उर्वरक व कीटनाशकों से मुक्ति का एक ही उपाय है, वह है जैविक खाद। कम्पोस्ट खाद, केंचुआ खाद, मानव मल की खाद और हरी खाद के अलावा गौमूत्र, गुड़ आदि के मिश्रण से जैविक खाद बनाने जैसे कई प्रयोग इधर चर्चा में आये हैं; इन्हें अपनायें। मवेशियों की संख्या बढ़ायें। हालाँकि यह कहना अन्याय होगा कि सरकार न तो फसली उत्पाद का न्यूनतम समर्थन खरीद मूल्य बढ़ायेगी और न ही न्यूनतम समर्थन खरीद मूल्य पर अधिकतम फसल की खरीद सुनिश्चित करेगी, बेहतर हो कि किसान अपने उत्पादन की लागत घटाये; लेकिन सरकारी रवैये और कर्ज माफी से संतुष्ट हो जाने के रूप में किसान संगठनों द्वारा पेश नरमी का यथार्थ यही है। यथार्थ यह भी है कि न्यूनतम समर्थन खरीद मूल्य को लागत के डेढ़ गुना तक बढ़ाने को लेकर केन्द्र सरकार हाथ खड़े कर चुकी है। हमारी सरकारों की रूचि, न तो न्यूनतम समर्थन खरीद मूल्य के दायरे में शामिल फसलों की सरकारी खरीद की क्षमता बढ़ाने में है और न ही किसान को न्यूनतम समर्थन खरीद मूल्य से कम पर फसल बेचने के लिये विवश करने वाले खुले बाज़ार पर सख्ती बरतने में।
इसके लिये सरकारों के अपने तर्क हैं। उत्पादक से उपभोक्ता के बीच सक्रिय दलालों के मुनाफे को नियंत्रित करने में भी सरकारों की कोई खास रूचि दिखाई नहीं दे रही। यह रूचि पैदा करना ज़रूरी है। इसके लिये जन दबाव बनाने के जो भी शांतिमय तरीके हों; आजमाने चाहिए। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकार और बाज़ार....दोनों ही कभी भी किसान के नियंत्रण में नहीं रहे। जब तक किसान अपनी फसल के भण्डारण की स्वावलंबी क्षमता हासिल नहीं कर लेता; तब तक आगे भी ऐसी कोई संभावना नहीं होने वाली; लिहाजा, सरकार, कर्ज़ और बाज़ार के भरोसे खेती करना अब पूरी तरह जोखिम भरा सौदा है। अतः यह ज़रूरी है कि फसल उत्पादन लागत में घटोत्तरी के उपायों पर अमल शुरू हो। यह कैसे हो?
कृषि में लागत मूल्य के मुख्य 10 मद हैं: भूमि, मशीनी उपकरण, सिंचाई, बीज, खाद, कीट-खरपतवारनाशक, मड़ाई, भण्डारण, समय और आवश्यकश्रम। जो भूमिहीन किसान, दूसरों के खेत किरायेदारी पर लेकर खेती करते हैं, उनकी भूमि किरायेदारी लागत घटाने के लिये जबरन किया गया कोई भी प्रयास अंततः सामाजिक विद्वेष खड़ा करने वाला साबित होगा। जैसे-जैसे खेत मालिक की शर्त पर श्रम की उपलब्धता घटती जायेगी, यह लागत स्वतः कम होती जायेगी; यह भरोसा रखें।
दूसरा पहलू देखें तो सस्ते श्रम की उपलब्धता घटने से खेती में श्रम की लागत बढ़ी है। इसका एक पक्ष यह भी है कि बुआई, सिंचाई, निराई, कटाई, मड़ाई आदि के जो काम मानव श्रम से संभव थे, अब उन्हें आधुनिक मशीनी उपकरणों से करने की बाध्यता है। किंतु भारत के ज्यादातर किसानों के पास कृषि जरूरत के सभी उपकरण खरीदने की क्षमता नहीं है। इस तरह आधुनिक मशीनी उपकरण, बड़े किसान के लिये तो एक मुश्त लागत का मद है, लेकिन छोटे किसानों को हर फसल पर इनके सेवा ठेकेदारों को दाम चुकाना पड़ता है, जोकि काफी अधिक होता है। हमारे वैज्ञानिक व इंजीनियरों ने सस्ते, स्वावलंबी और लंबी आयु वाले कृषि उपकरण ईजाद तो कई किए, लेकिन इनमें से ज्यादातर के व्यापक उत्पादन को सरकारों ने प्रोत्साहन नहीं दिया। बायोवेद संस्थान, श्रृंगवेरपुर (इलाहाबाद) में एक बैल मात्र चलने वाला कोल्हूनुमा ट्यूबवैल बिना बिजली-डीजल तीन इंच पानी देता है।
सरकार, बिजली में तो सब्सिडी देती है, लेकिन बिना बिजली चलने वाले उपकरणों को प्रोत्साहित करने में दिलचस्पी नहीं रखती। बिना मवेशी, बिजली, ईंधन चलने वाले ‘मंगलसिंह टरबाइन’ को ईजाद करने वाले किसान मंगलसिंह (जिला ललितपुर, उ.प्र.) को तो उलटे हतोत्साहित किया गया। शेष जो कृषि उपकरण उद्योग पतियों और व्यापारियों की शरण में पहुँचे, वे किसान तक महँगे होकर ही पहुँचे। लिहाजा, कृषि मशीनी उपकरण खरीद और उपयोग लागत घटाने का तात्कालिक उपाय यही है कि किसान मशीनी उपकरण खरीदे तथा रखरखाव की सामिलात व्यवस्था करें। सामिलात व्यवस्था होगी, तो एक ही उपकरण 20-25 किसानों के काम आ सकेगा। उपकरण खराब होने पर ठीक करने के हुनर को भी किसान समूहों को खुद ही हासिल करना होगा। इससे लागत घटेगी; साझा बढ़ेगा।
साझा बढ़ते ही लागत घटोत्तरी के कई मार्ग स्वतः खुल जायेंगे। मेरे पास श्रम है, आपके पास ट्युबवेल। मैं आपकी दो बीघा खेत में गेहूँ की बुआई, कटाई, मड़ाई मुफ्त कर दूँगा, आप मेरे दो बीघा गेहूँ की तीन सिंचाई मुफ्त कर देना। आप मुझे सरसों के अच्छे बीज दे देना; मैं आपको मटर के अच्छे बीज दे दूँगा। इसी तरह उपज की खरीद-फरोख्त भी बाज़ार की जगह, पहले आपस में होने लगेगी। इससे लागत घटेगी और मुनाफा बढ़ेगा। पारम्परिक खेती और बार्टर पद्धति का सद्गुण यही था।
श्रम लागत बढ़ाने वाले कुछ और कारणों को समाप्त करना ज़रूरी है, जिनका प्रवेश ट्रैक्टर और बाजारू बीज के साथ हुआ। कल्टीवेटर युक्त ट्रैक्टर यदि पूरे खेत में तीन बार जुताई करता है, तो इस दौरान वह किनारों पर कई गुना अधिक बार घूम जाता है। परिणाम यह होता है कि किनारे दब जाते हैं। खेत किनारे से ढाल हो जाता है। लिहाजा, हर दो-चार साल बाद रोटाबेटर लगाकर खेत को समतल कराने के लिये काफी अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है। रोटाबेटर की जुताई महँगी भी है। उग आई घास को कतरने के लिये लोग रोटाबेटर से जुताई की सलाह देते हैं। यदि घास पहले से एकदम सूखी न हो, तो कतरी घास कई गुना होकर पनपती है और लागत खर्च ज्यादा बढ़ाती है। हल-बैल से जुताई, इसका एक समाधान है। जुताई उपकरण के डिज़ाइन तथा जुताई के तरीके में सुधार कर भी इस अतिरिक्त श्रम खर्च को घटाया जा सकता है।
खर-पतवारों की अधिकता ने भी श्रम लागत बढ़ाई है। जिस इलाके में जो खर-पतवार कभी नहीं होते थे, खेत अब उनसे पटे पड़े हैं। कारण, षडयंत्र है। ये खर-पतवार, कंपनियों द्वारा उर्वरकों तथा बीजों में मिलावट कर खेतों तक पहुँचाये जा रहे हैं; ताकि कंपनियों की खर-पतवार नाश करने वाले जहरीले रसायन बिके। जो किसान, इन जहरीले रसायन से बचे रहना चाहते हैं, उन्हें मानव श्रम लगाकर खर-पतवार उखाड़ते हैं। स्पष्ट है कि बचत तभी हो सकती है जब बाज़ार से उर्वरक और बीज न खरीदने पड़े। यदि ऐसा हो गया तो बीज और उर्वरक मद में लागत खर्च तो स्वतः घट जायेगा। उपाय साधारण है, लेकिन धीरज चाहिए।
शुरुआत में देसी बीज संजोने से संभव है। हर गाँव की बूढ़ी अम्मा यह कला जानती हैं, उनसे सीखें। मिश्रित बीज बोयें। मतलब यह कि गेहूँ की बुआई करनी है, तो एक खेत में गेहूँ के ही कम से कम दो तरह के देसी बीज मिश्रित करके छींट दें। उनसे जो फसल पैदा होगी, वह स्वतः उन्नत किस्म की होगी प्राप्त फसल को अगले वर्ष बीज के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा। ऐसे प्रयोग लगातार करें और जाँचें। यदि देसी बीज उपलब्ध नहीं है, तो बाज़ार से ऐसा-वैसा बीज खरीदने की बजाय, ‘ब्रीडर सीड’ व ’फ़ाउंडेशन सीड’ ही खरीदें; ताकि आप अपनी भावी ज़रूरत का बीज खुद तैयार कर सकें।
उर्वरक व कीटनाशकों से मुक्ति का एक ही उपाय है, वह है जैविक खाद। कम्पोस्ट खाद, केंचुआ खाद, मानव मल की खाद और हरी खाद के अलावा गौमूत्र, गुड़ आदि के मिश्रण से जैविक खाद बनाने जैसे कई प्रयोग इधर चर्चा में आये हैं; इन्हें अपनायें। मवेशियों की संख्या बढ़ायें। मवेशियों की संख्या बढ़ाने के लिये चारे वाले पौधे व फसल तो लगायें ही, मवेशियों को उनके चारागाह लौटायें। जैसे ही किसान खेत से रासायनिक उर्वरक हटायेगा; जैविक खाद तीन लाभ साथ लायेगी। जैविक खाद, केचुओं आदि भू-जीवों को न्योता देकर ऊपर बुला लेती है। लिहाजा, आप देखेंगे कि मिट्टी की उर्वरकता हर साल घटने की बजाय, बढ़ने लगेगी। जैविक खाद, मिट्टी के ढेलों को बाँधकर रखती है। लिहाजा, कम सिंचाई में भी खेत में ज्यादा लंबे समय तक नमी बनी रहेगी। बहुत संभव है कि एक बारिश होने पर सरसों, चना, मटर जैसी फसलें बिना सींचे ही होने लगे। इससे सिंचाई खर्च घटेगा। कीटनाशक को खेत से बाहर करने के तीन साल के भीतर अपने बच्चों को कीट खिलाकर पालने वाली गौरैया जैसी चिड़ियाँ वापस लौट आयेंगी। इसके व्यापक लाभ होंगे।
किसान का सबसे ज्यादा खर्च समय और सिंचाई के रूप में होता है। नीलगाय, जंगली सुअर आदि जीवों को यदि उनके जंगल, झुरमुट और पेयजल स्रोत लौटा दिए जायें तो रखवाली में जाया होने वाला समय स्वतः बच जायेगा। महाराष्ट्र आदि में आज ऐसे इलाके कई हैं, जहाँ सिंचाई के लिये पानी 750 फीट गहरे से ऊपर लाना होता है। जलसंचयन स्रोतों, छोटे बरसाती नालों, नदियों और इनके किनारे झड़ियों-जंगलों के पुनर्जीवित होते ही हम पायेंगे कि भूजल स्तर स्वतः ऊपर उठ आया। मेड़बंदी ऊँची हो; खेत समतल हो; बूँद-बूँद सिंचाई तथा फव्वारा जैसी अनुशासित सिंचाई पद्धतियाँ इस्तेमाल हों, तो कम पानी में पूरे खेत में सिंचाई संभव है। स्पष्ट है कि इन कदमों के उठते ही सिंचाई लागत में अप्रत्याशित घटोत्तरी देखने को मिलेगी। इस दिशा में सरकारों के कुछ कार्यक्रम हैं। उनका लाभ सभी तक कैसे पहुँचे; इसके लिये कुछ लोग, पंचायतों को सक्रिय करने में लगे तो कुछ बिना किसी की प्रतीक्षा किए खुद शुरुआत करने में। यह भी भारत के अन्नदाता की रक्षा का एक आंदोलन ही होगा। इसमें हिंसा नहीं, साझा, सहकार और स्वावलंबन फैलेगा।
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