कृषि समस्या का निर्धारण

बाढ़ के बाद जिन इलाकों में पानी पहले निकल जाता है उसमें भवानी प्रजाति की सरसों लगाने का प्रयोग पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुआ है। 60-85 दिन में तैयार होने वाली यह फसल अक्टूबर मध्य तक लगाई जा सकती है और गेहूँ आदि की फसल लगाये जाने के पहले काट ली जा सकती है। अतः बाढ़ के बावजूद धान, तेलहन और रबी की फसल बिना किसी विशेष परेशानी के पैदा की जा सकती है। इस तरह के प्रयासों को संगठित करने की जरूरत है। आज जैसी परिस्थिति है उसके अनुसार राज्य के निचले इलाकों में से बाढ़ का पानी काफी देर से निकलता है मगर अधिकांश क्षेत्र नवम्बर के मध्य तक सूखने लगते हैं। उसके बाद ही रबी फसल की तैयारी हो पाती है। उधर मई महीने के मध्य से हिमालय में बर्फ का पिघलना तेजी से शुरू होता है जिसकी वजह से बहुत सी हिमपोषित नदियों में नया पानी आने लगता है। कभी-कभी निचले इलाकों में इस बर्फीले पानी से भी चौर भरने लगते हैं। इस तरह से हमारे पास नवम्बर मध्य से लेकर मई मध्य तक का समय ऐसा बचता है जिसमें अधिकांश जमीन बाढ़ से मुक्त रहती है। इसलिए हम ऐसी फसलों की तलाश करें जो इसी अवधि में बो कर काटी जा सकें और जिनके लिए सतही पानी की कम से कम आवश्यकता हो। ऐसा इसलिए कि राज्य में सिंचाई की व्यवस्था चौपट है और बिजली की आपूर्ति भी उसी गति को प्राप्त हो गई है। जैसे हालात बना रहे हैं उसमें जल्दी कोई सुधार होता नहीं दीखता। डीजल आधारित सिंचाई व्यवस्था बहुत ही महंगी है और अधिकांश किसान इसका खर्च नहीं उठा सकते। खर्च उठा लेने की स्थिति में भी कृषि उपज की लागत में तो फर्क पड़ेगा ही।

उत्तर बिहार के अधिकांश हिस्सों में किसान खेतों में कई फसलें एक साथ उगाते हैं और मूंग, मक्का और धान एक ही बार में फरवरी के अंत/मार्च के प्रारंभ में खेतों में बो दिया जाता है। बाढ़ जल्दी आ जाने पर धान पर तो खतरा रहता है मगर मूंग और मक्का आम तौर से बाढ़ के पहले घर आ जाता है। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के बाढ़ वाले इलाके के चैरों में कुछ रबी खेती के प्रयोग हुये हैं। यहाँ चौरों के जल-निकासी की व्यवस्था की गई और जैसे-जैसे जमीन पानी से निकलती गई उस पर रबी फसल लगा कर आबाद किया गया और चैर में बचे पानी से इस फसल की सिंचाई की भी व्यवस्था कर ली गई। उत्तर बिहार में रबी के मौसम में धान की गौतम प्रजाति ने उत्पादन के अच्छे संकेत दिये हैं।

इधर उत्तर प्रदेश के सरयूपार के मैदानों में धान की एक नई प्रजाति नरेन्द्र 97 का प्रचार बढ़ा है। यह धान अप्रैल के अंत या मई के प्रारम्भ में लगाया जाता है और 15-25 जुलाई के बीच, आमतौर पर बाढ़ के प्रकोप से पहले, काट लिया जाता है। इस तरह रबी में गेहूँ की फसल के बाद धान के फसल की संभावनाएँ बन जाती हैं। धान की इस प्रजाति को सिंचाई के लिए पानी की बहुत आवश्यकता नहीं पड़ती। इसी तरह बाढ़ के बाद जिन इलाकों में पानी पहले निकल जाता है उसमें भवानी प्रजाति की सरसों लगाने का प्रयोग पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुआ है। 60-85 दिन में तैयार होने वाली यह फसल अक्टूबर मध्य तक लगाई जा सकती है और गेहूँ आदि की फसल लगाये जाने के पहले काट ली जा सकती है। अतः बाढ़ के बावजूद धान, तेलहन और रबी की फसल बिना किसी विशेष परेशानी के पैदा की जा सकती है। इस तरह के प्रयासों को संगठित करने की जरूरत है।

बरसात के मौसम में बाढ़ों के बार-बार आने से अक्सर धान बह जाया करता है। इसकी नई रोपनी के लिए बिचड़ा तैयार करने में प्रायः तीन सप्ताह का समय लग जाता है। रोपनी में इस देरी का असर फसल के उत्पादन पर भी पड़ता है। बांग्लादेश के किसान बांस के बनाये हुये तैरने वाले प्लेटफॉर्म पर मिट्टी रख कर धान का बिचड़ा बाढ़ के समय तैयार रखते हैं। किसी बड़े पेड़ आदि से बंधे यह प्लेटफॉर्म बाढ़ के समय पानी पर तैरते रहते हैं। उत्तर बिहार के गाँवों और कस्बों में पक्के घरों की छतों पर भी धान के बिचड़े की क्यारियाँ लगाने की कोशिशें हुई हैं। बाढ़ उतरने पर इसमें जमे बिचड़े का उपयोग दूसरी जगह किया जा सकता है। बालू पड़ गई जमीनों पर ककड़ी, खरबूजा, तरबूज, खीरा आदि फसलें उगाई जा सकती हैं। इन फसलों के पारम्परिक खेतिहर इस काम में बहुत मदद पहुँचा सकते हैं। आम तौर पर खेतों में बालू पड़ा देख कर किसान भयभीत हो जाते हैं। कृषि विभाग, स्वयं सेवी संस्थाओं और प्रबुद्ध नागरिकों की भूमिका बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों की कृषि में बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। संघर्ष से हट कर यह एक रचनात्मक काम है और स्वयं सेवी संस्थाओं को यह काम करना चाहिये।

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Post By: tridmin
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