन के लिए बखूबी किया जा सकता है।

वर्तमान में देश में झींगा पालन एक बहुत तेजी से बढ़ने वाले व्यवसाय के रूप में उभरा है। पिछले दो दशकों में मत्स्य पालन के साथ-साथ झींगा पालन व्यवसाय प्रतिवर्ष 6 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। आज घरेलू बाजार के साथ विदेशी बाजार में झींगा की काफी मांग बढ़ी है। आज देश विश्व के सबसे बड़े झींगा निर्यातक राष्ट्र के रूप में जाना जाता है।

गोल क्रांति


यह क्रांति देश में आलू के उत्पादन, उपभोग एवं योजनाबद्ध तरीके से अनुसंधान और तकनीकी विकास को समर्पित है, जिससे देश में पर्याप्त मात्रा में आलू का उत्पादन किया जा सके। इसके लिए केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान की शिमला में स्थापना की गई।

देश में आलू उत्पादन को तीव्र गति प्रदान करने के लिए सन् 1971 में अखिल भारतीय समन्वित आलू सुधार परियोजना की शुरुआत केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान के तहत की गई। संस्थान के अथक प्रयास से आधुनिक उत्पादन प्रौद्योगिकी, कीट-व्याधियों का समुचित प्रबंधन, भंडारण एवं लगभग तीन दर्जन से अधिक उन्नतशील प्रजातियों का विकास किया जा चुका है। आलू की इन प्रजातियों में कुछ तो मुल्क के बाहर भी काफी लोकप्रिय रही।

आलू के सत्य बीज की खोज ने इस क्रांति को एक और ऊचाई प्रदान की। आज आलू के एक पुड़िया बीज से काफी बड़े क्षेत्रफल की बुवाई करना संभव हो सका है। आलू के सत्य बीज से कम खर्चे में अधिक उत्पादन के साथ रोग-मुक्त फसलोत्पादन संभव हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक 1950-51 में आलू की जो उत्पादकता 69.2 क्विंटल/ हेक्टेयर थी, जो आज बढ़कर 181.5 क्विंटल/हेक्टेयर हो गई है। आजादी के समय देश में आलू का उत्पादन 1.66 मिलियन टन से बढ़कर 24 मिलियन टन तक पहुंच चुका है। आज देश का आलू उत्पादन में तीसरा एवं क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से दुनिया में चौथा स्थान है। आज देश में आलू एक स्वतंत्र उद्योग का रूप ले चुका है।

शायद ही कोई ऐसी सब्जी की फसल होगी जिसका इतना व्यापक और विविध तरीके से इस्तेमाल में लाया जाता होगा। फिर भी, अभी आलू के उत्पादन और उपभोग की भरपूर संभावनाएं हैं क्योंकि देश में आलू की खपत अभी मात्र 15 किग्रा प्रति व्यक्ति/वर्ष है, जो विश्व के औसत आलू के उपभोग 33.68 किग्रा प्रति व्यक्ति/वर्ष से काफी कम है।

नीली क्रांति


देश में प्राचीन-काल से मछली पालन का कार्य किया जा रहा है। यही कारण है कि देश की एक बहुत बड़ी आबादी अपनी आजीविका का अर्जन बहुत पहले से मत्स्य पालन से करती आ रही है। मत्स्य पालन प्रमुख रुप से प्राकृतिक झीलों, जलाशयों, नदियों, नहरों, तालाबों, पोखरों द्वारा परंपरागत ढंग से किया जाता था। मत्स्य पालन की विपुल संभावनाओं को देखते हुए देश के नीति निर्धारकों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद केंद्रीय समुद्री मत्स्यिकी अनुसंधान संस्थान, मंडपम एवं केंद्रीय अंतः स्थलीय मत्स्यिकी अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर में स्थापना की गई। इन संस्थानों के अथक प्रयास से कृत्रिम मत्स्य प्रजनन प्रौद्योगिकी, परिपक्व प्रजनकों के उत्पादन की प्रौद्योगिकी, बहुजना प्रौद्योगिकी, हैचरी में बीच उत्पादन प्रौद्योगिकी का विकास संभव हो सका।

मत्स्य उत्पादन की गति को और तीव्र करने के लिए सन् 1971 में अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना का गठन किया गया जिसके तहत भारतीय जलाशयों की पारिस्थितिकी एवं मत्स्यिकी विकास का विस्तृत अध्ययन और विवेचना की गई। लिहाजा देश का मत्स्य उत्पादन सन 1950-51 में 0.75 मिलियन टन से बढ़कर लगभग 6.4 मिलियन टन प्रतिवर्ष तक पहुंच गया। आज देश विश्व में मत्स्य उत्पादन में तीसरे एवं क्षेत्रफल की दृष्टि से दूसरे मुकाम पर है। देश के मत्स्य उत्पादन में वृद्धि के लिए चलाई गई योजनाओं व कार्यक्रमों को समग्र रूप से नीली क्रांति के रूप में जाना गया।

धूसर क्रांति


देश की आजादी के बाद खेती में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नगण्य था। उस समय खाद्यान्न उत्पादन की प्रथम आवश्यकता थी कि खेती में अधिक से अधिक रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाए। इस लिहाज से भी रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग जरूरी था क्योंकि हरित क्रांति के समय गेहूं और धान की जो प्रजातियां खेती के लिए मंगाई गई थी, वह इन उर्वरकों के समुचित इस्तेमाल से ही भरपूर उत्पादन दे सकती थी। इस कार्य के लिए सरकार द्वारा खेती में रासायनिक उर्वरकों के उपभोग को बढ़ावा देने के लिए एक सघन अभियान चलाया गया जिसे धूसर क्रांति की उपमा दी गई। इस क्रांति की सफलता का परिणाम है कि सन् 1950-51 में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग एक मिलियन टन से भी कम था जो आज बढ़कर 20.30 मिलियन टन प्रतिवर्ष तक पहुंच गया। सही मायने में देश को खाद्यान्नों से आत्मनिर्भर बनाने में रासायनिक उर्वरकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

सिल्वर क्रांति


हमारे देश में काफी बड़ी तादाद में लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुर्गी पालन से आय प्राप्त करते हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक 50 फीसदी से अधिक भूमिहीन श्रमिक पशुपालन, विशेष रूप से मुर्गी पालन से अपनी आजीविका चलाते हैं। देश में अंडा उत्पादन एवं मुर्गी पालन को बढ़ावा देने के लिए सिल्वर क्रांति की शुरुआत की गई। मुर्गियों से अधिक अंडे व मांस उत्पादन के लिए देश में 5 बड़े कुक्कुट फार्म बंगलौर, मुंबई, भुवनेश्वर, दिल्ली और शिमला में स्थापित किए गए। यहां पर उन्नत नस्ल की मुर्गियों को आयात कर संकरण द्वारा उम्दा नस्ल की मुर्गियों का विकास किया गया। सरकार के अथक प्रयास का परिणाम है कि आज देश का मुर्गी व्यवसाय विश्व का सबसे बड़ा व तेजी से बढ़ने वाला क्षेत्र बनकर उभरा है।

सन् 1950-51 में अंडे की उपलब्धता प्रति व्यक्ति/वर्ष मात्र पांच थी जो आज बढ़कर 41 हो गई है। इस तरह से देश में अंडे का कुल उत्पादन लगभग 48 बिलियन और कुल चिकन का उत्पादन लगभग 1.90 मिलियन मीट्रिक टन तक पहुंच गया है। आज भारत का अंडा उत्पादन में विश्व में चौथा स्थान है। दस प्रमुख ब्यालर उत्पादन देशों में भी भारत का प्रमुख स्थान है। आज देश का मुर्गी पालन का व्यवसाय 13 फीसदी वार्षिक की दर से वृद्धि कर रहा है। शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी मुर्गी पालन का व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है। भविष्य में इस व्यवसाय के और फलने-फूलने की पूरी संभावनाएं हैं।

सुनहरी क्रांति


इस क्रांति का संबंध देश में बागवानी फसलों का भरपूर उत्पादन लेने से है, विशेष कर सेब उत्पादन से देश में प्रतिवर्ष लगभग 184.9 मिलियन टन फल तथा सब्जियों का उत्पादन होता है जिसमें विभिन्न तरह की सब्जियों का 113.5 मिलियन टन एवं फलों का 54.4 मिलियन टन का कुल योगदान है। इस तरह से दुनिया में भारत का फलों एवं सब्जियों के उत्पादन में दूसरा स्थान है।

अभी दुनिया में सर्वाधिक फलोत्पादन ब्राजील में तथा सब्जियों का उत्पादन चीन में होता है। आम, केला, नारियल, काजू, सपोटा एवं मसालों की फसलों के उत्पादन में तो प्रथम स्थान है। हमारे देश में काफी बड़े क्षेत्रफल पर फलों एवं सब्जियों की खेती की जाती है। एक अनुमान के मुताबिक 3.73 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल पर फल एवं 6.09 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल पर सब्जियों की खेती की जाती है। पिछले एक दशक में फलों के उत्पादन में 37 फीसदी और सब्जी उत्पादन में 33 फीसदी की दर से वृद्धि हुई। उत्पादन में इतनी वृद्धि के बावजूद फलों एवं सब्जियों को पोषक मान के अनुसार 85 ग्राम फल व 300 ग्राम सब्जी प्रति व्यक्ति/दिन को दृष्टि देश अभी उपलब्ध नहीं करा पा रहा है।

इस दिशा में प्रयास के लिए राष्ट्रीय बागवानी मिशन की शुरुआत सन 2005-06 में की गई। इस मिशन का परिव्यय 23 अरब रुपए है जिसका मुख्य उद्देश्य क्षेत्र पर आधारित बागवानी के समग्र विकास से है। इस मिशन का लक्ष्य 2011-12 तक समग्र बागवानी उत्पादन को 300 मिलियन टन करने का है। लेकिन इसका एक दुखद पहलू यह है कि देश के कुल फल एवं सब्जी उत्पादन का लगभग 30 फीसदी प्रसंस्करण की समुचित सुविधा न होने के कारण प्रतिवर्ष बर्बाद हो जाता है। इस दिशा में अभी काफी प्रयास करने की जरुरत है। देश में प्रतिवर्ष होने वाली फलों एवं सब्जियों की बर्बादी को प्रसंस्करण आधारित इकाइयों को स्थापित कर होने वाली हानि को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

इन्द्रधनुषी क्रांति


इक्कीसवीं सदी में देश की बढ़ती जनसंख्या को मद्देनजर रखते हुए वर्ष 2000 में एक नई राष्ट्रीय कृषि नीति का मसौदा तैयार किया गया। इस कृषि नीति के तहत जोर दिया गया कि देश के समूचे कृषि उत्पादों को आगामी दस वर्षों में दो गुना किया जाएगा। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए खाद्यान्न उत्पादन दर को 4 फीसदी वार्षिक वृद्धि दर से निर्धारित किया गया है। इस नई कृषि नीति को ही इन्द्रधनुषी क्रांति के रूप में शुरू किया गया है। इस क्रांति का आशय है कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से देश में अब तक विभिन्न क्रांतियों जैसे हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, पीली क्रांति, गुलाबी क्रांति, गोल क्रांति, नीली क्रांति, सिल्वर क्रांति, सुनहरी आदि क्रांतियों को एक साथ समग्र रूप से लेकर चलना होगा। इसी को इन्द्रधनुषी या सतरंगी क्रांति की संज्ञा दी गई।

इस क्रांति का उद्देश्य बहुत वृहद है। आने वाले समय में देश को भारी मात्रा में खाद्यान्न, फल, सब्जी, दूध, अंडा, मीट एवं खाद्य तेलों की आवश्यकता पड़ेगी जिसकी पूर्ति करना इतना आसान न होगा। ऐसे में इन्द्रधनुषी क्रांति को शत प्रतिशत बनाना ही एक विकल्प नजर आता है।

(लेखक कृषि संकाय, उदय प्रताप स्वायतशासी महाविद्यालय, वाराणसी में प्रवक्ता हैं)
ई-मेल : dr_jitendrasingh@sify.com

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